Sunday 31 October 2021

भगवान राम की सगी बहन: भगवती शांता

 मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता


 प्रबंध काव्य

रचयिता 


दिनेश चन्द्र गुप्ता ' रविकर'

पटरंगा मंडी, अयोध्या

(उत्तर प्रदेश )


* निवेदन*


 हरिगीतिका छंद 


शांता सुता , दशरथ पिता हैं , मातु कौशल्या रहीं।

श्रृंगी मिले पति रूप में, हैं लोकगाथा कुछ कहीं।

श्रीराम की भगिनी मगर, तुलसी महाकवि मौन हैं।

विद्वान - विदुषी पूछते, 'यह देवि शांता कौन हैं.?'


समगोत्र थे माता - पिता, गोत्रीय दोषों का असर ।

दिव्यांग शांता से गई-चम्पावती की गोद भर ।। 

सम्पूर्ण वर्णन के लिए, माँ  शारदे ! तू शक्ति दे । 

माँ ! धृष्टता कर दे क्षमा , सच्ची - सरस अभिव्यक्ति दे ।


* राधिका छंद*


हे राम - भक्त हनुमान , भक्त तव रविकर। 

सुन लो मम आर्त - पुकार , रमापति प्रभुवर। 

वह एक मात्र प्रिय बहन , सहोदरि रामा।

है उन्हें समर्पित काव्य, रचूँ  निष्कामा ।

अनुमति दिलवाकर शीघ्र , काव्य रचवाओ।

है कवि की मति अति-तुच्छ , स्वयं आ जाओ।

अब कृपा करो हे नाथ , जुटे संसाधन। 

जय -  जय - जय शांता देवि , करूँ आराधन। 


* सोरठा *

वन्दौं पूज्य गणेश , एक दंत हे गजबदन ।

जय - जय - जय विघ्नेश , पूर्ण कथा करु पावनी।।


वन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ , कृपा पाय के मूढ़ - मति।

अति गँवार ठठ-ठेठ , काव्य - साधना में रमा।।


गोधन - गोठ प्रणाम , कल्प - वृक्ष गौ - नंदिनी।

गोकुल चारो धाम , गोवर्धन - गिरि पूजता।।


वेद - काल का साथ , सिन्धु सरस्वति जाह्नवी।

ईरानी हेराथ , है सरयू समकालिनी।।


राम - भक्त हनुमान ,  सदा विराजे अवधपुर।

सरयू होय नहान , मोक्ष मिले अघकृत तरे।।


करनाली का स्रोत, मानसरोवर के निकट ।

करते जप - तप होत्र , महामनस्वी विचरते।।


क्रियाशक्ति भरपूर , पावन भू की वन्दना ।

राम - भक्ति में चूर , मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ।।


सरयू अवध प्रदेश ,  दक्षिण दिश में बस रहा।

हरि - हर ब्रह्म सँदेश , स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ।।


पूज्य अयुध  भूपाल , रामचंद्र के पितृ - गण।

गए नींव थे डाल , बसी अयोध्या पावनी।।


द्विगुणित चौपाई 

हैं चौरासी लाख योनियाँ, जीव-जन्तु जिनमें भरमाया।

रहा भोगता एक एक कर, मानव-योनि भाग्यवश पाया।

परिधि तीर्थ की भी चौरासी, कदम-कदम चल पाप नशाया। 

चौरासी का अर्थ समझती, चौरासी अंगुल की काया।


हरिगीतिका छंद 

हो चैत्र की जब पूर्णिमा, तो परिक्रमा हमसब करें।

कुल कोस चौरासी चलें तो पीढ़ियां सारी तरें।।

मखभूमि से समवेत जाते, लौटकर करते विकिर।

आवागमन का चक्र टूटे, छल न पाती मृत्य फिर।।


अक्षय नवम् तिथि मास कातिक कोस चौदह लो टहल।

है दूसरी यह परिक्रमा, हो पूर्ण तो जीवन सफल।

एकादशी शुभ देवउठनी पंचकोसी परिक्रमा।

श्रीराम जी के जन्म-भू की इस परिधि में मन रमा।।


श्रीराम नवमी और सावन-मास के मेले बड़े। 

हनुमत गढ़ी कंचन भवन दशरथ महल मणिगिरि खड़े।

गुप्तार नामक घाट से ही गुप्त होते राम जी।

होता अवध वीरान तब लेकिन पुन: नगरी सजी।।


परवाह कुश ने की तनिक तो  बस गया फिर से नगर।

श्रीकृष्ण जाते रुक्मिणी सह शुभ अयोध्या देखकर।

सँवरा पुन: पावन अवध आदित्य-विक्रम वीर से।

मठ कूप देवालय बने जनगण बसा ऋषि-मुनि बसे।।


प्रतिदिन कतारें लग रहीं श्री राम के दरबार में।

विश्वास-श्रद्धा भक्ति से अति भोर से जनगण जमें।

पावन अयोध्या-धाम में, सरयू प्रवाहित हो रही।

संगम यहीं पर घाघरा का, कर रहा पावन मही।।


 * सोरठा *

माया-  मथुरा साथ , काशी ,  काँची , द्वारिका।

महामोक्ष का पाथ , अवंतिका शुभ अवधपुर ।।


पुरखों का आवास , तीन कोस बस दूर है।

बचपन में ली साँस , नदी किनारे खेलता।।


फागुन में श्री धाम , करें भक्त गण परिक्रमा।

पटरंगा मम - ग्राम , चौरासी कोसी परिधि।।


सरसी-छंद 

सूर्यवंश के उन्तालिसवें, थे दशरथ जी भूप |

दशरथ का रथ-संचालन था, अद्भुत त्वरित अनूप |

मातु-पिता थे इन्दुमती अज, असमय जाते स्वर्ग ।

कर के वंदन ईष्ट-देव का , पढ़िए पाँचो सर्ग।।


*सर्ग -1 भाग-1*


*दशरथ - बाल-कथा*--


 * विधाता छंद *

अयोध्या के महाराजा जिन्हें सब अज बुलाते हैं।

सुबह से इंदुमति को ही बगीचे में झुलाते हैं।

नहीं दरबार जाते वे , महल में भी न आते हैं।

पड़े हैं प्रेम में ऐसे कि शिशु को भी भुलाते हैं।


व्यवस्था हो गई चौपट , गुरूजी हैं बहुत चिंतित। 

प्रजा बेहद दुखी रहती , उपेक्षित हो रहा जनहित। 

महामंत्री करे तो क्या , न होते कार्य  निष्पादित। 

करे उद्धार अब कोई , अयोध्या हो चुकी शापित।।


* दोहा *


क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही , परम सौख्य परितोष।

सुन्दरता पागल करे , मानव का क्या दोष ।।


झूले  मुग्धा  नायिका , राजा  मारे  पेंग ।

वेणी लगती वारुणी ,  रही दिखाती  ठेंग।।


राज  - वाटिका  में  रमे , चार पहर से आय।

तीन मास के पुत्र को , धाय रही बहलाय।।


नारायण नारायणा , नारद निधड़क नाद।

करें गगन से भूप का , रविकर दूर प्रमाद ।।


* विधाता छंद *

गगन से उस बगीचे में , गिराते पुष्प की माला । 

गले में इंदुमति के वो , पड़ी तो खुल गया ताला । 

रही वो स्वर्ग की मलिका , गया भवितव्य कब टाला। 

समय अभिशाप का पूरा , पिला दी भूप को हाला ।।


दोहा छंद 

माँ का पावन रूप भी , सका न उसको रोक।

तीन मास के लाल को , छोड़ गई  सुर-लोक।।


विरही ने जाकर महल , कदम उठाया गूढ़।

भूल पुत्र को कर लिया , आत्मघात वह मूढ़ ।।


 * सरसी छंद *

उदासीनता ऊब उदासी , उहापोह उद्वेग।

उलाहना , उन्मत्त , उग्रता , उन्मादी आवेग। 

दर्द हार गम जीत व्यथा सुख , अश्रु हँसी छल दम्भ। 

जीवन के स्वाभाविक अवयव , कर जीवन प्रारम्भ।


मरने से मुश्किल है जीना , किन्तु न हिम्मत हार । 

कायरता ने किया किसी का , कभी कहाँ उद्धार ।

महत्वकांक्षा शक्ति सम्पदा , द्वेष , मोह , मद , प्यार। 

सम्यक मात्रा बहुत जरूरी , औषधि - सम व्यवहार ।।


* दोहा *

 प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत , माँगे प्यार अपार।

जहाँ  कहीं   देना   पड़े , करे व्यर्थ तकरार।।


माता की ममता छली , करता पिता अनाथ ।

रो -रो कर शिशु जीतता , पाकर सबका साथ ।।


          *****


भाग-2


कौशल्या-दशरथ  


सार छंद 

दुख की घड़ी गिनो मत रविकर, घड़ी घड़ी सरकाओ।

धीरज हिम्मत बुद्धि नियंत्रित, प्रभु को मत बिसराओ।

दिन-रात न डूबे रहो अश्रु में, कभी न खुद को खोना।

समय-चक्र गतिमान रहे नित,  छोड़ो रोना-धोना।।


दोहा छंद 

क्रियाकर्म विधिवत हुआ, तेरह-दिन का शोक ।

आसमान शिशु ताकता, खाली महल बिलोक ||


आँसू  बहते अनवरत, गला गया था बैठ |

राज भवन में थी मगर, अरुंधती की पैठ ||


पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |

विकट समय में पालती, बालक को निष्काम |।


गुरू वशिष्ठ ने कर दिया, नामकरण संस्कार।

दशरथ कहलाने लगे, रविकर राजकुमार।।


सरसी छंद 

बुला महामंत्री को देते, गुरु-वशिष्ठ आदेश। 

महागुरू मरुधन्वा का मठ, काटेगा हर क्लेश। 

बालक को ले जाओ आश्रम, सुंदरतम परिवेश। 

दूध नन्दिनी का पीकर ये, होंगे अवध नरेश।।


सरयू के दोनों तीनों पर, सूर्यवंश के भूप |

दोनों का शासन चलता है, नीति-नियम अनुरूप |

राजा अज से परम मित्रता, रहा परस्पर गर्व |

दुर्घटना से हुआ दुखी मन, मना न कोई पर्व||


अवधपुरी आने लग जाते, प्राय: कोसलराज |

साधु-साधु जनगणमन कहता, रुके न कोई काज |

कोशल सुता वर्षिणी आती, रानी भी हो संग ।

करते सब मिलजुल कर कोशिश, भरे अवध नवरंग ।।


गीतिका

नन्दिनी का दूध पीकर, अन्नप्राशन के लिए। 

उस महल में आ गये, जो साज-सज्जा सब किए।

हो गया सम्पन्न उत्सव, वर्षिणी थी भोर से।

अन्न दशरथ को खिलाई, खिलखिलाई जोर से।।


दोहा छंद 

धीरे-धीरे बीतता, दुख से बोझिल काल |

राजकुँवर भूले व्यथा, बीत गया वह साल |।


सार छंद


सारा कोसलराज्य झूमता, बजती वहाँ बधाई |

पिता बने भूपति दोबारा, नवकन्या मुस्काई।

हर्षित हो वर्षिणी झूमती, छोटी बहना पाकर।

अवधपुरी से सभी पधारे, राजकुँवर खुश आकर.


दोहा

कन्या कोशलराज की, पाई सुंदर नाम.

कौशल्या कहला रही, सद्गुण दिखें तमाम.


हरिगीतिका 

शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए आश्रम पुन: दशरथ गये.

विधिवत शुरू शिक्षा हुई, नित सीखते कौशल नये.

बनते कुशल योद्धा वहाँ, हर शास्त्र-सम्मत नीति पढ़

करते दसों दिश में रथों का वे प्रचालन अति सुघड़.


है शब्द -भेदी वाण के संधान पर उत्तम पकड़.

प्रत्यक्ष युद्धों में उतारें शत्रु की दशरथ अकड़.

उत्थान हो पावन अवध का, एक ही तो ध्येय है.

कण-कण यहाँ का पूज्य है, जनगण परम श्रद्धेय है.


हो राजतिलकोत्सव अवध में, नृप पधारे हैं कई ।

कौशल महीपति भी पधारे, सँग कुमारी आ गई। 

पहचान पक्की हो रही, मजबूत रिश्ता हो रहा।

दोनों कहें कुछ भी नहीं, सुनते मगर सब अनकहा।।


भाग-3


रावण, कौशल्या और दशरथ


सरसी-छंद 

दशरथ-युग में ही जनमा था, रावण सा शैतान |

पंडित ज्ञानी वीर साहसी, कुल-पुलस्त्य का मान ||

शिव-चरणों में नित्य चढ़ाता, काट-काट दस शीश। 

लेकिन कृपा न पाया शिव की, प्रगटे नही सतीश।।


युक्ति दूसरी करे दशानन, मुखड़ों पर मुस्कान ।

छेड़ रहा वीणा  से पावन, सामवेद  की  तान ||

भण्डारी ने किया भक्त पर, अपनी कृपा अपार |

प्राप्त शक्तियों से हो जाते, पैदा किन्तु विकार ||


पाकर शिव-वरदान वहाँ से, जाता ब्रह्मा पास |

श्रद्धा से वन्दना करे तो, होता सफल प्रयास |

ब्रह्मा से परपौत्र दशानन, पाता जब वरदान |

सौंप दिया ब्रह्मास्त्र उसे फिर, अस्त्र-शस्त्र की शान ||


द्विगुणित चौपाई-

शस्त्र-शास्त्र का परम धनी वह, ताकत भी भरपूर बढ़ाया।

मांग रहा अमरत्व दशानन, पर ब्रह्मा ने यूँ समझाया ।

मन की आँखे खोलो रावण, कभी नहीं है ऐसा सम्भव।

मृत्यु सभी की अटल सत्य है, चाहे हो मानव या दानव।


सरसी छंद 

इतना कहकर करते ब्रह्मा, रावण को आगाह। 

कौशल्या दशरथ का होगा, जल्दी ही शुभ व्याह। 

प्रथम-पुत्र के हाथों से ही, होगा तेरा अंत।

ऐसा सुनते ही रावण ने, निश्चय किया तुरंत।


दोहा

चेताती  मंदोदरी, नारी-हत्या पाप |

झेलोगे कैसे भला, भर जीवन संताप ||


सरसी छंद 

रावण के अनुचर निश्चर कुछ ,  पहुँचे  सरयू तीर |

कौशल्या का हरण करें वे, करके शिथिल शरीर |

बंद पेटिका में कर देते, देते जल में डाल |

आखेटक दशरथ ने देखा, हुए क्रोध से लाल ||


झट जाकर निश्चर से भिड़ते, चले तीर-तलवार।

जल-धारा में दशरथ कूदे, गये दैत्य जब हार|

आगे आगे बहे पेटिका, पीछे भूपति वीर |

शब्दभेद से उन्हें पता था, अन्दर एक शरीर ||


बहते बहते गई पेटिका, गंगा में अति दूर। 

लेकिन दशरथ रहे तैरते, यद्यपि थककर चूर| 

बेहोशी छाने से पहले, करता मदद जटायु |

पत्र-पुष्प-जड़-छाल अर्क से, करता सक्रिय स्नायु ||


भूपति की बेहोशी जाती, करे असर संलेप |

गिद्धराज के सम्मुख सारी, कथा कही संक्षेप |

बनो मित्र अब मेरा वाहन, करो सिद्ध यह काम।

पहुँचाओ अतिशीघ्र वहाँ पर, लेकर हरि का नाम।।


बहुत दूर तक उड़े खोजते, पहुँचे सागर पास |

जैसे मिली पेटिका खोली, हुई बलवती आस ||

कौशल्या बेहोश पड़ी थी, साँस रही थी टूट।

नारायण-नारायण नारद, सब यश लेते लूट ।।


नारायण नारायण सुनकर, कौशल्या चैतन्य।

मिल जटायु नारद दशरथ से, राजकुमारी धन्य ||

घटना घटती गंगातट पर, डूब गए छल-दम्भ।

होते एकाकार युगल-मन, पूर्णाहुति प्रारम्भ।।


मुनि नारद भवितव्य जानकर, रखते पूरा ध्यान ।

देकर के उपदेश युगल का,  दूर करें अज्ञान ।|

फिर विधिवत करवाते मुनिवर,  हर वैवाहिक रीत |

दशरथ को मिल जाती ऐसे, कौशल्या मनमीत ||


दोनों को लेकर उड़ पहुँचे, गिद्धराज साकेत|

भावी कड़ी पिरोकर नारद, दे जाते संकेत ||

अवधपुरी फिर सजी स्वर्ग सी, आये कोशलराज |

पुन: वहाँ दुहराये जाते, सब वैवाहिक काज ||


भाग-4


रावण के क्षत्रप


सोरठा


रास-रंग-उत्साह,  अवधपुरी में जम रहा  |

उत्सुक देखे राह, कनक-महल सजकर खड़ा ||


चौरासी विस्तार, अवध-नगर का कोस में |

अक्षय धन-भण्डार,  हृदय-कोष सन्तोष-धन |


कनक-भवन आगार, अष्ट-कुञ्ज थे द्वार सह  |

पाँच कोस विस्तार, वन-उपवन बारह सजे ||


शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज नहान भी |

झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||


चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |

केसर-कदम-तमाल, वन विचित्र नाग्केसरी-||


लौंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |

 वृन्दावन नायाब, उपवन जूही माधवी ||


करें भ्रमण हर शाम, कौशल्या दशरथ मगन |

इन्द्रपुरी सा धाम, करते ईर्ष्या देवता ||


रावण के उत्पात, रहे झेलते साधुजन |

बैठ लगा के घात, कैसे रोके अरि जनम  ||


था मायावी पाश, आया कल ही अवधपुर ।

करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||


सरसी-छंद 

मस्त मगन कौशल्या झूमे, चार दासियों संग।

आया रावण का मायावी, उपवन  जहाँ अनंग।

शाखा पर जाकर छुप जाता, धरे सर्प का रूप। 

सूर्यदेव ने झटपट ताड़ा, पड़ी तनिक जो धूप।।


सिर पर वो फुफकार रहा है, महापैतरेबाज |

शब्द-भेद कर उसे मारते, दशरथ सुन आवाज |

यदा-कदा होते रहते हैं, रावण के षड्यंत्र। 

सूर्य-वंश आगे बढ़ता है, जीवन के शुभ-मंत्र ।।


सूर्यदेव का तेज निराला, गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान ।

सदा-सर्वदा बढ़ा रहा है, अवधपुरी की शान |

सोने की लंका से रावण, करें नित्य उत्पात |

यज्ञ नष्ट करता -करवाता, प्राणान्तक आघात.


