Sunday, 31 October 2021

भगवान राम की सगी बहन: भगवती शांता

 मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता


 प्रबंध काव्य

रचयिता 


दिनेश चन्द्र गुप्ता ' रविकर'

पटरंगा मंडी, अयोध्या

(उत्तर प्रदेश )


* निवेदन*


 हरिगीतिका छंद 


शांता सुता , दशरथ पिता हैं , मातु कौशल्या रहीं।

श्रृंगी मिले पति रूप में, हैं लोकगाथा कुछ कहीं।

श्रीराम की भगिनी मगर, तुलसी महाकवि मौन हैं।

विद्वान - विदुषी पूछते, 'यह देवि शांता कौन हैं.?'


समगोत्र थे माता - पिता, गोत्रीय दोषों का असर ।

दिव्यांग शांता से गई-चम्पावती की गोद भर ।। 

सम्पूर्ण वर्णन के लिए, माँ  शारदे ! तू शक्ति दे । 

माँ ! धृष्टता कर दे क्षमा , सच्ची - सरस अभिव्यक्ति दे ।


* राधिका छंद*


हे राम - भक्त हनुमान , भक्त तव रविकर। 

सुन लो मम आर्त - पुकार , रमापति प्रभुवर। 

वह एक मात्र प्रिय बहन , सहोदरि रामा।

है उन्हें समर्पित काव्य, रचूँ  निष्कामा ।

अनुमति दिलवाकर शीघ्र , काव्य रचवाओ।

है कवि की मति अति-तुच्छ , स्वयं आ जाओ।

अब कृपा करो हे नाथ , जुटे संसाधन। 

जय -  जय - जय शांता देवि , करूँ आराधन। 


* सोरठा *

वन्दौं पूज्य गणेश , एक दंत हे गजबदन ।

जय - जय - जय विघ्नेश , पूर्ण कथा करु पावनी।।


वन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ , कृपा पाय के मूढ़ - मति।

अति गँवार ठठ-ठेठ , काव्य - साधना में रमा।।


गोधन - गोठ प्रणाम , कल्प - वृक्ष गौ - नंदिनी।

गोकुल चारो धाम , गोवर्धन - गिरि पूजता।।


वेद - काल का साथ , सिन्धु सरस्वति जाह्नवी।

ईरानी हेराथ , है सरयू समकालिनी।।


राम - भक्त हनुमान ,  सदा विराजे अवधपुर।

सरयू होय नहान , मोक्ष मिले अघकृत तरे।।


करनाली का स्रोत, मानसरोवर के निकट ।

करते जप - तप होत्र , महामनस्वी विचरते।।


क्रियाशक्ति भरपूर , पावन भू की वन्दना ।

राम - भक्ति में चूर , मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ।।


सरयू अवध प्रदेश ,  दक्षिण दिश में बस रहा।

हरि - हर ब्रह्म सँदेश , स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ।।


पूज्य अयुध  भूपाल , रामचंद्र के पितृ - गण।

गए नींव थे डाल , बसी अयोध्या पावनी।।


द्विगुणित चौपाई 

हैं चौरासी लाख योनियाँ, जीव-जन्तु जिनमें भरमाया।

रहा भोगता एक एक कर, मानव-योनि भाग्यवश पाया।

परिधि तीर्थ की भी चौरासी, कदम-कदम चल पाप नशाया। 

चौरासी का अर्थ समझती, चौरासी अंगुल की काया।


हरिगीतिका छंद 

हो चैत्र की जब पूर्णिमा, तो परिक्रमा हमसब करें।

कुल कोस चौरासी चलें तो पीढ़ियां सारी तरें।।

मखभूमि से समवेत जाते, लौटकर करते विकिर।

आवागमन का चक्र टूटे, छल न पाती मृत्य फिर।।


अक्षय नवम् तिथि मास कातिक कोस चौदह लो टहल।

है दूसरी यह परिक्रमा, हो पूर्ण तो जीवन सफल।

एकादशी शुभ देवउठनी पंचकोसी परिक्रमा।

श्रीराम जी के जन्म-भू की इस परिधि में मन रमा।।


श्रीराम नवमी और सावन-मास के मेले बड़े। 

हनुमत गढ़ी कंचन भवन दशरथ महल मणिगिरि खड़े।

गुप्तार नामक घाट से ही गुप्त होते राम जी।

होता अवध वीरान तब लेकिन पुन: नगरी सजी।।


परवाह कुश ने की तनिक तो  बस गया फिर से नगर।

श्रीकृष्ण जाते रुक्मिणी सह शुभ अयोध्या देखकर।

सँवरा पुन: पावन अवध आदित्य-विक्रम वीर से।

मठ कूप देवालय बने जनगण बसा ऋषि-मुनि बसे।।


प्रतिदिन कतारें लग रहीं श्री राम के दरबार में।

विश्वास-श्रद्धा भक्ति से अति भोर से जनगण जमें।

पावन अयोध्या-धाम में, सरयू प्रवाहित हो रही।

संगम यहीं पर घाघरा का, कर रहा पावन मही।।


 * सोरठा *

माया-  मथुरा साथ , काशी ,  काँची , द्वारिका।

महामोक्ष का पाथ , अवंतिका शुभ अवधपुर ।।


पुरखों का आवास , तीन कोस बस दूर है।

बचपन में ली साँस , नदी किनारे खेलता।।


फागुन में श्री धाम , करें भक्त गण परिक्रमा।

पटरंगा मम - ग्राम , चौरासी कोसी परिधि।।


सरसी-छंद 

सूर्यवंश के उन्तालिसवें, थे दशरथ जी भूप |

दशरथ का रथ-संचालन था, अद्भुत त्वरित अनूप |

मातु-पिता थे इन्दुमती अज, असमय जाते स्वर्ग ।

कर के वंदन ईष्ट-देव का , पढ़िए पाँचो सर्ग।।


*सर्ग -1 भाग-1*


*दशरथ - बाल-कथा*--


 * विधाता छंद *

अयोध्या के महाराजा जिन्हें सब अज बुलाते हैं।

सुबह से इंदुमति को ही बगीचे में झुलाते हैं।

नहीं दरबार जाते वे , महल में भी न आते हैं।

पड़े हैं प्रेम में ऐसे कि शिशु को भी भुलाते हैं।


व्यवस्था हो गई चौपट , गुरूजी हैं बहुत चिंतित। 

प्रजा बेहद दुखी रहती , उपेक्षित हो रहा जनहित। 

महामंत्री करे तो क्या , न होते कार्य  निष्पादित। 

करे उद्धार अब कोई , अयोध्या हो चुकी शापित।।


* दोहा *


क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही , परम सौख्य परितोष।

सुन्दरता पागल करे , मानव का क्या दोष ।।


झूले  मुग्धा  नायिका , राजा  मारे  पेंग ।

वेणी लगती वारुणी ,  रही दिखाती  ठेंग।।


राज  - वाटिका  में  रमे , चार पहर से आय।

तीन मास के पुत्र को , धाय रही बहलाय।।


नारायण नारायणा , नारद निधड़क नाद।

करें गगन से भूप का , रविकर दूर प्रमाद ।।


* विधाता छंद *

गगन से उस बगीचे में , गिराते पुष्प की माला । 

गले में इंदुमति के वो , पड़ी तो खुल गया ताला । 

रही वो स्वर्ग की मलिका , गया भवितव्य कब टाला। 

समय अभिशाप का पूरा , पिला दी भूप को हाला ।।


दोहा छंद 

माँ का पावन रूप भी , सका न उसको रोक।

तीन मास के लाल को , छोड़ गई  सुर-लोक।।


विरही ने जाकर महल , कदम उठाया गूढ़।

भूल पुत्र को कर लिया , आत्मघात वह मूढ़ ।।


 * सरसी छंद *

उदासीनता ऊब उदासी , उहापोह उद्वेग।

उलाहना , उन्मत्त , उग्रता , उन्मादी आवेग। 

दर्द हार गम जीत व्यथा सुख , अश्रु हँसी छल दम्भ। 

जीवन के स्वाभाविक अवयव , कर जीवन प्रारम्भ।


मरने से मुश्किल है जीना , किन्तु न हिम्मत हार । 

कायरता ने किया किसी का , कभी कहाँ उद्धार ।

महत्वकांक्षा शक्ति सम्पदा , द्वेष , मोह , मद , प्यार। 

सम्यक मात्रा बहुत जरूरी , औषधि - सम व्यवहार ।।


* दोहा *

 प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत , माँगे प्यार अपार।

जहाँ  कहीं   देना   पड़े , करे व्यर्थ तकरार।।


माता की ममता छली , करता पिता अनाथ ।

रो -रो कर शिशु जीतता , पाकर सबका साथ ।।


          *****


भाग-2


कौशल्या-दशरथ  


सार छंद 

दुख की घड़ी गिनो मत रविकर, घड़ी घड़ी सरकाओ।

धीरज हिम्मत बुद्धि नियंत्रित, प्रभु को मत बिसराओ।

दिन-रात न डूबे रहो अश्रु में, कभी न खुद को खोना।

समय-चक्र गतिमान रहे नित,  छोड़ो रोना-धोना।।


दोहा छंद 

क्रियाकर्म विधिवत हुआ, तेरह-दिन का शोक ।

आसमान शिशु ताकता, खाली महल बिलोक ||


आँसू  बहते अनवरत, गला गया था बैठ |

राज भवन में थी मगर, अरुंधती की पैठ ||


पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |

विकट समय में पालती, बालक को निष्काम |।


गुरू वशिष्ठ ने कर दिया, नामकरण संस्कार।

दशरथ कहलाने लगे, रविकर राजकुमार।।


सरसी छंद 

बुला महामंत्री को देते, गुरु-वशिष्ठ आदेश। 

महागुरू मरुधन्वा का मठ, काटेगा हर क्लेश। 

बालक को ले जाओ आश्रम, सुंदरतम परिवेश। 

दूध नन्दिनी का पीकर ये, होंगे अवध नरेश।।


सरयू के दोनों तीनों पर, सूर्यवंश के भूप |

दोनों का शासन चलता है, नीति-नियम अनुरूप |

राजा अज से परम मित्रता, रहा परस्पर गर्व |

दुर्घटना से हुआ दुखी मन, मना न कोई पर्व||


अवधपुरी आने लग जाते, प्राय: कोसलराज |

साधु-साधु जनगणमन कहता, रुके न कोई काज |

कोशल सुता वर्षिणी आती, रानी भी हो संग ।

करते सब मिलजुल कर कोशिश, भरे अवध नवरंग ।।


गीतिका

नन्दिनी का दूध पीकर, अन्नप्राशन के लिए। 

उस महल में आ गये, जो साज-सज्जा सब किए।

हो गया सम्पन्न उत्सव, वर्षिणी थी भोर से।

अन्न दशरथ को खिलाई, खिलखिलाई जोर से।।


दोहा छंद 

धीरे-धीरे बीतता, दुख से बोझिल काल |

राजकुँवर भूले व्यथा, बीत गया वह साल |।


सार छंद


सारा कोसलराज्य झूमता, बजती वहाँ बधाई |

पिता बने भूपति दोबारा, नवकन्या मुस्काई।

हर्षित हो वर्षिणी झूमती, छोटी बहना पाकर।

अवधपुरी से सभी पधारे, राजकुँवर खुश आकर.


