Friday 31 August 2012

चाचा ताऊ सकल, मुलायम बाप हमारे-


बस में : एक

राजेश उत्‍साही
गुलमोहर  
 महिला सीटों पर जमे, मुस्टंडे दुष्ट लबार |
इसीलिए कर न सके, नारी कुछ प्रतिकार |

नारी कुछ प्रतिकार, ज़माना वो आयेगा |
जाय जमाना भूल, नहीं पछता पायेगा |

रविकर हक़ लो छीन, साथ है मेरा पहिला |
बढ़ो करो इन्साफ, अकेली अब न महिला ||


Purchase Rs.20 Lakh Car from taxpayers Money UP CM Akhilesh Yadav tells to 403 MLAs

SM at From Politics To Fashion
माल हमारे बाप का, तेरा क्या है बोल ?
वाहन-चोरी का खतम, हुआ पुराना रोल |

हुआ पुराना रोल, समय पब्लिक की सेवा |
सेवा कर दिल खोल, तभी तो खाए मेवा |

पोलिटिक्स की ट्रिक्स, नहीं समझो बे मारे |
चाचा ताऊ सकल, मुलायम बाप हमारे | |



महंगाई की तपिश और मॉनसून के नखरे


खेती कर मैदान में, रोटी कठिन जुहात |
इक कपडा इक कोठरी, कृषक देश कहलात |

कृषक देश कहलात, मार मंहगाई डारे |
इसीलिए तो आज, युवा क्रिकेट पर वारे |

लाखों का मैदान,  कराता वारे न्यारे |
युवा वर्ग मस्तान, जाय क्यूँ खेत किनारे ||

haresh Kumar at information2media 
लोटो चरणों में सखे, अर्पित तन मन प्राण ।
प फ ब भ म किया, माता ने कल्याण ।
माता ने कल्याण, वित्त-मंत्रालय पाओ ।
संकट-मोचन काम, गड़े धन को निपटाओ ।
मेमोरी ये रोम, सजा लो दिल में फोटो ।
निकलेगी इक रोज, लाटरी भैया लोटो ।।


"पहचान कौन"

 
  भूसा भरा दिमाग में, छोटी मोटी बात ।
शर्म दिखा के छुप गई, आज हमें औकात ।
आज हमें औकात, कटी पॉकेट शरमाये ।
लेकिन पॉकेट-मार, ठहाके बड़े लगाए ।
हुआ  रेप मर गई,  बिचारी  शरमा करके ।
हँसे खड़ा रेपिस्ट,  चौक पर दारु ढरके ।।


-:चाय:-

dheerendra 
चाय वाय करवा रही, चांय-चांय हर रोज |
सुबह सुबह तो ठीक है, दिन में  बारह डोज |

दिन में  बारह डोज, खोज अब दूजी लीजै |
यह मित्रों की फौज, नवाजी बाहर कीजै |

हुई एक दिन शाम, मिले व्यवहारी आला |
इंतजाम छ: जाम, हुआ अंजाम निराला ||


जीने-मरने में क्या पड़ा है, पर कहने-सुनने...

यादें....ashok saluja .
यादें...  
यात्रा का मंचन सदा, किया करे बंगाल ।
मौत-जिंदगी हास्य-व्यंग, क्रमश: साँझ- विकाल ।

क्रमश: साँझ- विकाल, मस्त होकर सब झूमें।
देते व्यथा निकाल, दोस्त सब हर्षित घूमें ।

पर्दा गिरता अंत, बिछ्ड़ते  पात्र-पात्रा ।
पर चलती निर्बाध, मनोरंजक शुभ यात्रा  ।।



प्यार का नाम लेना , अब अच्छा नहीं लगता ...

