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Monday, 12 March 2012

मम्मी तेरी खास, बैठ सारे दिन चूमूँ ??

 

मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास ।
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।  

गुमते होश-हवाश, पुलकती सारी देंही ।
तीर भरे उच्छ्वास,  ताकता परम सनेही ।

वर्षा हो न जाय, भिगो दे पाथ रास का  ।
अब न मुझको रोक, चली ले मिलन आस का ।।






रोग ग्रसित तन-मन मिरा, संग में रोग छपास ।
मर्जी मेरी ही चले, नहीं डालनी घास ।

नहीं डालनी घास, बिठाकर बँहगी घूमूँ ।
मम्मी तेरी खास, बैठ सारे दिन चूमूँ । 

चाचा का क्या प्लाट, प्लाट परिवारी पाया ।
मूल्य बचाते  हम, व्यास जी को भिजवाया ।।  

 एकत्रित होना सही, अर्थ शब्द-साहित्य ।
 सादर करते वन्दना, बड़े-बड़ों के कृत्य ।
बड़े-बड़ों के कृत्य, करे गर किरपा हम पर ।
हम साहित्यिक भृत्य, रचे रचनाएं जमकर ।
गुरु-चरणों में बैठ, होय तन-मन अभिमंत्रित ।
छोटों की भी पैठ, करें शुरुवात एकत्रित ।।




 नहीं रहा जो कुछ भला, दीजै ताहि भुलाय ।
नई एक शुरुवात कर, सेतु नवीन बनाय ।। 

अपलक पढता रहा समझता, 
रहस्य सार गीता का |
श्लोक हो रहे रविकर अक्षर, 
है  आभार अनीता का || 

 Naaz
वाह-वाह क्या बात है, भला दुपट्टा छोर ।
इक मन्नत से गाँठती, छोरी प्रिय चितचोर ।

छोरी प्रिय चितचोर, मोरनी सी नाची है ।
कहीं ओर न छोर, मगर प्रेयसी साँची है ।

 रविकर खुद पर नाज, बना चाभी का गुच्छा ।
सूत दुपट्टा तान, होय सब अच्छा-अच्छा ।। 

  NEERAJ PAL 
मज़बूरी मन्जूर कर लिया, पीठ दिखा लो सूरज को ।
महबूबा को अंक भरे जब, धूप लगे न सूरत को ।
बनकर के परछाईं जीती, चिंता तो करनी ही है -
झूठ झकास जीत भी जाये, चुनना सच को इज्जत को ।।


सत्य कटुक कटु सत्य हो, गुरुवर कहे धड़ाक।
दल-दल में दलकन बढ़ी, दल-दलपति दस ताक।

दल-दलपति दस ताक, जमी दलदार मलाई ।
सभी घुसेड़ें नाक, लगे है पूरी खाई ।

खाई कुआँ बराय, करो मैया ना खट्टा ।
बैठे भाजप चील, मार न जांय झपट्टा ।।
  panchnama -
उदासीनता की तरफ, बढे जा रहे पैर ।
रोको रोको रोक लो,  करे खुदाई खैर ।   
करे खुदाई खैर, लगो योगी वैरागी ।
दुनिया से क्या वैर, भावना क्यूँकर जागी ।
दर्द हार गम जीत,  व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो तुम छोड़ उदासी ।।

यही हकीकत है दुनिया की, साथी जरा निभाता चल ।
काँटे जिसके लिए बीनते,  अक्सर जाये वो ही खल ।
स्वारथ की इस खींचतान में, अपने हिस्से की खातिर 
चील-झपट्टा मार रहे सब, अपना चिंतन ही सम्बल ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक  
dineshkidillagi.blogspot.com

सृष्टि सरीखी सजग सयानी, केश सुखाती माढ़ा


कविता-काढ़ा 
प्रतुल वशिष्ठ  

पागल पथिक प्रलापे पथ पर, प्रियंवदा के पाड़ा ।
सृष्टि सरीखी सजग सयानी, केश सुखाती माढ़ा ।
ध्यान भंग होते ही मारे,  डंक दुष्ट इक  हाड़ा ।
प्रियंवदा की चीख निकलते, पथिक ठीक हो ठाढ़ा ।।