दोहा

कन्या कोशलराज की, पाई सुंदर नाम.

कौशल्या कहला रही, सद्गुण दिखें तमाम.


हरिगीतिका 

शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए आश्रम पुन: दशरथ गये.

विधिवत शुरू शिक्षा हुई, नित सीखते कौशल नये.

बनते कुशल योद्धा वहाँ, हर शास्त्र-सम्मत नीति पढ़

करते दसों दिश में रथों का वे प्रचालन अति सुघड़.


है शब्द -भेदी वाण के संधान पर उत्तम पकड़.

प्रत्यक्ष युद्धों में उतारें शत्रु की दशरथ अकड़.

उत्थान हो पावन अवध का, एक ही तो ध्येय है.

कण-कण यहाँ का पूज्य है, जनगण परम श्रद्धेय है.


हो राजतिलकोत्सव अवध में, नृप पधारे हैं कई ।

कौशल महीपति भी पधारे, सँग कुमारी आ गई। 

पहचान पक्की हो रही, मजबूत रिश्ता हो रहा।

दोनों कहें कुछ भी नहीं, सुनते मगर सब अनकहा।।


भाग-3


रावण, कौशल्या और दशरथ


सरसी-छंद 

दशरथ-युग में ही जनमा था, रावण सा शैतान |

पंडित ज्ञानी वीर साहसी, कुल-पुलस्त्य का मान ||

शिव-चरणों में नित्य चढ़ाता, काट-काट दस शीश। 

लेकिन कृपा न पाया शिव की, प्रगटे नही सतीश।।


युक्ति दूसरी करे दशानन, मुखड़ों पर मुस्कान ।

छेड़ रहा वीणा  से पावन, सामवेद  की  तान ||

भण्डारी ने किया भक्त पर, अपनी कृपा अपार |

प्राप्त शक्तियों से हो जाते, पैदा किन्तु विकार ||


पाकर शिव-वरदान वहाँ से, जाता ब्रह्मा पास |

श्रद्धा से वन्दना करे तो, होता सफल प्रयास |

ब्रह्मा से परपौत्र दशानन, पाता जब वरदान |

सौंप दिया ब्रह्मास्त्र उसे फिर, अस्त्र-शस्त्र की शान ||


द्विगुणित चौपाई-

शस्त्र-शास्त्र का परम धनी वह, ताकत भी भरपूर बढ़ाया।

मांग रहा अमरत्व दशानन, पर ब्रह्मा ने यूँ समझाया ।

मन की आँखे खोलो रावण, कभी नहीं है ऐसा सम्भव।

मृत्यु सभी की अटल सत्य है, चाहे हो मानव या दानव।


सरसी छंद 

इतना कहकर करते ब्रह्मा, रावण को आगाह। 

कौशल्या दशरथ का होगा, जल्दी ही शुभ व्याह। 

प्रथम-पुत्र के हाथों से ही, होगा तेरा अंत।

ऐसा सुनते ही रावण ने, निश्चय किया तुरंत।


दोहा

चेताती  मंदोदरी, नारी-हत्या पाप |

झेलोगे कैसे भला, भर जीवन संताप ||


सरसी छंद 

रावण के अनुचर निश्चर कुछ ,  पहुँचे  सरयू तीर |

कौशल्या का हरण करें वे, करके शिथिल शरीर |

बंद पेटिका में कर देते, देते जल में डाल |

आखेटक दशरथ ने देखा, हुए क्रोध से लाल ||


झट जाकर निश्चर से भिड़ते, चले तीर-तलवार।

जल-धारा में दशरथ कूदे, गये दैत्य जब हार|

आगे आगे बहे पेटिका, पीछे भूपति वीर |

शब्दभेद से उन्हें पता था, अन्दर एक शरीर ||


बहते बहते गई पेटिका, गंगा में अति दूर। 

लेकिन दशरथ रहे तैरते, यद्यपि थककर चूर| 

बेहोशी छाने से पहले, करता मदद जटायु |

पत्र-पुष्प-जड़-छाल अर्क से, करता सक्रिय स्नायु ||


भूपति की बेहोशी जाती, करे असर संलेप |

गिद्धराज के सम्मुख सारी, कथा कही संक्षेप |

बनो मित्र अब मेरा वाहन, करो सिद्ध यह काम।

पहुँचाओ अतिशीघ्र वहाँ पर, लेकर हरि का नाम।।


बहुत दूर तक उड़े खोजते, पहुँचे सागर पास |

जैसे मिली पेटिका खोली, हुई बलवती आस ||

कौशल्या बेहोश पड़ी थी, साँस रही थी टूट।

नारायण-नारायण नारद, सब यश लेते लूट ।।


नारायण नारायण सुनकर, कौशल्या चैतन्य।

मिल जटायु नारद दशरथ से, राजकुमारी धन्य ||

घटना घटती गंगातट पर, डूब गए छल-दम्भ।

होते एकाकार युगल-मन, पूर्णाहुति प्रारम्भ।।


मुनि नारद भवितव्य जानकर, रखते पूरा ध्यान ।

देकर के उपदेश युगल का,  दूर करें अज्ञान ।|

फिर विधिवत करवाते मुनिवर,  हर वैवाहिक रीत |

दशरथ को मिल जाती ऐसे, कौशल्या मनमीत ||


दोनों को लेकर उड़ पहुँचे, गिद्धराज साकेत|

भावी कड़ी पिरोकर नारद, दे जाते संकेत ||

अवधपुरी फिर सजी स्वर्ग सी, आये कोशलराज |

पुन: वहाँ दुहराये जाते, सब वैवाहिक काज ||


भाग-4


रावण के क्षत्रप


सोरठा


रास-रंग-उत्साह,  अवधपुरी में जम रहा  |

उत्सुक देखे राह, कनक-महल सजकर खड़ा ||


चौरासी विस्तार, अवध-नगर का कोस में |

अक्षय धन-भण्डार,  हृदय-कोष सन्तोष-धन |


कनक-भवन आगार, अष्ट-कुञ्ज थे द्वार सह  |

पाँच कोस विस्तार, वन-उपवन बारह सजे ||


शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज नहान भी |

झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||


चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |

केसर-कदम-तमाल, वन विचित्र नाग्केसरी-||


लौंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |

 वृन्दावन नायाब, उपवन जूही माधवी ||


करें भ्रमण हर शाम, कौशल्या दशरथ मगन |

इन्द्रपुरी सा धाम, करते ईर्ष्या देवता ||


रावण के उत्पात, रहे झेलते साधुजन |

बैठ लगा के घात, कैसे रोके अरि जनम  ||


था मायावी पाश, आया कल ही अवधपुर ।

करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||


सरसी-छंद 

मस्त मगन कौशल्या झूमे, चार दासियों संग।

आया रावण का मायावी, उपवन  जहाँ अनंग।

शाखा पर जाकर छुप जाता, धरे सर्प का रूप। 

सूर्यदेव ने झटपट ताड़ा, पड़ी तनिक जो धूप।।


सिर पर वो फुफकार रहा है, महापैतरेबाज |

शब्द-भेद कर उसे मारते, दशरथ सुन आवाज |

यदा-कदा होते रहते हैं, रावण के षड्यंत्र। 

सूर्य-वंश आगे बढ़ता है, जीवन के शुभ-मंत्र ।।


सूर्यदेव का तेज निराला, गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान ।

सदा-सर्वदा बढ़ा रहा है, अवधपुरी की शान |

सोने की लंका से रावण, करें नित्य उत्पात |

यज्ञ नष्ट करता -करवाता, प्राणान्तक आघात.