रावण सम त्रिशिरा बलशाली, खर-दूषण बलवान |

गुप्त रूप से अवधपुरी में, डालें नित व्यवधान |

मठ आश्रम इत्यादि जलाते, शठ सुबाहु मारीच |

वध कर देते ऋषि-मुनियों का, सरेआम ये नीच ||


भूमि अवध की रहे ताकते, कुत्सित नजर गड़ाय, 

लंका  के अधिपति को नियमित, खबर रहे पहुँचाय ।

कौशल्या को गये मायके, गए मास दो बीत |

दिनकर छुपा पाख भर पूरा, पड़ी गजब की शीत'||


जगह-जगह पर सकल राज्य में, जलने लगे अलाव |

सहन नहीं कर पाते भूपति, रविकर यह अलगाव |

जाते विदा कराने मंत्री, ले सुमंत का मंत्र। 

कौशल्या की मृत्यु चाहता, रचता खर षड्यंत्र ||


लगा स्वयं रथ को दौड़ाने, असली घोड़ा मार ।

अश्व छली लेकर रथ भागा, वह ज्यों हुई सवार |

नहीं सूझता हाथ, हाथ से, धुंध भयंकर छाय |

मंत्री सैनिक रहे हाथ मल, रथ तो भागा जाय ||


बड़ी विकट रथ की गति रविकर, कौशल्या हलकान। 

कोचवान भी नहीं दीखता,  पड़ा मार्ग वीरान |

बंद पेटिका उसे याद थी, समझ गई हालात ।

कूद सुरक्षित गई भूमि पर, खाकर कुछ आघात |।


झाड़ी में जाकर छुप जाती, लुढ़क गई कुछ दूर|

पड़ी रही बेसुध कौशल्या, चोट लगी भरपूर। 

दौड़ाए सैनिक गण जाते, मंत्री चतुर सुजान |

है रानी की किस्मत अच्छी, पथ पर दिखे निशान।


सोरठा छंद 

लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |

नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||


खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |

अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||


रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |

रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||


रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |

वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||


दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |

भेजे धावक ख़ास, समाचार सब जानने ||


भाग-5


रावण का गुप्तचर  


हरिगीतिका छंद 

असफल हुआ षडयंत्र खर का, किन्तु वह लंका गया।

गमगीन मुखड़ा देखकर, आई दशानन को दया।

क्यों हो दुखी, क्या हो गया, कारण बताओ तो सही।

है गर्भ गिरने का कहीं अफसोस तो तुमको नहीं।


किस गर्भ की है बात राजन, खर हुआ आश्वस्त अब।

कैसे हुआ किसका हुआ, आया यहाँ संदेश कब।

गतिमान रथ से कूदती, दौड़ा रहे तुम तेज जब।

आघात कौशल्या सही थी, गिर गया वह भ्रूण तब।।


सार छंद 

सज्जन खुशियाँ बाँटा करते, दुर्जन कष्ट बढ़ाते।

दुर्जन मरकर खुश कर जाते, सज्जन किन्तु रूलाते।

खुशी मनाए सारी लंका, दुखी अयोध्या कोशल।

सुग्गासुर खर के सँग आया, लगा दिखाने छल-बल।।


सरसी-छंद 

समाचार लेकर हरकारे , आये दशरथ पास |

दुघर्टना सुनकर हो जाता, सारा अवध उदास |

पर दशरथ ने धैर्य न खोया, सुना सकल दृष्टांत ।

असहनीय दुष्कर लगता सब, होता चित्त अशांत ।।


गुरुकुल में शावक का मरना, हिरनी आई याद |

अनजाने आहत अंतस ने, चखा दर्द का स्वाद |

आहों से कैसे भर सकते, मन के गहरे घाव ।

समय स्नेह की मरहम-पट्टी शमन करेंगे भाव ।।


गुरु की अनुमति प्राप्त हुई तो, पहुँच गये ससुरार |

कौशल्या की पीर मिटी ज्यों, नैना होते चार |

सूरज ने संक्रान्ति मकर से, दिए किरण उपहार |

कटु-ठिठुरन थमने से रविकर, चमक उठा संसार ||


दशरथ के सत्संग स्नेह से, घटना भूल अनीक |

दवा-दुआ से कौशल्या मन, जल्दी होता ठीक ।।

विदा कराकर आ जाते फिर, राजा-रानी साथ |

जनगण की चिंता घट जाती, होकर पुन: सनाथ ||


दोहा छंद 

शनैः शनै बीता शरद, छोटी होती रात |

हवा बसंती बह रही, होता शीघ्र प्रभात |


सुलेखा छंद 

दिग-दिगंत बौराया | मादक  बसंत आया ||

तोते सदा पुकारे |  मैना मन दुत्कारे ||

काली कोयल कूके | जनगण होली फूंके ||

सरसों पीली फूली | शीत शेष मामूली  ||

भौरां मद्धिम गाये  | तितली मन बहलाए ||

भाग्य हमारे जागे | ऊनी कपड़े त्यागे ||


सार छंद 

पीली सरसों लगी फूलने, हैं प्रसन्न नर नारी।।

कृषक निराई करे कहीं पर, कहीं सिंचाई जारी ||

पौधे भी संवाद परस्पर, करें अनवरत रविकर। 

गेहूं जौ से गले मिले तो, खुशी फैलती घर घर।|


सरसी छंद 

तरह तरह की जीव जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |

लगे विचरने सभी प्रसन्न मन, नए सीखते ढंग |

कौशल्या रह रही मगन-मन, वन-उपवन में घूम ||

धीरे धीरे भूल रही गम, कली-कुसुम को चूम ||


दोहा

पहले कुल पत्ते झड़ें, फिर गिरते फल-फूल।

पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।।


सार छंद 

कौशल्या के नवल-गर्भ की, पूरी रक्षा करना।

दशरथ चिंतातुर दिखते पर, नहीं जानते डरना।

रहे सुरक्षित जातक नारी, सता न कोई पाये।

पिता-पुत्र-पति का संरक्षण, आगे बढ़ मुस्काये।।


तोते कौवे बढ़े अचानक, कम होती गौरैया।

पर रहस्य न समझ सके नृप, रम्भाती क्यों गैया।

पर जटायु को बुलवाते वह, जो झटपट आ जाते।

रहे किन्तु वह छद्म रूप में, शुभचिंतक के नाते।


सरसी छंद 

गिद्ध-दृष्टि रखने लग जाते, बदला-बदला रूप |

अलंकरण सब त्याग दिए थे, खुश हो जाते भूप ||

जान रहे थे केवल दशरथ, होकर रहें सचेत |

अहित-चेष्टा में हैं दानव, खर-दूषण से प्रेत ||


सुग्गासुर अक्सर उड़ आता, राजमहल की ओर |

पर जटायु को देख हटे वह, हारे मन का चोर |

चमक रहा सुन्दर तन लेकिन, रखता छुद्र विचार |

स्वर्ण-पात्र में पड़ी हुई ज्यों, कीलें कई हजार ||


एक दिवस कौशल्या जाती, वन-रसाल उल्लास |

सुग्गासुर की मीठी बोली, आती उनको रास।

माथे पर टीका सुन्दर सा, लेता है मनमोह |

ऊपर से वह भला लगे पर, मन में रखता द्रोह ||


मत्तगयन्द सवैया

बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।

साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।

मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।

दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।


सरसी छंद 

रानी आ जाती फिर वापस, आई अब नवरात |

दुर्गा माँ को पूज रही वे, जाकर नित्य प्रभात।

सुग्गासुर की दृष्टि हमेशा, स्वर्ण हार पर ख़ास |

अवसर पाकर उड़ा एकदिन, लेकिन व्यर्थ प्रयास  ||


देख रहा था उसे गिद्ध वह, करे मार्ग अवरूद्ध |

सुग्गासुर से भिड़ जाता फिर, होकर अतिशय क्रुद्ध |

जान बचाकर भगा वहाँ से, था कच्चा अय्यार ||

आश्रय पाया वह सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||


सार छंद 

रानी पाकर हार दुबारा, अति प्रसन्न हो जाती।

राजा का उपहार हार वह, पहन पुन: मुस्काती।

पूरा करके व्रत नवमी को, नौ कन्या बुलवाती |

धोकर उनके चरण पूजती, पूड़ी-खीर जिमाती ||


दोहा

दारुण होता जा रहा, 'रविकर' दिन का ताप ।

हुए पाँव भारी मगर, कौशल्या चुपचाप ||


गीतिका छंद 

आम इमली भी नहीं, लगते उन्हें स्वादिष्ट अब।

यदि बढ़े चिंता चिता सी, व्यर्थ छप्पन-भोग तब।

स्वयं से संघर्ष कर के, प्राप्त करना है विजय।

अन्यथा हो हानि अपनी, हो न सकता दूर भय।।


दोहा

हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |

कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह।।


भाग-6


शांता जन्म-कथा 


हरिगीतिका छंद 

भयभीत कौशल्या रहे, वह रह रही चिंतित सदा । 

आतंक फैला शत्रु का, कैसे टले यह आपदा । 

कुलदेवता रक्षा करो, इस भ्रूण की तुम सर्वदा । 

अथ देवि-देवों को मनाती, भाग्य में है क्या बदा ॥ 


दोहा 


धनदा-नन्दा-मंगला, मातु कुमारी रूप |

माँ विमला-पद्मा-वला, महिमा अमिट-अनूप ||


जीवमातृका  वन्दना, काट सकल जंजाल |

सुगढ़ जीवमंदिर करो, माता रखो सँभाल ||


हरिगीतिका छंद 

रोती रही रनिवास में रानी सुबह से अनवरत्।

उच्छ्वास भरकर अश्रु से सिंचित करे धरती सतत्।

दरबार से दशरथ घड़ी भर, देर से पहुँचे महल।

दिखती न कौशल्या कहीं, होने लगे भूपति विकल।


कोई न दीपक जल रहा, घेरा अँधेरा है विकट।

फिर देख दशरथ को वहाँ, कुछ दासियाँ आई निकट।

दशरथ कुपित हो डाँटते, थी पास जो दासी खड़ी।

लेकिन सुबकने की तभी आवाज कानों में पड़ी|


होता उजाला कक्ष में, रानी पड़ी थी भूमि पर।

भूपति हुए विह्वल बहुत, यह दृश्य रविकर देखकर।

झट पास जाकर बैठकर, सहला रहे हैं भूप सिर।

पुचकार कर दुलरा रहे, करते प्रदर्शित प्रेम फिर। 


दोहे

 बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |

कौन रुलाया है तुम्हें, किया कौन नाराज ??


बढती जीवन-साँस यदि, जाये निकल भड़ास ।

आँसू बह जाएँ अगर, घटे दर्द अहसास ।।


विधाता छंद

हरे हों जख्म या सूखे कभी जग को दिखाना मत।

गली-कूँचे नगरपथ पर कभी निज दर्द गाना मत।

मिले मरहम नहीं घर में, मगर मिलते नमक-मिर्ची।

बचा दामन निकल रविकर, कभी आँसू बहाना मत।।


सरसी छंद 

मद्धिम स्वर में बोली रानी, यद्यपि हिचकी तेज |

इस बच्चे को कैसे हमसब, बोलो रखें सहेज |

ऐसा सुनकर दशरथ झटपट, लेते अंग लगाय |

कहते चिंता करो नहीं अब, करूं सटीक उपाय ||


सुबह-सुबह दशरथ जा पहँचे , गुरु वशिष्ठ के पास |

थे सुमंत भी साथ भूप के, जिन पर अति-विश्वास |

गुप्त योजना बनी वहाँ पर, शत्रु न पाया जान।

गर्भ सुरक्षित किया गया फिर, काट सकल व्यवधान ||


अगले दिन दरबार सजा था, आया यह सन्देश |

कौशल्या की माता को है, कुछ शारीरिक-क्लेश।

डोली सज तैयार हुई तो, कौला भी तैयार |

छद्म वेश धर कौशल्या का, डाल गले में हार ||


वक्षस्थल पर झूल रहा था, वही पुराना हार |

जिसको लेकर कभी भगा था, सुग्गासुर अय्यार ||

संग चली सेना के डोली, बहती शीतल वायु।

साथ-साथ उड़ता चौकन्ना, सबके साथ जटायु।।


अभिमंत्रित कर राजमहल को, कौशल्या के पास |

गुप्त रूप से कड़ी सुरक्षा, करें दासियाँ दास ।

खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे ठिकाना छोड़। 

डोली के पीछे चल देता, उन सबका गठजोड़।


कौला कौशल्या बन जाती, हैं प्रसन्न अब भूप।

रानी का हित दासी साधे, अभिनय सहज अनूप ||

वर्षा-ऋतु फिर आ जाती तो, सरयू बड़ी अथाह |

दासी तो उत्तर में रहती, दक्षिण में उत्साह ||


देखूँ अब संतान स्वयं की, हुई बलवती चाह |

दशरथ  सबपर  रखें स्वयं भी, चौकस कड़ी निगाह |

सात मास बीते ऐसे ही, गोद-भराई भूल |

कनक महल संरक्षित रहता, रानी के अनुकूल ||


आया फिर नवरात्रि पर्व तो, सकल नगर उल्लास |

गर्भवती रानी ने लेकिन,  नहीं किया उपवास |

आँगन में बैठी बैठी वह, काया रही भिगोय |

शरद पूर्णिमा भी बीती यों, अमाँ अँधेरी होय ।।  


किरीट  सवैया ( S I I  X  8 )

झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ  घर-बाहर ।

दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।

दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।

नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव  जै शिव-शंकर ।।


दोहा छंद 

धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |

शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||


प्रसव-पूर्व की पीर है, रही होंठ वो भींच |

रानी सिसकारी भरे, जान न पाते नींच |


सरसी छंद 

वह तो टहले बड़े कक्ष में, करे नित्य व्यायाम |

पौष्टिक भोजन खाकर करती, हल्के-फुल्के काम |

कोसलपुर में चले अनोखा, दासी का वह खेल |

खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे व्यर्थ ही झेल |।


मास फाल्गुन शुक्ल पंचमी, मद्धिम बहे बयार |

सूर्यदेव हैं जमे शीश पर, ईश्वर का आभार |

पुत्रीजन्म महल में होता, कौशल्या हरसाय |

राज्य ख़ुशी से लगा झूमने, जनगण  नाचे गाय ||


एक पाख उपरांत प्राप्तकर, समाचार दस-सीस |

खर दूषण को डांट पिलाता, सुग्गा सुर पर रीस |

किन्तु जन्म कन्या का सुनकर , रावण पाता चैन |

फिर भी डपटा क्षत्रपगण को, निकसे तीखे बैन || 


छठियारी में सब जन आये, पावें सभी इनाम |

स्वर्ण हार कौला ने पाया, किया काम निष्काम ||

गिद्धराज गिद्धौर गये फिर, कर दशरथ का काम | 

सम्पाती से जाकर मिलते, करते शोध तमाम || 


दोहा

दूरबीन  का कर रहे, वे प्रयोग भरपूर | 

प्रक्षेपित कर यान को, भेजें दूर-सुदूर ||


सरसी छंद 

जच्चा-बच्चा की सेवा में, लगती कौला धाय |

एक पैर को छूते ही वह , सुता उठी अकुलाय |

कौशल्या ने राजवैद्य को, झटपट लिया बुलाय |

जांच परख समुचित कर कहते, तथ्य तनिक सकुचाय |।


एक पैर में अल्पदोष है, लगे न स्वस्थ शरीर । 

सुनकर अप्रिय वचन वाण सम, रानी सहती पीर |

फटा कलेजा महाराज का, निकली मुख  से आह।

कैसे सेहतमंद सुता हो, करने लगे सलाह ।।


सर्ग 2

भाग-1


सम गोत्रीय विवाह


सरसी छंद 

राजकुमारी की पीड़ा से, मर्माहत भूपाल। 

देख-देख कौशल्या विह्वल, राजमहल बेहाल।

राजवैद्य की औषधि भी तो, सकी न स्वास्थ्य सुधार।

कैसा भावी जीवन होगा, क्या सटीक उपचार।।


हरिगीतिका 

तब मार्ग-दर्शन के लिए गुरुगृह स्वयं दशरथ गए ।

कर दंडवत संतान के आसन्न दुख कहते भये ।

गुरुवर कहें कुल वैद्य चर्चित लो बुला संसार के ।

हों वैद्य सारे देश के, हों वैद्य सागर पार के ।।


पीड़ा बढ़ी हद से अधिक मस्तिष्क-मन अकुला रहे।

तब जख्म की वह रोशनाई कथ्य कागज से कहे।

करता हुआ उद्यम मनुज, लगता सदा जग में सही।

सद्कर्म ही पूजा सही, बाकी लगे सब झूठ ही।।


सरसी छंद 

वैज्ञानिक ऋषि वैद्य आदि को, आमंत्रण भिजवाते।

हरकारे आमंत्रण लेकर, दिशा -दिशा में जाते॥ 

नीमसार की पावन-भू पर, मंडप बड़ा सजाया |

श्रावण की पूर्णिमा बीतती, हर आमंत्रित आया ||


सम्मेलन कल से होना पर, होते वैद्य अधीर.

जाँच कुमारी की करते तो, सह न सकी वह पीर |

विषय बहुत ही साफ़-साफ़ था, वक्ता थे शालीन |

सबका क्रम निश्चित हो जाता, हुए सभी आसीन ||


उद्घाटन करने जब आये, अंग-देश के भूप |

नन्हीं बाला का देखा फिर, सौम्य सरस सा रूप |

स्वागत भाषण पढ़ कर करते, राज वैद्य अफसोस |

जन्म-कथा सारी कह जाते, रहे स्वयं को कोस ||


वक्ता-गण फिर रखने लगते, वर्षों की निज खोज |

सुबह-सुबह ही हो जाती थी, परिचर्चा हर रोज |

दूर दूर से आते रहते, नित्य कई बीमार  |

शिविरों में कर रहे वैद्य-गण, उन सबका उपचार ||


दोहा छंद 

रहो छिडकते इत्र सा, मदद दया मुस्कान |

खुशबू सी फैले ख़ुशी, बढ़े जान-पहचान |।


भर जीवन सुनता रहे, देखे दर्द अथाह | 

एक वैद्य की है अजब, सरल-विरल सी राह ।।


चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |

गोत्रज व्याहों की विकट, महाविकलता देन ||


सरसी-छंद 

मातु-पिता कौशल्या-दशरथ, हैं दोनों गोतीय |

अल्पबुद्धि दिव्यांग बदन सम, दे दुष्फल नरकीय |

गुण-सूत्रों में रहे विविधता, अति-आवश्यक चीज |

मात्र खीज पैदा करते हैं, रविकर गोत्रज बीज  ||


 गोत्रज दुल्हन प्राय: जनमे, एकल-सूत्री रोग |

 दैहिक सुख की विकट लालसा, बेबस संतति भोग |

साधु साधु कहने लगते तब, सब श्रोता विद्वान |

सत्य वचन हैं वैद्य आपके, बोले वैद्य महान ||


अब तक के वक्तागण सारे, करके अति संकोच |

मूल विषय को टाल-टाल वे , रखें अन्य पर सोच |

सारे तर्क अकाट्य रखे तो, छाये वहाँ सुषेन |

भारी वर्षा होकर थमती, नीचे बैठी फेन ||


आदर से नृप दशरथ कहते, वैद्य दिखाओ राह |

विषम परिस्थिति में नारद ने, करवाया था ब्याह |

नहीं चिकित्सा शास्त्र बताता, इसका सही उपाय |

गोत्रज जोड़ी सदा सदा से, संतति का सुख खाय ||


दोहा छंद 

इस प्रकार प्रस्तुत करें, बातें वैद्य अनेक ।

ऋष्य विविन्डक ने कहा, मार्ग बचा है एक ॥


संतति हो ऐसी अगर, झेले अंग-विकार |

गोद किसी की दीजिये, रविकर मोह विसार ||


प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |

धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होता जय जय घोष ||


सवैया  

गोतज दोष विशेष लगे, तनया विकलांग बनावत है ।

माँ बिलखे चितकार करे, कुल धीरज शाँति गंवावत है ।

वैद गुनी हलकान दिखे, निकसे नहिं युक्ति, बकावत है ।

औध-दशा बदहाल हुई, अघ रावण हर्ष मनावत है ।।  


सार छंद 

अंगराज दशरथ से मिलकर, करते एक निवेदन। 

शांता हमको सौंप दीजिए, रिक्त हमारा आँगन।

रानी इनकी देवि वर्षिणी, कौशल्या की बहना | 

चम्पारानी उन्हें कहें सब, उनका भी यह कहना ||


बारह वर्ष ब्याह को होते, गोद अभी भी खाली।

डालो सुता गोद में मेरी, कहकर सुता उठा ली।।

कैसे दे दें सुता गोद में, दशरथ का मन भारी ।

निर्णय करना बहुत कठिन है, मन का  मंथन जारी॥  


सरसी छंद 

सहमत हो जाती कौशल्या, चुनी सुता-कल्याण।

लगकर गले कहे बहना से, बसें सुता में प्राण।

रस्म गोद लेने की रविकर, हुई शीघ्र सम्पन्न |

दो दो माता पिता प्राप्त कर, कन्या हुई प्रसन्न।।


दिव्य-अंग की सुता अंगजा, कर ली अंगीकार |

अंगराज दशरथ का करते, बहुत-बहुत आभार |

फिर सुषेन के शिविर पहुँचकर , बोले अवध नरेश |

अब क्या करना होगा मुझको, ताकि कटे यह क्लेश।।


बोले वैद्य सुषेन प्रेम से, सुनिए हे महिपाल |

ऐसी संताने सहती हैं, बीमारी विकराल |

गोत्रज ब्याह कभी मत करिए, इसे दीजिए टाल | 

इसकी स्वीकृति खड़ी करे नित, रविकर बड़े सवाल ||


परिजन लेते गोद अगर तो, रखें अपेक्षित ध्यान |

दोष दूर हो जायेगा यदि, हो सहाय भगवान् ॥

पानी हवा प्रांत जब बदले, गुण नवीन हों प्राप्त। 

संयम विद्या बुद्धि रूप बल, साहस बढ़े पर्याप्त ||


सहज रूप से सफल हुआ अब, रावण का अभियान |

दूर हुआ रनिवास भूप से, विधि का यही विधान |

कोई नया अगर आ जाये, अथवा जाये छोड़।

जीवन परिवर्तित कर देता, वह अस्तित्व झिंझोड़ ।।


दोहा छंद 

नीमसार से सार गह, लौटे अवध नरेश।

लौटे आमंत्रित सभी, अपने-अपने देश।।


चम्पारानी रोमपद, नवकन्या के संग। 

बने अवधपति के अतिथि, अभी न जाते अंग।।


प्रगट करें कृतज्ञता, कौशल्या के भाव ।

हृदय-पटल पर जल रहा, यद्यपि एक अलाव ।।


भाग-2


कन्या का नामकरण


सरसी-छंद 

अंगराज जब चलने लगते, लेकर सकल समाज |

कौशल्या दशरथ कहते हैं, रुको और अधिराज |

चलने की आज्ञा अब दे दो,  राजन हमें विहान |

राज काज का होता हरदिन, मित्र बहुत नुकसान |।


सुबह सुबह तैयार पालकी, अतिथि सभी तैयार |

अंगराज भी रथ पर होते, मय परिवार सवार |

दशरथ विनती कर देते हैं, उनको एक सुझाव |

सरयू में तैयार खड़ी है, बड़ी राजसी नाव ||


जल धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |

चार दिनों की ही यात्रा है, हों मत अधिक अधीर |

चंपानगरी दूर बहुत है, पूरे दो सौ कोस |

उत्तम यह प्रस्ताव मिला है, दिखे न कोई दोष ||


आठ माह की मात्र आयु थी, बदल गया परिवार |

अंग देश को चल पड़ती वह, सरयू अवध विसार |

कौला भी कौला सी चलती, नव-कन्या के संग |

जननी आती याद सतत् तो, करती कन्या तंग।।


पहुंचे उत्तम घाट जहाँ पर, बँधी बड़ी सी नाव |

हर नाविक ही बहुत कुशल है, परिचित नदी बहाव |

बैठ गये सब लोग चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |

घोड़े-रथ तट पर चल पड़ते, लेकर सैनिक चंद ||


धीरे धीरे गति बढ़ जाती, सीमा होती पार |

गंगा में सरयू मिलती है, संगम का आभार |

चार घड़ी रुक पूजा करते, देते नाव बढ़ाय |

मिलजुल कर हर एक वहाँ पर, कन्या को बहलाय।।


परम हर्ष उल्लास प्रेम का, दिखता फिर अतिरेक |

मुख्य घाट जब मिला मार्ग में, अंगदेश का एक |

गंगा तट पर किया सभी ने मज्जन पूजन ध्यान.

