Thursday, 23 February 2012

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा

प्रस्तुति ; संगीता स्वरुप ( गीत )  

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा,
अन्ध-बन्ध को चीर, किया ढोंग का खात्मा ।

परम्परा परित्याग, लीक छोड़ कर जो चला,
दुनिया दुश्मन दाग, भर जीवन बेहद खला ।

खरी खरी कह बात, वीर धीर गंभीर थे,
पोंगे को औकात, ज्ञानी श्रेष्ठ कबीर थे ।

भर जीवन संघर्ष,  किया कुरीती से सतत,
इक सौ उन्निस वर्ष, निर्गुण महिमा थे रटत ।


काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
 मेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।

रिश्तों पर कवि-दृष्टि है, विश्लेषण अति गूढ़ ।
ये नाजुक सबके लिए, हो ग्यानी या मूढ़ ।।   

महा-मनीषी भर रहे, जब जीवन में रंग ।
सीखे निश्चय ही मनुज, तब जीने के ढंग ।।  

हास्य रंग परिहास को, पत्रकार पहचान ।
है अक्षम्य यह धृष्टता, रे लक्ष्मी नादान ।। 

 जैसे परम-पिता के दर्शन, करे आत्मा पावन ।
वैसे लुकाछिपी शिशु खेले, माँ के संग मनभावन ।।

पढ़ रहा इसे मैं बार बार |
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||

दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in

7 comments:

  1. बहुत हि बेहतरीन लिंकों का संग्रह
    अच्छे रचनाओं और रचनाओं से परिचय करवाया आपने
    आभार!

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  2. बढ़िया लिंक्स...
    टीका टिप्पणी करते रहें...
    शुक्रिया...

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!

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  4. सुन्दर प्रस्तुति ...

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  5. काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
    मेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।
    सुन्दर जीवन वृत्तांत कबीर महान .

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  6. धन्‍यवाद, उल्‍लेख के लिए आभार.

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