रावण सम त्रिशिरा बलशाली, खर-दूषण बलवान |

गुप्त रूप से अवधपुरी में, डालें नित व्यवधान |

मठ आश्रम इत्यादि जलाते, शठ सुबाहु मारीच |

वध कर देते ऋषि-मुनियों का, सरेआम ये नीच ||


भूमि अवध की रहे ताकते, कुत्सित नजर गड़ाय, 

लंका  के अधिपति को नियमित, खबर रहे पहुँचाय ।

कौशल्या को गये मायके, गए मास दो बीत |

दिनकर छुपा पाख भर पूरा, पड़ी गजब की शीत'||


जगह-जगह पर सकल राज्य में, जलने लगे अलाव |

सहन नहीं कर पाते भूपति, रविकर यह अलगाव |

जाते विदा कराने मंत्री, ले सुमंत का मंत्र। 

कौशल्या की मृत्यु चाहता, रचता खर षड्यंत्र ||


लगा स्वयं रथ को दौड़ाने, असली घोड़ा मार ।

अश्व छली लेकर रथ भागा, वह ज्यों हुई सवार |

नहीं सूझता हाथ, हाथ से, धुंध भयंकर छाय |

मंत्री सैनिक रहे हाथ मल, रथ तो भागा जाय ||


बड़ी विकट रथ की गति रविकर, कौशल्या हलकान। 

कोचवान भी नहीं दीखता,  पड़ा मार्ग वीरान |

बंद पेटिका उसे याद थी, समझ गई हालात ।

कूद सुरक्षित गई भूमि पर, खाकर कुछ आघात |।


झाड़ी में जाकर छुप जाती, लुढ़क गई कुछ दूर|

पड़ी रही बेसुध कौशल्या, चोट लगी भरपूर। 

दौड़ाए सैनिक गण जाते, मंत्री चतुर सुजान |

है रानी की किस्मत अच्छी, पथ पर दिखे निशान।


सोरठा छंद 

लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |

नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||


खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |

अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||


रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |

रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||


रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |

वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||


दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |

भेजे धावक ख़ास, समाचार सब जानने ||


भाग-5


रावण का गुप्तचर  


हरिगीतिका छंद 

असफल हुआ षडयंत्र खर का, किन्तु वह लंका गया।

गमगीन मुखड़ा देखकर, आई दशानन को दया।

क्यों हो दुखी, क्या हो गया, कारण बताओ तो सही।

है गर्भ गिरने का कहीं अफसोस तो तुमको नहीं।


किस गर्भ की है बात राजन, खर हुआ आश्वस्त अब।

कैसे हुआ किसका हुआ, आया यहाँ संदेश कब।

गतिमान रथ से कूदती, दौड़ा रहे तुम तेज जब।

आघात कौशल्या सही थी, गिर गया वह भ्रूण तब।।


सार छंद 

सज्जन खुशियाँ बाँटा करते, दुर्जन कष्ट बढ़ाते।

दुर्जन मरकर खुश कर जाते, सज्जन किन्तु रूलाते।

खुशी मनाए सारी लंका, दुखी अयोध्या कोशल।

सुग्गासुर खर के सँग आया, लगा दिखाने छल-बल।।


सरसी-छंद 

समाचार लेकर हरकारे , आये दशरथ पास |

दुघर्टना सुनकर हो जाता, सारा अवध उदास |

पर दशरथ ने धैर्य न खोया, सुना सकल दृष्टांत ।

असहनीय दुष्कर लगता सब, होता चित्त अशांत ।।


गुरुकुल में शावक का मरना, हिरनी आई याद |

अनजाने आहत अंतस ने, चखा दर्द का स्वाद |

आहों से कैसे भर सकते, मन के गहरे घाव ।

समय स्नेह की मरहम-पट्टी शमन करेंगे भाव ।।


गुरु की अनुमति प्राप्त हुई तो, पहुँच गये ससुरार |

कौशल्या की पीर मिटी ज्यों, नैना होते चार |

सूरज ने संक्रान्ति मकर से, दिए किरण उपहार |

कटु-ठिठुरन थमने से रविकर, चमक उठा संसार ||


दशरथ के सत्संग स्नेह से, घटना भूल अनीक |

दवा-दुआ से कौशल्या मन, जल्दी होता ठीक ।।

विदा कराकर आ जाते फिर, राजा-रानी साथ |

जनगण की चिंता घट जाती, होकर पुन: सनाथ ||


दोहा छंद 

शनैः शनै बीता शरद, छोटी होती रात |

हवा बसंती बह रही, होता शीघ्र प्रभात |


सुलेखा छंद 

दिग-दिगंत बौराया | मादक  बसंत आया ||

तोते सदा पुकारे |  मैना मन दुत्कारे ||

काली कोयल कूके | जनगण होली फूंके ||

सरसों पीली फूली | शीत शेष मामूली  ||

भौरां मद्धिम गाये  | तितली मन बहलाए ||

भाग्य हमारे जागे | ऊनी कपड़े त्यागे ||


सार छंद 

पीली सरसों लगी फूलने, हैं प्रसन्न नर नारी।।

कृषक निराई करे कहीं पर, कहीं सिंचाई जारी ||

पौधे भी संवाद परस्पर, करें अनवरत रविकर। 

गेहूं जौ से गले मिले तो, खुशी फैलती घर घर।|


सरसी छंद 

तरह तरह की जीव जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |

लगे विचरने सभी प्रसन्न मन, नए सीखते ढंग |

कौशल्या रह रही मगन-मन, वन-उपवन में घूम ||

धीरे धीरे भूल रही गम, कली-कुसुम को चूम ||


दोहा

पहले कुल पत्ते झड़ें, फिर गिरते फल-फूल।

पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।।


सार छंद 

कौशल्या के नवल-गर्भ की, पूरी रक्षा करना।

दशरथ चिंतातुर दिखते पर, नहीं जानते डरना।

रहे सुरक्षित जातक नारी, सता न कोई पाये।

पिता-पुत्र-पति का संरक्षण, आगे बढ़ मुस्काये।।


तोते कौवे बढ़े अचानक, कम होती गौरैया।

पर रहस्य न समझ सके नृप, रम्भाती क्यों गैया।

पर जटायु को बुलवाते वह, जो झटपट आ जाते।

रहे किन्तु वह छद्म रूप में, शुभचिंतक के नाते।


सरसी छंद 

गिद्ध-दृष्टि रखने लग जाते, बदला-बदला रूप |

अलंकरण सब त्याग दिए थे, खुश हो जाते भूप ||

जान रहे थे केवल दशरथ, होकर रहें सचेत |

अहित-चेष्टा में हैं दानव, खर-दूषण से प्रेत ||


सुग्गासुर अक्सर उड़ आता, राजमहल की ओर |

पर जटायु को देख हटे वह, हारे मन का चोर |

चमक रहा सुन्दर तन लेकिन, रखता छुद्र विचार |

स्वर्ण-पात्र में पड़ी हुई ज्यों, कीलें कई हजार ||


एक दिवस कौशल्या जाती, वन-रसाल उल्लास |

सुग्गासुर की मीठी बोली, आती उनको रास।

माथे पर टीका सुन्दर सा, लेता है मनमोह |

ऊपर से वह भला लगे पर, मन में रखता द्रोह ||


मत्तगयन्द सवैया

बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।

साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।

मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।

दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।


सरसी छंद 

रानी आ जाती फिर वापस, आई अब नवरात |

दुर्गा माँ को पूज रही वे, जाकर नित्य प्रभात।

सुग्गासुर की दृष्टि हमेशा, स्वर्ण हार पर ख़ास |

अवसर पाकर उड़ा एकदिन, लेकिन व्यर्थ प्रयास  ||


देख रहा था उसे गिद्ध वह, करे मार्ग अवरूद्ध |

सुग्गासुर से भिड़ जाता फिर, होकर अतिशय क्रुद्ध |

जान बचाकर भगा वहाँ से, था कच्चा अय्यार ||

आश्रय पाया वह सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||


सार छंद 

रानी पाकर हार दुबारा, अति प्रसन्न हो जाती।

राजा का उपहार हार वह, पहन पुन: मुस्काती।

पूरा करके व्रत नवमी को, नौ कन्या बुलवाती |

धोकर उनके चरण पूजती, पूड़ी-खीर जिमाती ||


दोहा

दारुण होता जा रहा, 'रविकर' दिन का ताप ।

हुए पाँव भारी मगर, कौशल्या चुपचाप ||


गीतिका छंद 

आम इमली भी नहीं, लगते उन्हें स्वादिष्ट अब।

यदि बढ़े चिंता चिता सी, व्यर्थ छप्पन-भोग तब।

स्वयं से संघर्ष कर के, प्राप्त करना है विजय।

अन्यथा हो हानि अपनी, हो न सकता दूर भय।।


दोहा

हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |

कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह।।


भाग-6


शांता जन्म-कथा 


हरिगीतिका छंद 

भयभीत कौशल्या रहे, वह रह रही चिंतित सदा । 

आतंक फैला शत्रु का, कैसे टले यह आपदा । 

कुलदेवता रक्षा करो, इस भ्रूण की तुम सर्वदा । 

अथ देवि-देवों को मनाती, भाग्य में है क्या बदा ॥ 


दोहा 


धनदा-नन्दा-मंगला, मातु कुमारी रूप |

माँ विमला-पद्मा-वला, महिमा अमिट-अनूप ||


जीवमातृका  वन्दना, काट सकल जंजाल |

सुगढ़ जीवमंदिर करो, माता रखो सँभाल ||


हरिगीतिका छंद 

रोती रही रनिवास में रानी सुबह से अनवरत्।

उच्छ्वास भरकर अश्रु से सिंचित करे धरती सतत्।

दरबार से दशरथ घड़ी भर, देर से पहुँचे महल।

दिखती न कौशल्या कहीं, होने लगे भूपति विकल।


कोई न दीपक जल रहा, घेरा अँधेरा है विकट।

फिर देख दशरथ को वहाँ, कुछ दासियाँ आई निकट।

दशरथ कुपित हो डाँटते, थी पास जो दासी खड़ी।

लेकिन सुबकने की तभी आवाज कानों में पड़ी|


होता उजाला कक्ष में, रानी पड़ी थी भूमि पर।

भूपति हुए विह्वल बहुत, यह दृश्य रविकर देखकर।

झट पास जाकर बैठकर, सहला रहे हैं भूप सिर।

पुचकार कर दुलरा रहे, करते प्रदर्शित प्रेम फिर। 


दोहे

 बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |

कौन रुलाया है तुम्हें, किया कौन नाराज ??


बढती जीवन-साँस यदि, जाये निकल भड़ास ।

आँसू बह जाएँ अगर, घटे दर्द अहसास ।।


विधाता छंद

हरे हों जख्म या सूखे कभी जग को दिखाना मत।

गली-कूँचे नगरपथ पर कभी निज दर्द गाना मत।

मिले मरहम नहीं घर में, मगर मिलते नमक-मिर्ची।

बचा दामन निकल रविकर, कभी आँसू बहाना मत।।


सरसी छंद 

मद्धिम स्वर में बोली रानी, यद्यपि हिचकी तेज |

इस बच्चे को कैसे हमसब, बोलो रखें सहेज |

ऐसा सुनकर दशरथ झटपट, लेते अंग लगाय |

कहते चिंता करो नहीं अब, करूं सटीक उपाय ||


सुबह-सुबह दशरथ जा पहँचे , गुरु वशिष्ठ के पास |

थे सुमंत भी साथ भूप के, जिन पर अति-विश्वास |

गुप्त योजना बनी वहाँ पर, शत्रु न पाया जान।

गर्भ सुरक्षित किया गया फिर, काट सकल व्यवधान ||


अगले दिन दरबार सजा था, आया यह सन्देश |

कौशल्या की माता को है, कुछ शारीरिक-क्लेश।

डोली सज तैयार हुई तो, कौला भी तैयार |

छद्म वेश धर कौशल्या का, डाल गले में हार ||


वक्षस्थल पर झूल रहा था, वही पुराना हार |

जिसको लेकर कभी भगा था, सुग्गासुर अय्यार ||

संग चली सेना के डोली, बहती शीतल वायु।

साथ-साथ उड़ता चौकन्ना, सबके साथ जटायु।।


अभिमंत्रित कर राजमहल को, कौशल्या के पास |

गुप्त रूप से कड़ी सुरक्षा, करें दासियाँ दास ।

खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे ठिकाना छोड़। 

डोली के पीछे चल देता, उन सबका गठजोड़।


कौला कौशल्या बन जाती, हैं प्रसन्न अब भूप।

रानी का हित दासी साधे, अभिनय सहज अनूप ||

वर्षा-ऋतु फिर आ जाती तो, सरयू बड़ी अथाह |

दासी तो उत्तर में रहती, दक्षिण में उत्साह ||


देखूँ अब संतान स्वयं की, हुई बलवती चाह |

दशरथ  सबपर  रखें स्वयं भी, चौकस कड़ी निगाह |

सात मास बीते ऐसे ही, गोद-भराई भूल |

कनक महल संरक्षित रहता, रानी के अनुकूल ||


आया फिर नवरात्रि पर्व तो, सकल नगर उल्लास |

गर्भवती रानी ने लेकिन,  नहीं किया उपवास |

आँगन में बैठी बैठी वह, काया रही भिगोय |

शरद पूर्णिमा भी बीती यों, अमाँ अँधेरी होय ।।  


किरीट  सवैया ( S I I  X  8 )

झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ  घर-बाहर ।

दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।

दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।

नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव  जै शिव-शंकर ।।


दोहा छंद 

धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |

शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||


प्रसव-पूर्व की पीर है, रही होंठ वो भींच |

रानी सिसकारी भरे, जान न पाते नींच |


सरसी छंद 

वह तो टहले बड़े कक्ष में, करे नित्य व्यायाम |

पौष्टिक भोजन खाकर करती, हल्के-फुल्के काम |

कोसलपुर में चले अनोखा, दासी का वह खेल |

खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे व्यर्थ ही झेल |।


मास फाल्गुन शुक्ल पंचमी, मद्धिम बहे बयार |

सूर्यदेव हैं जमे शीश पर, ईश्वर का आभार |

पुत्रीजन्म महल में होता, कौशल्या हरसाय |

राज्य ख़ुशी से लगा झूमने, जनगण  नाचे गाय ||


एक पाख उपरांत प्राप्तकर, समाचार दस-सीस |

खर दूषण को डांट पिलाता, सुग्गा सुर पर रीस |

किन्तु जन्म कन्या का सुनकर , रावण पाता चैन |

फिर भी डपटा क्षत्रपगण को, निकसे तीखे बैन || 


छठियारी में सब जन आये, पावें सभी इनाम |

स्वर्ण हार कौला ने पाया, किया काम निष्काम ||

गिद्धराज गिद्धौर गये फिर, कर दशरथ का काम | 

सम्पाती से जाकर मिलते, करते शोध तमाम || 


दोहा

दूरबीन  का कर रहे, वे प्रयोग भरपूर | 

प्रक्षेपित कर यान को, भेजें दूर-सुदूर ||


सरसी छंद 

जच्चा-बच्चा की सेवा में, लगती कौला धाय |

एक पैर को छूते ही वह , सुता उठी अकुलाय |

कौशल्या ने राजवैद्य को, झटपट लिया बुलाय |

जांच परख समुचित कर कहते, तथ्य तनिक सकुचाय |।


एक पैर में अल्पदोष है, लगे न स्वस्थ शरीर । 

सुनकर अप्रिय वचन वाण सम, रानी सहती पीर |

फटा कलेजा महाराज का, निकली मुख  से आह।

कैसे सेहतमंद सुता हो, करने लगे सलाह ।।


सर्ग 2

भाग-1


सम गोत्रीय विवाह


सरसी छंद 

राजकुमारी की पीड़ा से, मर्माहत भूपाल। 

देख-देख कौशल्या विह्वल, राजमहल बेहाल।

राजवैद्य की औषधि भी तो, सकी न स्वास्थ्य सुधार।

कैसा भावी जीवन होगा, क्या सटीक उपचार।।


हरिगीतिका 

तब मार्ग-दर्शन के लिए गुरुगृह स्वयं दशरथ गए ।

कर दंडवत संतान के आसन्न दुख कहते भये ।

गुरुवर कहें कुल वैद्य चर्चित लो बुला संसार के ।

हों वैद्य सारे देश के, हों वैद्य सागर पार के ।।


पीड़ा बढ़ी हद से अधिक मस्तिष्क-मन अकुला रहे।

तब जख्म की वह रोशनाई कथ्य कागज से कहे।

करता हुआ उद्यम मनुज, लगता सदा जग में सही।

सद्कर्म ही पूजा सही, बाकी लगे सब झूठ ही।।


सरसी छंद 

वैज्ञानिक ऋषि वैद्य आदि को, आमंत्रण भिजवाते।

हरकारे आमंत्रण लेकर, दिशा -दिशा में जाते॥ 

नीमसार की पावन-भू पर, मंडप बड़ा सजाया |

श्रावण की पूर्णिमा बीतती, हर आमंत्रित आया ||


सम्मेलन कल से होना पर, होते वैद्य अधीर.