नव -कन्या का जनगण करता,  अति स्वागत सम्मान.


हरिगीतिका छंद 

जब खून के रिश्ते कई निभते नहीं संसार में।

जब कोख के जन्मे कई दुश्मन बने व्यवहार में।

रिश्ते बना कर तब निभाने की कला जो सीखता।

वह जीतता रहता सदा इस जिंदगी में, प्यार में।


किलकारती रोती कभी, सोती कभी कन्या जरा।

कौला गई डर पैर पुत्री ने धरा पर जब धरा।

अतिशय प्रभावी है दवा, संलेप गुणकारी मिला।

नियमित मला जाने लगा, चालू रहा फिर सिलसिला।।


सरसी छंद 

फल-फूल वनस्पति नई नई, शीतल नई समीर | 

खान-पान सब नया शुरू है, नई नई तासीर |

अंग देश की हुई बालिका, मंद-मंद मुसकाय |

कंद-मूल फल अन्न प्रेम से, अंगदेश के खाय ||


रानी के सँग खेल रही वह, भूल रही हर क्लेश |

राज-काज के काम नियम से, निबटा रहे नरेश |

एक अनोखा था विवाद उस, ग्राम प्रमुख के पास |

नारि सौतिया डाह दिखाती, उड़ा रही उपहास। ।


सौतेले सह तीन पुत्र कुल, किन्तु न उनका बाप |

दुष्ट बाघ खा गया एक को, सौजा करे विलाप ।

रो रो कर  सौतेले पर वह, लगा रही आरोप |

यद्दपि सुत घायल है अब भी, फिर भी करती कोप।।


लड़ा दिलेरी से यह लड़का, चौकीदार गवाह |

बाघ खींच ले गया पुत्र को, रोक न पाया राह |

लेकिन सौजा सोच रही है, देने को संताप |

सौतेले ने किया स्वयं ही, ऐसा दुर्धुश पाप ||


नहीं चाहती रहे यहाँ पर, अब वह इसके साथ |

ईश्वर की खातिर इसका अब, न्याय कीजिए नाथ |

लाया गया सभा में दालिम, हट्टा-कट्टा वीर |

मुखड़े पर पीलिमा पड़ी थी, घायल पड़ा शरीर ||


सौजा से नृप पुन: पूछते, दालिम का अपराध |

सुनकर ग्राम निकाला देते, रहे किन्तु हितसाध |

चरण छुवो माँ के तुम पहले, ले लो आशीर्वाद। 

चलो हमारे साथ नाव पर, रविकर इसके बाद।।


राजा तो है बड़ा पारखी, है हीरा यह वीर |

पुत्री का रक्षक लगता है, कौला की तकदीर ।

सेनापति से कहें रोमपद, रुको यहाँ कुछ रोज |

नरभक्षी से त्रस्त गाँव यह, करो बाघ की खोज ||


जीव-जंतु जंगल सर सरिता, सागर खेत पहाड़ |

वंदनीय है प्रकृति हमारी,  इनको नहीं उजाड़ |

रक्षा इनकी जो भी करता, उसकी रक्षा सिद्ध |

दोहन करना स्वीकार्य पर, शोषण सदा निषिद्ध ।।


केवल क्रीड़ा की खातिर क्यों , करते हो आखेट |

भरे न शाकाहार कभी क्या, रविकर मानव पेट |

जीव जंतु वे धन्य-धन्य जो, परहित धरें शरीर |

हैं निकृष्ट वे सभी जानवर, खाँय इन्हें जो  चीर ||


नरभक्षी के मुँह लग जाता, जब भी मानव खून |

शीघ्र मारना परमावश्यक, वर्ना कहाँ सुकून |

अगली संध्या में कर जाते, भूपति  नगर प्रवेश  |

अंग-अंग प्रमुदित हो जाता, झूमा अंग-प्रदेश ||


गुरुजन का आशीष लिया फिर, मंत्री संग विचार |

नामकरण का दिवस हुआ तय, अगला मंगलवार |

महा-पुरोहित करें स्थापना, थापित महा-गणेश |

देवलोक से देख रहे हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश |।


रानी माँ की गोद भरी है, चंचल रही विराज |

टुकुर टुकुर देखे वह रह रह, होते मंगल काज |

कौला दालिम साथ साथ ही, राजकुमारी पास |

वे दोनों भी करें परस्पर, स्वयं खास अहसास ||


महापुरोहित लगे बोलने, करे न कोई शोर।

शांता सुन्दर नाम धरा है, देख सुता की ओर।

शांता-शांता कह उठता फिर, वहाँ जमा समुदाय |

मातु-पिता जनगण मन प्रमुदित, कन्या खूब सुहाय ||


विधिवत हो जाता उत्सव जब, विदा हुए सब लोग |

एक दिवस कौला से पूछें, पाकर भूप सुयोग |

शांता की तुम चतुर धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |

दालिम हमको  लगे भला जो, रखे तुम्हे खुशहाल ||


तुमको यदि अच्छा लगता वह, मन में है यदि चाह |

कुछ दिन में ही करवा दूंगा, तुम दोनों का ब्याह |

कौला शरमा जाती सुनकर, गई वहाँ से भाग |

भाग्योदय दालिम का होता, बढ़ा राग-अनुराग |।


दोहा छंद 

कौला-दालिम का हुआ, रविकर शीघ्र विवाह। 

बन शांता का प्रिय युगल, बाँटें प्रेम अथाह ||


विधाता छंद 

परिस्थिति है नई यद्यपि, पुरातन रीति है लेकिन।

समझ बेहद जरूरी है, रहे खुश जिन्दगी हर दिन।

बड़ी ममतामयी कौला, बहुत ही धैर्य वाली है।

समझकर देवि शांता को, अभी तक नित्य पाली है।।


*भाग-3*


शांता के चरण

विधाता छंद

घुटुरवन चल रही शांता, महल में हर्ष छाया है।

कुमारी को सभी घेरे, मगर माँ अंक भाया है।

विनोदी तोतली बोली, सभी को खूब भाती है।

सदा कौला सुबह आकर, उसे औषधि लगाती है।


कराता रोज दालिम ही, उसे व्यायाम हल्का सा।

यही सब नित्य करवाते, हुई फिर बलवती आसा।

चली वह डेढ़ वर्षों में, मगर उम्मीद जगती है।

अवध सन्देश जाता है, अभी वह ठीक लगती है।


सार छंद 

दशरथ कौशल्या आ जाते, रथ को वहाँ उड़ाते।

पग धरते देखा शांता को, दोनो ही हरसाते |

कौशल्या को मौसी कहती, मौसा भूप कहाते।

सरयू-दर्शन का न्यौता दे, दोनो वापस जाते||


रानी के सँग गई अवधपुर, जन-गण-मन हरसाते।

सत्तर प्रतिशत ठीक हुई है, आठ महीना जाते।

कौला भी दालिम की होकर, शांता के सँग जाती।

ईर्ष्या करती कई दासियाँ, उन्हें न कौला भाती ||


प्रेम दया विश्वास आदि के, बनो नही व्यापारी।

दंड भेद भय साम दाम से, बात न बनती सारी।।

स्नेह-समर्पण किया स्वयं ही, मांगे क्यों कुछ आगे।

इच्छाएं कर दफ़न स्वयं की, क्योंकर पीछे भागे।।


सरसी छंद 

मौसा-मौसी आनंदित हैं, शांता रहती मस्त |

दौड़ा-दौड़ा के करती अब, कौला को वह पस्त |

लौटे अंगदेश फिर सारे, एक पाख उपरांत |

रानी में परिवर्तन दिखता, मुखड़ा जलधि प्रशांत ||


प्रथम चरण की धमक सुने नृप, लक्षण ले पहचान |

रानी चम्पावती गर्भ से, एक देह दो जान |

हर्षित भूपति मगन हुए हैं, बढ़ा और भी प्यार |

शांता को सिर पर बैठाकर, करें प्रकट आभार।।


पैरों में पायल की रुन-झुन, कंगन बाजे खूब |

आनंदित माँ-पिता स्वजन सब, गये प्यार में डूब |

शांता से हो जाती माता, किन्तु जरा सा दूर |

कौला देती रही अनवरत्, उसे प्यार भरपूर ||


राजा भी रख रहे आजकल, बेटी का अति ध्यान |

अंगराज को मिल जाती है, एक और संतान |

चम्पारानी पुत्रवती अब, आया राजकुमार। 

नन्हें-मुन्ने पर शांता भी, लुटा रही है प्यार ||


कौला भी माता बन जाती, दालिम बनता बाप |

संग लगे रहते पुत्री के, मिटे सकल संताप |

फिर कौला माँ बनी दुबारा, करे पुत्र वह प्राप्त ।

बनी बहन-भाई की जोड़ी, खुशी चतुर्दिक व्याप्त ||


भाग-4


सृंगी जन्मकथा

विधाता छंद 


बहुत से शोध आश्रम में, विविन्डक रिष्य करवाते।

परा-विज्ञान प्रजनन पर, फलादिक अन्न में माते।

विकट तप से तपस्या से, हिलाते आप इंद्रासन।

तभी तो उर्वशी मोहित, समर्पित कर रही तन- मन।


स्वयं को वह करे प्रस्तुत, विविन्डक शोध करते हैं।

विचरते उर्वशी सँग भी, न पत्नी को अखरते हैं।

हुए आसक्त जब ऋषिवर, निवेदन प्रेम का करते।

उधर वे स्वर्ग के अधिपत, विविन्डक रिष्य से डरते।


कराया रिष्य- पत्नी ने, स्वयं ही ब्याह दोनों का।

हुए खुश इंद्र भी रविकर, उन्होंने भी नहीं रोका।

व्यवस्थित जिंदगी उलझी, उलझता शोध भी थोड़ा। 

चतुर्दिक राह खुलती तो, करे कुछ भूल यह जोड़ा। 


दिया फिर जन्म बेटे को, गई झट स्वर्ग वापस वो।

विविन्डक काम से जाते, गई वो शूल रविकर बो।

उगे थे पुत्र के दो-दो, अजब से सृंग माथे पर।

खरी-खोटी सुनाती है, प्रथम पत्नी उन्हें अक्सर।।

 

लुटाती नेह बेटे पर, छुपाती सृंग मस्तक के।

नदी कोसी किनारे वह, गई ले सृंग वो ढक के।

वहीं अब पल रहे सृंगी, हिमालय की तराई में।

वहीं पर पढ़ रहे एकल, लगे मन हर पढाई में। 


हुई वय ठीक तेरह की, पधारे हैं पिता श्रृषिवर।

रहे अंजान दुनिया से, रही माँ मात्र इस घर पर।

बसे अब सप्तपोखर में, सुहावन दृश्य संगम का।

बहे कोसी बहे गंगा, हुआ आरम्भ आश्रम का।।


सरसी छंद 

सृंगेश्वर की वहीं थापना, सृंगी से करवाय।

तीर्थाटन हित गये विविन्डक, सँग में पत्नी जाय।

जोर-शोर से चहुंदिश फैला, सृंगेश्वर का नाम ।

सपरिवार तब भूप रोमपद , करने गये प्रणाम।।   


शिविर लगा मंदिर प्रांगण में, करते सब विश्राम ।

शांता रूपा बड़ी चंचला, घूम रही निष्काम ।

छोटी छोटी ये कन्यायें, पहुँची आश्रम बीच ।

सृंगी बैठे ध्यान लगाये, दोनों आँखे मीच ।


पर रूपा की शैतानी से, भंग हुआ जब ध्यान ।

देख परस्पर परम-दिव्यता , दोनों ही हैरान ।

सृंगी पहली बार देखते, बाला का यह रूप । 

लगी वेशभूषा दोनों की, उनको परम अनूप ।। 


सार छंद 

सोहे सृंगी सृंग शिखा से, शांता के मन भाये।

परिचय देती उन्हें स्वयं का, जब उनका पा जाये ।

बाल-सुलभ मुस्कान देखकर, तृप्त हृदय हो जाता।। 

ले आती वे उन्हें शिविर में, साथ परस्पर भाता ।।


सरसी छंद 

ऋषि किशोर को आते देखा, करते सब सत्कार । 

तृप्त हुई श्रृंगी की आत्मा, पाकर प्यार-दुलार। 

तीन दिनों का समय मिला है, सृंगी को अनमोल । 

सार्वजनिक जीवन में आये, भाये शांता बोल ।। 


भाग 5 शांता की शिक्षा


हरिगीतिका छंद 

शांता हुई जब सात की तो सोम होता चार का.

भाई बटुक रूपा बहन के साथ भूखा प्यार का. 

कौला नियम से लेप औषधि युक्त लेपे ध्यान से.

दालिम कराता खेल सबको किन्तु कुछ आसान से.


जबसे सुनी वह, सोम गुरुकुल जा रहा गुमसुम हुई.

हँसती न रोती खेलती, तब से न भोजन ही छुई.

गुरुकुल मुझे भी भेजिए, पढ़ना मुझे भी संग में.

माँ कह रही ऐसी व्यवस्था है न रविकर अंग में.


 समझी न कन्या भेद यह, असफल हुई कोशिश सभी.

आचार्य गुरुकुल के पधारे. उस महल में ही तभी.

हल हो गई रविकर समस्या, पढ़ सकेगी वह यहीं.

वे खुद पढ़ाएंगे सुता को, है कहीं जाना नहीं.


विधाता छंद 

शुरू पढ़ना करे शांता, बटुक रूपा वहीं पढ़ते।

गुरूजी नित्य आकर के, सभी कच्चे-घड़े गढ़ते।

बहन के साथ शांता का, बटुक भी ध्यान रखता है।

बँधाकर सूत्र रक्षा का, बटुक मिष्ठान चखता है।


सुबह ही सोम गुरुकुल से, मनाने पर्व आ जाता।

बंधाया सूत्र उसने भी, सभी का साथ है भाता।

विनय प्रभु से करे शांता, हमेशा खुश रहें भाई ।

सभी ने खूब मस्ती की, मगर रूपा नहीं आई।।


सरसी छंद 

दालिम को भूपति देते हैं, जिम्मेदारी गूढ़ |

राजमहल का प्रमुख बना वह, हँसता किन्तु विमूढ़ |

दालिम से कौला कहती है, सुनो बात चितलाय |

भाई को सन्देश भेज कर, लो सबको बुलवाय ||


सुख में अपने साथ रहें सब, रविकर कुल-परिवार |

करो प्रगट आभार मातु का, यही परम सुविचार |

संदेसा भेजा जाता फिर , आई सौजा पास |

बीती बातें बिसराते सब, नया नया अहसास ||


छोटा भाई हृस्ट-पुष्ट है, भाई सा बलवान |

दालिम सा ही दिखे रमण वह, विनयशील इंसान |

रमण अंगरक्षक बन जाता, शांता पास तुरन्त |

रानी माँ भी अति प्रसन्न है, देख शिष्ट बलवंत ||


हरिगीतिका छंद 

रूपा बटुक का ख्याल रखने लग गई सौजा भली।

कौला करे सेवा सभी की, गोद में शांता पली।

रानी कृपा करती सदा, बच्चे बड़े होने लगे।

कोई न उनमें भेद था, सब लग रहे बिल्कुल सगे।


उपचार करते वैद्य को, अब हो चुके थे वर्ष छह।

शांता निरोगी हो गई, जाते मगर कुछ चिह्न रह।

आनंद ही आनंद है, परिवार पूरा हो गया।

अब सोम शांता संग सारे खेल करते नित नया।।


सरसी छंद 

एक दिवस फुर्सत में सारे, करें बैठकर बात। 

घटना बारह वर्ष पुरानी, सौजा का व्याघात। 

सौजा दालिम से कहती है, वह आतंकी बाघ |

कातिक में बारह को मारा, दस न देखते माघ ||


सेनापति ने रात-रात भर, चारा रखा लगाय |

किन्तु पास के एक ग्राम में, गया व्यक्ति को खाय |

वह नरभक्षी पूरा पागल, बनता सबका काल |

पशुओं को वह कभी न छूता, फाड़े मनुज कपाल ||


एक रात जब सभी शिकारी, बैठे घात लगाय |

नारी छाया पड़ी दिखाई, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम जाती फिर, वह नारी निर्भीक। 

