सर्ग-2 भाग-3
जन्म-कथा
कौशल्या भयभीत हो, ताके संबल एक |
रक्षा होवे भ्रूण की, दीखे शत्रु अनेक ||
सारे देवी-देवता, चिंतित रही मनाय |
चार दिनों से अनमयस्क, बैठे मन्दिर जाय ||
जीवमातृका वन्दना, माता के सम पाल |
जीवमंदिरों को सुगढ़, करती सदा संभाल ||
शिव और जीवमातृका
धनदा नन्दा मंगला, मातु कुमारी रूप |
बिमला पद्मा वला सी, महिमा अमिट-अनूप ||
माता करिए तो कृपा, कोई भी तो एक |
शत्रु-दृष्टि से बच रहे, बच्चा मेरा नेक ||
संध्या को रनिवास में, रानी बैठी रोय |
उच्छवासें भरती रही, अँसुवन मुखड़ा धोय ||
दशरथ को दरबार में, हुई घरी भर देर |
कौशल्या ना दीखती, कमरे में अंधेर ||
तभी सुबकने की पड़ी, कानों में आवाज |
दासी को आवाज दे, पूँछें दशरथ राज ||
हुआ उजाला कक्ष में, मुखड़ा लिए मलीन |
रानी लेटी भूमि पर, अतिशय वह गमगीन ||
राजा विह्वल हो गए, गए भूमि पर बैठ |
रानी को पुचकारते, होय प्रेम की पैठ ||
बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
कौन रुलाया है तुम्हें, किया कौन नाराज ?
मद्धिम स्वर फिर फूटता, हिचकी होती तेज |
अपने बच्चे को भला, कैसे रखूं सहेज ||
राजा सुनकर हर्ष से, रानी को लिपटाय |
कहते चिंता मत करो, करूं सटीक उपाय ||
अगली प्रात: वे गए, गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ में, मंत्री सबसे ख़ास ||
बनी योजना इस तरह, दुश्मन धोखा खाय ||
रानी के इस गर्भ को, राखे नजर बचाय ||
अगले दिन दरबार में, आया इक सन्देश |
कौशल्या की मातु को, पीड़ा स्वास्थ-कलेस ||
डोली सजकर हो गई, जल्दी ही तैयार |
छद्म वेश में सेविका, बैठी इक हुशियार ||
वक्षस्थल पर झूलता, वही पुराना हार |
जिसको लेकर था भगा, सुग्गासुर अय्यार ||
सेना के संग हो विदा, डोली चलती जाय |
गिद्धराज ऊपर उड़े, पंखों को फैलाय ||
अभिमंत्रित कर महल को, कौशल्या के पास |
कड़ी सुरक्षा में रखा, दास-दासियाँ ख़ास ||
खर-दूषण के गुप्तचर, छोड़े अपनी खोह |
डोली के पीछे लगे, लेने को तब टोह ||
छद्म-वेश में माइके, धर कौशल्या रूप |
रानी हित दासी करे, अभिनय सहज अनूप ||
वर्षा-ऋतु फिर आ गई, सरयू बड़ी अथाह |
दासी उत्तर में रही, दक्षिण में उत्साह ||
देख सकें औलाद को, हुई बलवती चाह |
दशरथ सबपर रख रहे, चौकस कड़ी निगाह ||
सात मास बीते मगर, गोद-भराई भूल |
कनक महल रक्षित रहा, रानी के अनुकूल ||
नवरात्रि के पर्व में, परजा में उल्लास |
कौशल्या कर न सकी, पर अबकी उपवास ||
शरद पूर्णिमा बीतती, अमृत वर्षा होय |
रानी आँगन में जमी, काया रही भिगोय ||
धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||
पीड़ा झूठे प्रसव की, होंठ रखे वो भींच |
रानी सिसकारी भरे, जान न पावे नींच ||
रानी हर दिन टहलती, करती नित व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खाय के, करे तनिक आराम ||
कोसलपुर में उस तरफ, दासी का वह खेल |
खर-दूषण का गुप्तचर, रहा व्यर्थ ही झेल ||
शुक्ल फाल्गुन पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव सिर पर जमे, ईश्वर का आभार ||
पुत्री आई महल में, कौशल्या की गोद |
राज्य ख़ुशी से झूमता, छाये मंगल-मोद ||
एक पाख के बाद में, खबर पाय दश-शीस |
खर दूषण को डांटता, सुग्गा सुर पर रीस ||
कन्या के इस जन्म से, रावण पाता चैन |
चेतो क्षत्रपगण सभी, निकसे तीखे बैन ||
छठियारी में सब जमे, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार पाए वहां, दासी का शुभ काम ||
मालिश करने के लिए, आती थी इक धाय |
छूते ही इक पैर को, कन्या खुब अकुलाय ||
कौशल्या ने वैद्य को, आखिर लिया बुलाय |
जांच परख के बाद में, वैद्य रहा सकुचाय ||
एक पैर में दोष है, कन्या होय अपंग |
सुनकर कडुवे वचन को, कौशल्या थी दंग ||