Wednesday, 3 September 2014

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता (पुनर्प्रकाशित)

रचयिता 
दिनेश चन्द्र गुप्ता "रविकर"पटरंगा , फैजाबाद उत्तर प्रदेश  

    

रविकर नीमर नीमटर, वन्दे हनुमत नाँह ।
विषद विषय पर थामती, कलम वापुरी बाँह ।

कलम वापुरी बाँह, राह दिखलाओ स्वामी ।

शांता का दृष्टांत, मिले नहिं अन्तर्यामी ।

बहन राम की श्रेष्ठ, उपेक्षित त्रेता द्वापर ।
रचवा दो शुभ-काव्य, क्षमा मांगे अघ-रविकर ।
( नीमटर=किसी विद्या को कम जानने वाला 
नीमर=कमजोर ) 


सर्ग-1
अथ-शान्ता
भाग-1 
अयोध्या  
सोरठा  
बन्दौं पूज्य गणेश, एकदंत हे गजबदन  |
जय-जय जय विघ्नेश, पूर्ण कथा कर पावनी ||1||

बन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ, कृपा पाय के मूढ़-मति  
गुन-गँवार ठठ-ठेठ, काव्य-साधना में रमा ||2||

गोधन-गोठ प्रणाम, कल्प-वृक्ष गौ-नंदिनी |
गोकुल चारो धाम, गोवर्धन-गिरि पूजता ||3||

वेद-काल का साथ, गंगा सिन्धु सरस्वती |
ईरानी हेराथ, सरयू भी समकालिनी ||4||

राम-भक्त हनुमान, सदा विराजे अवधपुर |
सरयू होय नहान, मोक्ष मिले अघकृत तरे ||5||

नदि-करनाली स्रोत्र, मानसरोवर अति-निकट |
करते जप-तप होत्र, महामनस्वी विचरते ||6||

क्रियाशक्ति भरपूर, पावन भू की वन्दना |
राम भक्ति में चूर, मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ||7||

सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |
हरि-हर ब्रह्म सँदेश, स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ||8||

पूज्य अयुध भूपाल, रामचंद्र के पितृ-गण |
गए नींव थे डाल, बसी अयोध्या पावनी ।। 9।।
दोहा 
शुक्ल पक्ष की तिथि नवम, पावन कातिक मास |
करें नगर की परिक्रमा, मन श्रद्धा-विश्वास ||

मर्यादा आदर्श गुण, अपने हृदय उतार |
राम-लखन के सामने, लम्बी लगे कतार |

  पुरुषोत्तम सरयू उतर, होते अंतर्ध्यान |
त्रेता युग का अवध तब, हुआ पूर्ण वीरान |

 सद्प्रयास कुश ने किया, बसी अयोध्या वाह |
 सदगृहस्थ वापस चले, पकड़ अवध की राह |

 आये द्वापर काल में, कृष्ण-रुक्मणी साथ |
वचन निभाने के लिए, कह बैठे रघुनाथ||

व्याह हजारों कृष्ण के, पुरुषोत्तम का एक |
विष्णु रूप दोनों धरे, दोनों लीला नेक ||

कलयुग में सँवरी पुन:, नगरी अवध महान |
वीर विक्रमादित्य से, बढ़ी नगर की शान ||

देवालय फिर से बने, बने सरोवर कूप |
स्वर्ग सरीखा सज रहा, नए अवध का रूप ||
सोरठा  
माया मथुरा साथ, काशी काँची द्वारिका |
महामोक्ष का पाथ, अवंतिका शुभ अवधपुर ||10|| 

अंतरभूमि  प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह,  पूज घाघरा शारदा ||11||

पुरखों का इत वास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||12||

परिक्रमा श्री धाम, हर फागुन में हो रहा  
पटरंगा मम-ग्राम, चौरासी कोसी परिधि ||13||

थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||14||

पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |
 निकृष्ट कथा कुरूप, मातु-पिता चेतो सुजन  ||15||  

 भाग-2   
दशरथ बाल-कथा
घनाक्षरी 

  दीखते हैं मुझे दृश्य मनहर चमत्कारी
कुसुम कलिकाओं से वास तेरी आती है  

कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर  
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है

देखूं शशि छबि भव्य  निहारूं अंशु सूर्य की
रंग-छटा उसमे भी तेरी ही दिखाती है

कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर|
तेरे रूप-धूप का ही सुयश फैलाती है || 

दोहा  
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||1||

गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||2|| 

क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||3|| 

अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार
क्रोध-प्यार बड़-बोल से,  जाय जिंदगी हार ||4||  

झूले  मुग्धा  नायिका, राजा  मारे  पेंग |
वेणी लागे वारुणी,  रही दिखाती  ठेंग ||5||

राज-वाटिका  में  रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||6||

नारायण-नारायणा,  नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||7||

वीणा से माला सरक, सर पर गिरती आय
 इंदुमती वो अप्सरा, जान हकीकत जाय ।।8||

एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक पत्नी गई, अज को परम वियोग ||9||

माँ का पावन रूप भी, उसे सका ना रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||  

विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11| 

कुण्डलियाँ 
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर
रोको रविकर रोक लो,  जीवन से क्या बैर   
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही  जीवन त्यागा
किया पुत्र को गैर,  करे क्या पुत्र  अभागा  ?
दर्द हार गम जीत,  व्यथा छल आंसू हाँसी
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।। 
 दोहा  
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ  कहीं   देना   पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||
कुण्डलियाँ 
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत मत हार
 कायर भागे कर्म से, होय नहीं उद्धार  
होय नहीं उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें
 बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से  
 जियो लोक हित मित्र, मिले नहिं कुछ मरने से ।।   
 दोहा  
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक के माथ ||12||

6 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति , आ. धन्यवाद !
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    आपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 5 . 9 . 2014 दिन शुक्रवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !

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  2. बहुत सुन्दर।
    पुनः बाँचने में पहले से अधिक आनन्द आया।

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  3. वाह सुंदर चित्र के साथ ।

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  4. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (05.09.2014) को "शिक्षक दिवस" (चर्चा अंक-1727)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  5. साहित्यिक सौष्ठव से संसिक्त रचना .

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  6. सुन्दर सशक्त अभिव्यक्ति कथा शैली में साखी रचती .

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