जाँच कुमारी की करते तो, सह न सकी वह पीर |

विषय बहुत ही साफ़-साफ़ था, वक्ता थे शालीन |

सबका क्रम निश्चित हो जाता, हुए सभी आसीन ||


उद्घाटन करने जब आये, अंग-देश के भूप |

नन्हीं बाला का देखा फिर, सौम्य सरस सा रूप |

स्वागत भाषण पढ़ कर करते, राज वैद्य अफसोस |

जन्म-कथा सारी कह जाते, रहे स्वयं को कोस ||


वक्ता-गण फिर रखने लगते, वर्षों की निज खोज |

सुबह-सुबह ही हो जाती थी, परिचर्चा हर रोज |

दूर दूर से आते रहते, नित्य कई बीमार  |

शिविरों में कर रहे वैद्य-गण, उन सबका उपचार ||


दोहा छंद 

रहो छिडकते इत्र सा, मदद दया मुस्कान |

खुशबू सी फैले ख़ुशी, बढ़े जान-पहचान |।


भर जीवन सुनता रहे, देखे दर्द अथाह | 

एक वैद्य की है अजब, सरल-विरल सी राह ।।


चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |

गोत्रज व्याहों की विकट, महाविकलता देन ||


सरसी-छंद 

मातु-पिता कौशल्या-दशरथ, हैं दोनों गोतीय |

अल्पबुद्धि दिव्यांग बदन सम, दे दुष्फल नरकीय |

गुण-सूत्रों में रहे विविधता, अति-आवश्यक चीज |

मात्र खीज पैदा करते हैं, रविकर गोत्रज बीज  ||


 गोत्रज दुल्हन प्राय: जनमे, एकल-सूत्री रोग |

 दैहिक सुख की विकट लालसा, बेबस संतति भोग |

साधु साधु कहने लगते तब, सब श्रोता विद्वान |

सत्य वचन हैं वैद्य आपके, बोले वैद्य महान ||


अब तक के वक्तागण सारे, करके अति संकोच |

मूल विषय को टाल-टाल वे , रखें अन्य पर सोच |

सारे तर्क अकाट्य रखे तो, छाये वहाँ सुषेन |

भारी वर्षा होकर थमती, नीचे बैठी फेन ||


आदर से नृप दशरथ कहते, वैद्य दिखाओ राह |

विषम परिस्थिति में नारद ने, करवाया था ब्याह |

नहीं चिकित्सा शास्त्र बताता, इसका सही उपाय |

गोत्रज जोड़ी सदा सदा से, संतति का सुख खाय ||


दोहा छंद 

इस प्रकार प्रस्तुत करें, बातें वैद्य अनेक ।

ऋष्य विविन्डक ने कहा, मार्ग बचा है एक ॥


संतति हो ऐसी अगर, झेले अंग-विकार |

गोद किसी की दीजिये, रविकर मोह विसार ||


प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |

धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होता जय जय घोष ||


सवैया  

गोतज दोष विशेष लगे, तनया विकलांग बनावत है ।

माँ बिलखे चितकार करे, कुल धीरज शाँति गंवावत है ।

वैद गुनी हलकान दिखे, निकसे नहिं युक्ति, बकावत है ।

औध-दशा बदहाल हुई, अघ रावण हर्ष मनावत है ।।  


सार छंद 

अंगराज दशरथ से मिलकर, करते एक निवेदन। 

शांता हमको सौंप दीजिए, रिक्त हमारा आँगन।

रानी इनकी देवि वर्षिणी, कौशल्या की बहना | 

चम्पारानी उन्हें कहें सब, उनका भी यह कहना ||


बारह वर्ष ब्याह को होते, गोद अभी भी खाली।

डालो सुता गोद में मेरी, कहकर सुता उठा ली।।

कैसे दे दें सुता गोद में, दशरथ का मन भारी ।

निर्णय करना बहुत कठिन है, मन का  मंथन जारी॥  


सरसी छंद 

सहमत हो जाती कौशल्या, चुनी सुता-कल्याण।

लगकर गले कहे बहना से, बसें सुता में प्राण।

रस्म गोद लेने की रविकर, हुई शीघ्र सम्पन्न |

दो दो माता पिता प्राप्त कर, कन्या हुई प्रसन्न।।


दिव्य-अंग की सुता अंगजा, कर ली अंगीकार |

अंगराज दशरथ का करते, बहुत-बहुत आभार |

फिर सुषेन के शिविर पहुँचकर , बोले अवध नरेश |

अब क्या करना होगा मुझको, ताकि कटे यह क्लेश।।


बोले वैद्य सुषेन प्रेम से, सुनिए हे महिपाल |

ऐसी संताने सहती हैं, बीमारी विकराल |

गोत्रज ब्याह कभी मत करिए, इसे दीजिए टाल | 

इसकी स्वीकृति खड़ी करे नित, रविकर बड़े सवाल ||


परिजन लेते गोद अगर तो, रखें अपेक्षित ध्यान |

दोष दूर हो जायेगा यदि, हो सहाय भगवान् ॥

पानी हवा प्रांत जब बदले, गुण नवीन हों प्राप्त। 

संयम विद्या बुद्धि रूप बल, साहस बढ़े पर्याप्त ||


सहज रूप से सफल हुआ अब, रावण का अभियान |

दूर हुआ रनिवास भूप से, विधि का यही विधान |

कोई नया अगर आ जाये, अथवा जाये छोड़।

जीवन परिवर्तित कर देता, वह अस्तित्व झिंझोड़ ।।


दोहा छंद 

नीमसार से सार गह, लौटे अवध नरेश।

लौटे आमंत्रित सभी, अपने-अपने देश।।


चम्पारानी रोमपद, नवकन्या के संग। 

बने अवधपति के अतिथि, अभी न जाते अंग।।


प्रगट करें कृतज्ञता, कौशल्या के भाव ।

हृदय-पटल पर जल रहा, यद्यपि एक अलाव ।।


भाग-2


कन्या का नामकरण


सरसी-छंद 

अंगराज जब चलने लगते, लेकर सकल समाज |

कौशल्या दशरथ कहते हैं, रुको और अधिराज |

चलने की आज्ञा अब दे दो,  राजन हमें विहान |

राज काज का होता हरदिन, मित्र बहुत नुकसान |।


सुबह सुबह तैयार पालकी, अतिथि सभी तैयार |

अंगराज भी रथ पर होते, मय परिवार सवार |

दशरथ विनती कर देते हैं, उनको एक सुझाव |

सरयू में तैयार खड़ी है, बड़ी राजसी नाव ||


जल धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |

चार दिनों की ही यात्रा है, हों मत अधिक अधीर |

चंपानगरी दूर बहुत है, पूरे दो सौ कोस |

उत्तम यह प्रस्ताव मिला है, दिखे न कोई दोष ||


आठ माह की मात्र आयु थी, बदल गया परिवार |

अंग देश को चल पड़ती वह, सरयू अवध विसार |

कौला भी कौला सी चलती, नव-कन्या के संग |

जननी आती याद सतत् तो, करती कन्या तंग।।


पहुंचे उत्तम घाट जहाँ पर, बँधी बड़ी सी नाव |

हर नाविक ही बहुत कुशल है, परिचित नदी बहाव |

बैठ गये सब लोग चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |

घोड़े-रथ तट पर चल पड़ते, लेकर सैनिक चंद ||


धीरे धीरे गति बढ़ जाती, सीमा होती पार |

गंगा में सरयू मिलती है, संगम का आभार |

चार घड़ी रुक पूजा करते, देते नाव बढ़ाय |

मिलजुल कर हर एक वहाँ पर, कन्या को बहलाय।।


परम हर्ष उल्लास प्रेम का, दिखता फिर अतिरेक |

मुख्य घाट जब मिला मार्ग में, अंगदेश का एक |

गंगा तट पर किया सभी ने मज्जन पूजन ध्यान.

नव -कन्या का जनगण करता,  अति स्वागत सम्मान.


हरिगीतिका छंद 

जब खून के रिश्ते कई निभते नहीं संसार में।

जब कोख के जन्मे कई दुश्मन बने व्यवहार में।

रिश्ते बना कर तब निभाने की कला जो सीखता।

वह जीतता रहता सदा इस जिंदगी में, प्यार में।


किलकारती रोती कभी, सोती कभी कन्या जरा।

कौला गई डर पैर पुत्री ने धरा पर जब धरा।

अतिशय प्रभावी है दवा, संलेप गुणकारी मिला।

नियमित मला जाने लगा, चालू रहा फिर सिलसिला।।


सरसी छंद 

फल-फूल वनस्पति नई नई, शीतल नई समीर | 

खान-पान सब नया शुरू है, नई नई तासीर |

अंग देश की हुई बालिका, मंद-मंद मुसकाय |

कंद-मूल फल अन्न प्रेम से, अंगदेश के खाय ||


रानी के सँग खेल रही वह, भूल रही हर क्लेश |

राज-काज के काम नियम से, निबटा रहे नरेश |

एक अनोखा था विवाद उस, ग्राम प्रमुख के पास |

नारि सौतिया डाह दिखाती, उड़ा रही उपहास। ।


सौतेले सह तीन पुत्र कुल, किन्तु न उनका बाप |

दुष्ट बाघ खा गया एक को, सौजा करे विलाप ।

रो रो कर  सौतेले पर वह, लगा रही आरोप |

यद्दपि सुत घायल है अब भी, फिर भी करती कोप।।


लड़ा दिलेरी से यह लड़का, चौकीदार गवाह |

बाघ खींच ले गया पुत्र को, रोक न पाया राह |

लेकिन सौजा सोच रही है, देने को संताप |

सौतेले ने किया स्वयं ही, ऐसा दुर्धुश पाप ||


नहीं चाहती रहे यहाँ पर, अब वह इसके साथ |

ईश्वर की खातिर इसका अब, न्याय कीजिए नाथ |

लाया गया सभा में दालिम, हट्टा-कट्टा वीर |

मुखड़े पर पीलिमा पड़ी थी, घायल पड़ा शरीर ||


सौजा से नृप पुन: पूछते, दालिम का अपराध |

सुनकर ग्राम निकाला देते, रहे किन्तु हितसाध |

चरण छुवो माँ के तुम पहले, ले लो आशीर्वाद। 

चलो हमारे साथ नाव पर, रविकर इसके बाद।।


राजा तो है बड़ा पारखी, है हीरा यह वीर |

पुत्री का रक्षक लगता है, कौला की तकदीर ।

सेनापति से कहें रोमपद, रुको यहाँ कुछ रोज |

नरभक्षी से त्रस्त गाँव यह, करो बाघ की खोज ||


जीव-जंतु जंगल सर सरिता, सागर खेत पहाड़ |

वंदनीय है प्रकृति हमारी,  इनको नहीं उजाड़ |

रक्षा इनकी जो भी करता, उसकी रक्षा सिद्ध |

दोहन करना स्वीकार्य पर, शोषण सदा निषिद्ध ।।


केवल क्रीड़ा की खातिर क्यों , करते हो आखेट |

भरे न शाकाहार कभी क्या, रविकर मानव पेट |

जीव जंतु वे धन्य-धन्य जो, परहित धरें शरीर |

हैं निकृष्ट वे सभी जानवर, खाँय इन्हें जो  चीर ||


नरभक्षी के मुँह लग जाता, जब भी मानव खून |

शीघ्र मारना परमावश्यक, वर्ना कहाँ सुकून |

अगली संध्या में कर जाते, भूपति  नगर प्रवेश  |

अंग-अंग प्रमुदित हो जाता, झूमा अंग-प्रदेश ||


गुरुजन का आशीष लिया फिर, मंत्री संग विचार |

नामकरण का दिवस हुआ तय, अगला मंगलवार |

महा-पुरोहित करें स्थापना, थापित महा-गणेश |

देवलोक से देख रहे हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश |।


रानी माँ की गोद भरी है, चंचल रही विराज |

टुकुर टुकुर देखे वह रह रह, होते मंगल काज |

कौला दालिम साथ साथ ही, राजकुमारी पास |

वे दोनों भी करें परस्पर, स्वयं खास अहसास ||


महापुरोहित लगे बोलने, करे न कोई शोर।

शांता सुन्दर नाम धरा है, देख सुता की ओर।

शांता-शांता कह उठता फिर, वहाँ जमा समुदाय |

मातु-पिता जनगण मन प्रमुदित, कन्या खूब सुहाय ||


विधिवत हो जाता उत्सव जब, विदा हुए सब लोग |

एक दिवस कौला से पूछें, पाकर भूप सुयोग |

शांता की तुम चतुर धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |

दालिम हमको  लगे भला जो, रखे तुम्हे खुशहाल ||


तुमको यदि अच्छा लगता वह, मन में है यदि चाह |

कुछ दिन में ही करवा दूंगा, तुम दोनों का ब्याह |

कौला शरमा जाती सुनकर, गई वहाँ से भाग |

भाग्योदय दालिम का होता, बढ़ा राग-अनुराग |।


दोहा छंद 

कौला-दालिम का हुआ, रविकर शीघ्र विवाह। 

बन शांता का प्रिय युगल, बाँटें प्रेम अथाह ||


विधाता छंद 

परिस्थिति है नई यद्यपि, पुरातन रीति है लेकिन।

समझ बेहद जरूरी है, रहे खुश जिन्दगी हर दिन।

बड़ी ममतामयी कौला, बहुत ही धैर्य वाली है।

समझकर देवि शांता को, अभी तक नित्य पाली है।।


*भाग-3*


शांता के चरण

विधाता छंद

घुटुरवन चल रही शांता, महल में हर्ष छाया है।

कुमारी को सभी घेरे, मगर माँ अंक भाया है।

विनोदी तोतली बोली, सभी को खूब भाती है।

सदा कौला सुबह आकर, उसे औषधि लगाती है।


कराता रोज दालिम ही, उसे व्यायाम हल्का सा।

यही सब नित्य करवाते, हुई फिर बलवती आसा।

चली वह डेढ़ वर्षों में, मगर उम्मीद जगती है।

अवध सन्देश जाता है, अभी वह ठीक लगती है।


सार छंद 

दशरथ कौशल्या आ जाते, रथ को वहाँ उड़ाते।

पग धरते देखा शांता को, दोनो ही हरसाते |

कौशल्या को मौसी कहती, मौसा भूप कहाते।

सरयू-दर्शन का न्यौता दे, दोनो वापस जाते||


रानी के सँग गई अवधपुर, जन-गण-मन हरसाते।

सत्तर प्रतिशत ठीक हुई है, आठ महीना जाते।

कौला भी दालिम की होकर, शांता के सँग जाती।

ईर्ष्या करती कई दासियाँ, उन्हें न कौला भाती ||


प्रेम दया विश्वास आदि के, बनो नही व्यापारी।

दंड भेद भय साम दाम से, बात न बनती सारी।।

स्नेह-समर्पण किया स्वयं ही, मांगे क्यों कुछ आगे।

इच्छाएं कर दफ़न स्वयं की, क्योंकर पीछे भागे।।


सरसी छंद 

मौसा-मौसी आनंदित हैं, शांता रहती मस्त |

दौड़ा-दौड़ा के करती अब, कौला को वह पस्त |

लौटे अंगदेश फिर सारे, एक पाख उपरांत |

रानी में परिवर्तन दिखता, मुखड़ा जलधि प्रशांत ||


प्रथम चरण की धमक सुने नृप, लक्षण ले पहचान |

रानी चम्पावती गर्भ से, एक देह दो जान |

हर्षित भूपति मगन हुए हैं, बढ़ा और भी प्यार |

शांता को सिर पर बैठाकर, करें प्रकट आभार।।


पैरों में पायल की रुन-झुन, कंगन बाजे खूब |

आनंदित माँ-पिता स्वजन सब, गये प्यार में डूब |

शांता से हो जाती माता, किन्तु जरा सा दूर |

कौला देती रही अनवरत्, उसे प्यार भरपूर ||


राजा भी रख रहे आजकल, बेटी का अति ध्यान |

अंगराज को मिल जाती है, एक और संतान |

चम्पारानी पुत्रवती अब, आया राजकुमार। 

नन्हें-मुन्ने पर शांता भी, लुटा रही है प्यार ||


कौला भी माता बन जाती, दालिम बनता बाप |

संग लगे रहते पुत्री के, मिटे सकल संताप |

फिर कौला माँ बनी दुबारा, करे पुत्र वह प्राप्त ।

बनी बहन-भाई की जोड़ी, खुशी चतुर्दिक व्याप्त ||


भाग-4


सृंगी जन्मकथा

विधाता छंद 


बहुत से शोध आश्रम में, विविन्डक रिष्य करवाते।

परा-विज्ञान प्रजनन पर, फलादिक अन्न में माते।

विकट तप से तपस्या से, हिलाते आप इंद्रासन।

तभी तो उर्वशी मोहित, समर्पित कर रही तन- मन।


स्वयं को वह करे प्रस्तुत, विविन्डक शोध करते हैं।

विचरते उर्वशी सँग भी, न पत्नी को अखरते हैं।

हुए आसक्त जब ऋषिवर, निवेदन प्रेम का करते।

उधर वे स्वर्ग के अधिपत, विविन्डक रिष्य से डरते।


कराया रिष्य- पत्नी ने, स्वयं ही ब्याह दोनों का।

हुए खुश इंद्र भी रविकर, उन्होंने भी नहीं रोका।

व्यवस्थित जिंदगी उलझी, उलझता शोध भी थोड़ा। 

चतुर्दिक राह खुलती तो, करे कुछ भूल यह जोड़ा। 


दिया फिर जन्म बेटे को, गई झट स्वर्ग वापस वो।

विविन्डक काम से जाते, गई वो शूल रविकर बो।

उगे थे पुत्र के दो-दो, अजब से सृंग माथे पर।

खरी-खोटी सुनाती है, प्रथम पत्नी उन्हें अक्सर।।

 