आखेटक दल का नायक दे, तब निर्देश सटीक ||


बिना योजना के जा बैठी, लेकर के शमशीर। 

कुछ के हाथों में भाला था, कुछ के धनु पर तीर |

तीन घरी बीती थी यूँ ही, लगी टकटकी दूर |

किन्तु अभी भी आस बँधी है, आये बाघ जरूर ||


फगुआ गाती नारी साया, मधुरिम मादक गीत |

आकृति आते एक दिखी तब, कूकी कोयल मीत |

होते ही संकेत सभी जन, हो जाते तैयार |

घोर विषैले तीर चलाकर, करते बड़ा शिकार  ||


भालों के वे वार भयंकर, बेहद थे गंभीर |

फाड़े छाती दुष्ट बाघ की, माथा देते चीर |

शांता की चिंता बढ़ जाती, बोली दादी बोल |

उस नारी का क्या होता फिर, जिसका कर्म अमोल ||


नहीं बोलती सौजा कुछ भी, मंद मंद मुसकाय |

माँ के चरणों को छूकर के, दालिम बाहर जाय |

सौजा माँ  ऐसे करती है, पूरा पश्चाताप |

निश्छल दालिम हित वर बनता, माँ का वह अभिशाप ||


हरिगीतिका छंद 

शांता मगन पढ़ती रही, कुल आठ वर्षों तक सतत्।

विदुषी बनी संगीत सीखी, वेद पढ़कर अनवरत्।

साहित्य मे भी रुचि रही, सीखी कला गृहकार्य भी।

संवेदना है प्रेम है,  है त्याग भी औदार्य भी।


कल्याणकारी कार्य मे, सहयोग रूपा का मिला।

उपकार करने का शुरू करती यहीं से सिलसिला।

लेकिन अयोध्या के लिए कुछ भी न कर पाई कभी,

रथ भेंट कर दशरथ उसे, रविकर गये वापस अभी।।


रथ साजकर रूपा बटुक के संग शांता घूमती। 

हर प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति से वह झूमती।

प्रति दिन निकलने लग पड़ी  शांता हमेशा शान से।

काका रमण कर्तव्य अपना हैं निभाते ध्यान से।।


*सर्ग 3*

  भाग-1 चिन्तित अवध


हरिगीतिका छंद 

शांता गई खुशियाँ गईं, सारी अयोध्या गमजदा।

कल्याण कैसे हो अवध का, भाग्य में क्या-क्या बदा।

युवराज कैसे प्राप्त हो, चिन्तित रहें दशरथ सदा।

समगोत्रता की कर न सकते वे पुन: कीमत अदा।।


बढ़ता रहा अवसाद यूँ तब बोल कौशल्या पड़ी।

अब ब्याह दूजा कीजिए, यह बोलकर वह तो अड़ी।

तब भूप उनको देखते, आश्चर्य से होकर चकित।

अनुनय करे रानी पुन:, हद से अधिक होकर व्यथित। 


कोई गिला-शिकवा न भूपति मैं करूंगी आप से।

वर्ना न मैं अब जी सकूंगी, पुत्र बिन संताप से।

बहना बना उसको रखूँगी, ढेर सारा प्यार दे।

हो पूर्ण कैसे स्वप्न यह, कोई सबल आधार दे।।


सरसी-छंद 

बड़े-बुजुर्गों से नित मिलते, व्यवहारिक सन्देश |

पालन मन से जो करते हैं, उनके कटते क्लेश |

यही सोचकर चुप रह जाते, दोनों रखते धीर |

कैसे हो कल्याण अवध का, विषय बड़ा गम्भीर ||


दोहा छंद 

अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |

कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||


हरिगीतिका छंद 

अगले दिवस गुरु ने किया, आह्वान दशरथ भूप का।

राजी अवध-पति जब हुए, अभियान आगे बढ़ सका।

संदेश प्रेषित कर रहे, इस व्याह का इस विश्व में।

भूपति सहित सब राह ताकें, खोज जाने कब थमें। 


बहती जहाँ पर पंच-नदियाँ, राज्य कैकय है उधर।

सम्बंध की इच्छा जताते, भेंट भूपति भेजकर।

कैकय महाराजा जिन्हे सब अश्वपति कहते वहाँ।

वे जानते भाषा खगों की, विज्ञ उनसा था कहाँ।


वह रूपसी कन्या सयानी, तेज गुणवंती बड़ी। 

थे सात भाई संग जिनके सैन्य-शिक्षा ली कड़ी।

पर प्यार माता का नहीं था भाग्य में उसके बदा।

बारह बरस पहले किया हठ, हठ न था, थी आपदा।।


सरसी छंद 

घटना है यह एक सुबह की, रहा न कोई काज। 

उपवन में रानी सँग भूपति, रविकर रहे विराज।

हँसे अचानक बड़ी जोर से, सुन चीं-चीं आवाज |

पूछ रही रानी जब कारण, कर देते नाराज।।


भूपति खोलें भेद अगर तो, प्राण जाँय तत्काल |

नहीं छोड़ती त्रिया, त्रिया-हठ, करती बड़ा-बवाल |

भेद खोलकर भूप न चाहें, देना अपनी जान।

इसीलिए रानी कर जाती, कैकय से प्रस्थान |।


संबंधों की बड़ी श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |

ले सशर्त सन्देश लौटता, कैकय से वह दूत |

मेरी पुत्री का बेटा ही, बने अगर युवराज |

खुशी-खुशी स्वागत तब होगा, सिद्ध समझिए काज ||


कौशल्या सहमत हो कहती, बड़ा दिवस है आज। 

कैकेयी रानी बन जाये, पुत्र बने युवराज।।

मुझे न कोई इसकी चिंता, चिंता केवल एक।

मिले एक युवराज अवध को, कहता यही विवेक।।


रानी बन आती कैकेयी, साथ मंथरा धाय |

जिसका कटु-व्यवहार खले तो, महल रहा उकताय |

चार साल का काल गया पर, हुई न मनसा पूर |

सुमति सुमित्रा रानी आई, हुए भूप मजबूर ||


दोहा छंद 

कौशल्या की गोद के, सूख गए जो फूल |

रावण अपनी मौत की, गया कहानी भूल।||


सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |

करे शत्रुता दुष्टता, दशरथ के भी संग ||


युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |

सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||


कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |

करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||


हरिगीतिका

होता पराजित तब असुर, जब युद्ध दशरथ ने किया।

पर जीत कैकेई गई, वरदान दो नृप ने दिया।

स्वीकार कैकेई करे पर गाँठ बाँधी रख लिया।

कालांतरे वरदान ये अभिशाप बन खाये पिया।।


है समय गतिमान कितना नीर सरयू में बहा।

झूठा श्रवण के माँ-पिता का, शाप भी अब लग रहा।

मैं तो तड़पता पुत्रहित, फिर भी न आती मौत क्यों।

तब कह रही हँस भाग्य-देवी, अब रहा नृप न्यौत क्यों।।


भाग-2 वन-विहार

सरसी छंद 

माता सँग गुरुकुल जाती जब, बढ़ता भ्रात विछोह |

दक्षिण की मनभावन शोभा, लेती थी मन मोह |

गंगा के दक्षिण में उपजे, सौ योजन तक झाड़ |

श्वेत-बाघ बहुमूल्य खनिज-वन, झरने-नदी-पहाड़ ||


मन की चंचलता पर चलता,  कहाँ किसी का जोर |

रूपा के सँग रथ लेकर वो, दौड़ी वन की ओर |

पंखो  को  फैलाकर उड़ती, मिला  खुला  आकाश  |

खुद से करने निकल पड़ी वह, खुद की खुदी तलाश ||


वटुक-परम पीछे लग जाता, सका न कोई जान।

अस्त्र-शस्त्र कुछ और नहीं पर, लेता तीर-कमान |

औषधि लेकर कौला सबको, रही भोर से हेर।

जल्दी ही हल्ला मच जाता, रहे सभी जन टेर |।


राजा-रानी लगे खोजने, रमण हृदय हलकान |

बुद्धिहीन सा बदल रहा वह, अपने दिए बयान  |।

अपने-अपने अश्व साजकर, खोजें सब चहुंओर। 

रमण दौड़ता दक्षिण-दिश में, मचा नगर में शोर ||


काका झटपट लगा भागने, बड़े लक्ष्य की ओर |

घोड़ा समझ इशारा दौड़े, बीत चुकी है भोर |

गुरुकुल पीछे गया छूट तो, आई घटना याद |

बाघ देखने की जिद करती, शांता की बकवाद ||


पहियों के ताजे चिह्नों को, पड़े भूमि पर देख |

माथे पर गहरी खिंच जाती, चिंता की आरेख |

आगे जाकर देख रहा वह, झरना एक विशाल |

पड़ी दिखाई खांई केवल, पथ को खाई ढाल |।


पड़े न रथ के चिह्न दिखाई, जैसे गया बिलाय|

अनहोनी की सोच-सोच के, रहा अँधेरा छाय |

उतरा घोड़े से तो पाया, अंगवस्त्र अश्वेत |

आगे बढ़ने पर दिख जाता, रथ फिर अश्व समेत |।


व्याकुलता ज्यादा बढ़ जाती, गया झाड़ियां फांद |

तभी सामने पड़ी दिखाई, गुप्त बाघ की मांद |

जी धकधक करने लग जाता, गहे हाथ तलवार |

एक एक कर आने लगते, मन में बुरे विचार |।


हिम्मत कर आगे बढ़ जाता, आया शर सर्राय |

देखा अचरज से जब उसने, खड़ा बटुक मुसकाय |

बोला तेजी से फिर काका, परम बटुक दे ध्यान |

काका तेरा इधर खड़ा है, ले लेगा क्या जान |।


गीतिका

सुन रमण की टेर दोनों, लड़कियाँ घबरा गईं।

किन्तु जल्दी ही परिस्थितिवश, उधर से आ गईं।

बाघ के ही माँद में बैठी हुई थी अब तलक।

देखना वे चाहती थी बाघ की केवल झलक।।


प्राणघातक थी मगर, इन बच्चियों की यह ललक।

वास्तविकता ज्ञात होने पर गये आँसू छलक।

है घना जंगल बड़ा, खूंखार पशु हैं दैत्य भी।

लो निकल जल्दी यहाँ से, सूर्य डूबेगा अभी।।


सरसी छंद 

काका की फटकार पड़ी जब, नैन बहाते नीर |

किन्तु बाघ की गुर्राहट सुन, काँपा सकल शरीर |

झटपट ताने धनुष-बाण वे, सावधान अत्यन्त |

दिखा न लेकिन बाघ कहीं भी, रथ पर चढ़े तुरन्त।।


शांता रूपा छुप जाती झट, रथ के बीचो-बीच |

खुली जगह पर घोड़ा लाया, इसी बीच रथ खीच |

समाचार गुरुकुल में फैला, बोला शिष्य विशेष।

रथ तेजी से भगा रही जो, परिचित उसका वेष।।


शायद राजकुमारी थी वह, चले सोम के मित्र |

तीर धनुष तलवार उठाये, हरकत करें विचित्र |

रथ की लीक पकड़ कर बढ़ते, मित्रों सह जब सोम।

व्यर्थ भाँजते अस्त्रों को वे, व्यर्थ गुँजाते व्योम ||


उधर बाघ न दिखा किसी को, किन्तु गर्जना घोर |

व्याकुल होकर दिखे भागते, कहीं जंगली ढोर |

घोड़ा भी हिनहिना रहा है, अकुलाता मजबूर |

जैसे पास दौड़ता आता, कोई हिंसक क्रूर |।


गिर-कंदर में गूंज रही है, लगातार आवाज |

भू पर मानो अभी गिरेगी, महाभयंकर गाज |

रमण स्वयं घबराता फिर भी, हिम्मत लिया बटोर |

स्वयं तेज दौड़ाए रथ को, थाम लिया खुद डोर।।


जान बचाकर घोड़ा दौड़े, रथ तो झटके खाय |

जैसे पीछे पड़ा हुआ हो, एक दैत्य अतिकाय |

सचमुच था अतिकाय भयंकर, लेता घेरा डाल |

घोड़ा ठिठका बड़ी जोर से, खड़ा सामने काल ||


रमण बोलते सुनो बटुक तुम, रथ की वल्गा थाम |

मुझे छोड़कर भागो सरपट, हुआ विधाता वाम ||

शांता रूपा देख रही थी, थी परदे की ओट |

आठ-हाथ की देह खड़ी थी, खुद को रही नखोट ||


दोनों की घिघ्घी बँध जाती, लेकिन दालिम-पूत |

तेजी से रथ हांक रहा ज्यों, पाई शक्ति अकूत |

याद रमण को आ जाता वह, दालिम का अहसान |

लड़ा बाघ से जान लड़ाकर, तभी बची थी जान।।


ध्यान-भंग हो उसका कैसे, रमण मारता तीर |

पकड़ हाथ से तीर रमण का, देती नख से चीर |

बोली मैं हूँ विकट ताड़का, मानव खाना काम |

पिद्दी सा तू क्या कर लेगा, व्यर्थ न धनुही थाम।।


साफ़-साफ़ दिख रही उसे अब, भद्दी विकट कुरूप |

पीछे तो है गहरी खाईं, आगे गहरा कूप।

घोड़े पर फिर बैठ वीर वो, लेकर भागा जान |

अपने पीछे उसे लगाया, योद्धा बड़ा सयान |


लम्बे-लम्बे डग रख अपने, करने चली शिकार।

जोर-जोर चिग्घाड़ रही वो, हाथ वक्ष पर मार।

कूद गया फिर रमण नदी में, लम्बी लगा छलाँग। 

गिरते-गिरते बच्चों का हित, लेता प्रभु से माँग।


परम बटुक रथ तेज हाँक कर, लाया बारह कोस।

फिर काका के लिए सभी जन, प्रकट करें अफसोस। 

तभी दिखाई पड़ा सोम तो, उसको मित्रों संग।

रथ पर झट बैठाकर शांता, करे मौनव्रत भंग।।


बैठे-बैठे झटपट उसने, बता दिया सब सार।

लड़ते-मरते काका हमपर, कर जाते उपकार।

गुरुकुल पहुंच गये फिर सारे, हुए सभी आश्वस्त। 

पूरे दिन की भागदौड़ से, सारा गुरुकुल पस्त ।। 


गुरुकुल से सन्देश गया तो, आये अंग नरेश |

मिले सुरक्षित सारे बच्चे, कटे सभी के क्लेश ||

यक्ष वंश की नारि ताड़का, उसके पिता सुकेतु |

उस तप से पैदा होती जो, किया पुत्र के हेतु ||


असुर-राज से व्याह हुआ था, थी ताकत में चूर |

दैत्य सुमाली से संतानें, हुई क्रूर मगरूर |

केेकेसी सी सुता इसी की, सुत सुबाहु मारीच ।

केकेसी रावण की माता, बैठी लंका बीच।।


वही ताड़का उसे दिखी थी, सौजा रही बताय |

पुत्र रमण की मृत्यु हुई तो, तनिक न वह घबराय|

शोक करूँ किस हेतु बताओ, हमें गर्व अनुभूत |

बचा लिया सारे बच्चों को, लगे देव का दूत ||


सबसे प्यारा बटुक हमारा, बना वीर इन्सान |

अच्छी संगत से हो जाता, वह भी आज सयान |

दालिम से भी सौजा कहती, मत कर बेटा शोक |

इसी कार्य के लिए पुत्र यह, आया था इस लोक ||


रो-रोकर शांता करती है, लेकिन पश्चाताप। 

खुद को दोषी मान रही वह, प्राय: करे विलाप।

रोते-धोते बीत गये यूँ, दुख के महिने चार |

वीर रमण वापस आ जाता, ईश्वर का आभार ||


कूदा जहाँ वहाँ पर जल का, था बहाव अति तेज |

बचा ताड़का के चंगुल से, वह बल बुद्धि सहेज।|

पानी में बहता रह जाता, पूरी काली रात |

बहुत दूर वह बह कर आया, पीछे छोड़ प्रपात ||


बेहोशी में पड़ा हुआ था, खा प्राणांतक मार। 

नदी किनारे बहकर आया, किन्तु न मानी हार।

सन्यासी ने कृपा किया तो, हुआ सही उपचार।

महादेव सृंगेश्वर की जय, महिमा अपरम्पार ।।


 भाग-3


सृन्गेश्वर महादेव


मत्तगयन्द सवैया 

नारि सँवार रही घर बार, विभिन्न प्रकार धरा अजमाई ।

कन्यक रूप बुआ भगिनी घरनी ममता बधु सास कहाई ।

सेवत नेह समर्पण से कुल, नित्य नयापन लेकर आई ।

जीवन में अधिकार घटे, करतव्य सदा भरपूर निभाई ।। 


कुण्डलियाँ छंद 

बहना विश्वामित्र की, सत्यवती शुभ नाम |

षोडश सुन्दर रूपसी, रिचिक-राज की बाम।

रिचिक-राज की बाम,वृद्ध वाचाल बड़ा था। 

गया काम से किन्तु, ब्याह का शौक चढ़ा था।

पर हो जाती मौत, नहीं विधवा बन रहना।

यम के पीछे स्वर्ग,  चली कौशिक की बहना।।


सरसी छंद 

द्वारपाल ने रोक लिया झट, किया बुरा व्यवहार ।

चंचल तन फिर व्यथित हुआ मन, सह न सकी दुत्कार । 

कौशिक बहन बनी फिर कोसी, सबपर खाई खार || 

उच्च हिमालय से उतरी वह, करे त्रिविष्टक पार | 


अंगदेश की धरती तक है, अति लम्बा विस्तार || 

चिरयौवना क्रोध से पागल, मचता हाहाकार  | 

जल-प्लावित कर देती धरती, प्रलयंकारी क्रोध |

असंतुष्ट जीवन के कारण, सुने न वह अनुरोध।।


अंगदेश का शोक कहाती, रूप विषद विकराल | 

कोई भी प्राणी इस जग में, सके न वेग सँभाल। 

ग्राम सैकड़ों लील गई वह, अंग-देश की शोक |

मिली न जबतक गंगा जी से, याद रहा यमलोक।


सृंगेश्वर के चरण पखारे, हो जाती फिर शांत। 

वर्षा ऋतु में किन्तु हमेशा, हो जाता मन क्लांत। 

इसी भूमि पर होते रहते, अभिनव बड़े प्रयोग | 

यहीं विविन्डक ऋषि करते हैं, धर्म- कर्म उद्योग || 


करें पराविज्ञान विषय पर, वे अद्भुत अभ्यास | 

तंत्र-मन्त्र के परम धनी वे, करते सफल प्रयास |

निश्छल सरस विनम्र सौम्य शुभ, मंद-मंद मुस्कान |

मितभाषी वे मृदुल-छंद हैं, दें  सुन्दर व्याख्यान ||


रोचक है अभिव्यक्ति बहुत ही, जागे मन विश्वास |  

बाल-वृद्ध-युवजन जुड़ जाते, बढ़ती जाती आस |

बड़े दूरदर्शी हैं ऋषिवर, ज्योतिष का अभ्यास |

डरें न जोखिम लेने से वे, नहीं अन्धविश्वास ||


यही विविन्डक दे आये थे, नृप दशरथ को ज्ञान | 

अंगराज को तभी मिली थी, शांता सी संतान।।

रिस्य विविन्डक ने पाया है, परम प्रतापी पूत | 

कुल्लू घाटी में जिनके हैं, अब भी कई सुबूत || 


जेठ मास में वहाँ आज भी, सजा पालकी दैव | 

करें वंदना सृंगी ऋषि की, नियमित वैष्णव शैव || 

लकड़ी का सुंदर मंदिर है, दीनों के भगवान् | 

श्रृंगी इस्कर्नी कहलाते, जाने सकल जहान | 


अट्ठारह करदू हैं केवल, उनमे से ये एक | 

कुल्लू घाटी में  विचरण कर, यात्रा करें अनेक | 

हमता डौरा-लांब्ती मिलते , रक्ती-सर गढ़-धोल | 

डौरा कोठी पञ्च नाम भी, मालाना तक डोल || 


छ: सौ तक हैं वहाँ पालकी, कहें जिन्हें रथ लोग | 

सृंगी से आकर मिल जाते, यदि सूखे का योग | 

मंत्रो के अद्भुत अधिकारी, करके वर्षों शोध | 

वैज्ञानिक ये बने श्रेष्ठतम, प्राप्त पिता से बोध ||


एक गुफा सिरमौर क्षेत्र में, नाहन के नजदीक | 

करे शोध जप तप सब आकर, वर्षा होती ठीक |

अब कोसी का कोप साधते, शंकर भोलेनाथ | 

श्रृंगेश्वर की हुई थापना, श्रृंगीऋषि के हाथ ।| 


दोहा छंद 

सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |

शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम || 


भाग 4


शांता और रिस्य-सृंग  

*दिग्पाल छंद*

शांता अशांत रहती, अत्यंत क्लांत रहती।

कहती न कुछ किसी से, संताप आप सहती।

लेकिन रमण पधारे, हारे न प्राण अपने।

सबको खुशी मिली फिर, शांता लगी विहँसने।।


तारीफ कर रहे सब, काका रमण लजाते।

तकलीफ जो उठाई, उसका इनाम पाते।

आये नरेश मिलने, फिर राजवैद्य आये।

कोई न रोग इनको, निष्कर्ष वो सुनाये।।


रमणी बहू पधारी, होता विवाह उनका।

आवास एक सुंदर, बनता निवास सबका। 

अब भ्रात साथ दोनों, अधिकार और पाते।

कर्तव्य वे हमेशा, पूरी तरह निभाते।।


चारो तरफ खुशी है, वातावरण भला है।

वह योजना बनाकर, सृन्गेश्वरम् चला है।

प्रारम्भ तीर्थ यात्रा, करता रमण अकेला।

लेकिन सभी लगाते, सम्पूर्ण एक मेला।


सरसी-छंद 

शांता को जब ज्ञात हुआ तो, जाती माँ के पास।

किन्तु न उसको अनुमति मिलती, है अत्यंत उदास।

सौजा कौला रूपा रमणी, करती सभी प्रयास। 

मिली सोम-शांता को अनुमति, छाया हर्षोल्लास।।


दो रथ में सब बैठ गये पर, सोम रमण के संग। 

हो सवार अश्वों पर अपने, लेकर चले उमंग।

चंपा देख रही बेटे के, मूंछों की आरेख ।

उन्हें देखते रूपा उनको, रही गौर से देख।।


यह सृंगेश्वर-धाम अनोखा, दुनिया भर में नाम |   

आठ वर्ष के बाद पधारी, शांता करे प्रणाम  ||

धुंधली धुंधली सी दिखती है, बचपन की तस्वीर । 

रूपा का  नटखटपन सारा, बाल-सृंग की पीर ।।


हरिगीतिका  छंद

मंदिर-कलश में व्याप्त ऊर्जा में अलौकिक दिव्यता।

विश्वास श्रद्धा भक्ति से, कोई कलश यदि देखता।

दुख मानसिक-दैहिक न भक्तों को कभी पाते सता,

आती समस्यायें अगर, हल भक्त को देता बता।।


घंटा-जनित कम्पन बनाये शुद्धतम वातावरण।

विज्ञान भी इस तथ्य के छूने चला पावन चरण।।

कीटाणुनाशक दुख विनाशक, यह करे शुद्धीकरण ।

चैतन्य करता भक्त प्रभु को, आ गया जिनकी शरण।


यदि गर्भ-गृह में जा रहे तो, गर्व जूता छोड़िए.

लाये-बुलाये आ गये जब,  आप दर्शन के लिए.

है द्वार कुछ छोटा लगा, तो सिर झुका ही लीजिए.

वरना लगेगी चोट तो खुद, अश्रु रविकर पीजिए..


तन शुद्धकर कर आचमन, आँखे खुली चैतन्य मन.

अभिमुख मगर दाएं तनिक हो, मूर्ति को करिए नमन.

रविकर बसा लो छवि हृदय में, फिर निहारो मग्न हो.