 
पाँच लाख प्रतिवर्ष है, पाँच फूट दस इंच ।
शक्लो-सूरत क्या कहें, दोष रहित खूब टंच ।
दोष रहित खूब टंच, गुणागर बधू चाहिए ।
गौर-वर्ण,  ग्रेजुएट, नौकरी तभी आइये ।
झेलू मैं भी दंश, टी सी एस में बिटिया ।
किन्तु साँवला रंग, खड़ी कर देता खटिया ।।

मिटटी का पुतला पड़ा, मिटटी से क्या मीत ।
मूढ़मती पढ़ मर्सिया, चली आत्मा जीत ।

 
my expressions.....याने मेरे दिल से सीधा कनेक्शन..इन्हें मेरी डायरी के कुछ पन्ने समझ लें..बिखरे से


दवा आज तक जिनसे पाई, वही दर्द जब देते हैं ।
गर्दन पर उस्तुरा फेर दें , क्यूँकर पहले सेते हैं ?
बकरे की माँ खैर मनाती, आज कहाँ पर बैठी है --
गैरों से क्या करूँ शिकायत,  अपने अपयश लेते हैं ।
गाफिल हैं ना व्यस्त, चलो चलें चर्चा करें,
शुरू रात की गश्त, हस्त लगें शम-दस्यु कुछ । 

कन्या के प्रति पाप में, जो जो भागीदार ।
रखे अकेली ख्याल जब, कैसे दे आभार ।  
कैसे दे आभार, किचेन में हाथ बटाई ।
ढो गोदी सम-आयु, बाद में रुखा खाई ।
हो रविकर असमर्थ,  दबा दें बेटे मन्या *। 
  सही उपेक्षा रोज,  दवा दे वो ही कन्या । 
*गर्दन के पीछे की शिरा
  पूर्वांचल ब्लॉग लेखक मंच 
खट-खट खट खट अँगुली करती, पट पट पट पट अक्षर ।
युद्धभूमि वीरों का आसन, वहाँ करे क्या मच्छर ।
आल्हा गाने वालें तोड़ें,  इक झटके में तख्ता 
बहुत बहुत एहसान सुनाया, करूँ वन्दना सादर ।।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक  
dineshkidillagi.blogspot.com

Wednesday, 29 February 2012

ओ री हो री होरियां, चौराहों पर साज -

दिलबाग विर्क  के हाइकुओं पर आधारित हाइगा
शाखा पर उल्लू का कब्ज़ा, जज्बा उसका देखें घोंचू ।
फूलों संग कांटे क्यूँ होते, बैठा मैं तो हरपल सोंचू ।
न्याय आज हारा कछुवे से, समय स्वयं को दोहराता है--
सबको शिक्षा लक्ष्य सजा है, काले केशों को क्यूँ  नोंचू ।


आस धुआँ, हर साँस धुआँ

धीर वीर गम्भीर,  भले नागरिक हैं बसे ।
जय जय जय रघुवीर, होवें सफल प्रयास शुभ ।।

कीचड़ महिना तीन, कचड़ा पूरे साल भर ।
मसला है संगीन, प्रर्यावरण बचाइये ।।

भरके गहरी सांस, एक बार फिर जोश से ।
दायित्विक अहसास, देने निकले मान्यवर ।।

होली में ....
  काव्यान्जलि
ओ री हो री होरियां, चौराहों पर साज ।
ताकें गोरी छोरियां, अघी अभय अंदाज ।
करघे उत्पादित करें, मारक सूती डोर
देख दुर्दशा मर्द की, बहते अँखियन लोर ।


  ram ram bhai

   बैरोमीटर प्रेम का, आक्सीटोसिन जाँच ।
होवे दर गर उच्चतर, प्रेम रोग हैं साँच ।

प्रेम रोग हैं साँच, आंच न आने पाए ।
प्रेम मगन मन नाच, जन्म भर साथ निभाए ।

माँ बच्चे के बीच, होय यह सबसे ज्यादा ।
दुग्ध-पान से सींच, पालती खटती मादा ।।



इश्क शाप है अगर तो, कर दे बन्दा माफ़ ।
दुनियादारी में पड़ा, क्या करना इन्साफ । 

क्या करना इन्साफ, दर्द की लम्बी रेखा ।
हर चेहरे पर साफ़, सिसकती पल पल देखा ।

रविकर बदला भूल, निछावर होते जाओ ।।
 घूमे मौला मस्त, शिकायत नहीं सुनाओ ।। 

दर्शन-प्राशन

पावक-गुलेल

बहुत-बहुत आभार है, दिखे वांछित द्वार ।
आनंदित रविकर हुआ, परख पावकी-प्यार ।।



दोस्त सा दिखता है लेकिन, दुश्मनों से भी बुरा ।
निश्छल हंसी से छल रहा, हरदम प्रपंची बांकुरा ।
दूर जाना है उसे पर, पीठ ना चाहे दिखाना --
 विश्वास से कर घात घोंपे, पीठ पर मारक छुरा ।