लुटाती नेह बेटे पर, छुपाती सृंग मस्तक के।

नदी कोसी किनारे वह, गई ले सृंग वो ढक के।

वहीं अब पल रहे सृंगी, हिमालय की तराई में।

वहीं पर पढ़ रहे एकल, लगे मन हर पढाई में। 


हुई वय ठीक तेरह की, पधारे हैं पिता श्रृषिवर।

रहे अंजान दुनिया से, रही माँ मात्र इस घर पर।

बसे अब सप्तपोखर में, सुहावन दृश्य संगम का।

बहे कोसी बहे गंगा, हुआ आरम्भ आश्रम का।।


सरसी छंद 

सृंगेश्वर की वहीं थापना, सृंगी से करवाय।

तीर्थाटन हित गये विविन्डक, सँग में पत्नी जाय।

जोर-शोर से चहुंदिश फैला, सृंगेश्वर का नाम ।

सपरिवार तब भूप रोमपद , करने गये प्रणाम।।   


शिविर लगा मंदिर प्रांगण में, करते सब विश्राम ।

शांता रूपा बड़ी चंचला, घूम रही निष्काम ।

छोटी छोटी ये कन्यायें, पहुँची आश्रम बीच ।

सृंगी बैठे ध्यान लगाये, दोनों आँखे मीच ।


पर रूपा की शैतानी से, भंग हुआ जब ध्यान ।

देख परस्पर परम-दिव्यता , दोनों ही हैरान ।

सृंगी पहली बार देखते, बाला का यह रूप । 

लगी वेशभूषा दोनों की, उनको परम अनूप ।। 


सार छंद 

सोहे सृंगी सृंग शिखा से, शांता के मन भाये।

परिचय देती उन्हें स्वयं का, जब उनका पा जाये ।

बाल-सुलभ मुस्कान देखकर, तृप्त हृदय हो जाता।। 

ले आती वे उन्हें शिविर में, साथ परस्पर भाता ।।


सरसी छंद 

ऋषि किशोर को आते देखा, करते सब सत्कार । 

तृप्त हुई श्रृंगी की आत्मा, पाकर प्यार-दुलार। 

तीन दिनों का समय मिला है, सृंगी को अनमोल । 

सार्वजनिक जीवन में आये, भाये शांता बोल ।। 


भाग 5 शांता की शिक्षा


हरिगीतिका छंद 

शांता हुई जब सात की तो सोम होता चार का.

भाई बटुक रूपा बहन के साथ भूखा प्यार का. 

कौला नियम से लेप औषधि युक्त लेपे ध्यान से.

दालिम कराता खेल सबको किन्तु कुछ आसान से.


जबसे सुनी वह, सोम गुरुकुल जा रहा गुमसुम हुई.

हँसती न रोती खेलती, तब से न भोजन ही छुई.

गुरुकुल मुझे भी भेजिए, पढ़ना मुझे भी संग में.

माँ कह रही ऐसी व्यवस्था है न रविकर अंग में.


 समझी न कन्या भेद यह, असफल हुई कोशिश सभी.

आचार्य गुरुकुल के पधारे. उस महल में ही तभी.

हल हो गई रविकर समस्या, पढ़ सकेगी वह यहीं.

वे खुद पढ़ाएंगे सुता को, है कहीं जाना नहीं.


विधाता छंद 

शुरू पढ़ना करे शांता, बटुक रूपा वहीं पढ़ते।

गुरूजी नित्य आकर के, सभी कच्चे-घड़े गढ़ते।

बहन के साथ शांता का, बटुक भी ध्यान रखता है।

बँधाकर सूत्र रक्षा का, बटुक मिष्ठान चखता है।


सुबह ही सोम गुरुकुल से, मनाने पर्व आ जाता।

बंधाया सूत्र उसने भी, सभी का साथ है भाता।

विनय प्रभु से करे शांता, हमेशा खुश रहें भाई ।

सभी ने खूब मस्ती की, मगर रूपा नहीं आई।।


सरसी छंद 

दालिम को भूपति देते हैं, जिम्मेदारी गूढ़ |

राजमहल का प्रमुख बना वह, हँसता किन्तु विमूढ़ |

दालिम से कौला कहती है, सुनो बात चितलाय |

भाई को सन्देश भेज कर, लो सबको बुलवाय ||


सुख में अपने साथ रहें सब, रविकर कुल-परिवार |

करो प्रगट आभार मातु का, यही परम सुविचार |

संदेसा भेजा जाता फिर , आई सौजा पास |

बीती बातें बिसराते सब, नया नया अहसास ||


छोटा भाई हृस्ट-पुष्ट है, भाई सा बलवान |

दालिम सा ही दिखे रमण वह, विनयशील इंसान |

रमण अंगरक्षक बन जाता, शांता पास तुरन्त |

रानी माँ भी अति प्रसन्न है, देख शिष्ट बलवंत ||


हरिगीतिका छंद 

रूपा बटुक का ख्याल रखने लग गई सौजा भली।

कौला करे सेवा सभी की, गोद में शांता पली।

रानी कृपा करती सदा, बच्चे बड़े होने लगे।

कोई न उनमें भेद था, सब लग रहे बिल्कुल सगे।


उपचार करते वैद्य को, अब हो चुके थे वर्ष छह।

शांता निरोगी हो गई, जाते मगर कुछ चिह्न रह।

आनंद ही आनंद है, परिवार पूरा हो गया।

अब सोम शांता संग सारे खेल करते नित नया।।


सरसी छंद 

एक दिवस फुर्सत में सारे, करें बैठकर बात। 

घटना बारह वर्ष पुरानी, सौजा का व्याघात। 

सौजा दालिम से कहती है, वह आतंकी बाघ |

कातिक में बारह को मारा, दस न देखते माघ ||


सेनापति ने रात-रात भर, चारा रखा लगाय |

किन्तु पास के एक ग्राम में, गया व्यक्ति को खाय |

वह नरभक्षी पूरा पागल, बनता सबका काल |

पशुओं को वह कभी न छूता, फाड़े मनुज कपाल ||


एक रात जब सभी शिकारी, बैठे घात लगाय |

नारी छाया पड़ी दिखाई, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम जाती फिर, वह नारी निर्भीक। 

