रात दिन जीवन मुझे खलता रहा |
प्यार और विश्वास भी छलता रहा |
क्या बुझाएगी हवा उस दीप को
जो सदा तूफान में जलता रहा |
तेल की बूंदे इसे मिलती रही
मुश्किलों का दौर यूँ टलता रहा
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कुछ थी हिम्मत और कुछ थे हौंसले
अस्थिया-चमड़ी-वसा गलता रहा
खून के वे आखिरी कतरे चुए
जिस बदौलत दीप यह पलता रहा
अब अगर ईंधन चुका तो क्या करें
कब से 'रविकर' तन-बदन तलता रहा ||
बहुत खूब..
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-09-2016) को "बचपन की गलियाँ" (चर्चा अंक-2454) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'