सर्वज्ञ हैं वे जानते सब, कुछ कहो या मत कहो।।


शांता 2/2

 शांता 2

हो परिक्रमा शिव की अधूरी, पूर्ण दुर्गा की मगर.

हनुमान जी की तीन करना, विष्णु जी की चार कर.

साक्षात भगवन सूर्य की कुल सात करनी परिक्रमा.

प्रतिसर करें बाहर निकलते मांग ले प्रभु से क्षमा.


फिर ध्यान-मुद्रा में, कहीं उन सीढ़ियों पर बैठकर.

फिर से निहारो छवि वही, आये अभी जो देखकर.

कल्याण करते देव-देवी, कर्म नित करते रहो.

करते रहो नित ध्यान उनका, सर्वदा आभास हो.


सोरठा 

करते सुबह नहान,  सप्त-पोखरों में सभी  |

पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||


कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा | 

सृंगी मन्दिर द्वार, लगा इन्हें हुस्कारने ||


रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करें |

हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||


तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |

अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||


जाती शांता झेप, चितवन चंचल उर चढ़ी |

मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||


बारम्बार प्रणाम, रूपा सादर बोलती।

शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की |।


जोड़े दोनो हाथ,  शांता फिर होती मगन |

पा वैचारिक साथ, वापस भागी शिविर में |


पूजा लम्बी होय, सौजा-कौला की इधर 

शिव को रही भिगोय, बेल पत्र मधु दूध से  ||


रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |

था दुपहर में भोज, विविन्डक आये  शिविर ||


गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |

मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||


बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |

साथ बैठता सोम,  पूज्य विविन्डक के निकट ||


संध्या जाय न पाय, सब कोसी को पूजते।

रूपा रही घुमाय, शांता को ले साथ में ||


अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |

सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं |


लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें |

करके देख विचार, दाढ़ी भी लगती भली ||


खट-पट करे खड़ाँव, देख सामने हैं खड़े |

छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||


शांता चर्चा छोड़, असमंजस में है  पड़ी |

जिभ्या चुप्पी तोड़, कह प्रणाम चुप हो गई  ||


वह सृंगी पहचान, पुत्र विविन्डक रिष्य का |

करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||


मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |

सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||


पिता बड़े विद्वान,  मिले मुझे सौभाग्य से।

उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी लूँ उठा  ||


कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रातदिन |

खोजे कौन सवाल, अनुत्तरित जो हैं पड़े  ||


सरसी-छंद 

रिस्य श्रृंग की बात सुनी तो बदल गईं झट सोच.

जोड़े हाथ मरोड़े भी फिर, कम न हुआ संकोच.

तभी लौटकर रूपा आई, ऋषि जाते कर जोड़.

सुध - बुध खोकर लौटी शांता, रूपा रही झिंझोड़ ।।


भाग-5


शांता का सन्देश


सरसी छंद 

सृंगेश्वर से आई शांता, हुई जरा चैतन्य |

त्याग करे वह प्रेम विषय का, लगी सोचने अन्य |

रिश्तों की पूंजी अलबेली, हर-पल संयम वर्त |  

पूर्ण-वृत्त पेटक रख रविकर, कहीं न कोई शर्त ||


हरिगीतिका

जब अंग के युवराज होते सोम तो सोचा गया।

बिन पुत्र के राजन-अयोध्या पर उसे आई दया।

संदेशवाहक भेजकर, संदेश कुलगुरु को दिया।

उल्लेख करती शोध का जो रिष्य सृंगी ने किया।।


हर्षित हुए कुलगुरु, बुलाकर भूप दशरथ से कहा |

पुत्रेष्ट की संकल्पना सुन अश्रु नयनों से बहा। 

निर्देश गुरुवर ने दिया, प्रस्थान भूपति ने किया।

आश्रम पहुँच छू ऋषि-चरण आशीष पावन पा लिया।।


सरसी छंद


लगे बोलने  रिस्य  विविंडक राजन धरिए  धीर।

श्रृंगेश्वर की पूजा करिए, वही हरेंगे पीर |

मैं तो मात्र तुच्छ साधक हूँ, शंकर ही हैं सिद्ध |

दोनों हाथ उठाकर बोले, चिन्ता यहाँ निषिद्ध ||


सात दिनों तक करूँ आपकी, विधिवत पूरी जाँच |

सृन्गेश्वर में तब तक राजन, शिव पुराण लो बाँच |

सात दिनों की प्रबल तपस्या, औषधिमय खाद्यान |

दशरथ पाते सकल पुष्टता, मिट जाता व्यवधान ||


फिर बना यज्ञ की पूरी सूची, सृंगी देते सौप |

लगी दीखने बुड्ढे तन में, तरुणाई सी चौप |

कुछ प्रायोगिक कार्य शेष हैं, कोसी की भी बाढ़ |

कर प्रबंध राजन सब रखिए, शुभ-मुहूर्त आषाढ़ ।


ख़ुशी-ख़ुशी दशरथ चल जाते, रौनक रही बताय | 

देरी के कारण हर रानी, मन ही मन अकुलाय |

अवधपुरी के पूर्व दिशा में, आठ कोस पर एक |

बहुत बड़ा भू-खंड यज्ञ हित, खटते श्रमिक अनेक ||


दोहा छंद 

शांता भी आई वहां, रही व्यवस्था देख |

फुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख ||


समझ न पाए भाष्य जब, बिषय-वस्तु गंभीर |

फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर || 


प्रेम प्रस्फुटित कब हुआ, नहीं जानते सृंग |

भटके सरयू तीर पर, प्रेम-पुष्प पर भृंग ||


सरसी छंद 

हवन कुंड मंडप मठ मंदिर, बटुरा अवध प्रदेश |

आषाढ़ मास की पावन पूनम, आये अवध नरेश। 

सॄंगी ने फिर उन्हें बताया, एक समस्या गूढ़।

महापुरोहित के आसन पर, किसे करें आरूढ़।।


पिता हमारे नहीं स्वस्थ हैं, है शारीरिक क्लेश।

शक्ति बैठने की समाप्त है, मिला अभी सन्देश। 

मैं भी तो अविवाहित अब तक, कैसे हल हो प्रश्न। 

भूपति बोले करो ब्याह फिर, हो वैवाहिक जश्न।।


कुछ के माता-पिता नकारें, कुछ का गया विवेक। 

और न कोई मन को भाती, देखी गई अनेक। 

फिर मुहूर्त ही बीत गया तो, दिया यज्ञ को टाल।

वापस लौट गए सृंगी भी, शांता भी तत्काल।।


हरिगीतिका छंद 

प्राय: प्रथम परिचय बदन मुख वेशभूषा से मिले।

वाणी कराये दूसरा परिचय अगर जिभ्या हिले।

वह व्यक्ति उन सब के लिए, फिर भी अपरिचित ही रहे।

सीरत नहीं सूरत अपितु जो देखकर हाँ ना कहे।।


दोहा छंद 

अंग-अंग विकलांग ले, शांता जाती अंग |

दशा विकट रिस्य सृंग की, पड़ी शोध में भंग ||


भाग-6


नारी-शिक्षा


सार छंद 

अंगराज का स्वास्थ्य सभी ने, ढीला-ढाला पाया।

चम्पारानी की खुशियों पर, पड़ता काला साया |

आये राजकुमार आज ही,  शिक्षा पूरी करके। 

अस्त्र-शस्त्र में प्राप्त महारथ, शास्त्रागम सब पढ़के।


नीति-रीति में पूर्ण कुशलता, जरा दृष्टि तो डालो।

नृप कह देते हैं कुमार से, शासन देखो-भालो ||

हामी भरते ही गूँजा फिर, अति बुलंद जयकारा।

निश्चित तिथि पर जमावड़े में, मुकुट शीश पर धारा।


सारे मंगल कार्य सँभाले, वही पिता को देखी।

तीन दिनों तक चहल पहल थी, सोम बघारे शेखी।

गुरुजन का सानिध्य मिला तो, बोध बटुक को होता |

शिक्षा-हित शांता के सम्मुख, अपना दुखड़ा रोता।


दोहा छंद 

प्रारम्भिक शिक्षा हुई,  दीदी शांता संग |

समुचित शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||


सार छंद 

सुनकर अच्छा लगा उसे भी, लेने लगी बलैया ।

श्रृंगेश्वर भेजूंगी तुझको, यदि आज्ञा दे मैया।

इसी बात पर गाँठ पुरानी, शांता खोल रही है।

एक पाठशाला खोलूंगी, माँ से बोल रही है।।


आज मनाते रक्षाबंधन, राखी सोम बँधाता।

मोती माणिक भ्राता देता, किन्तु न इसको भाता।

पूछ रहा युवराज  प्रेम से, फिर क्या लोगी बहना।

कन्या-शाला दे दो सबको, भैया ना मत कहना ||


दोहा छंद 

भाई ने हामी भरी, शीघ्र खुलेगा केंद्र |

नया खेल लेकिन शुरू, कर देते देवेंद्र ||


सरसी-छंद 

त्राहि-त्राहि जनता करती है, पड़ता विकट अकाल |

खेत धान के सूख चुके हैं, बुरे अंग के हाल |

गौशाला में आता रहता, बेबस गोधन खूब |

बीती वर्षा-ऋतु बिन वर्षा, हर जन-गण-मन ऊब ||


सूखे के है असर भयंकर, बही नहीं जलधार ।

था सावन का मौसम सूखा , भादौं होता पार ।

दूर दूर से आती है नित, जनता मय परिवार |

गंगाजी के नीर तीर पर, पड़ता भारी भार |।


छोड़े अपने बैल सभी ने, गौ भेजें गौशाल |

जोहर पोखर सूख गये हैं, बढ़ता विकट बवाल |

शिविरों में संख्या बढ़ जाती, होता खाली कोष |

कन्याशाला के लिए अभी, मत दे बहना दोष ||


इतने में दालिम दिख जाता, बोला जय युवराज |

मंत्री-परिषद् बैठ चुकी है, कुछ आवश्यक काज |

पढ़ चेहरे के भाव अजब से, दालिम समझा बात |

शांता बिटिया दुख से पीड़ित, दुखी दीखती मात ||


दालिम से कहने लगी वह, परम बटुक की चाह |

पढने की इच्छा जागी है, दे दो तनिक सलाह |

जोड़-घटाना गुणा जानता, जाने वह इतिहास |

उसे नही सेवक बन जीना, करना है कुछ खास ||


तभी उसे सन्देश मिला तो, पाई ख़ुशी अपार |

कन्याशाला हित पाती वह, बढ़िया कमरे चार |

माता को लेकर जाती वह, उनके अपने कक्ष |

अपनी इच्छा को रख देती, अपने पिता समक्ष ।।


सैद्धांतिक सहमति मिल जाती, सौ पण का अनुदान |

इस प्रकार शाळा खुल जाती, शुरू नारि उत्थान |

दूर दूर के कई कारवाँ, उनके सँग परिवार |

रूपा शांता गई साथ में,  करने वहाँ प्रचार |।


रुढ़िवाद ने टाँग अड़ाया, पूरा किया विरोध |

किन्तु कई मिल रहे प्रेम से, कोई करता क्रोध |

पास न कुछ भी अन्न सम्पदा, भटको सुरसरि तीर |

जाने कब दुर्भिक्ष काल में, छोड़े प्राण शरीर |।


आठ साल तक की कन्यायें, छोड़ो मेरे पास |

अपनी देख-रेख में रखना, उनको ग्यारह मास |

इंद्र-देव जब खुश होकर के, देंगे जल सौगात।

तब कन्या ले जाना भाई, मान लीजिये बात ||


दोहा छंद 

गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |

मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||


धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |

जर जमीन जोरू सकल, इच्छित मिलें पदार्थ ||


चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |

कन्यायें तेरह जमा, देती शाला खोल ||


विधाता-छंद 

बिछाया एक कमरे में, करीने से दरी चादर।

सुरक्षा सह सफाई से, सजा पंद्रह दिए बिस्तर।

बड़ा सा अधखुला कमरा, चुनाया भोजनालय हित।

बना फिर एक कार्यालय, व्यवस्था से सभी हर्षित। 


शुरू फिर कक्ष में कक्षा, यहीं शांता पढ़ाती है

पकाती रोटियाँ कौला, कथा सौजा सुनाती है।

मिले सहयोग रूपा का, बटे तख्ती बटे खड़िया।

पढ़ाई हो रही उत्तम, व्यवस्था हो रही बढ़िया।।


दोहा छंद 

रानी माँ आकर करें, शाळा का आरम्भ |

पर आड़े आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||


नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |

आई रमणी रमण की, बंटा रही खुद हाथ ||


पहले दिन की प्रार्थना, करें सभी जन साथ। 

माँ के चरणों में झुका, श्रद्धा से सब माथ।।


प्रार्थना (विधाता छंद आधारित )

नमन हे मातु शतरूपा सरस्वति शारदा मैया।

करें हम नित्य आराधन तनिक स्वीकार ले मैया।


अधिष्ठात्री तुम्ही तो माँ कला विज्ञान विद्या की

दमन कर मूर्खता-जड़ता करो उद्धार हे मैया।


खिला दो मन कमल जैसा, बना दो श्वेत निर्मल तन

बनाकर हंस सा जीवन, विराजो शीश पे मैया।


तपस्या साधना भूला, अभी तक मूढ़मति ही हूँ

जरा उन मूढ़ भक्तों सा, मुझे भी मंत्र दे मैया।


कहाँ वीणा बजाती हो, नहीं आवाज आती है

सुना दे सप्त स्वर मंजुल विनय रविकर करे मैया।।


सरसी छंद 

स्वस्थ बदन ही सह सकता है, सांसारिक सब भार |

बुद्धि सदा निर्मल हितकारी, बढ़े तभी परिवार |

रूपा ने व्यायाम कराया, बच्चे थक कर चूर |

शुद्ध दूध फिर मिला सभी को, घुघनी भी भरपूर ||


पहली कक्षा में करते हैं, बच्चे कुछ अभ्यास ||

बना रहे गोला रोटी सा, रेखा जैसे बांस ||

एक घरी अभ्यास कराया, गिनती सीखी जाय  |

दस तक की गिनती गिनवाया, रूपा ने समझाय ||


सृजन-शीलता से जल जाते, तन-मन के खलु व्याधि ।

बुरे बुराई सभी दूर हों, आधि होय झट आधि ।

सृंगी के अभिलेख सिखाते, सीधी सच्ची बात |

पारेन्द्रिय अभ्यास किया तो, हुई स्वयं निष्णात ||


सार छंद 

दोपहर में छुट्टी जब होती, पंगत सभी लगाते |

हाथ-पैर मुंह धोकर आते, दाल-भात सब खाते |

एक एक केला मिल जाता, कमरों मे सब जाते।

कार्यालय में आकर सबजन, कार्य कई निपटाते ||


खेलों की सूची देकर फिर, रूपा को समझाना |

तीन घरी का खेल कराना, घरी बाद अब जाना ||

गौशाला से हर संध्या भी, शुद्ध दूध मँगवाना।

संध्या वंदन करवा कर के, रोटी खीर खिलाना ||


सौजा दादी से कहती वह, कहना रोज कहानी |

बच्चों की प्रेरणा बने वे, कह शांता मुस्कानी ||

राज-महल जाकर फिर शांता, अपना ध्यान लगाती |

पावन मन्त्रों के जपने से, दूरानुभूति आ जाती ||


हरिगीतिका

मस्तिष्क सृंगी का प्रसारित कर रहा शाब्दिक लहर।

होने लगी वार्ता अनोखी, प्रेम से मन तरबतर।

शांता कुशलता पूछती सादर नमस्ते बोलकर। 

मंथन करें फिर संग दोनों अंग के हालात् पर।।


भाई बटुक को भेजना मैं चाहती गुरुकुल वहाँ।

अनुमति मिली तो माँग लेती शिक्षिका अपने यहाँ।

माँ कर रही खट-खट मगर, शांता न देती ध्यान है।

सम्पर्क फिर टूटा स्वतः, आया स्वयं व्यवधान है।।


सार छंद 

दालिम को जाकर मिलती वह, ऊँच-नीच समझाई |

परम बटुक करता तैयारी, गुरुकुल वह भिजवाई |

आयु वर्ष चौदह की उसकी, पढने में मेधावी।

शिक्षा हित वह  भेज वहाँ  दी , जहाँ गमन सम्भावी ||


दोहा

प्रीति न होती भय बिना, नहीं दंड बिन नीति ।

शिक्षा गुरुवर बिन नहीं, सद-गुण बिना प्रतीति।।


सृंगेश्वर से शिक्षिका, आकर करे प्रणाम। 

अगले दिन से कर रही, शिक्षा के सब काम। ।


सुंदरी सवैया

बहिना इतिहास पुनीत बना, बन वाय रही कनिया पठशाला ।

पढना गढ़ना हल सीख रही, अब उद्यत उन्नति को हर बाला ।

अपने पर निर्भर हो बिटिया, शुभ मंगल मंगल मानस माला ।

ललनी ममतामय शिक्षण से, अब खोल सके बिन कुंजिक ताला ।।


*सर्ग 4*


भाग 1

अंग में अकाल 


सरसी  छंद 

बिटिया वेद-पुराण आदि में, रही पूर्णत: दक्ष |

शिल्प-कला की भी वह ज्ञाता, मंत्री के समकक्ष |

राजा सँग उपवन में बैठी, करती गूढ़ विचार |

अंगदेश का किस-प्रकार से, होगा बेड़ा पार ||


चर्चा में वे पिता - सुता थे , पूर्णतया तल्लीन |

प्रजा रहे सुख शान्ति प्रेम से, हरदम कष्ट विहीन |

अंग भूमि से दूर बढ़ा है, असुरों का संत्रास |

दूर भूख भय से पीड़ित जन, घटा आत्मविश्वास ||


दोहा छंद 

इसी बीच पहुँचे हुए, पहुँचे विप्र-किसान |

अपने आश्रम-खेत हित, लेने कृषि सामान ||


गीतिका

ध्यान देते नहीं दोनों, रहे तल्लीन राजा जी।

देखकर छुद्र अनदेखी, दिखाते विप्र नाराजी।

शाप देकर चले जाते, न वर्षा राज्य में होगी।

राज्य दुर्भिक्ष झेलेगा, बढ़ेंगे कुछ अधिक रोगी .


सरसी छंद 

जाते देखा दूर विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |

क्षमा क्षमा कह भूपति दौड़े, किन्तु गये विद्वान ||

भादों की वर्षा भी रविकर, ठेंगा गई दिखाय |

ताल, तलैया झील सूखती धरती फट-फट जाय ||


झाड़ हुए झंखाड़ सभी अब, बची पेड़ की ठूठ |

कृषक बिचारा क्या कर सकता, छूटी हल की मूठ |

खाने को लाले पड़ जाते, कंठ सूखता जाय |

खिचड़ी पत्तल में बट जाती, गंगा माँ शर्माय ||


सार छंद 

अंगदेश की विकट परिस्थिति कड़ी परीक्षा होती |

नगरसेठ अधिकारी सोते, सारी जनता रोती  |

कन्याएं दो-चार हमेशा, हरदिन बढ़ती जाती।

चार कक्ष बनवाने होंगे, शांता धन ले आती ||


उसने अपना कोष लुटाया, बन जाती सन्यासिन।

पढ़ा रही निरपेक्ष भाव से, बीत गया फिर आश्विन। 

आती सर्दी से बढ़ जाती, लोगों में बीमारी |

औषधि बांटे वैद्य-चिकित्सक, बाँटे प्यार कुमारी ||


कभी कभी बादल घिर आते, गरजे अति चिग्घाड़ें |

जाकर बरसें दूर देश में, व्यर्थ कलेजा फाड़ें |

अनुष्ठान जप तप सब करते, सुने न रविकर ईश्वर |

ऊपर उड़ते गिद्ध दीखते, नीचे कंकड़ पत्थर ||


धीरे धीरे और हुई कम, सूरज की भी गर्मी।

मार्गशीर्ष की शीत भयंकर, मरते निर्धन कर्मी।

उत्कल का चावल व्यापारी, ज्यादा दाम वसूले।

अवधराज बँटवाते चावल, वे अपना दुख भूले ||


अंगदेश पर पड़ी मुसीबत, अजब निराशा छाई।

कैसे गर्मी काट सकेंगे,  गंगा माँ अलसाई।

लोग पलायन करने लगते, राजा की मजबूरी |

सृंगेश्वर में कई मनीषी, बैठक करें जरूरी ।।


किया आकलन काल-खण्ड का, फिर उपाय पा हरसे।

सृंगी-शांता का विवाह हो, तो ही बादल बरसे।

लेकर यह सन्देश सभी का, परम बटुक है जाता |

किन्तु साधु-वर सोच-सोच कर, माँ का मन अकुलाता ||


 मत्तगयन्द सवैया


सृंग सजे सिर ऊपर जो जननी तनु-प्राण विदारत देखा |

अंग जले जल सूख घरे हर ओर पुकारत  आरत देखा |

देख मुसीबत में जनता ममता बिटिया प्रिय वारत देखा |

साधु वरे सुकुमारि धिया घबराकर माँ मन मारत देखा |


हरिगीतिका

युवराज शाला में पधारे, किन्तु शांता थी नहीं।

काफी दिनों से भेंट उसने सोम से भी की नहीं।

करने लगे फिर वे निरीक्षण, देखते सब ध्यान से।

पर ध्यान करती भंग रूपा, सोम जाता जान से।।


थी मोहिनी सूरत गजब, कातिल निगाहें मारती।

हलचल मचाती मार टक्कर, ओह फिर उच्चारती।

युवराज भी दिल हारता, वह भी वहीं दिल हारती।

शांता खड़ी यह दृश्य देखे, देखती माँ भारती ।।


घनाक्षरी

धरती के वस्त्र पीत, अम्बर की बढ़ी प्रीत

भवरों की हुई जीत, फगुआ सुनाइये ।

जीव-जंतु हैं अघात, नए- नए हरे पात

देख खगों की बरात, फूल सा लजाइये ।

चांदनी तो सर्द श्वेत, आग भड़काय देत

कृष्णा को करत भेंट, मधुमास आइये ।

धीर जब अधीर हो, पीर ही तकदीर हो

उनकी तसवीर को , दिल में बसाइए ।।


सार छंद 

कार्यालय में सोम गये फिर, दीदी भी आ जाती |

विषम परिस्थिति पर भाई से, चिन्तित-मन बतियाती.

