Monday 21 November 2011

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)

(सर्ग -१ की पूरी कथा का सूत्र )

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी बहन )

 (सर्ग-२ भाग-१ की कथा का सूत्र)

भगवती शांता परम

सर्ग-२
भाग-2
          रावण का गुप्तचर           
दोहे
असफल खर की चेष्टा, होकर के गमगीन |
लंका जाकर के कहे,  चेहरा लिए मलीन ||

रावण शाबस बोलता, काहे  होत उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके पूर्ण विनाश ||
File:Demon Yakshagana.jpg
खर बोला भ्राता ज़रा, खबर कहो समझाय |
यह घटना कैसे  हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||

रानी रथ से कूद के, खाय चोट भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हुआ स्वयं से चूर ||

खर के संग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||

गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||

गुरु वशिष्ठ की अनुमती, तुरत चले ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||

संक्रान्ति से सूर्य ने, दिए किरण उपहार |
अति-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||

दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||

विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
चिंतित परजा झूमती, होकर पुन: सनाथ ||
http://www.shreesanwaliyaji.com/blog/wp-content/uploads/2011/02/vasant-panchami-saraswat-sanwaliyaji_bhadsoda.jpg
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
 हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |

पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
 कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
पशू प्रफुल्लित घूमते, नए सीखते ढंग ||

कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||


कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||

गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद |
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद ||

कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, कार्य करे जो सिद्ध ||

यह मोटा भद्दा दिखे, आत्मीय वह रूप |
यह घृणित हरदम लगे, उसपर स्नेह अनूप ||

गिद्ध दृष्टि रखने लगा, बदला बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे  कुरूप ||


केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||


सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||


एक दिवस रानी गई, वन रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर सुभाष || 


माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में राखे द्रोह ||

 

रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||


स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||



सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
 स्वर्ण-हार हारक उड़ा, झटपट ले आकाश ||
gold necklace
  सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||


जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
छुपा सुबाहु के यहाँ, पीछे छोड़ा हार ||


वापस पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
Jawalamukhi Kanya Puja
 नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय  |
 चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||


सूर्यदेव का ताप भी, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी फिर सकुचाय ||
 



3 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना।

    ReplyDelete
  2. सुंदर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  3. रविकर सर, हमेशा की तरह एक बार फिर ह्रदय को झंकृत करने के लिए बधाई..........
    ये नव - वर्ष आप एवं आपके परिवार लिए
    विशेष सुख - शांतिमय, हर्ष - आनंदमय,
    सफलता - उन्नति - यश - कीर्तिमय और
    विशेष स्नेह - प्रेम एवं सहयोगमय हो !!!!

    ReplyDelete