उधर तमन्ना रो उठी, इधर सिसकती पीर।
कहाँ करे फरियाद फिर, रविकर अधर अधीर।।
लगी "महान गरीयसी", सोच महानगरीय।
किन्तु महानगरीय दिल, की हालत दयनीय।।
उछल-उछल अट्टालिका, ले शहरों को घेर।
वायु-अग्नि-क्षिति-जल-गगन, आँखे रहे तरेर।।
सोते सूखे प्राकृतिक, भोजन डब्बा बंद।
करे शोरगुल शाँति गुल, सोते घण्टे चंद।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
दे नकार सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सम्पर्कों की सूचिका, लंबी-चौड़ी मित्र।
किन्तु शून्य सम्बद्धता, *यात्रा चित्र विचित्र।।
*जीवन यात्रा
रविकर विनय विवेक बिन, सब सद्गुण बेकार।
जिस भी चोटी पर चढो, ये उसके आधार।।
सिद्ध प्रतिज्ञा का करो, पितृ-भक्त औचित्य।
चीर-हरण अम्बा-मरण, लाक्षा-गृह दुष्कृत्य।।
खस की टट्टी खास हित, किन्तु खुले में आम।
या तो वे आँधी सहें, या तो काम-तमाम।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
व्यर्थ हुआ सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सीते हा सीते किया, दिया शत्रु-मद तोड़।
फिर क्यों सीते ओंठ तुम, उस सीते को छोड़।।
प्यास नहीं रविकर बुझी, कर से प्याला छूट।
साकी सा की प्रेम-छल, ली तन मन धन लूट।।😊
जगमग-जगमग तन रतन, गए पतंगे जूझ।
जल-जल कर मरते रहे, कारण किन्तु अबूझ।।
जहाँ धनात्मक सोच पर, सारे विष बेकार।
वहीं ऋणात्मक सोच पर, गई दवाएं हार।।
देख मुसीबत में तुझे, छोड़ गए जो मीत।
बड़ा भरोसा है उन्हें, होगी तेरी जीत।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश लोग।
करे बुराई विविध-विधि, करें न बुद्धि प्रयोग।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश मूढ़।
करे बुराई विविध-विधि, होकर ईर्ष्यारूढ़।।
स्वर्ण-हिरण की लालसा, दी पति को दौड़ाय।
स्वर्ण-दुर्ग फिर क्यों नहीं, बिन पतिदेव सुहाय।।
लगा पकड़ने यंत्र जब, रविकर का सच-झूठ।
टूट गए सपने सकल, गए स्वजन सब रूठ ||
प्रभु से सबने पा रखी, दो पारखी निगाह।
समलोचना एक से, दे दूसरी सलाह।।।
दस दिन दौड़ाता रहा, आई जब लैट्रीन।
खा ली ग्राम-प्रधान ने, पी ली बोतल तीन ।।
चोर छात्र गुरु कवि नहीं, नहीं अँगूठा टेक।
"तौल कबाड़ी पुस्तकें", कहे समीक्षक नेक।।😊
ठोकर खाकर जब हुईं, चीजें चकनाचूर।
ठोकर खा तब आदमी, कामयाब भरपूर।।
तेरह- ग्यारह दीर्घ-लघु, यति-गति-लय बेकार।
चमत्कार हो कथ्य में, हो दोहे में धार।।
सुई सूत बिन व्यर्थ है, सूत्रधार बिन सूत।
काया-कथरी कब सिले, कब होगी मजबूत।।
कागज का गज लो सुमिर, रचो लोक हित छन्द।
छोड़-छाड़ छलछन्द छल, छको अमिय-मकरन्द।
जब सीखा था बोलना, रही उम्र दो साल।
किन्तु बोलना क्या किसे, सीख न पाया लाल।।
सकते में है जिंदगी, क्या कर सकते नेक।
जलसे में जल से करें, जब नंगे अभिषेक।।
परमात्मा दिखता नहीं, कहे सभी शंकालु।
जब कुछ भी सूझे नहीं, दिखते वही कृपालु।
रहें ख़्वाहिशों के सदा, आसमान पर भाव |
सस्ती खु़शियों से सदा, रविकर रखो लगाव ||
रविकर ख्वाहिश के सदा, आसमान पर भाव।
खुशियाँ तो सस्ती बिकें, फिर भी नहीं अघाव।।
रविकर ख्वाहिश के सदा, आसमान पर भाव।
किन्तु कभी मँहगा नहीं, खुशियाँ का बर्ताव।।
रविकर ख्वाहिश के सदा, आसमान पर भाव।
खुशियाँ तो सस्ती बिकें, एक टके में पाव।।
कंधे पर चढ़ बाप के, जो छूता आकाश।
उनको कंधा दे वही, करे जमीन तलाश।।
रोते-रोते आगमन, रुला-रुला प्रस्थान।
यही सत्य तो बाँटिये, नित्य हँसी-मुस्कान।।
वाह बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (12-04-2017) को "क्या है प्यार" (चर्चा अंक-2938) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उत्कृष्ठ सृजन
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