छीके अब मुंह खोल के, कै मीठे-पकवान । 
जगह-जगह खाता रहा, कम्बल ओढ़ उतान।

 कम्बल ओढ़ उतान, तपन की आदत डाले ।
रहा बहुत मस्तान, आज मधुमेह सँभाले ।

उच्च दाब पकवान,  करे अब Point फ़ीके ।
 बदल गया इंसान, खोल  में बैठा छींके ।।   

Thursday 30 August 2012

कछुवा कुछ भी न छुवा, हाथी काटे केक



  का न करै अबला प्रबल?.....(मानस प्रसंग-7)

 (Arvind Mishra) 
(1)
 बिगत युगों की परिस्थिति, मुखर नहीं थी नार ।
सोच-समझ अंतर रखे, प्रगटे न उदगार ।
 प्रगटे न उदगार, लांछित हो जाने पर ।
यह बेढब संसार, जिंदगी करता दूभर ।
रहस्यमयी वह रूप, किन्तु अब खुल्लमखुल्ला ।
पुरुषों को चैलेन्ज, बचे न पंडित मुल्ला ।
(2)
अब रहस्य कुछ भी नहीं, नहीं छुपाना प्रेम ।
कंधे से कन्धा मिला, करे कुशल खुद क्षेम ।
करे कुशल खुद क्षेम, मिली पूरी आजादी ।
कुछ भी तो न वर्ज्य, मस्त आधी आबादी ।
का न करे अबला, प्रबल है पक्ष चुपाओ ।
राम चरित का पाठ, इन्हें फिर कभी पढाओ ।।




तुम्‍हें ढूंढने के क्रम में ...

सदा  
  SADA  


बड़े पुन्य का कार्य है, संस्कार आभार ।
 तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।

मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना  जल प्राण गँवाए ।

हे मूरत तू धन्य , कटोरी जल से भरती ।
दो मुट्ठी भर कनक , हमारी विपदा हरती ।।


कछुवा कुछ भी न छुवा, हाथी काटे केक ।
बन्दर केला खाय के, छिलका देता फेंक ।
छिलका देता फेंक, फिसल कर गैंडा गिरता ।
बेहद मोटी खाल, हिरन से जाकर भिड़ता ।
चिड़िया हंसती जाय, देख के नाटक सारा ।
जन्म-दिवस का केक, फेंक के हाथी मारा ।।


साम्यवाद के शत्रु ये मार्क्सवादी' ---

विजय राज बली माथुर 
परबाबा खोदें कुआँ,  पीता पानी लाय  ।
झक्की-पन में एक ठो, मोटर दिया लगाय ।
मोटर दिया लगाय,  बड़ा कचडा है लेकिन ।
पानी रहे पिलाय , सभी को इसका हरदिन ।
देश काल माहौल, बदलता है तेजी से ।
करें इसी का पान, नियम से बन्धेजी से ।।


देवेन्द्र पाण्डेय 
पीपल के पत्ते दिखे , लत्ते बिना शरीर ।
सुन्दरता मनभावनी, पी एम् सी के तीर ।
पी एम् सी के तीर, पीर लेकर हैं लौटे ।
कितने रांझे-हीर, यहीं पर छुपे बिलौटे ।
सौन्दर्य उपासक शिष्य,  खाय के सैंडिल चप्पल ।
धूनी रहे रमाय,  बुद्धि का दाता पीपल ।।


" मेरा मन पंछी सा "

Reena Maurya 
तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।

Wednesday 29 August 2012

आपका लिंक -



जहर बुझी बातें करें, जब प्राणान्तक चोट ।  
जहर-मोहरा पीस के, लूँ दारू संग घोट ।
लूँ दारू संग घोट, पोट न तुमको पाया।
मुझमे थी सब खोट, आज मै खूब अघाया ।
प्रश्न-पत्र सा ध्यान, लगाकर व्यर्थे ताका ।
हल्का जी हलकान, जाय घर-बाहर डांटा ।।  


BALAJI
 यात्री का परिवार जब,  कर स्वागत संतुष्ट ।
मेरा घर सोता मिले, बेगम मिलती रुष्ट ।
बेगम मिलती रुष्ट, नहीं टी टी की बेगम ।
बच्चे सब शैतान, हुई जाती वो बेदम ।
 नियमित गाली खाय, दिलाये निद्रा टेन्सन ।   
चार्ज-शीट है गिफ्ट,  मरे पर भोगे पेन्सन ।


