प्रस्तुति ; संगीता स्वरुप ( गीत )
बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा,
अन्ध-बन्ध को चीर, किया ढोंग का खात्मा ।
परम्परा परित्याग, लीक छोड़ कर जो चला,
दुनिया दुश्मन दाग, भर जीवन बेहद खला ।
खरी खरी कह बात, वीर धीर गंभीर थे,
पोंगे को औकात, ज्ञानी श्रेष्ठ कबीर थे ।
भर जीवन संघर्ष, किया कुरीती से सतत,
इक सौ उन्निस वर्ष, निर्गुण महिमा थे रटत ।
काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
मेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।
रिश्तों पर कवि-दृष्टि है, विश्लेषण अति गूढ़ ।
ये नाजुक सबके लिए, हो ग्यानी या मूढ़ ।।
महा-मनीषी भर रहे, जब जीवन में रंग ।
सीखे निश्चय ही मनुज, तब जीने के ढंग ।।
हास्य रंग परिहास को, पत्रकार पहचान ।
है अक्षम्य यह धृष्टता, रे लक्ष्मी नादान ।।
जैसे परम-पिता के दर्शन, करे आत्मा पावन ।
वैसे लुकाछिपी शिशु खेले, माँ के संग मनभावन ।।
पढ़ रहा इसे मैं बार बार |
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
http://dineshkidillagi.blogspot.in
बहुत हि बेहतरीन लिंकों का संग्रह
ReplyDeleteअच्छे रचनाओं और रचनाओं से परिचय करवाया आपने
आभार!
बढ़िया लिंक्स...
ReplyDeleteटीका टिप्पणी करते रहें...
शुक्रिया...
बढ़िया टिप्पणी ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteघूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
सुन्दर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteकाशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
ReplyDeleteमेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।
सुन्दर जीवन वृत्तांत कबीर महान .
धन्यवाद, उल्लेख के लिए आभार.
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