चैत्र मास भी बीत रहा है, गर्मी बहुत सताये।

है हमको बारात बुलाना, यदि सहमति मिल जाये।


भाई मेरी दोनों शर्तें, पहले पूरी करिए |

तनिक नहीं आपत्ति मुझे पर, विकट कष्ट ये हरिए |

भव्य भवन हो शाळा का भी, फिर अनुदान दिलाओ |

संरक्षक बनकर तुम देखो, सतत यहाँ पर आओ ||


सरसी छंद 

तन मन धन जीवन मैं करता, दीदी तेरे नाम |

शर्त दूसरी भी अब बोलो, बाकी काम, तमाम |

इसी बीच रूपा आ जाती, करवाती जलपान। 

मुखड़े पर थी सहज सरलता, मधुर-मधुर मुस्कान ||


शांता बोली फिर रख दूंगी, भाई दूजी बात |

आगे काम बढ़ाओ पहले, होने दो बरसात ||

यह कह बाहर गई कार्यवश, पड़ी सोम की दृष्ट |

मित्र-मण्डली सच कहती थी, रूपा है उत्कृष्ट ||


कैसी शाळा चले तुम्हारी, पूछ रहे जब सोम ।

ठीक-ठाक कहकर के रूपा, लगी ताकने व्योम । 

फिर प्रणाम कह रही उन्हें जब, करे सोम प्रस्थान। 

पीछे से वह ताक रही है, भली करें भगवान।।


बटुक परम के पास पहुँचकर, शांता पूछे हाल |

आश्रम में रखते सब गुरुजन, उसका बेहद ख्याल |

गुरुवर ने दीदी की खातिर, भेजा यह रुद्राक्ष |

रूपा सुनकर समाचार यह, करती व्यंग-कटाक्ष |


हँसी हँसी में कह जाती फिर, बातें रूपा गूढ़ |

शांता भी यादों में खोती, लगे पुरनिया-बूढ़ |।

भेज रहा संदेश अयोध्या, अवधि न होवे पार।

करें सुनिश्चित मातु-पिता फिर, शुभ-विवाह का वार |।


परम बटुक के साथ वहाँ पर, गए सोम युवराज |

रिस्य-विविन्डक के चरणों में, सिद्ध हुए सब काज |

लग्न-पत्रिका सौंप रहे वो, कर पूजा अरदास |

सादर आमंत्रित कर देते, उल्लेखित दिन ख़ास ||


परम बटुक मिलने चल जाता, रिस्य-सृंग के कक्ष |

किया दंडवत सादर उसने, रखे अंग का पक्ष |

गुरुवर ! दीदी ने भेजा है,  भर मुट्ठी यह धान |

मूक रही थी मगर रही थी, अधरों पर मुस्कान ||


लेते दोनों हाथ लगाकर, रहे बटुक से बोल।

दो क्यारी की मिट्टी कोड़ो, बीज बड़े अनमोल |

संस्कारित कर उन धानों से, बेरन रहे बनाय।

गर्मी की यह तप्त धरा भी, रविकर हुई  सहाय।।


भाग-2


पाठशाला-पर्व


हरिगीतिका  छंद 

वह नारि-शिक्षा पर लिखा, आलेख अपना पढ़ रही।

सच्चे सरल सिद्धांत से, जीवन सभी का गढ़ रही।

तारे सुता यदि तोड़ने का हठ करे, हिम्मत बढ़ा।

ऊँची बनाकर एक चौकी, बालिका को दे चढ़ा।।

 

साहस बढ़ाना नित्य इनका, आत्म-निर्भरता बढ़े।

नौ माह रखकर कोख में जो, एक मानव तन गढ़े।

नौ मास में कैसे नहीं अपने लिए कन्या पढ़े।

हर एक कन्या जिन्दगी भर, जिन्दगी अपनी गढ़े।।


सरसी छंद 

जेठ मास में ही होने हैं, अब पूरे नौ मास |

बालाओं के लिए किया है, सबने कठिन प्रयास |

कन्याएं साक्षर होकर अब, लिख लेती निज नाम |

फल-फूलों के चित्र बनाकर, खेलें वे अविराम ||


नौ महिनों में ही पढ़ लेती, दो वर्षों का पाठ |

तीन-पांच भी सभी बूझती, बारह पंजे साठ |

करने में सक्षम हैं सारी, अपने जोड़ -घटाव  |

दिन बीते कुल ढाई सौ पर, पाई नया पड़ाव ||


हर बाला को सिखा रही थी, तन-मन का हर भेद |

साफ़ सफाई बहुत अहम् है, पट हों स्वच्छ सफेद |

मीठी बोली बोलो हरदम, लेकिन रहो सचेत |

चंडी बन कर मार गिराओ, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||


अच्छी तरह जानती वे सब, हर स्नेहिल सुस्पर्श |

गन्दी नजर भाँपती झट से, शांता है आदर्श |

हुआ पाठशाला उत्सव तो, आते अंग-नरेश |

भाँति-भाँति के कार्यक्रमों को, करती विधिवत पेश ||


दिखा एक नाटक में कैसे, मिट सकता दुर्भिक्ष |

तालाबों की दिखी महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेल रहा हो, अपना सारा देश |

कालाबाजारी पहुँचाती, जन गण मन को क्लेश ||


हरिगीतिका छंद 

खाद्यान्न जो बर्बाद करते, रोक उनको ध्यान से।

पानी बचा नित अन्यथा हर जीव जाये जान से।

आचार्य-गण गुरुकुल उपस्थित, आज उद्बोधन करें।

कह नारि-शिक्षा पर रहे, उत्साह वे रविकर भरें।। 


दस शिक्षकों के तुल्य है आचार्य रविकर जानिए।

आचार्य सौ से भी बड़ा अपने पिता को मानिए |

माता मगर दस सौ गुना, रखती अपेक्षित ज्ञान है।

कन्या पढ़ाई यदि करे, तो मान अति-सम्मान है।।


सार छंद 

विदुषी गार्गी मैत्रेयी भी, कहलाती आचार्या ।

आचार्याइन कहलाती हैं, आचार्यों की भार्या।

कात्यायन की देख वर्तिका, है उसमें उल्लेखित |

लिखती हैं व्याकरण नारियाँ , करती मन उद्वेलित ||


जो भी जन  महिला शिक्षा पर, व्यर्थ सवाल उठाते।

पढ़े पतंजलि-ग्रन्थ आज ही, अभिभावक के नाते |

शांता जी ने किया यहाँ पर, कार्य बड़ा अलबेला।

नारी शिक्षा आवश्यक है, नर क्यों पढ़े अकेला।।


पांच साल का पूर्ण पाठ्यक्रम, दूंगा भेज सवेरे।

चलो दीप से दीप जलाओ, तमस न रविकर घेरे।

चार गुना अनुदान करें नृप , अति आभार जताते.

शांता संग सभी शुभचिंतक , मंद-मंद मुस्काते ||


शाळा की चिंता लेकर वह, शब्द -तरगें  साधे। 

आधा कार्य यहाँ हो जाता, सृंगी करते आधे |

सारे स्वप्न स्वयं के पूरे, कुछ हैं किन्तु अधूरे।

समय करेगा पूरे कुछ तो, रिस्य-सृंग कुछ पूरे।।


सवैया

सेहत से हत-भाग्य सखी, सितकारत सेवत स्वामि सदा |

कीमत सेंदुर की मत पूछ, चुकावत किन्तु न होय अदा |

रंग-गुलाल उड़ावत लोग, उड़ावत रंग बढ़े विपदा |

लालक लाल लली लहरी लखिमी कय किस्मत काह बदा ।।


हरिगीतिका

विस्तृत हुई चर्चा वहाँ पर, शेष दस दिन हैं मगर।

मजबूत करती हर व्यवस्था, रात-दिन सब एक कर।

आई नई फिर शिक्षिका, आभार सृंगी का कहे।

रविकर समय के साथ में फिर प्रेम में शांता बहे।।


वह साध्यवधु शांता जपे, सृंगेश्वरम् - सृंगेश्वरम् ।

कल्याण कर सबका सदा, होता रहा हर नेत्र नम।

जो शिक्षिका आई उसे दे हौसला दे शक्ति भी।

दे पाठशाला के लिए उसमें सरस आसक्ति भी।।


भाग-3


शांता-सृंगी विवाह


दोहा

इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।

गिरह कटें अब तो सही, विरह सही कब जाय ।।


हरिगीतिका छंद 

इस ब्याह की करते प्रतीक्षा, रंक-राजा मुनि कृषक।

दुर्भिक्ष के मारे हुए आकाश ताकें एकटक ।

परिवार-हित सब चाहते, सब चाहते सन्तान हित।

देरी न कोई चाहता, सब चाहते, हों सम्मिलित।।


कल्याण करती अंग का, करने जगत का भी चली।

अबतक वरुण की बेवफाई देश को बेहद खली।

उम्मीद सृंगी ने जगाई, हर्ष-वर्षा की यहाँ।

सारे अतिथि आने लगे, आने लगा सारा जहाँ।।


बारात सजती है वहाँ, सृंगी सजे दूल्हा बने।

सौगात वर्षा की बटुक गुरु से लगा है माँगने।

दूल्हा बगल में पोटली, दाबे हुआ है एक जब।

बजने विविध बाजे लगे, आगे बढ़ी बारात तब।


मँडरा रहे बादल गरजते, दस दिनों से अंग में।

जाते न तो वे अंग से, आते न तो वे रंग में।

चम्पा नगर में आ गई बारात जैसे रिस्य की।

भूरे हुए बादल सभी, सबने लगाई टकटकी।।


दोहा छंद 

गरज अंग की देख के, गरज-गरज घन खूब।

चुल्लू भर पानी लिए, गये उसी मे डूब।।


विधाता छंद 

करें फिर भूप अगवानी, सभी के संग मिल कर के।

विविन्डक रिष्य का करते प्रकट आभार पग धर के|

हुआ प्रारम्भ द्वाराचार तो, बादल करें टप-टप।

करें दादुर शुरू टर-टर, विविन्डक का सफल जप-तप||


परोसा भोग जो छप्पन, बराती चापते छककर।

बटुक शांता मिले फिर से, मिला था शीघ्र ही अवसर।

पिया-हित पीयरी पहने, पहुँचती पास पंडित के।

वहीं बैठे मिले सृंगी, नमन करते नयन खिल के ।।


सरसी छंद

रची कई रचना ईश्वर ने, हर तन मन मति भिन्न |

यदि स्वभाव से भिन्न लगे कुछ, करे खिन्न खुद खिन्न।

दृष्टि-भेद से रहे उपजते, अपने अपने राम |

लेकिन शाश्वत-सत्य एक ही, वही राम सुखधाम ।।


कौशल्या वर्षिणी रोमपद, दशरथ रहे विराज।

रिस्य विविन्डक भी बैठे हैं, बैठा सकल समाज।

जमा पुरोहित उभय-पक्ष के, सुन्दर लग्न विचार |

गठबंधन करवाकर रविकर,  फेरे को तैयार ||


विधाता छंदारित (सात-वचन)

चले जब तीर्थ यात्रा पर, मुझे तुम साथ लोगे क्या।

सदा तुम धर्म व्रत उपक्रम, मुझे लेकर करोगे क्या।

वचन पहला करो यदि पूर्ण, वामांगी बनूँगी मैं

बताओ अग्नि के सम्मुख, हमेशा साथ दोगे क्या।।


कई रिश्ते नए बनते, मिले परिवार जब अपने।

पिता-माता हुवे दो-दो, बढ़े परिवार अब अपने।

करोगे एक सा आदर, वचन यदि तुम निभाओगे।

तभी वामांग में बैठूँ, बने सम्बन्ध तब अपने।।


युवा तन प्रौढ़ता पाकर बुढ़ापा देखता आया।

यही तीनों अवस्थाएं हमेशा भोगती काया।

विकट चाहे परिस्थिति हो, करो यदि एक सा पालन।

तभी वामांग में बैठूँ, बनूँ मैं सत्य हमसाया।।


अभी तक तो कभी चिंता नहीं की थी गृहस्थी की।

हमेशा घूमते-फिरते रहे तुम, खूब मस्ती की।

जरूरत पूर्ति हित बोलो बनोगे आत्मनिर्भर तो-

अभी वामांग में बैठूँ, शपथ लेकर पिताजी की।।


गृहस्थी हेतु आवश्यक सभी निर्णय करो मिलकर।

करेंगे हर समस्या हल, परस्पर मंत्रणा कर कर।

सकल व्यय-आय का व्यौरा बताओगे हमेशा तुम

वचन दो तो अभी बैठूँ उधर वामांग में ऋषिवर।।


सखी के संग यदि बैठी नहीं मुझको बुलाओगे।

कभी भी दुर्वचन आकर न कोई भी सुनाओगे।

जुआं से दुर्व्यसन से भी रहोगे दूर जीवन में-

अभी वामांग में बैठूँ, वचन यदि ये निभाओगे।।


पराई नारि को माता सरिस क्या देखता है मन।

रहे दाम्पत्य जीवन में परस्पर प्रेम अति पावन ।

कभी भी तीसरा कोई करे क्यों भंग मर्यादा-

वचन दो तो ग्रहण करती, अभी वामांग में आसन।।


कुंडलियाँ  छंद 

अभिमुख ध्रुवतारा लखे, पाणिग्रहण संस्कार। 

हुई प्रज्वलित अग्नि-शुभ, होता मंत्रोच्चार। 

होता मंत्रोच्चार, सात फेरे करवाते।

सात वचन स्वीकार, एक दोनों हो जाते।

ले उत्तरदायित्व, परस्पर बाँटें सुख-दुख।

होय अटल अहिवात, कहे ध्रुवतारा अभिमुख।।


हरिगीतिका छंद 

सप्तर्षि-मंडल से अटल-ध्रुव सह सुशोभित है गगन।

जुड़वा-सितारा एक सँग में, वर-वधू पूजें मगन।

वाशिष्ठ पति, पत्नी अरूंधति नाम वेदों ने  दिए।

करते परस्पर परिक्रमा छह अन्य ऋषियों को लिए ।।


दोहा छंद 

अत्रि पुलस्त्या क्रतु पुलह, अंगीरस मारीच।

हैं वशिष्ठ सप्तर्षि में, इन ऋषियों के बीच ।।


सरसी-छंद

सातों वचनों को कर लेते, दोनों अंगीकार |

बारिश की लग गई झड़ी फिर, हुई मूसलाधार |

वर्षा होती सदा एक सी, उर्वर लेती सोख |

ऊसर सर-सर सरका देती, रहती बंजर कोख |


तीन-दिनों तक हुई अनवरत, बहुत तेज बरसात |

घुप्प अँधेरा रहा अंग में, बीती तीनों रात |

किच-किच हो जाता मंडप में, लगे ऊबने लोग |

भोजन की किल्लत हो जाती, खलता यह संयोग ||


सूर्य-देव फिर दर्शन देते,  रविकर चौथे रोज |

मस्ती में सब लगे झूमने, नव-आशा नव-ओज |

है विवाह-मंडप में रौनक, शुरू अन्य संस्कार |

विधियाँ सब विधिवत् पूरी कर, बाराती तैयार ||


शांता इच्छा प्रकट करे जब, आ जाते युवराज |

कन्याशाळा अब कैसी है, चलो दिखाओ आज |

मुझे देखनी प्रगति वहाँ की, संभावित व्यवधान। 

सृंगी रूपा सहित कई जन, करें साथ प्रस्थान ||


आधा से ज्यादा निर्मित है, दस बीघा फैलाव | 

सॄंगी खोल पोटली कहते, बोना है सद्भाव। 

अब तक गीली रही पोटली, लाया बटुक सँभाल।

चार क्यारियाँ स्वयं बनाता, सृंगेश्वर का लाल |।


शांता को रुद्राक्ष मिला तो, भेजी थी वह धान |

तंत्र-मंत्र से उन धानों में, डाली ऋषि ने जान |

उच्च-कोटि के इन धानों में, अन्नपूर्णा वास।

चार क्यारियों में रोपेंगी, चार नारियाँ खास |।


वैसा ही चावल निकलेगा, होगी जैसी सोच।

बारह-मासी धान उगेगा,  बो दो नि:संकोच |

कन्याओं को सदा मिलेगा, मन-भर बढ़िया भात |

द्रोही यदि इनको छू लेगा, देंगे ये आघात ||


आत्रेयी माँ कौला रूपा, रमणी बोती धान |

अपनी अपनी सजा क्यारियाँ, रखती पूरा ध्यान ||

करें सोमपद तभी घोषणा,  दो हजार अनुदान |

सदा कोष से राशि मिलेगी, रुके नहीं अभियान ||


दीदी मैंने शर्त तुम्हारी, पूरी कर दी आज |

बोलो अपनी शर्त दूसरी, खोलो अब तो राज |

जुटे बहुत से लोग यहाँ पर, अभी न आया वक्त |

धैर्य रखो कुछ दिवस और तुम, भाव करे वह व्यक्त ||


सहमत सोम हुआ दीदी से, यह अध्याय समाप्त। 

सृंगी का आशीष मिला तो, खुशी चतुर्दिक व्याप्त|

हरी-भरी होने लग जाती, अंगदेश की गोद |

रूपा के सँग सोम करे नित, हँसी-मजाक-विनोद।।


दोहा

चंपानगरी छूटती, सृंगेश्वर प्रस्थान। 

शुरू विदाई जब हुई, छिनजाती मुस्कान।।


हरिगीतिका छंद 

कुछ पेटिका में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।

गुड़िया खिलौने छोड़ के चुनरी खड़ी है ओढ़ के।

रो के कहारों से कहे रोके रहो डोली यहाँ।

घर-द्वार भाई माँ-पिता को छोड़कर जाऊँ कहाँ।

लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


हरदम सुरक्षित मैं रही सानिध्य में परिवार के।

घूमी अकेले कब कहीं मैं वस्त्र गहने धार के।

क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार क्यों।

अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घरबार क्यों।।

रोती गले मिलती रही, ठहरी न लेकिन वह घड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।

शायद कमी कुछ रह गयी हम बेटियों के प्यार में।

तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।

दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र रविकर आगमन।।

आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ जाती हर कड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


कुँडलियाँ छंद 

कई वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |

शांता आगे बढ़ चली, देकर हर्षोल्लास |

देकर हर्षोल्लास, जन्मदाता से कहती।

शीघ्र कटेगा क्लेश, अयोध्या जो भी सहती।

कटा यज्ञ का विघ्न, समय अब परम-हर्ष का।

पूर्ण करेंगे स्वप्न, अवध के कई वर्ष का।


अरसात सवैया

शांत शरिष्ठ शशी सम शीतल, शारित शिक्षित शीकर शांता  ।

वाम विहारक वाहन वाजि वनौध विषाद विभीत वि-भ्रांता ।

स्नेह दिया शुभ कर्म किया, खुशहाल हुवे कुल दोउ वि-श्रांता ।

भीषण-काल अकाल पड़ा, तब कष्ट हरे बन श्रृंगिक -कांता.