रमिया का एक दिन.... (महिला दिवस के बहाने)


रमिया घर-बाहर खटे, मिया बजाएं ढाप ।
धर देती तन-मन जला, रहा निकम्मा ताप । 
रहा निकम्मा ताप, चढ़ा कर देशी बैठा |
रहा बदन को नाप, खोल कर धरै मुरैठा ।
पति परमेश्वर मान, ध्यान न देती कमियां।
लेकिन पति हैवान, बिछाती बिस्तर रमिया ।।


स्वास्थ्य-लाभ अति-शीघ्र हो, तन-मन हो चैतन्य ।
दर्शन होते आपके, हुए आज हम धन्य ।
हुए आज हम धन्य, खिले घर-आँगन बगिया ।
खुशियों की सौगात, गात हो फिर से बढ़िया ।
रविकर सपने देख, आपकी रचना पढता ।
नित नवीन आयाम, समय दीदी हित गढ़ता ।। 


आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
चिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग । 
 गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।। 


 अंकुश हटता बुद्धि से, भला लगे *भकराँध । 
 भूले भक्ष्याभक्ष्य जब, भावे विकट सडांध ।
भावे विकट सडांध, विसारे देह  देहरी ।
टूटे लज्जा बाँध, औंध नाली में पसरी ।।
नशा उतर जब जाय, होय खुद से वह नाखुश ।
   कान पकड़ उठ-बैठ, हटे फिर संध्या अंकुश ।।

*सड़ा हुआ अन्न

कितने हलवाई मिटे, कितने धंधे-बाज ।
नाजनीन पर मर-मिटे, जमे काम ना काज ।
जमे काम ना काज, जलेबी रोज जिमाये ।
गुपचुप गुपचुप भेल, मिठाई घर भिजवाये ।
फिर अंकल उस रोज, दिए जब केटरिंग ठेका ।
सत्य जान दिलफेंक, उसी क्षण दिल को फेंका ।।




बंजारा चलता गया, सौ पोस्टों के पार ।
प्रेम पूर्वक सींच के, देता ख़ुशी अपार ।
देता ख़ुशी अपार, पोस्ट तो ग्राम बन गए ।
पा जीवन का सार, ग्राम सुखधाम बन गए ।
सर मनसर कैलास, बही है गंगा धारा ।
पग पग चलता जाय, विज्ञ सज्जन बंजारा ।


 
 
मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास ।
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश । 
गुमते होश-हवाश, पुलकती सारी देंही ।
तीर भरे उच्छ्वास,  ताकता परम सनेही ।
वर्षा हो न जाय, भिगो दे पाथ रास का  ।
अब न मुझको रोक, चली ले मिलन आस का ।।




 एकत्रित होना सही, अर्थ शब्द-साहित्य ।
 सादर करते वन्दना, बड़े-बड़ों के कृत्य ।
बड़े-बड़ों के कृत्य, करे गर किरपा हम पर ।
हम साहित्यिक भृत्य, रचे रचनाएं जमकर ।
गुरु-चरणों में बैठ, होय तन-मन अभिमंत्रित ।
छोटों की भी पैठ, करें शुरुवात एकत्रित ।।


 Naaz
वाह-वाह क्या बात है, भला दुपट्टा छोर ।
इक मन्नत से गाँठती, छोरी प्रिय चितचोर ।
छोरी प्रिय चितचोर, मोरनी सी नाची है ।
कहीं ओर न छोर, मगर प्रेयसी साँची है ।
 रविकर खुद पर नाज, बना चाभी का गुच्छा ।
सूत दुपट्टा तान, होय सब अच्छा-अच्छा ।।


  panchnama -
उदासीनता की तरफ, बढे जा रहे पैर ।
रोको रोको रोक लो,  करे खुदाई खैर ।   
करे खुदाई खैर, लगो योगी वैरागी ।
दुनिया से क्या वैर, भावना क्यूँकर जागी ।
दर्द हार गम जीत,  व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो तुम छोड़ उदासी ।। 