पुत्र-जन्म देकर जगत, उऋण पितृ से होय ।
पुन्वंशा  कैसे  भला, माँ का  कर्ज  बिलोय ।

माँ का  कर्ज  बिलोय, जन्म पुत्रों को देती ।
रहती उनमें खोय, नहीं सृष्टी सुध लेती । 

सदा क्षम्य गुण-सूत्र, मगर कन्या न मारो ।
हुए पिता से उऋण,  कर्ज चुपचाप उतारो ।।

 

Wednesday, 28 September 2011

क्या चाहे नायिका ??

 नायिका उवाच-

पन-घट   पर का    घट-पना, 
परकाकर   के   खूब |
 
घरजाया  -  घोटक  -  घटक, 
डिंगल - डीतर  डूब ||
डिंगल=दूषित नीच अधम  
डीतर=पीछा करने वाला
परका=चस्का लगा 
घरजाया=घर का दास 
घोटक= घोड़ा
घटक=बिचौलिया, विवाह सम्बन्ध निश्चित कराने वाला |

Monday, 26 September 2011

यार के झूठे दावे--

दावे   पुख्ता   यार   के,  वादे   तोड़े   खूब |
यादें  हमको  तोडती,   वादे   को   महबूब |

वादे  को  महबूब, नजर  में  भरी  हिकारत |
यादों   में   हम   डूब, चीखते  रहे  पुकारत |

जब रविकर भरमाय,  तड़पकर उसे बुलावे |
करे  क़त्ल  सौ  बार,  यार  के  झूठे   दावे |

Tuesday, 12 July 2011

12 जुलाई को कटा 25 वाँ मुर्गा

जश्न  मनाती  जा रहीं,  बेगम  मस्त  महान,
अंगड़ाई   ले   छेड़  दीं,    वही   पुरानी  तान |

वही    पुरानी  तान,   सुबह  से रौनक  भारी-
करके फिर  ऐलान,   करीं  जम   के  तैयारी |

 है  रविकर अफ़सोस,  कभी  न  मुर्गा  लाती,
"पर" काटी  पच्चीस, जीत का जश्न मनाती ||

पर काटी  /  पर  काटना ||
वैसे तो हमारे यहाँ बकरे की कन-कट्टी भी की जाती है, सांकेतिक बलि ||
 
                       

Saturday, 9 July 2011

और 'रविकर' ने उठाई कलम चूमा ||

संजीवनी तुझको मिली आखिर कहाँ ? 
रे कवि सच-सच बता कुछ मत छुपा ||

                     तीस वर्ष  पहले गज़ब घायल हुआ
                     दिल के सौ टुकड़े हुए मर-मर जिया |
                     काबिल  बड़े  इन्सान  थे,  ज़र्राह था 
                    दिल के वे  टुकड़े सिले, कायल हुआ ||
                    परहेज  से  बचकर   रहा,   पाई   दवा
                    नेपथ्य  से  अपथ्य  ये  बोला  गया -

सौंदर्य  पर  आकृष्ट  होना   भूल  जा
रे कवि सच-सच बता कुछ मत छुपा ||

                     चूक लेकिन हो गई एक रोज़ दिल से  
                     आस्मां  उस  भोर  मादक  सुर्ख  था |
                     कूक कोयल की सुनी ऋतुराज आया 
                     सारिका की टेर ने फिर गज़ब ढाया |
                     साज-सरगम ने किया खिलवाड़ दिल से 
                     बदन-बुद्धि  सीख  सारे  गए  हिल से --

बाग़-बागम हो गया दिल मस्त झूमा, 
और  'रविकर' ने उठाई कलम, चूमा ||

प्रीत के गीत नहीं बिसराना,

बातें सोन-चिड़ी की ||

 