भाग 4


पुत्रेष्ट-यज्ञ


हरिगीतिका

तैयारियाँ होने लगी, फिर से अयोध्या-धाम में।

फिर से सजा मंडप पुराना, लग गये सब काम में।

सृंगी पुरोहित बन गये, शांता विराजी बाम में।

गंधर्व-सुर ऋषि-मुनि उपस्थित, रुचि जिन्हें अंजाम में।


मखक्षेत्र की रौनक बढ़ी, पूरी सजावट हो गई। 

पावन-कलश तंदुल भरे है नीर नदियों का कई।

ला दुग्ध कपिला गाय का, ग्वाले कई करते जमा।

हर यज्ञसैनी भोग की तैयारियों में है रमा।


मौली अगरबत्ती रुई कर्पूर कपड़े चौकियाँ।

माचिस सुपारी आम के पत्ते सहित मधु चूड़ियाँ।

जौ पंच-मेवा आम की लकड़ी कलावा आ गये।

लाये कमल गट्टे गये, छोटे बड़े दीपक नये।


मेवे बतासे लौंग गुग्गल पान कुमकुम फूल फल।

सम्पूर्ण सामग्री जमा घृत धूप दुर्वा नारियल।

राजा पधारे रानियाँ भी साथ उनके आ गईं।

नर वस्त्र पहने हैं नये, सब नारियाँ साड़ी नई।


विधाता छंद

निरीक्षण कर रहे श्रृंगी, हुए संतुष्ट वे रविकर।

सुनिश्चित आसनों पर अब विराजे हैं सकल गुरुवर.

बहुत ही व्यस्त दिनचर्या, कई दिन यज्ञ में लगते।

रही प्रतिबद्धता पूरी, अवध के भाग्य भी जगते।


समय वातावरण सुन्दर, भरोसे से भरा जन-मन।

बड़ी श्रद्धा समर्पण से हुआ परिपूर्ण आयोजन। 

गजब संयोग था उस दिन, हुए नव चन्द्र के दर्शन ।

रहे दे भूप पूर्णाहुति, करें फिर रिस्य का वंदन।।


सार छंद 

पूर्णाहुति के बाद वहाँ पर , अग्नि देवता आते।

कर-कमलों से कलश खीर का, नृप को स्वयं थमाते।

ग्रहण करें दोनों हाथों से, नृप दशरथ आभारी।

गुरु वशिष्ठ सृंगी शांता की,  सकल सृष्टि  बलिहारी ।।


आसमान से देवि-देवता, जय जयकार सुनाते |

कौशल्या के पास कलश ले, नृप दशरथ आ जाते.

आधी खीर थमाते उनको  कैकेयी को आधा.

कौशल्या कैकेयी की तो, कट जाती सुत-बाधा.


लेकिन दोनों खीर स्वयं की, करते आधी-आधी.

दिया सुमित्रा को दोनों ने, परम-मित्रता साधी।

रिष्य सृंग के मंत्रों ने फिर,  रक्षातंत्र  सँभाला।

कौशल्या के दोष कटे कुल, दुष्टों  का मुँह काला ||


द्विगुणित चौपाई 


उच्च-अवस्थिति रहे पंच-ग्रह, नखत पुनर्वसु कर्क लगन था.

चैत्र मास के शुक्लपक्ष की, नवमी तिथि का मंगल क्षण था.

तदनुसार जनवरी रही दस, इक्यावन सौ चौदह बी सी.

बारह बजकर पांच मिनट पर, मंद पवन थी धूप खिली सी.


प्रसव पीर सहती हर रानी, कौशल्या माँ पहले बनती.

हुए राम अवतरित धरा पर, पाप-पुण्य की रविकर ठनती.

कैकेयी के भरत हुए फिर, मगन मंथरा झूम रही  है।

हुए लखन शत्रुघ्न सहोदर, मातु सुमित्रा चूम रही है।


दोहा छंद 

घड़ा पाप का भर रहा, जब कोई अति - दुष्ट।

भगवन का अवतार हो, जन-गण-मन संतुष्ट।।


लंकापति रावण बड़ा, उत्पाती बरबंड |

मानव को जोड़े नहीं, बढ़ता गया घमंड ||


जीत यक्ष गन्धर्व सुर, रावण हुआ मदांध |

शनि को उल्टा टाँगता, यम को पाटी-बांध ||


गीतिका छंद

पितृ-ऋण ऐसे उतारे दिव्य कन्या भूप की.

साथ श्रृंगी का मिला तो, कर्म सुखकर कर सकी.

यज्ञ की अति-व्यस्तता से, आज वह बेहद थकी.

भेंट कर हर एक से फिर , मौन-मन प्रस्थान की.


भाग  5

शांता की ससुराल

विधाता-छंद 

करे प्रस्थान सृंगेश्वर, अवध का कार्य निपटाकर.

अधूरी रीतियाँ पूरी, करे ससुराल पुनि आकर।

लगे दो दिन सफर में फिर, पहुँचते तीर कोसी पर।

लगाकर साथ में डुबकी, करें आराधना जाकर।।


दिवस अगला बहुत ही व्यस्त,अति-प्रात: जगी शांता.

चरण सासू - ससुर के छू, सफाई में लगी शांता.

करे कुलदेवि की पूजा, सभी आराध्य का पूजन.

सभी का ख्याल रखती वह, सभी का जीत लेती मन.


सरसी छंद

सासू माँ की अनुमति लेकर, बना रही पकवान.

आश्रम के सब जन बन जाते , शांता के मेहमान |

बड़ी रसोई में जलवाती, चूल्हे पूरे सात |

दही-बड़े जुरिया बनवाती,  उरद-दाल सह भात ||


आलू-गोभी की पकवाती, सब्जी भी रसदार |

मेवे वाली खीर स्वयं ही, छाई वहाँ बहार |

दस पंगत लम्बी लगती फिर, कुल्हड़ पत्तल साज |

स्वयं अन्नपूर्णा करवाती, सबको भोजन आज ||


परम बटुक सँग में लग जाता, रिस्य सृंग पद भूल |

अतिथि हमारे देवि - देवता, सबको किया क़ुबूल |

परम बटुक से हैं प्रसन्न सब, शारद सदा सहाय |

एक बार के पढ़ने से ही, गूढ़ विषय आ जाय ||


विधाता छंद

चिकित्सा-शास्त्र पढ़कर वह, करेगा लोकहित भरदम.

निरोगी हों सभी प्राणी, सभी का स्वास्थ हो उत्तम.

नहीं धन-सम्पदा चाहे, न कोई और चाहत है.

नये जो शोध होते हैं, उसे उनसे मुहब्बत है.


कई याचक कई रोगी कई दाता धनी आते.

मनोवांछित मिले सबको, सभी आनंद-मन जाते.

सुबह आकर कई प्रतिनिधि, निवेदन कर रहे सादर.

बिगड़ते हाल घाटी के, हिमाचल की दशा बदतर.


रही अब बीत वर्षा-ऋतु, मगर बरसा नहीं पानी |

कुपित हैं इंद्र हम सब से, करें वे नित्य मनमानी.

दरकते गिरि सुलगते वन, तड़पते जीव भी सारे.

निकलकर खोह से बाहर, व्यथित इंसान को मारे.


बगीचे सूखते सारे, न खेती हो रही नीचे.

कहाँ तक निर्झरों का जल, सभी के खेत को सींचे.

हरो विपदा हमारी अब, बचा लो देव-भू प्यारी.

बहुत ही धैर्य से सुनते, विविंडक ऋषि कथा सारी।।


त्रिशुच की पीर अब कैसे,  मिटेगी हल बताते हैं.

किया फिर मंत्रणा सुत से, सरस निर्णय सुनाते हैं.

वधू शांता सहित श्रृंगी, नई  नौका अभी लेंगे.

अवध के मार्ग से दोनों, इसी सप्ताह पहुंचेंगे।।


चरण माता -पिता के छू, बटुक को साथ ले लेते.

बहे गंगा बहे सरयू, अवध को दर्श वे देते.

सकल नगरी इकट्ठा है, सभी में जोश भारी है।

पधारे आज पहुना हैं, बहन शांता पधारी है।


चौपाई छंद


भाग्य अवध के फिर से जागे.

स्वागत करते दशरथ आगे.

चारो भाई चरण पखारें .

दोनों की आरती उतारें.


ठुमुक-ठुमुक चलता हर भाई, 

दृश्य देख शांता हरसाई.

लगी रानियाँ आवभगत में.

सबसे प्रिय यह युगल जगत में.


दर्शन करने जनगण आया.

तरह-तरह की भेंट चढ़ाया.

शांता ने लेकिन समझाया.

किन्तु किसी को समझ न आया.


सरसी छंद


सृंगी ऋषि फिर लगे बोलने, हम सन्यासी लोग |

करे नहीं संचयन वस्तु का, करे नहीं अति भोग |

करिए कृपा, दीजिए अनुमति,  हम सबको श्रीमान |

दो दिन खातिर बाँध रही वह, कुछ अवधी पकवान |

सड़क मार्ग से पहुंच गये हैं, देवभूमि आराध्य।

स्वागतकर्ता देख रहे हैं, साधक साधन साध्य।।


कहे रिस्य को महाराज सब, हर्षित सकल समाज |

सभी प्रमुख आने लग जाते, प्रेम-पालकी साज |

कर सबको आश्वस्त वहाँ पर, रिस्य करें अब राज |

कर्म गूढ़ करने लग जाते, सिरमौरी को साज ||


दोहा छंद 

रिस्य गुफा में यज्ञ कर, करें लोक-कल्यान |

बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||


सर्ग 4 समाप्त


*सर्ग 5*

भाग 1


सरसी छंद 

उधर अंग में, इधर अंग में , उथल-पुथल गंभीर |

रूपा-रति को लग जाते हैं,  सोम-मदन के तीर |

अंगराज हो गये स्वस्थ अब, मंत्री-परिषद संग |

लगे समस्याएं निपटाने, प्रगति-पंथ पर अंग ||


 सार छंद 

शाला में बाला बढ़ती नित, नया भवन बनवाया|

आचार्या बारह आ जाती, माली श्रमिक बढ़ाया |

इंतजाम अति-उत्तम करते, यश भूपति का बढ़ता।

पुंड्रा बंग मगध उत्कल पर, शाला का रँग चढ़ता ||


परिवर्तन आया सुखदायी, बढ़े कार्य नित आगे।

नीति-नियम से शाला चलती, भाग्य अंग के जागे।

सोम सदा आते रहते हैं, रविकर कन्या-शाला।

रूपा से बातें कर उसने, रूपा को रँग डाला।


रूपा को जब भी शांता की, यादें बहुत सताती.

होकर तब बावली भटकती, गंगा तट पर आती.

गंगातट पर पहले से ही, मिलते सोम टहलते।

बालू पर वे अपनी अपनी, कहते-सुनते रहते।।


दोहा छंद 

शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |

प्राकृति पहुँचाई वहाँ, रूपा का उन्माद  ||


सरसी छंद 

शांता रहती अनमयस्क सी, आते ख्याल तमाम |

कार्य-सिद्ध कर लौटेंगे सृंगी, अब श्रृंगेश्वर-धाम |

देवभूमि के संकट कटते, बीता पूरा मास |

अंगदेश जाना चाहूँ मैं, शांता करे प्रयास ||


फेरे की है रस्म जरूरी, किन्तु काम थे ढेर।

टलता रहा आज तक लेकिन, करो न इसमें देर।

सहमति पाकर चली पालकी, ऊँचीं-नीची राह |

धीरे-धीरे लगे छूटने, अचल कंदरा गाह ||


तेजधार गंगा की धीमी, आया सम मैदान |

नाविक गण अब थाम रहे हैं, यात्रा हेतु कमान ||

लौट रही वह अंग देश अब, परम बटुक के साथ.

गंगा जी में चली नाव फिर, जय जय भोलेनाथ..


मंगल-भावों से आनंदित, छाये परमानंद |

शुभ-शुभ योगायोग बना तो, विरह अग्नि हो मंद.

हरी-भरी अति उर्वर धरती, गंगा का मैदान |

प्रभु की महिमा से अति-उन्नत, भारत माँ की शान ||


सार छंद 

गंगा माँ में मिलती जाती, छोटी नदियाँ आकर.

यमुना भी मिलकर हो हर्षित, गंगा गले लगाकर ||

सरस्वती से बने त्रिवेणी, है प्रयाग अलबेला।

हरिद्वार सा लगे यहाँ भी, महाकुंभ का मेला।।


दोहा छंद 

इड़ा पिंगला साधते, मिले सुषुम्ना गेह ।

बरस त्रिवेणी में रहा , सुधा समाहित मेह ।।


सरसी-छंद 

सरस्वती गंगा यमुना का, विशद त्रिवेणी धाम |

देख विहंगम दृश्य यहाँ का, हर्षित भक्त तमाम |

रात यहीं विश्राम किया फिर, सुबह बढ़ाई नाव |

काशी में दर्शन कर बढ़ता, रविकर भक्त स्वभाव ||


दोहा छंद  

गंगा उत्तर वाहिनी, थी जलराशि अथाह |

नाव चलाने में कुशल, रविकर हर मल्लाह ||


धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |

गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||


जल-धारा अनुकूल पा, चले जिंदगी-नाव ।

धूप-छाँव लू कँपकपी, मिलते नए पड़ाव ।।


सरसी-छंद 

अगहन में वर्षा हो जाती, बढ़ी रात में शीत |

नाविक आगे बढ़ते रहते, मनभावन संगीत  |

अनजाने ही मुई नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |

फँसते बालू-भित्ति बीच वे, होने लगी कुबेर ||


बीत गई दोपहर वहीं पर, अति लम्बा ठहराव |

हिकमत कर-कर हार गये वे, निकल न पाई नाव |

टकराने से खुल जाते हैं, नाव मध्य दो जोड़ |

जल अन्दर घुसने लगता है, उलचें बाहें मोड़ ||


द्विगुणित चौपाई 

छेद नाव में, अटके-नौका, कभी नहीं नाविक घबराये ।

जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाये ।

इतना लम्बा जीवन-अनुभव, नाव शर्तिया तट पर आये.

पतवारों पर अटल भरोसा, भव-सागर भी पार कराये ।।


हरिगीतिका छंद


असफल हुआ हर यत्न तो,  करने लगे नाविक पता.

दो कोस पर है गाँव आगे, एक जन जाता बता.

लाने मदद आगे बढ़े, नाविक बटुक जब साथ में,

तो एक पण शांता रखे, रविकर बटुक के हाथ में.


सामान कुछ उससे मंगाती. घट चुका जो मार्ग में.

दोनों गये बाकी वहीं तट के किनारे ही रमे.

गतिमान रविकर अनवरत है, दो पहर बीते मगर.

लौटे अभी तक वे नहीं, नजरें गड़ी हैं राह पर.


कुछ और बीता वक़्त तो, आते दिखे दो व्यक्ति ही.

यह देखकर सबको लगा शायद मदद पाई नहीं.

लेकिन बटुक उनमें नहीं, नाविक अपरचित व्यक्ति सह.

वह व्यक्ति फिर सादर नमन कर, कह रहा रविकर वजह.


फैली महामारी यहाँ पर, वैद्य है कोई नहीं.

मरते रहे हर दिन कई, मिलती नहीं औषधि कहीं.

हैं संक्रमित अधिकांश जनगण, ज्वर चढ़े, काँपे सभी.

औषधि बटुक जी की नियंत्रित कर रही मौतें अभी।


इन्सान में इन्सान से कीटाणु यह जाता लिपट।

सारी व्यवस्था व्यर्थ है, आई समस्या अति विकट। 

होते हजारों संक्रमित तो दर्जनों जाते निपट।

अब आप से विनती करूँ, इस ग्राम के चलिए निकट।


वह अपरचित फिर करे शांता चरण में दण्डवत.

कुछ दिन गुजारो आप तट पर, इस तरह दो छोड़ मत.

दे सांत्वना शांता कहे, सौभाग्य है मेरा परम.

करता बटुक अपना करम, हम भी निभाएंगे धरम.


हमको बटुक पर गर्व है, जुग -जुग जिए भाई बटुक.

तम्बू तना, शांता वहीं, तट के किनारे जाय रुक.

प्रात: पधारे भद्रजन, कुछ टोकरी लेकर इधर।

गन्ना शहद कुछ सब्जियाँ, फल-फूल राशन भेंट कर।।


सरसी छंद 

साध्वी शांता को करते सब, आदर सहित प्रणाम। 

इसी बीच में एक वृद्ध ने, लिया ग्राम का नाम।।

क्या दालिम को आप जानते, शांता करे सवाल.

जिसने ग्राम-निकाला पाया, बीते चौबिस साल.


हाँ कहते ही ग्राम -प्रमुख के, शांता हुई प्रसन्न.

सौजा रमन बाघ की बातें, हो परिचय सम्पन्न.

जय जय जय जय देवी शांता, जय जय जय जयकार |

दालिम का ही पुत्र गाँव में, आज करे उपचार ||


सार छंद

औषधि वितरण करें जहां पर,  वहाँ पहुँचती दीदी.

देख परस्पर तृप्त हुआ मन, आँखें किन्तु उनीदी.


पीड़ा सहकर भी करता है, परहित मेरा भाई.

सही चिकित्सक कर्म यही है, रविकर बहुत बधाई |

परम् बटुक को पता चला ज्यों, है यह ग्राम पिता का.

धरती माँ को नमन करें त्यों, कह मुखिया को काका.


यह औषधि जानो -पहचानो, सम्यक मात्रा देना |

साफ-सफाई की भी पूरी, जिम्मेदारी लेना |

रोज सुबह तुलसी का काढ़ा, सबके घर बनवाना.

छोटे-बड़े सभी प्राणी को, है जरूर पिलवाना.


दोहा 

नाव ठीक कर दी गई, होता ग्राम सुधार.

लेकर फिर सब से विदा, होते सभी सवार.


हरिगीतिका छंद

सामान आवश्यक मिला, वापस बटुक वह पण करे.

उपयोग जब उसका नहीं तो पास अपने क्यों धरे.

शांता कहे रख पास अपने, काम आयेगा कभी।

लो आप ही यह पण रखो, यह तो अनावश्यक अभी। 


ज्वर एक नाविक को चढ़ा रविकर अँधेरी रात में।

लक्षण वही ग्रामीण से, वह काँपता सन्ताप में।

विलगाव कर, उस नाव पर ही  वह रहा एकांत में।

औषधि वही उसको खिलाया जो उगे उस प्रांत में।।


दोहा छंद 

पानी  ढोने का  करे,  जो बन्दा  व्यापार  |

मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||


गंगा उत्तरवाहिनी, सुन्दर पावन घाट |

नाव किनारे पर लगा, घूम रहे सब  हाट ||


सरसी छंद 

परम बटुक करने लग जाता, राजनीति पर बात।

कहो आय पर कितना कर हो, कैसा हो अनुपात।

 उत्तरदायी रहे राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |

मंत्री का आदर्श कर्म क्या, कहिये दीदी सोय ||


विधिसम्मत कैसे रह सकते, रहे न्याय का राज |

राज-पुरुष के दोष-पाप पर, उठे कहाँ आवाज |

प्रमुख विराजें ग्राम-ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |

कैसे हो कल्याण सभी का, कैसा रखें स्वरूप ||


उत्तर-प्रत्युत्तर में माते, रहे न दिन का ध्यान.

यूँ ही चर्चा चली सतत तो, हुई  राह आसान 

हितकारी शासन हो कैसा, करता बटुक सवाल.

व्यापक सामाजिक सेवा का, फैले अंतरजाल.


रोटी कपड़ा व मकान की, रहे व्यवस्था ठीक.

शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा पर हो, शासन सोच सटीक.

यात्रा पूरी हुई नाव की, उतरे सभी सवार |

नाविक के विश्राम आदि का, बटुक उठाये भार ||


सार छंद 

राजमहल शांता का जाना, माँ का गले लगाना.|

माथ चूमना प्यार जताना,  जल उतार ढरकाना.

मिली पिता से झटपट जाकर, दोनो ही हरसाये |

स्वस्थ पिता को देख देख वह ,फूली नहीं समाये ||


क्षण भर ही विश्राम करे फिर, गई सोम से मिलने |

किन्तु वहाँ रूपा का मिलना, अस्वीकारा दिल ने.

गले सहेली से मिलती वह, आँखें लगी चुराने.

सोम अभी आते ही होंगे, खुद से लगी बताने ||


किन्तु न आये सोम वहाँ पर, लम्बी हुई प्रतीक्षा |

शांता चली पाठशाळा को, करने लगी समीक्षा.

शाला में शांता को पाकर, होते सभी प्रफुल्लित |

अपनी कृति को देख-देख कर, शांता भी आनंदित||


आत्रेयी आचार्या मिलती, उनको गले लगाकर |

बालायें संकोच करें सब, मिलें न सम्मुख आकर |

नव कन्याएं देख रही हैं, शांता का पहरावा.|

सन्यासिन का वेश प्रभावी, आया तभी बुलावा ||


सभी जमे आनन-फानन में, क्रीड़ास्थल पर आकर |

संध्या की वंदना हुई फिर , रूपा कहती सादर |

का |

कन्याशाला देन इन्हीं की, इनके बिन सब फीका |

शांता के उद्बोधन से फिर, दिन का हुआ समापन.

वापस राजमहल वह जाती, कर सबका अभिनंदन..


पुत्तुल-पुष्पा नामक छात्रा,  बनती सखी सहेली।

मातु-पिता के चिर-वियोग का, एक सरिस दुख झेली।

कौला-सौजा करें मातृवत, कन्याओं का पालन |

सीख रही गृहकार्य सभी वे, बना रही हर व्यंजन ||


दोनों बालाएं आ मिलती, शांता ले लिपटाया |

आंसू पोछे बड़े प्रेम से, सस्नेह शीश सहलाया |

क्रीड़ा कक्षा शुरू हुई तो, खेल रही बालायें।| 

खेल खेल में जीवन जीना, आचार्या सिखलायें।


सरसी-छंद 

हों समाप्त संध्या से पहले, रविकर सारे खेल।

तभी सोम घोड़े पर आया, डाले कौन नकेल।

खोज रहीं रूपा को आँखें, आँख दिखाये कौन।

देख रहे सब, समझ रहे सब, फिर भी साधे मौन।।


शांता को सम्मुख देखा तो, आया झट से सोम |

करता उनकी चरणवंदना, किन्तु ताकता व्योम ||

चेहरे पर गंभीर भाव हैं, मुकुट राजसी वेष।

हलके में मत लेना इनको, हैं ये चीज विशेष ||


पूरा दिवस बिता देती वह, देती कई सलाह।

कहा सोम ने सभी देखते, राजमहल में राह।

सौजा कौला मिली  प्रेम से, रमणी है बेचैन |

दालिम काका भी मिल लेते, आधी बीती रैन ||


नाव गाँव का सुना रही वह, फिर सारा वृत्तांत|

सौजा पूंछ रही है सब  कुछ, दालिम दीखे शांत |

पर मन में हलचल मच जाती, जन्मभूमि का प्यार |

वैद्य बटुक शाबाशी पाता, किया खूब उपचार ||


रमणी से मिलकर वह करती, रविकर बातें गूढ़ |

वैसे तो अत्यंत चतुर वह, बने न रूपा मूढ़ |

अगले दिन रूपा करती है, यूँ ही साज-सिंगार |

जाने को उद्दत  दिखता है, बाहर राजकुमार ||


विधाता छंद

ठिठोली कर रही शांता, करे श्रृंगार रूपा जब.

जलाने जा रही किसको, सखी अंगार बनकर अब.

लगे सौन्दर्य को कोई, न धब्बा  ध्यान रखना है .

नियंत्रित आचरण करना, न भावों में बहकना है..


दोहा छंद 

रूपा को सोहे नहीं, असमय यह उपदेश |

तभी बुलावा भेजते, रविकर अंग-नरेश।।


रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |

कुछ ज्यादा चिंतित दिखे, मुखड़ा तनिक उदास ||


विधाता छंद 

पिता जी सोम को लेकर बड़ी चिंता प्रकट करते.

अजब चंचलमना है वह, भविष्यत् काल से डरते.

बढ़ी है आयु अब मेरी, शिथिल होती दिखे काया.

कई दिन हो गये लेकिन नहीं दरबार वह आया।।

 

नहीं उत्साहवर्धक है, खबर हैरान करती है.

तुम्हारी ही सखी रूपा, खड़ा व्यवधान करती है.

हुआ है राजमद सुत को, शुरू मनमानियाँ करता.

नहीं सुनता किसी की वह, किसी से भी नहीं डरता।।


प्रशासन में न रुचि लेता, अड़ंगा हर जगह डाले.

लगे जिस चीज के पीछे उसे वह शर्तिया पा ले.

निरंकुश सोम को तुम ही, चला सकती सही पथ पर।

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, भरोसा है मुझे तुमपर।।


दोहा

मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |

राजा पर अंकुश रहे,  नहीं बने शैतान ||


पञ्च रत्न का हो गठन, वही उठाये भार | 

करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||


शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |

दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||


करिए इनका व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |

महासचिव की आन पर, किन्तु न आवे आँच ||


हरिगीतिका छंद 

सहमत हुए नृप हर विषय पर, दे दिया अधिकार सब।

वह भी हुई हर्षित बहुत, सम्पन्न करना कार्य अब।

युवराज भी संदेश पाकर आ गये भूपति जहाँ।

रोमांच था अपने चरम पर, दृश्य झट बदला यहाँ।


संक्षेप में सारी कथा, शांता कही युवराज से।

वह  सँभालेगी व्यवस्था, राज्य की भी आज से।

युवराज लम्बी सांस लेकर, रह गये ऐसा लगा।

सारी हकीकत जान कर, फिर सिर झुका बाहर भगा।।


डुग्गी बजी फिर हर जगह, उन पांच-रत्नों के लिए। 

होना इसी रविवार साक्षात्कार रविकर आइए। 

पंडित बुलाकर शुभ मुहूरत देखते इस व्याह का।

फिर से टटोला मन गया रूपा सहित युवराज का।


हे तात इतनी शीघ्रता इस ब्याह हित क्यों कर रहे.

मन में मगर मोदक दबाये, सोम शांता से कहे.

अपनी सखी से पूछ लो, सहमति जरुरी है बहन.

मुझको नहीं आपत्ति कोई, आज हो या कल लगन.


शुभ ब्याह की पारम्परिक हर रीति की जाने लगी.

गौरी गजानन को मनाने गीत सब गाने लगी.

आये अवध-नृप राम-लक्ष्मण संग कौशल्या रही.

भाई भतीजे भाभियों को देखकर कौला कही.


आभार है माँ आपका, परिवार जो लाई बुला.

स्वागत करे हर एक का वह, पैर सबके दी धुला.

सृंगी न आ पाये मगर, ऋषिराज आये है वहाँ.

पर ब्याह की इस हड़बड़ी से, सोम चिंतित है यहाँ.


 दोहा छंद 

जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |

दीदी से जाकर करें, वह विनती मनुहार ||

 

दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |

शर्त दूसरी पूर्ण कर, कर न व्यर्थ संताप ||


दीदी के छूकर चरण, शर्त दूसरी मान।

गया कक्ष में सोम फिर, सोया चादर तान।।


हरिगीतिका छंद 

नारी बहन माँ गुरु सखी, पत्नी बुआ मौसी बने।

कितने विविध आयाम हैं, देखे सुने संसार ने।

ममता समर्पण स्नेह श्रद्धा, त्याग की विश्वास की.

प्रतिमूर्ति नारी है युगों से, पर न मानें पातकी ।।


दायित्व लेकर सत्यनिष्ठा से करे हर कर्म वह.

रानी बने सन्यासिनी, हर्षित निभाए धर्म वह 

दासी सुता रानी बने, पर गर्व किंचित भी नहीं.

दो दो घरों की शान ये, होती कहीं जाती कहीं.


नारी सबल, सामर्थ्यमय, कम शक्ति है तन में भले.

मजबूत अंतर्मन मगर, वह हर परिस्थिति में ढले.

पालक-पिता का कर भला, की जन्मदाता का भला।

करने सखी का अब चली, जब दीप शिक्षा का जला।।


दोहा छंद 

हो जाता सम्पन्न यूँ , पाणिग्रहण संस्कार।

वर-वधु शांता से मिले, प्रकट करें आभार।


सरसी छंद 

हुई प्रबल अनुभूति-तरंगें, सूर्यदेव जब अस्त |

समाचार ले रहे परस्पर, शांता सृंगी व्यस्त  |

परम बटुक पाने लग जाता, राजवैद्य का नेह |

साधक आयुर्वेद साधता, करता अर्पित देह ||


कौशल्या कन्याशाला में, रही सुबह से घूम।

मन आनंदित कर देती है, ललनाओं की धूम।

एक अकेली कन्या आकर, करती यहाँ कमाल।

संस्कारित शिक्षित करती वह, दो सौ कन्या पाल |।


हर बाला ही वंश बेल है, फूले-फले विशाल |

देवि मालिनी कर देती है,  हरी-भरी हर डाल ||

शाळा को देती कौशल्या, दो हजार अनुदान |

ऐसी ही शाला खोलेगी, लेती मन में ठान।।


राम-लखन के साथ समय का, उसे न रहता ध्यान।

दूल्हा-दुल्हन का पथ छेकी, बहना के अरमान।।

स्वर्णाभूषण आप त्यागती, आडम्बर से दूर । 

भौतिकता भी नहीं सुहाता, है कुछ बात जरूर ||


दीदी बोली सही सोम तुम, शर्त दूसरी मान |

हरदिन रूपा जाये शाला, बिना किसी व्यवधान ।

जिम्मेदारी इसे सौंप दो, खींचों नहीं लकीर  |

नारी में है शक्ति अनोखी, बदल सके तस्वीर ||


कन्याएं दो सौ से ज्यादा, रहे व्यवस्था ठीक। 

हरे पाठशाला की चिंता, रूपा सोच सटीक।

बना व्यवस्था चल पड़ती फिर, वह शाळा की ओर |

आचार्या आत्रेयी को दी, पञ्च-रत्न की डोर ||


भाग 2


पञ्च-रत्न 


सरसी-छंद 

आचार्या करने लग जाती, प्रश्न-पत्र तैयार |

कई चरण की जाँच-परख से, पाना होगा पार |

नियत समय तिथि पर आते हैं, लेकर सब उम्मीद |

कन्याशाला में ठहरे सब,  पढ़ उद्धृत-ताकीद ||


पहले दिन आराम करें सब, हुई न कोई जाँच |

कोई नगर भ्रमण करता है, कोई पुस्तक बाँच |

कोई देखे बाग़-बगीचे, कोई गंगा तीर |

क्रीड़ास्थल पर खेल रहे हैं, कई सयाने वीर ||


मिताहार है कई लोग तो, मिताचार से प्यार |

कुछ तो भोजन-भट्ट दिखे हैं, कई दिखे लठमार |

कोई मंदिर होकर आया, कोई गाये गीत। 

कोई चित्र बनाने बैठा, रहा समय यूँ बीत।


विधाता

सुबह सूची हुई जारी, गये इक्कीस घर वापस। 

परीक्षण स्वास्थ्य का होता, हुए वापस यहाँ भी दस।

हुए उत्तीर्ण इक्तालिस,  बुलाती धार गंगा की।

डुबाया भाग्य ग्यारह ने, रहे अब तीस जन बाकी।।


परीक्षा फिर लिखित होती, हुए उत्तीर्ण अट्ठारह। 

अतिथि लेकिन अभी भी वे, वहीं रहते सभी बारह।

सफल प्रतिभागियों को फिर, अकेला कक्ष मिल जाता।

परीक्षा एक निर्णायक, न कोई किन्तु घबराता।।


दोहा छंद 

था पहले इक्कीस में, शाला के प्रति द्वेष |

शिक्षा के प्रति रुचि घटी, कुछ में दर्प विशेष ||


सार छंद 

राजकाज के एक तरह के, कार्य सभी ने पाये |

तीन दिनों का समय सुनिश्चित, शीघ्र न कोई आये |

प्रतिवेदन प्रस्तुत कर देते, फिर सारे प्रतियोगी |

छँटनी करना बहुत कठिन है, पर ग्यारह की होगी ||


गुप्तचरों की मिली सूचना, पढ़कर प्रस्तुत विवरण |

चुने महामंत्री शांता सह, नौ प्रतिभागी तत्क्षण |

अनुत्तीर्ण इक्कीस रुके हैं, वहीं अतिथि शाला में।

सुख-दुख बाँट रहे आपस में, कुछ डूबे हाला में।।


दोहा छंद 

अगले दिन दरबार में, बैठे अंग नरेश |

नौ के नौ आयें वहाँ, धर दरबारी वेश ||


साहस संयम शिष्टता, अनुकम्पा औदार्य |

मितव्ययी निर्बोधता, न्याय-पूर्ण सद्कार्य ||


क्षमाशीलता सादगी, हैं सहिष्णु गंभीर |

सब प्रफुल्ल-मन सत्य-व्रत, निष्कपटी रणधीर ||


शुद्ध स्वस्ति मेधा चपल, हो चारित्रिक ऐक्य |

दानशील आस्तिक सजग, अग्र-विचारी शैक्य ||


सर्वगुणी सब विधि भले, सब के सब उत्कृष्ट |

अंगदेश को गर्व है, गर्व करे यह सृष्ट ||


जाँच-परखकर कर रहे, सबको यहाँ नियुक्त |

एक वर्ष उपरांत ही, होंगे चार विमुक्त ||


अनुत्तीर्ण तेइस जने, उनमें से भी तीन।

रखे गये दरबार में, अवसर मिला नवीन।।


विधाता छंद 

मिली पुष्पा मिली पुत्तुल, बुलाकर पास रमणी से।

सुरक्षा का निवेदन कर,  मिली भाभी सहेली से।

मनाने जन्मदिन सबका, अयोध्या-धाम जाती वह।

बिताकर एक पखवारा, पुन: ससुराल आती वह।।


भाग  3


विधाता-छंद 

उजेरे चैत्र की नवमी, बिताकर पाख चल देती। 

नहीं उपहार कुछ लेती, पुराने वस्त्र ले लेती।

बटुक भी साथ में आया, बढ़ी रौनक खुशी छाई।

बदलती चाल भी उनकी, बड़ी उम्मीद ले आई।।


लगे हैं शोध में सृंगी, लगी है सास सेवा में। 

सभी पौष्टिक पदार्थों सह खिलाती फल कलेवा में।

हुआ बदलाव काया में, बदल जाता अभी भोजन।

सभी खुश रख रहे उनको, हुआ आनंदमय जीवन।।


दोहा छंद 

वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |

सृन्गेश्वर की है कृपा, उपजा बढ़िया धान ||


विधाता

हुआ फिर जन्म कन्या का, बजी थाली बजी ताली।

प्रसूता स्वस्थ है शिशु भी, चतुर्दिक खूब खुशहाली।

पितामह और मातामह नहीं फूले समाते हैं।

अयोध्या अंग से माता, पिता, भ्रातादि आते हैं।।


हुए यूँ वर्ष दो पूरे, हुआ दीक्षांत सम्मेलन। 

बटुक का पाठ्यक्रम पूरा, गया वह वैद्य रविकर बन।

किया परिवार से चर्चा, गया वह गाँव फिर वापस।

बुलाया मातु मातामह, हुए सब साथ में समरस।


सार-छंद 

तीन साल में कीर्ति-पताका, दूर-दूर फहराई।

एक दिवस चम्पानगरी से, शुभ राजाज्ञा आई।

राजवैद्य का रिक्त हुआ पद, शोभा तुम्हें बढ़ाना।

गाँव छोड़कर किन्तु वैद्यमन, नहीं चाहता जाना।।


दोहा छंद 

क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छूटता ग्राम |

आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||


सार छंद 

इस रक्षाबंधन पर शांता, गाँव बटुक के जाती।

पुत्र गोद में खेले पुत्री, मामा कह तुतलाती।

पाणिग्रहण पुत्तुल का करना, अपनी इच्छा बोलो।

मेरी तो सहमति है दीदी, पुत्तुल हृदय टटोलो ||


शांता लेकर बटुक वैद्य को, चम्पानगरी जाती |

पुत्तुल ने इनकार किया तो, समझाती, मुस्काती || 

यह जीवन शाळा को अर्पित, कहीं न मुझको जाना|

बस नारी-उत्थान करूंगी, मन में मैंने ठाना ||


पुष्पा से एकांत अंत में, मिलती शांता बहना |

वैद्य बटुक से व्याह करोगी, बोलो क्या है कहना |

शरमाकर वह बाहर भागी, जैसे भरती हामी।

बनती अर्धांगिनी बटुक की, वैद्य हुआ जो नामी।।


रूपा से मिलकर के दीदी, अति-प्रसन्न जाती।

एक गोद में मिला खेलता, दूजी रोती-गाती।

पञ्च-रत्न की कथा अनोखी, हँसती शांता सुनकर ।

छद्म-असुर से चार अभागे, भागे रविकर डरकर।


सरसी-छंद 

पञ्च-रत्न को दिया एक दिन, वह अभिमंत्रित धान |  

खेती करने को कहती वह, देकर पञ्चस्थान |

बढ़िया रोपण हुआ दुबारा, मन सा निर्मल भात | 

खाने में स्वादिष्ट बहुत ही, भूखा पेट अघात || 


राज काज मिल देख रहे हैं, पंचरत्न सह सोम | 

महासचिव हैं  साथ हमेशा, कुछ भी नहीं विलोम |

एक दिवस फिर पिता-सुता ने, सबको लिया बुलाय | 

पंचरत्न में सदा चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय |


चाटुकारिता से नित बचना, इंगित करना भूल | 

यही मंत्रिपरिषद का समझो, सबसे बड़ा उसूल |

औरन की फुल्ली लखते जो, आपन  ढेंढर  नाय

ऐसे   मानुष  ढेर जगत में,   चलिए  इन्हे  बराय|| 


जीवन तो निर्बुद्धि व्यक्ति का, सुख-दुःख से अन्जान |

निर्बाधित जीवन जी लेता,  बिना किसी व्यवधान  |

श्रमिक बुद्धिवादी है रविकर,  पाले  घर  परिवार |

मूंछे  ऐठें  ठसक दिखाये,  बैठे  पैर पसार  ||


बुद्धिजीवियों का  है लेकिन, अति-रोचक अन्दाज |

जिभ्या ही करती रहती है, राज-काज आवाज |

बुद्धियोगियों का मन  कोमल,  लेकर  चले समाज |

करे जगत का सदा भला ये, लेकिन दुर्लभ आज ||


सेवा के नि:स्वार्थ भाव से, देखो भाग विभाग | 

पैदा करने में लग जाओ, जनमन में अनुराग |

वहाँ सही संतुष्टि प्राप्तकर, लौट रही ससुराल। 

मातु-पिता से कहकर लौटी, आऊँगी पर-साल।।


विधाता-छंद 

कुशलता से व्यवस्था कर, सकल आश्रम सजाया है।

हुए सुत आठ दो कन्या, सभी को ही पढ़ाया है।

बने गुणवान गुणवंती, पुराणों वेद  के ज्ञाता।

किसी को शास्त्र भाता है, किसी को शस्त्र भी भाता।


विविन्डक रिष्य अब अपनी विरासत सौंपने आते।

जहाँ पर रुद्र खंडेश्वर उसी आश्रम चले जाते।

इसी को भिंड अब कहते, यहीं पर मोक्ष वे पाते।

बढ़ा परिवार पौत्रों से, बढ़े रिश्ते बढ़े नाते।।


दोहा छंद 

गिरे पुराने पात तो, धारे वृक्ष नवीन।

बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||


नहीं बुढ़ापे से बड़ी, जग में कोई व्याधि।

बसे विविन्डक भिंड में, रविकर सजी समाधि।।


भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |

सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात || 


सरसी-छंद 

एक अवध में जा बसे हैं, सरयू तट के पास |

बरुआ सागर झांसी आता, एक पुत्र को रास |

विदिशा जाकर बस जाते हैं, शांता पुत्र कनिष्ठ। 

बढ़ा रहा पुष्कर की शोभा, जो था तनिक वरिष्ठ|।


आगे जाकर यह कहलाये, छत्तीस कुल सिंगार |

छह-न्याती भाई का कुनबा, अतुलनीय विस्तार ||

आज हिमाचल में बसते हैं, चौरासी सद्ग्राम | 

वंशज सृंगी के रहते हैं, यहाँ सतत् अविराम ||


सृंगी दक्षिण में चल जाते, पर्वत बना निवास |

ज्ञान बाँट कर परहित करते , शांता रहती पास |

वंश-बेल बढती जाती है, तरह तरह के रूप | 

कहीं मनीषी बनकर रमते, हुए कहीं के भूप || 


मंत्र-शक्ति है प्रबल प्रभावी, तंत्रों पर अधिकार | 

कलियुग के प्रारब्ध काल तक, करे वंश व्यवहार |

भूप परीक्षित हुए भ्रमित जब, कलियुग का संत्रास | 

बुद्धि भ्रष्ट कर देता करके, स्वर्ण-मुकुट में वास।।


सार छंद 

सरिता तट पर ऋषि शमीक ने, प्रभु में ध्यान लगाया।

ढोंगी समझा उन्हें परीक्षित, मरा सर्प ले आया।

ऋषि शमीक की गर्दन में फिर, वही सर्प लिपटाया।

ऋषि कुमार जो कहीं दूर था, समाचार जब पाया। 


अंजुलि में जल लेकर उसने, नृप को शाप दिया था।

मरे सर्प ने डसा भूप को, फिर वह कहाँ जिया था।

मंत्रों की इस महाशक्ति से, कोई नहीं अपरिचित। 

किन्तु कठिन उद्यम से करता, कोई  कोई अर्जित।।


पूर्ण सफल जीवन शांता का, बनकर रही सुहागन।

पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण करे आज आराधन। 

सूखे के दुर्योग काटते, मंत्र-शक्ति हितकारी।

वंश बढ़ाते श्रृंगी-शांता, जन-गण-मन आभारी।।


मत्तगयन्द सवैया  

संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा ।

संभव वर्षण कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा । 

पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा ।

स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा।।