आखेटक दल का नायक दे, तब निर्देश सटीक ||


बिना योजना के जा बैठी, लेकर के शमशीर। 

कुछ के हाथों में भाला था, कुछ के धनु पर तीर |

तीन घरी बीती थी यूँ ही, लगी टकटकी दूर |

किन्तु अभी भी आस बँधी है, आये बाघ जरूर ||


फगुआ गाती नारी साया, मधुरिम मादक गीत |

आकृति आते एक दिखी तब, कूकी कोयल मीत |

होते ही संकेत सभी जन, हो जाते तैयार |

घोर विषैले तीर चलाकर, करते बड़ा शिकार  ||


भालों के वे वार भयंकर, बेहद थे गंभीर |

फाड़े छाती दुष्ट बाघ की, माथा देते चीर |

शांता की चिंता बढ़ जाती, बोली दादी बोल |

उस नारी का क्या होता फिर, जिसका कर्म अमोल ||


नहीं बोलती सौजा कुछ भी, मंद मंद मुसकाय |

माँ के चरणों को छूकर के, दालिम बाहर जाय |

सौजा माँ  ऐसे करती है, पूरा पश्चाताप |

निश्छल दालिम हित वर बनता, माँ का वह अभिशाप ||


हरिगीतिका छंद 

शांता मगन पढ़ती रही, कुल आठ वर्षों तक सतत्।

विदुषी बनी संगीत सीखी, वेद पढ़कर अनवरत्।

साहित्य मे भी रुचि रही, सीखी कला गृहकार्य भी।

संवेदना है प्रेम है,  है त्याग भी औदार्य भी।


कल्याणकारी कार्य मे, सहयोग रूपा का मिला।

उपकार करने का शुरू करती यहीं से सिलसिला।

लेकिन अयोध्या के लिए कुछ भी न कर पाई कभी,

रथ भेंट कर दशरथ उसे, रविकर गये वापस अभी।।


रथ साजकर रूपा बटुक के संग शांता घूमती। 

हर प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति से वह झूमती।

प्रति दिन निकलने लग पड़ी  शांता हमेशा शान से।

काका रमण कर्तव्य अपना हैं निभाते ध्यान से।।


*सर्ग 3*

  भाग-1 चिन्तित अवध


हरिगीतिका छंद 

शांता गई खुशियाँ गईं, सारी अयोध्या गमजदा।

कल्याण कैसे हो अवध का, भाग्य में क्या-क्या बदा।

युवराज कैसे प्राप्त हो, चिन्तित रहें दशरथ सदा।

समगोत्रता की कर न सकते वे पुन: कीमत अदा।।


बढ़ता रहा अवसाद यूँ तब बोल कौशल्या पड़ी।

अब ब्याह दूजा कीजिए, यह बोलकर वह तो अड़ी।

तब भूप उनको देखते, आश्चर्य से होकर चकित।

अनुनय करे रानी पुन:, हद से अधिक होकर व्यथित। 


कोई गिला-शिकवा न भूपति मैं करूंगी आप से।

वर्ना न मैं अब जी सकूंगी, पुत्र बिन संताप से।

बहना बना उसको रखूँगी, ढेर सारा प्यार दे।

हो पूर्ण कैसे स्वप्न यह, कोई सबल आधार दे।।


सरसी-छंद 

बड़े-बुजुर्गों से नित मिलते, व्यवहारिक सन्देश |

पालन मन से जो करते हैं, उनके कटते क्लेश |

यही सोचकर चुप रह जाते, दोनों रखते धीर |

कैसे हो कल्याण अवध का, विषय बड़ा गम्भीर ||


दोहा छंद 

अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |

कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||


हरिगीतिका छंद 

अगले दिवस गुरु ने किया, आह्वान दशरथ भूप का।

राजी अवध-पति जब हुए, अभियान आगे बढ़ सका।

संदेश प्रेषित कर रहे, इस व्याह का इस विश्व में।

भूपति सहित सब राह ताकें, खोज जाने कब थमें। 


बहती जहाँ पर पंच-नदियाँ, राज्य कैकय है उधर।

सम्बंध की इच्छा जताते, भेंट भूपति भेजकर।

कैकय महाराजा जिन्हे सब अश्वपति कहते वहाँ।

वे जानते भाषा खगों की, विज्ञ उनसा था कहाँ।


वह रूपसी कन्या सयानी, तेज गुणवंती बड़ी। 

थे सात भाई संग जिनके सैन्य-शिक्षा ली कड़ी।

पर प्यार माता का नहीं था भाग्य में उसके बदा।

बारह बरस पहले किया हठ, हठ न था, थी आपदा।।


सरसी छंद 

घटना है यह एक सुबह की, रहा न कोई काज। 

उपवन में रानी सँग भूपति, रविकर रहे विराज।

हँसे अचानक बड़ी जोर से, सुन चीं-चीं आवाज |

पूछ रही रानी जब कारण, कर देते नाराज।।


भूपति खोलें भेद अगर तो, प्राण जाँय तत्काल |

नहीं छोड़ती त्रिया, त्रिया-हठ, करती बड़ा-बवाल |

भेद खोलकर भूप न चाहें, देना अपनी जान।

इसीलिए रानी कर जाती, कैकय से प्रस्थान |।


संबंधों की बड़ी श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |

ले सशर्त सन्देश लौटता, कैकय से वह दूत |

मेरी पुत्री का बेटा ही, बने अगर युवराज |

खुशी-खुशी स्वागत तब होगा, सिद्ध समझिए काज ||


कौशल्या सहमत हो कहती, बड़ा दिवस है आज। 

कैकेयी रानी बन जाये, पुत्र बने युवराज।।

मुझे न कोई इसकी चिंता, चिंता केवल एक।

मिले एक युवराज अवध को, कहता यही विवेक।।


रानी बन आती कैकेयी, साथ मंथरा धाय |

जिसका कटु-व्यवहार खले तो, महल रहा उकताय |

चार साल का काल गया पर, हुई न मनसा पूर |

सुमति सुमित्रा रानी आई, हुए भूप मजबूर ||


दोहा छंद 

कौशल्या की गोद के, सूख गए जो फूल |

रावण अपनी मौत की, गया कहानी भूल।||


सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |

करे शत्रुता दुष्टता, दशरथ के भी संग ||


युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |

सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||


कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |

करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||


हरिगीतिका

होता पराजित तब असुर, जब युद्ध दशरथ ने किया।

पर जीत कैकेई गई, वरदान दो नृप ने दिया।

स्वीकार कैकेई करे पर गाँठ बाँधी रख लिया।

कालांतरे वरदान ये अभिशाप बन खाये पिया।।


है समय गतिमान कितना नीर सरयू में बहा।

झूठा श्रवण के माँ-पिता का, शाप भी अब लग रहा।

मैं तो तड़पता पुत्रहित, फिर भी न आती मौत क्यों।

तब कह रही हँस भाग्य-देवी, अब रहा नृप न्यौत क्यों।।


भाग-2 वन-विहार

सरसी छंद 

माता सँग गुरुकुल जाती जब, बढ़ता भ्रात विछोह |

दक्षिण की मनभावन शोभा, लेती थी मन मोह |

गंगा के दक्षिण में उपजे, सौ योजन तक झाड़ |

श्वेत-बाघ बहुमूल्य खनिज-वन, झरने-नदी-पहाड़ ||


मन की चंचलता पर चलता,  कहाँ किसी का जोर |

रूपा के सँग रथ लेकर वो, दौड़ी वन की ओर |

पंखो  को  फैलाकर उड़ती, मिला  खुला  आकाश  |

खुद से करने निकल पड़ी वह, खुद की खुदी तलाश ||


वटुक-परम पीछे लग जाता, सका न कोई जान।

अस्त्र-शस्त्र कुछ और नहीं पर, लेता तीर-कमान |

औषधि लेकर कौला सबको, रही भोर से हेर।

जल्दी ही हल्ला मच जाता, रहे सभी जन टेर |।


राजा-रानी लगे खोजने, रमण हृदय हलकान |

बुद्धिहीन सा बदल रहा वह, अपने दिए बयान  |।

अपने-अपने अश्व साजकर, खोजें सब चहुंओर। 

रमण दौड़ता दक्षिण-दिश में, मचा नगर में शोर ||


काका झटपट लगा भागने, बड़े लक्ष्य की ओर |

घोड़ा समझ इशारा दौड़े, बीत चुकी है भोर |

गुरुकुल पीछे गया छूट तो, आई घटना याद |

बाघ देखने की जिद करती, शांता की बकवाद ||


पहियों के ताजे चिह्नों को, पड़े भूमि पर देख |

माथे पर गहरी खिंच जाती, चिंता की आरेख |

आगे जाकर देख रहा वह, झरना एक विशाल |

पड़ी दिखाई खांई केवल, पथ को खाई ढाल |।


पड़े न रथ के चिह्न दिखाई, जैसे गया बिलाय|

अनहोनी की सोच-सोच के, रहा अँधेरा छाय |

उतरा घोड़े से तो पाया, अंगवस्त्र अश्वेत |

आगे बढ़ने पर दिख जाता, रथ फिर अश्व समेत |।


व्याकुलता ज्यादा बढ़ जाती, गया झाड़ियां फांद |

तभी सामने पड़ी दिखाई, गुप्त बाघ की मांद |

जी धकधक करने लग जाता, गहे हाथ तलवार |

एक एक कर आने लगते, मन में बुरे विचार |।


हिम्मत कर आगे बढ़ जाता, आया शर सर्राय |

देखा अचरज से जब उसने, खड़ा बटुक मुसकाय |

बोला तेजी से फिर काका, परम बटुक दे ध्यान |

काका तेरा इधर खड़ा है, ले लेगा क्या जान |।


गीतिका

सुन रमण की टेर दोनों, लड़कियाँ घबरा गईं।

किन्तु जल्दी ही परिस्थितिवश, उधर से आ गईं।

बाघ के ही माँद में बैठी हुई थी अब तलक।

देखना वे चाहती थी बाघ की केवल झलक।।


प्राणघातक थी मगर, इन बच्चियों की यह ललक।

वास्तविकता ज्ञात होने पर गये आँसू छलक।

है घना जंगल बड़ा, खूंखार पशु हैं दैत्य भी।

लो निकल जल्दी यहाँ से, सूर्य डूबेगा अभी।।


सरसी छंद 

काका की फटकार पड़ी जब, नैन बहाते नीर |

किन्तु बाघ की गुर्राहट सुन, काँपा सकल शरीर |

झटपट ताने धनुष-बाण वे, सावधान अत्यन्त |

दिखा न लेकिन बाघ कहीं भी, रथ पर चढ़े तुरन्त।।


शांता रूपा छुप जाती झट, रथ के बीचो-बीच |

खुली जगह पर घोड़ा लाया, इसी बीच रथ खीच |

समाचार गुरुकुल में फैला, बोला शिष्य विशेष।

रथ तेजी से भगा रही जो, परिचित उसका वेष।।


शायद राजकुमारी थी वह, चले सोम के मित्र |

तीर धनुष तलवार उठाये, हरकत करें विचित्र |

रथ की लीक पकड़ कर बढ़ते, मित्रों सह जब सोम।

व्यर्थ भाँजते अस्त्रों को वे, व्यर्थ गुँजाते व्योम ||


उधर बाघ न दिखा किसी को, किन्तु गर्जना घोर |

व्याकुल होकर दिखे भागते, कहीं जंगली ढोर |

घोड़ा भी हिनहिना रहा है, अकुलाता मजबूर |

जैसे पास दौड़ता आता, कोई हिंसक क्रूर |।


गिर-कंदर में गूंज रही है, लगातार आवाज |

भू पर मानो अभी गिरेगी, महाभयंकर गाज |

रमण स्वयं घबराता फिर भी, हिम्मत लिया बटोर |

स्वयं तेज दौड़ाए रथ को, थाम लिया खुद डोर।।


जान बचाकर घोड़ा दौड़े, रथ तो झटके खाय |

जैसे पीछे पड़ा हुआ हो, एक दैत्य अतिकाय |

सचमुच था अतिकाय भयंकर, लेता घेरा डाल |

घोड़ा ठिठका बड़ी जोर से, खड़ा सामने काल ||


रमण बोलते सुनो बटुक तुम, रथ की वल्गा थाम |

मुझे छोड़कर भागो सरपट, हुआ विधाता वाम ||

शांता रूपा देख रही थी, थी परदे की ओट |

आठ-हाथ की देह खड़ी थी, खुद को रही नखोट ||


दोनों की घिघ्घी बँध जाती, लेकिन दालिम-पूत |

तेजी से रथ हांक रहा ज्यों, पाई शक्ति अकूत |

याद रमण को आ जाता वह, दालिम का अहसान |

लड़ा बाघ से जान लड़ाकर, तभी बची थी जान।।


ध्यान-भंग हो उसका कैसे, रमण मारता तीर |

पकड़ हाथ से तीर रमण का, देती नख से चीर |

बोली मैं हूँ विकट ताड़का, मानव खाना काम |

पिद्दी सा तू क्या कर लेगा, व्यर्थ न धनुही थाम।।


साफ़-साफ़ दिख रही उसे अब, भद्दी विकट कुरूप |

पीछे तो है गहरी खाईं, आगे गहरा कूप।

घोड़े पर फिर बैठ वीर वो, लेकर भागा जान |

अपने पीछे उसे लगाया, योद्धा बड़ा सयान |


लम्बे-लम्बे डग रख अपने, करने चली शिकार।

जोर-जोर चिग्घाड़ रही वो, हाथ वक्ष पर मार।

कूद गया फिर रमण नदी में, लम्बी लगा छलाँग। 

गिरते-गिरते बच्चों का हित, लेता प्रभु से माँग।


परम बटुक रथ तेज हाँक कर, लाया बारह कोस।

फिर काका के लिए सभी जन, प्रकट करें अफसोस। 

तभी दिखाई पड़ा सोम तो, उसको मित्रों संग।

रथ पर झट बैठाकर शांता, करे मौनव्रत भंग।।


बैठे-बैठे झटपट उसने, बता दिया सब सार।

लड़ते-मरते काका हमपर, कर जाते उपकार।

गुरुकुल पहुंच गये फिर सारे, हुए सभी आश्वस्त। 

पूरे दिन की भागदौड़ से, सारा गुरुकुल पस्त ।। 


गुरुकुल से सन्देश गया तो, आये अंग नरेश |

मिले सुरक्षित सारे बच्चे, कटे सभी के क्लेश ||

यक्ष वंश की नारि ताड़का, उसके पिता सुकेतु |

उस तप से पैदा होती जो, किया पुत्र के हेतु ||


असुर-राज से व्याह हुआ था, थी ताकत में चूर |

दैत्य सुमाली से संतानें, हुई क्रूर मगरूर |

केेकेसी सी सुता इसी की, सुत सुबाहु मारीच ।

केकेसी रावण की माता, बैठी लंका बीच।।


वही ताड़का उसे दिखी थी, सौजा रही बताय |

पुत्र रमण की मृत्यु हुई तो, तनिक न वह घबराय|

शोक करूँ किस हेतु बताओ, हमें गर्व अनुभूत |

बचा लिया सारे बच्चों को, लगे देव का दूत ||


सबसे प्यारा बटुक हमारा, बना वीर इन्सान |

अच्छी संगत से हो जाता, वह भी आज सयान |

दालिम से भी सौजा कहती, मत कर बेटा शोक |

इसी कार्य के लिए पुत्र यह, आया था इस लोक ||


रो-रोकर शांता करती है, लेकिन पश्चाताप। 

खुद को दोषी मान रही वह, प्राय: करे विलाप।

रोते-धोते बीत गये यूँ, दुख के महिने चार |

वीर रमण वापस आ जाता, ईश्वर का आभार ||


कूदा जहाँ वहाँ पर जल का, था बहाव अति तेज |

बचा ताड़का के चंगुल से, वह बल बुद्धि सहेज।|

पानी में बहता रह जाता, पूरी काली रात |

बहुत दूर वह बह कर आया, पीछे छोड़ प्रपात ||


बेहोशी में पड़ा हुआ था, खा प्राणांतक मार। 

नदी किनारे बहकर आया, किन्तु न मानी हार।

सन्यासी ने कृपा किया तो, हुआ सही उपचार।

महादेव सृंगेश्वर की जय, महिमा अपरम्पार ।।


 भाग-3


सृन्गेश्वर महादेव


मत्तगयन्द सवैया 

नारि सँवार रही घर बार, विभिन्न प्रकार धरा अजमाई ।

कन्यक रूप बुआ भगिनी घरनी ममता बधु सास कहाई ।

सेवत नेह समर्पण से कुल, नित्य नयापन लेकर आई ।

जीवन में अधिकार घटे, करतव्य सदा भरपूर निभाई ।। 


कुण्डलियाँ छंद 

बहना विश्वामित्र की, सत्यवती शुभ नाम |

षोडश सुन्दर रूपसी, रिचिक-राज की बाम।

रिचिक-राज की बाम,वृद्ध वाचाल बड़ा था। 

गया काम से किन्तु, ब्याह का शौक चढ़ा था।

पर हो जाती मौत, नहीं विधवा बन रहना।

यम के पीछे स्वर्ग,  चली कौशिक की बहना।।


सरसी छंद 

द्वारपाल ने रोक लिया झट, किया बुरा व्यवहार ।

चंचल तन फिर व्यथित हुआ मन, सह न सकी दुत्कार । 

कौशिक बहन बनी फिर कोसी, सबपर खाई खार || 

उच्च हिमालय से उतरी वह, करे त्रिविष्टक पार | 


अंगदेश की धरती तक है, अति लम्बा विस्तार || 

चिरयौवना क्रोध से पागल, मचता हाहाकार  | 

जल-प्लावित कर देती धरती, प्रलयंकारी क्रोध |

असंतुष्ट जीवन के कारण, सुने न वह अनुरोध।।


अंगदेश का शोक कहाती, रूप विषद विकराल | 

कोई भी प्राणी इस जग में, सके न वेग सँभाल। 

ग्राम सैकड़ों लील गई वह, अंग-देश की शोक |

मिली न जबतक गंगा जी से, याद रहा यमलोक।


सृंगेश्वर के चरण पखारे, हो जाती फिर शांत। 

वर्षा ऋतु में किन्तु हमेशा, हो जाता मन क्लांत। 

इसी भूमि पर होते रहते, अभिनव बड़े प्रयोग | 

यहीं विविन्डक ऋषि करते हैं, धर्म- कर्म उद्योग || 


करें पराविज्ञान विषय पर, वे अद्भुत अभ्यास | 

तंत्र-मन्त्र के परम धनी वे, करते सफल प्रयास |

निश्छल सरस विनम्र सौम्य शुभ, मंद-मंद मुस्कान |

मितभाषी वे मृदुल-छंद हैं, दें  सुन्दर व्याख्यान ||


रोचक है अभिव्यक्ति बहुत ही, जागे मन विश्वास |  

बाल-वृद्ध-युवजन जुड़ जाते, बढ़ती जाती आस |

बड़े दूरदर्शी हैं ऋषिवर, ज्योतिष का अभ्यास |

डरें न जोखिम लेने से वे, नहीं अन्धविश्वास ||


यही विविन्डक दे आये थे, नृप दशरथ को ज्ञान | 

अंगराज को तभी मिली थी, शांता सी संतान।।

रिस्य विविन्डक ने पाया है, परम प्रतापी पूत | 

कुल्लू घाटी में जिनके हैं, अब भी कई सुबूत || 


जेठ मास में वहाँ आज भी, सजा पालकी दैव | 

करें वंदना सृंगी ऋषि की, नियमित वैष्णव शैव || 

लकड़ी का सुंदर मंदिर है, दीनों के भगवान् | 

श्रृंगी इस्कर्नी कहलाते, जाने सकल जहान | 


अट्ठारह करदू हैं केवल, उनमे से ये एक | 

कुल्लू घाटी में  विचरण कर, यात्रा करें अनेक | 

हमता डौरा-लांब्ती मिलते , रक्ती-सर गढ़-धोल | 

डौरा कोठी पञ्च नाम भी, मालाना तक डोल || 


छ: सौ तक हैं वहाँ पालकी, कहें जिन्हें रथ लोग | 

सृंगी से आकर मिल जाते, यदि सूखे का योग | 

मंत्रो के अद्भुत अधिकारी, करके वर्षों शोध | 

वैज्ञानिक ये बने श्रेष्ठतम, प्राप्त पिता से बोध ||


एक गुफा सिरमौर क्षेत्र में, नाहन के नजदीक | 

करे शोध जप तप सब आकर, वर्षा होती ठीक |

अब कोसी का कोप साधते, शंकर भोलेनाथ | 

श्रृंगेश्वर की हुई थापना, श्रृंगीऋषि के हाथ ।| 


दोहा छंद 

सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |

शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम || 


भाग 4


शांता और रिस्य-सृंग  

*दिग्पाल छंद*

शांता अशांत रहती, अत्यंत क्लांत रहती।

कहती न कुछ किसी से, संताप आप सहती।

लेकिन रमण पधारे, हारे न प्राण अपने।

सबको खुशी मिली फिर, शांता लगी विहँसने।।


तारीफ कर रहे सब, काका रमण लजाते।

तकलीफ जो उठाई, उसका इनाम पाते।

आये नरेश मिलने, फिर राजवैद्य आये।

कोई न रोग इनको, निष्कर्ष वो सुनाये।।


रमणी बहू पधारी, होता विवाह उनका।

आवास एक सुंदर, बनता निवास सबका। 

अब भ्रात साथ दोनों, अधिकार और पाते।

कर्तव्य वे हमेशा, पूरी तरह निभाते।।


चारो तरफ खुशी है, वातावरण भला है।

वह योजना बनाकर, सृन्गेश्वरम् चला है।

प्रारम्भ तीर्थ यात्रा, करता रमण अकेला।

लेकिन सभी लगाते, सम्पूर्ण एक मेला।


सरसी-छंद 

शांता को जब ज्ञात हुआ तो, जाती माँ के पास।

किन्तु न उसको अनुमति मिलती, है अत्यंत उदास।

सौजा कौला रूपा रमणी, करती सभी प्रयास। 

मिली सोम-शांता को अनुमति, छाया हर्षोल्लास।।


दो रथ में सब बैठ गये पर, सोम रमण के संग। 

हो सवार अश्वों पर अपने, लेकर चले उमंग।

चंपा देख रही बेटे के, मूंछों की आरेख ।

उन्हें देखते रूपा उनको, रही गौर से देख।।


यह सृंगेश्वर-धाम अनोखा, दुनिया भर में नाम |   

आठ वर्ष के बाद पधारी, शांता करे प्रणाम  ||

धुंधली धुंधली सी दिखती है, बचपन की तस्वीर । 

रूपा का  नटखटपन सारा, बाल-सृंग की पीर ।।


हरिगीतिका  छंद

मंदिर-कलश में व्याप्त ऊर्जा में अलौकिक दिव्यता।

विश्वास श्रद्धा भक्ति से, कोई कलश यदि देखता।

दुख मानसिक-दैहिक न भक्तों को कभी पाते सता,

आती समस्यायें अगर, हल भक्त को देता बता।।


घंटा-जनित कम्पन बनाये शुद्धतम वातावरण।

विज्ञान भी इस तथ्य के छूने चला पावन चरण।।

कीटाणुनाशक दुख विनाशक, यह करे शुद्धीकरण ।

चैतन्य करता भक्त प्रभु को, आ गया जिनकी शरण।


यदि गर्भ-गृह में जा रहे तो, गर्व जूता छोड़िए.

लाये-बुलाये आ गये जब,  आप दर्शन के लिए.

है द्वार कुछ छोटा लगा, तो सिर झुका ही लीजिए.

वरना लगेगी चोट तो खुद, अश्रु रविकर पीजिए..


तन शुद्धकर कर आचमन, आँखे खुली चैतन्य मन.

अभिमुख मगर दाएं तनिक हो, मूर्ति को करिए नमन.

रविकर बसा लो छवि हृदय में, फिर निहारो मग्न हो.

सर्वज्ञ हैं वे जानते सब, कुछ कहो या मत कहो।।


2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 02 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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