संजय की दृष्टी सजग, जात्य-जगत जा जाग ।
जीवन में जागे  नहीं, लगे पिता पर दाग ।
लगे पिता पर दाग, पालिए सकल भवानी।
भ्रूण-हत्या आघात, पाय न पातक पानी ।
निर्भय जीवन सौंप, बचाओ पावन सृष्टी ।
कहीं होय न लोप, दिखाती संजय दृष्टी ।।


इष्ट-मित्र परिवार को, सहनशक्ति दे राम ।
रावण-कुल का नाश हो, होवे काम तमाम ।
होवे काम तमाम, अजन्मे दे दे माफ़ी ।
अमर पिता का नाम, बढ़ाना आगे काफी ।
इस दुनिया का हाल, राम जी अच्छा करिए ।
नव-आगन्तुक बाल, हाथ उसके सिर धरिये ।।



प्यार मिले परिवार का, पुत्र-पिता पति साथ ।
देवी मुझको मत बना, झुका नहीं नित माथ ।
झुका नहीं नित माथ, झूठ आडम्बर छाये ।
कन्या-देवी पूज, जुल्म उनपर ही ढाये ।
दुग्ध-रक्त तन प्राण, निछावर सब कुछ करती ।
बाहर की क्या बात, आज घर में ही डरती ।।



भाया ओज मनोज का, उल्लू कहती रोज ।
सम्मुख माने क्यूँ भला,  देती रहती डोज ।
देती रहती डोज, खोज कर मौके लाती ।
करूँ कर्म मैं सोझ, मगर हरदम नखराती ।
मनोजात अज्ञान, मने मनुजा की माया ।
चौबिस घंटे ध्यान, मगर न मुंह को भाया ।।


पिट्सबर्ग का भारती, है गिट-पिट से दूर ।  
करे देश की आरती, देशभक्ति में चूर ।
देशभक्ति में चूर, सूंढ़ हाथी की शुभ-शुभ ।
 औषधि तुलसी बाघ, कैक्टस जाती चुभ-चुभ ।
तरी मसालेदार, बाग़ में सजी रंगोली ।
रेल कमल बुद्धत्व, गजब वो खेले होली ।। 

प्रतियोगी बिलकुल नहीं, हैं प्रतिपूरक जान ।
इक दूजे की मदद से, दुनिया बने महान ।
दुनिया बने महान, सही आशा-प्रत्याशा ।
पुत्री बने महान, बाँटता पिता बताशा ।
बच्चों के प्रतिमोह, किसे ममता ना होगी ।
पति-पत्नी माँ-बाप, नहीं कोई प्रतियोगी ।।



नैनी नैनीताल का, पढ़ सुन्दर वृतान्त ।
जीप भुवाली से चली, सफ़र खुशनुमा शाँत ।
सफ़र खुशनुमा शाँत, खाय फल आडू जैसा ।
कहिये किन्तु हिसाब, खर्च कर कितना पैसा ?
छत पर देखा पेड़, निगाहें बेहद पैनी ।
वाह जाट की ऐड़, अकेले घूमा नैनी  ।।


कन्या के प्रति पाप में, जो जो भागीदार ।
रखे अकेली ख्याल जब, कैसे दे आभार ।  
कैसे दे आभार, किचेन में हाथ बटाई ।
ढो गोदी सम-आयु, बाद में रुखा खाई ।
हो रविकर असमर्थ,  दबा दें बेटे मन्या *। 
  सही उपेक्षा रोज,  दवा दे वो ही कन्या । 
*गर्दन के पीछे की शिरा

Tuesday 28 August 2012

जुलाई माह की टिप्पणियां : प्रवासी रविकर -


food myths & facts

veerubhai
ram ram bhai  

लहसुन खाने से नहीं, मच्छर भागें पार्थ |
माशूका खिसके मगर, रविकर यही यथार्थ ||

अम्ल अमीनो सोडियम, दिल को रखे दुरुस्त |
पोटेशियम तरबूज से, मिले यार इक मुश्त ||

पोषक तत्व बचाइये, भूलो सज्जा स्वाद  |
चिकनाई शक्कर बढे, बिगड़े भला सलाद |


स्मृति शिखर से – 18 : सावन

करण समस्तीपुरी 
विवरण मनभावन लगा, सावन दगा अबूझ |
नाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ |
ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी |
अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी |
गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना |
मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना ||



टिपण्णी कैसे करनी चाहिए ?

आमिर दुबई 

पूरे विषय को पढ़कर, विभिन्न ब्लॉग पर, 10-12 अच्छी टिप्पणी  
करने के बाद एक आभार भी वापस  नहीं मिलता तब दुःख होता है ।।
अर्थ टिप्पणी का सखे, टीका व्याख्या होय ।
ना टीका ना व्याख्या, बढ़ते आगे टोय ।
बढ़ते आगे टोय, महज कर खाना पूरी ।
धरे अधूरी दृष्टि, छोड़ते विषय जरुरी ।
पर उनका क्या दोष, ब्लॉग पर लेना - देना ।
यही बना सिद्धांत, टिप्पणी चना-चबैना ।।

सावन आये सुहावन (शनिवार - फुर्सत में...) … करण समस्तीपुरी

मनोज

तरसे या हरसे हृदय, मास गर्व में चूर |
कंत हुवे हिय-हंत खुद, सावन चंट सुरूर |
सावन चंट सुरूर, सुने न रविकर कहना |
राखी में मगरूर, पिया की जालिम बहना |
लेती इन्हें बुलाय, वहाँ पर खुशियाँ बरसे |
मन मेरा अकुलाय, मिलन को बेहद तरसे ||


शिखा कौशिक
भारतीय नारी  
उबटन से ऊबी नहीं, मन में नहीं उमंग ।
पहरे है परिधान नव, सजा अंग-प्रत्यंग ।
सजा अंग-प्रत्यंग , नहाना केश बनाना ।
काजल टीका तिलक, इत्र मेंहदी रचवाना ।
मिस्सी खाना पान, महावर में ही जूझी ।
करना निज उत्थान, बात अब तक ना बूझी ।।



  मुंह से निकली बात , कमान से निकला तीर और सर के उड़े बाल -- कभी वापस नहीं आते ?

बाल बाल बचता रहा, किन्तु बाल की खाल ।
बालम के दो बाल से, बीबी करे बवाल ।
बीबी करे बवाल, बाल की कीमत समझे ।
करती झट पड़ताल , देख कंघी को उलझे ।
दो बालों में आय, हमारी साड़ी सुन्दर ।
बचे कुचे सब बाल, हार की कीमत रविकर ।।

कुत्ते जैसा भौंकना, गिरगिट सा रंगीन ।
गिद्ध-दृष्टि मृतदेह पर, सर्प सरिस संगीन । 
सर्प सरिस संगीन, बीन पर भैंस सरीखा ।
कर्म-हीन तन सुवर, मगर अजगर सा दीखा ।
निगले खाय समूच, हाजमा दीमक जैसा ।
कुर्सी जितनी ऊंच, चढ़ावा चाहे वैसा ।।



पुस्‍तक पहुंच रही है उसतक ?

नुक्‍कड़
नुक्कड़  


पुश्तैनी *पुस परंपरा, पीती छुपकर दुग्ध |*बिल्ली
पाठक पुस्तक पी रहे, होकर के अति मुग्ध |
होकर के अति मुग्ध, समय यह शून्य काल का ||
गूढ़ व्यंग से दंग, मोल है बहुत माल का |
वाचस्पति आभार, धार है तीखी पैनी |
पूरा है अधिकार, व्यंग बाढ़े पुश्तैनी ||