Wednesday 22 September 2021

भगवती शांता : प्रभु श्री राम की सगी बहन

मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता

प्रबंध काव्य
रचयिता
दिनेश चन्द्र गुप्ता ' रविकर'
पटरंगा मंडी, अयोध्या
(उत्तर प्रदेश )

प्रस्तावना


हरिगीतिका छंद
शांता सुता , दशरथ पिता हैं , मातु कौशल्या रहीं।
श्रृंगी मिले पति रूप में, है लोकगाथा कुछ कहीं।
श्रीराम की भगिनी मगर, तुलसी महाकवि मौन हैं।
विद्वान - विदुषी पूछते, 'यह देवि शांता कौन हैं.?'
समगोत्र थे माता - पिता, गोत्रीय दोषों का असर ।
दिव्यांग शांता से गई- माँ वर्षिणी की गोद भर ।।
सम्पूर्ण वर्णन के लिए, माँ शारदे ! तू शक्ति दे ।
माँ ! धृष्टता कर दे क्षमा , सच्ची - सरल अभिव्यक्ति दे ।

राधिका छंद
हे राम - भक्त हनुमान , भक्त तव रविकर।
सुन लो मम आर्त - पुकार , रमापति प्रभुवर।
वह एक मात्र प्रिय बहन , सहोदरि रामा।
है उन्हें समर्पित काव्य , ललित - अभिरामा।
अनुमति दिलवाकर शीघ्र , काव्य रचवाओ।
है कवि की मति अति तुच्छ , स्वयं आ जाओ।
अब कृपा करो हे नाथ , जुटे संसाधन।
जय - जय - जय शांता देवि , करूँ आराधन।

सर्ग १ - भाग १ 


सोरठा
वन्दौं पूज्य गणेश , एक दंत हे गजबदन ।
जय - जय - जय विघ्नेश , पूर्ण कथा करु पावनी।।
वन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ , कृपा पाय के मूढ़ - मति।
अति गँवार अतिठेठ , काव्य - साधना में रमा।।
गोधन - गोठ प्रणाम , कल्प - वृक्ष गौ - नंदिनी।
गोकुल चारो धाम , गोवर्धन - गिरि पूजता।।
वेद - काल का साथ , सिन्धु सरस्वति जाह्नवी।
ईरानी हेराथ , है सरयू समकालिनी।।
राम - भक्त हनुमान , सदा विराजे अवधपुर।
सरयू होय नहान , मोक्ष मिले अघकृत तरे।।
करनाली का स्रोत, मानसरोवर के निकट ।
करते जप - तप होत्र , महामनस्वी विचरते।।
क्रियाशक्ति भरपूर , पावन भू की वन्दना ।
राम - भक्ति में चूर , मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ।।
सरयू अवध प्रदेश , दक्षिण दिश में बस रहा।
हरि - हर ब्रह्म सँदेश , स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ।।
पूज्य अयुध भूपाल , रामचंद्र के पितृ - गण।
गए नींव थे डाल , बसी अयोध्या पावनी ।।

दोहा
शुक्ल पक्ष की तिथि नवम् , पावन कातिक मास ।
करें भक्त जन परिक्रमा , अति श्रद्धा - विश्वास।।
मर्यादा आदर्श गुण , अपने हृदय उतार ।
लगे राम दरबार में , लंबी बड़ी कतार।।
पुरुषोत्तम सरयू उतर , होते अंतर्ध्यान।
तब त्रेता युग का अवध, हुआ पूर्ण वीरान।।
बसी अयोध्या थी पुनः, कुश ने की परवाह।
सदगृहस्थ वापस चले, पकड़ अवध की राह ।।
कृष्ण- रुक्मिणी भी अवध, आए द्वापर काल।
चरणों में श्रीराम के , गए सुमन शुभ डाल ।।
कलयुग में सँवरी पुन: , नगरी अवध महान।
वीर विक्रमादित्य से , बढ़ी नगर की शान।।
देवालय फिर से बने , बने सरोवर कूप।
स्वर्ग सरीखा सज गया , अवध नगर का रूप ।।

सोरठा
माया- मथुरा साथ , काशी , काँची , द्वारिका।
महामोक्ष का पाथ , अवंतिका शुभ अवधपुर ।।
अंतरभूमि प्रवाह , सरयू सरसर वायु - सी।
संगम तट निर्वाह , पूज्य घाघरा , शारदा ।।
पुरखों का आवास , तीन कोस बस दूर है।
बचपन में ली साँस , यहीं किनारे खेलता।।
फागुन में श्री धाम , करें परिक्रमा भक्त गण ।
पटरंगा मम - ग्राम , चौरासी कोसी परिधि।।

दोहा

उन्तालिसवें वंश के, थे दशरथ जी भूप |
रथ-संचालन की रही, उनकी रीति अनूप ||
पिता श्रेष्ठ 'अज' भूप , असमय स्वर्ग सिधारते।
सुन लो कथा कुरूप , मात - पिता चेतो सुजन।।