Wednesday, 6 July 2011

तन के घाव, मन के लड्डू ||

नहीं  चाहिए  मरहम  सुन  रे  बे-दर्दी।
नहीं   चाहिए   तेरी   कोई   हमदर्दी।।

घाव  हमारे  बे-हद  हमें अज़ीज़ लगें,
सादे  जीवन  में  इसने  रौनक भर दी।

ठहर-ठहर  कर  भरता  उच्छवासें जैसे
"रविकर"  को  है  हुई  ज़रा खाँसी-सर्दी।

तड़पूं   चाहे  तड़प-तड़प  के  मर  जाऊं,
तुमने  सिलवा  दी  मेरी  फौजी  वर्दी |

तन  के  घावों  की चिंता अब नहीं मुझे
अंतर-मन  में  विरह-वेदना  की *कर्दी | 

Saturday, 2 July 2011

छुपा जाते हैं गुलाब --

ओए, कैसे हैं ज़नाब ?
बड़े  वैसे  हैं  ज़नाब !
किसी को मुर्ग-मुसल्लम
बन्दे का खाना खराब ||

टालते  सारे  सवाल
दीखते हाज़िर जवाब |
भेंट  करते  हैं  गेहूं -
छुपा जाते हैं गुलाब ||

पिला देते हैं पानी
नशा देता है शबाब.
छुपे रुस्तम हैं आप
यही तो लब्बो-लुआब

Tuesday, 31 May 2011

स्त्री पुरुष मानसिकता एक विशेष पहलू पर by ZEAL

पुरुष -विचार-----  
रास के महके पलों का दे हिसाब,आसक्ति का मसला बड़ा फिसलन भरा 
पकड़ ढीली कर जुदा अंदाज से, था समर्पण भाव हौले से झुके 
चपल नयनों की पलक थी अधखुली, मदहोश मादक पूर्णिमा में आस्मां
आगोश में आवेश था बिलकुल सफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तेज सिहरन सी उठी थी हूक सी, संस्कारों से बंधा यौवन विवेकी 
क्या करे, इस ज्वार में संबल बिना, आत्मबल भी बह गया उच्छ्वास  में
धैर्य ने भी साथ छोड़ा इस दफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

इस कृत्य  के भागी बराबर के  हुए, था चंद-दिन संतापमय-रोमांच भी
आतुर हुई तुम इस कदर खुद को छली, हाथ का तेरे बना मैं तुच्छ प्यादा
नुक्सान किसका क्या हुआ किसको नफ़ा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

अपना बिगत प्रवास कुछ लम्बा खिंचा, रास्ते तुमने बनाए बीच में कुछ
एक रिश्ते ने अधिक तुमको लुभाया, तोड़कर तुम चल पड़े रिश्ते पुराने
बेवफाई क्यों करी, कर दी खफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तू घड़ों पानी में अब बैठी रहे, प्यास तेरी न बुझेगी सत्य-शाश्वत
खेल के शौकीन हो तुम खेल कर लो, धैर्य धारण कर प्रतीक्षारत रहूँगा 
लौटकर आना पड़ेगा जानता हूँ, प्यार मेरा याद आएगा दुबारा
जब वफ़ा कर न सकी मत कर जफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

स्त्री-विचार---
फ़ूल-पौधों  में सुबह पानी पटाया, द्वार तेरे शाम को दीपक जलाया
छज्जे से अपने, रास्ता ताका किये, कितने दिनों तक याद में फाँका किये
अहले सुबह उस रोज झटका खा गई, मेरे अलावा कौन दूजी आ गई ---
दीपक बुझा के, फर्श बाहर धो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई

सामने सालों रहे खुद को भुलाए, चाय पीने आ गए फिर बिन बुलाये
मम्मी को मेरी आप माँ कहने लगे, हम प्रेम की पींगे बढ़ा बहने लगे
माँ ने हमारी और थोड़ी छूट दी, और तुमने अस्मिता ही लूट ली 
मुश्किल बढ़ी, बेहद सयानी हो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई 

करार मेरा ख़ुशी मेरी खो गई, महबूब की चौखट पराई हो गई
अब पुरानी नीम से बहता है नीर, पीर करती खोखला मेरा शरीर
बेवफा कहने से पहले जान लो, जान लेकर अब हमारी जान लो
जान की दुश्मन स्वयं  की हो गई, प्रेम की मेरी निशानी खो गई
रास  की बाते पुरानी हो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई