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Thursday, 15 March 2012

लूट-लाट में लटपटा, बने लटा जब लाट-

खुला पिटारा प्रणव का, मौनी देते दाद ।
महँगाई से त्रस्त जन, डर डर देते पाद ।

दर दर देते पाद, धरा नीचे से खिसके ।
सस्ता हुआ नमक, छिड़क दें जैसे सिसके ।

दो प्रतिशत दे और, जरा सा सह ले यारा ।
छिना और दो कौर, पीटता खुला पिटारा ।।  
छोटी बहना को करे, भैया फिर आश्वस्त ।
इक पुकार ड्योढ़ी खड़ा, चाहे जितना व्यस्त ।
चाहे जितना व्यस्त, घटे अब तोता मैना ।
राम राम उद्घोष, कहाँ अब चना-चबैना ।
बहे नीम से नीर, करे फिट नेता गोटी ।
जन्मदिवस पच्चास, मुबारक बहना छोटी ।।  
ताना-बाना से क्यूँ ताना, मार रहे हैं गुरुवर ।
ताना ना बाना पर सोहे, जो धारे हैं तनपर ।

हम सब के श्रद्धेय गुरूजी, शाश्वत-सत्य से वाकिफ -
ज्ञान लुटाएं राह दिखाएँ, करे निवेदन रविकर ।।   
डॉ. अनवर जमाल
अनवर जैसे श्रेष्ठ-सभ्य, मख को जानो यज्ञ ।
मख मक्का का रूप है, समझाएं स्थितिप्रज्ञ ।  

समझाएं स्थितिप्रज्ञ, यज्ञ यज से हज होता ।
बिना सिले दो वस्त्र, साधु सा हाजी ढोता ।

अनवर बड़े जमाल, दुष्ट को लगता गोटा ।
उलटी-पलटी चाल,  हाथ में थामे लोटा ।।

 लूट-लाट में लटपटा, बने लटा जब लाट।
देश भक्त की कर रहे, खड़ी हमेशा खाट ।


खड़ी हमेशा खाट, रिसर्चर हैं ये नामी ।
कालिख लगा ललाट, कराते क्यूँ बदनामी ।


  पार-दर्श सरकार, रहे जो राज-पाट में ।
पकड़े धंधेबाज,  लगे जो लूट-लाट में ।

माया वाले दें डरा, करें सभ्यता ख़त्म ।
साधुवाद है आपको, भरे हमारे जख्म ।।
नीति नियत सब ठीक है, बेशक आप जहीन ।
कान्ग्रेस की गत वही, भैंसी आगे बीन  ।।


भारतीय यह सभ्यता, ऐसे जाय विदेश ।
बच्चा नि:संतान को, डालर पाये देश ।
डालर पाए देश, नया यह धंधा आया
स्पर्म होंय नि:शेष, रास्ता नया दिखाया ।
परखनली संतान, मर्म को छू लेता है ।
सबसे बढ़िया दान, आय वी ऍफ़ देता है ।।


वीरूभाई द्वारा दी लाइनें पूरी की हैं --

धुंधली होती जा रही,यादें  पन्ना धाय |
मातु यशोदा भूल के, कान्हा मथुरा जाय |

कान्हा मथुरा जाय, कदम इक बड़ा बढाया |
सरोगेट अब माय, कोख को शॉप बनाया | 

गोरे वे नामर्द, टार्गेट उनको करते |
देते डालर चन्द, रास्ता सीधा धरते ||






श्रम-साधक खुद्दार हो, धन से सम्यक प्यार ।
करे निरीक्षण स्वयं का, सुखमय शांति अपार ।।

Thursday, 23 February 2012

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा

प्रस्तुति ; संगीता स्वरुप ( गीत )  

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा,
अन्ध-बन्ध को चीर, किया ढोंग का खात्मा ।

परम्परा परित्याग, लीक छोड़ कर जो चला,
दुनिया दुश्मन दाग, भर जीवन बेहद खला ।

खरी खरी कह बात, वीर धीर गंभीर थे,
पोंगे को औकात, ज्ञानी श्रेष्ठ कबीर थे ।

भर जीवन संघर्ष,  किया कुरीती से सतत,
इक सौ उन्निस वर्ष, निर्गुण महिमा थे रटत ।


काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
 मेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।

रिश्तों पर कवि-दृष्टि है, विश्लेषण अति गूढ़ ।
ये नाजुक सबके लिए, हो ग्यानी या मूढ़ ।।   

महा-मनीषी भर रहे, जब जीवन में रंग ।
सीखे निश्चय ही मनुज, तब जीने के ढंग ।।  

हास्य रंग परिहास को, पत्रकार पहचान ।
है अक्षम्य यह धृष्टता, रे लक्ष्मी नादान ।। 

 जैसे परम-पिता के दर्शन, करे आत्मा पावन ।
वैसे लुकाछिपी शिशु खेले, माँ के संग मनभावन ।।

पढ़ रहा इसे मैं बार बार |
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||

दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in