सर्ग १ - भाग २ : दशरथ - बाल-कथा


विधाता छंद

अयोध्या के महाराजा जिन्हें सब अज बुलाते हैं।
सुबह से इंदुमति को ही बगीचे में झुलाते हैं।
नहीं दरबार जाते वे , महल में भी न आते हैं।
पड़े हैं प्रेम में ऐसे कि शिशु को भी भुलाते हैं।

व्यवस्था हो गई चौपट , गुरूजी हैं बहुत चिंतित।
प्रजा बेहद दुखी रहती , उपेक्षित हो रहा जनहित।
महामंत्री करे तो क्या , न होते कार्य निष्पादित।
करे उद्धार अब कोई , अयोध्या हो चुकी शापित।।

दोहा

क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही , परम सौख्य परितोष।
सुन्दरता पागल करे , मानव का क्या दोष ।।
अति होती हरदम बुरी , खान - पान-अभिसार ।
क्रोध - प्यार बड़ - बोल से , जाता जीवन हार ।।
झूले मुग्धा नायिका , राजा मारे पेंग ।
वेणी लगती वारुणी , रही दिखाती ठेंग।।
राज - वाटिका में रमे , चार पहर से आय।
तीन मास के पुत्र को , धाय रही बहलाय।।
नारायण नारायणा , नारद निधड़क नाद।
करें गगन से भूप का , रविकर दूर प्रमाद ।।
* विधाता छंद *
गगन से उस बगीचे में , गिराते पुष्प की माला ।
गले में इंदुमति के वो , पड़ी तो खुल गया ताला ।
रही वो स्वर्ग की मलिका , गया भवितव्य कब टाला।
समय अभिशाप का पूरा , पिलाई भूप को हाला ।।
दोहा
एक पाप का त्रास वो , यहाँ रही थी भोग।
स्वर्ग लोक नारी गई , अज को परम वियोग।।
माँ का पावन रूप भी , सका न उसको रोक।
तीन मास के लाल को , छोड़ गई सुर-लोक।।
वीणा से माला सरक , सिर पर गिरती आय ।
इंदुमती वो अप्सरा , अभिग्यान यह पाय ।।
विरही ने जाकर महल , कदम उठाया गूढ़।
भूल पुत्र को कर लिया , आत्मघात, था मूढ़ ।।
* सरसी छंद *
उदासीनता ऊब उदासी , उहापोह उद्वेग।
उलाहना , उन्मत्त , उग्रता , उन्मादी आवेग।
दर्द हार गम जीत व्यथा सुख , अश्रु हँसी छल दम्भ।
जीवन के स्वाभाविक अवयव , जीवन का प्रारम्भ।
मरने से मुश्किल है जीना , किन्तु न हिम्मत हार ।
कायरता ने किया किसी का , कभी कहाँ उद्धार ।
महत्वकांक्षा शक्ति सम्पदा , द्वेष , मोह , मद , प्यार।
सम्यक मात्रा बहुत जरूरी , औषधि - सम व्यवहार ।।
* दोहा *
माटी का पुतला मनुज , माटी में मिल शांत।
पर पत्थर की प्रियतमा , हुई न रविकर क्लांत।।
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत , माँगे प्यार अपार।
जहाँ कहीं देना पड़े , करे व्यर्थ तकरार।।
माता की ममता छली , करता पिता अनाथ ।
रो -रो कर शिशु जीतता , पाकर सबका साथ ।।
*****
भाग-3
कौशल्या-दशरथ
दुख की घड़ी गिनो मत रविकर, घड़ी घड़ी सरकाओ।
धीरज हिम्मत बुद्धि नियंत्रित, प्रभु को मत बिसराओ।
दिन-रात न डूबे रहो अश्रु में, कभी न खुद को खोना।
समय-चक्र गतिमान रहे नित, छोड़ो रोना-धोना।।
दोहा छंद
क्रियाकर्म विधिवत हुआ, तेरह-दिन का शोक ।
आसमान शिशु ताकता, खाली महल बिलोक ||
आँसू बहते अनवरत, गला गया था बैठ |
राज भवन में थी मगर, अरुंधती की पैठ ||
पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |
विकट समय में पालती, माता सम अविराम |।
सरसी छंद
बुला महामंत्री को देते, गुरु-वशिष्ठ आदेश।
महागुरू मरुधन्वा का मठ, काटेगा हर क्लेश।
बालक को ले जाओ आश्रम, सुंदरतम परिवेश।
दूध नन्दिनी का पीकर ये, होंगे अवध नरेश।।
दोहा छंद
सरयू के दोनों तरफ, सूर्यवंश के भूप |
दोनों का शासन चले. नीति-नियम अनुरूप ||
राजा अज की मित्रता, का उनको था गर्व |
दुर्घटना से अति-दुखी, मना न कोई पर्व||
अवधपुरी आने लगे, प्राय: कोसलराज |
साधु-साधु जनगण कहे, रुके न कोई काज ||
राजकुमारी वर्षिणी, रानी भी हो संग ।
करते सब कोशिश सफल, भरे अवध नवरंग ।।
धीरे-धीरे बीतता, दुख से बोझिल काल |
राजकुँवर भूले व्यथा, बीत गया वह साल |।
गीतिका
नन्दिनी का दूध पीकर, अन्नप्राशन के लिए।
उस महल में आ गये, जो साज-सज्जा सब किए।
हो गया सम्पन्न उत्सव, वर्षिणी थी भोर से।
अन्न दशरथ को खिलाई, खिलखिलाई जोर से।।
सार छंद
उत्तर कोसलराज झूमता, बजती वहाँ
बधाई
|
पिता बने भूपति दोबारा, नवकन्या मुस्काई।
हर्षित हो वर्षिणी झूमती, छोटी बहना पाकर।
अवधपुरी से भी सब आये, राजकुँवर खुश आकर।।
नामकरण उत्सव हुवे, धरते गुण अनुसार |
कन्या कौसल्या हुई, दशरथ राजकुमार |।
विधिवत शिक्षा के लिए, फिर से राजकुमार |
पाँच वर्ष की उम्र में, गए गुरू-आगार ॥
अच्छे योद्धा बन गए, महाकुशल बलवान|
दसों दिशा रथ हाँकले, दशरथ भूप महान |।
शब्द-भेद संधान से, गुरु ने किया अजेय |
अवधपुरी उन्नत रहे, एकमात्र अब ध्येय |।
राजतिलक विधिवत हुआ, आये कौशल-राज |
कौशल्या भी आ गई, हर्षित सकल समाज ।।
बचपन का वो खेलना, छीना झपटी स्वाँग |
इक दूजे को स्वयं से, मन ही मन लें माँग ।।
विधाता छंद
अयोध्या के बने भूपति चतुर्दिक हर्ष छाया है |
घड़ी दुख की गुजर जाती ख़ुशी का वक्त आया है |
महारानी महाराजा परस्पर साथ भाया है | |
मना आनन्द कौसल्या हॄदय दशरथ समाया है |
भाग-4
रावण, कौसल्या और दशरथ
सरसी
दशरथ-युग में ही जनमा था, रावण विकट महान |
पंडित ज्ञानी वीर साहसी, कुल-पुलस्त्य का मान ||
शिव-चरणों में नित्य चढ़ाता, काट-काट दस शीश।
लेकिन कृपा न पाया शिव की, प्रगटे नही सतीश।।
युक्ति दूसरी करे दशानन, मुखड़ों पर मुस्कान ।
छेड़ रहा वीणा से पावन, सामवेद की तान ||
भण्डारी ने किया भक्त पर, अपनी कृपा अपार |
प्राप्त शक्तियों से हो जाते, पैदा किन्तु विकार ||
पाकर शिव-वरदान वहाँ से, जाता ब्रह्मा पास |
श्रद्धा से वन्दना करे तो, होता सफल प्रयास ||
ब्रह्मा से परपौत्र दशानन, पाता जब वरदान |
सौंप दिया ब्रह्मास्त्र उसे फिर, अस्त्र-शस्त्र की शान ||
द्विगुणित चौपाई-
शस्त्र-शास्त्र का परम धनी वह, ताकत भी भरपूर बढ़ाया।
मांग अमरता का वर रावण, ब्रह्मा जो को ही भरमाया।
मन की आँखे खोल दशानन, कभी नहीं है ऐसा सम्भव।
मृत्यु सभी की परम सत्य है, चाहे हो मानव या दानव।
सरसी छंद
इतना कहकर करते ब्रह्मा, रावण को आगाह।
कौशल्या दशरथ का होगा, जल्दी ही शुभ व्याह।
प्रथम-पुत्र के हाथों से ही, होगा तेरा अंत।
ऐसा सुनते ही रावण ने, निश्चय किया तुरंत।
दोहा
चेताती मंदोदरी, नारी हत्या पाप |
झेलोगे कैसे भला, भर जीवन संताप ||
सरसी छंद
रावण के अनुचर निश्चर कुछ , पहुँचे सरयू तीर |
कौशल्या का हरण करें वे, करके शिथिल शरीर ||
बंद पेटिका में कर देते, देते जल में डाल |
वहीं कहीं आखेटक दशरथ, सुनते शब्द-बवाल ||
जाकर उन सबसे भिड़ जाते, चले तीर-तलवार।
जल-धारा में दशरथ कूदे, गये दैत्य जब हार||
आगे आगे बहे पेटिका, पीछे भूपति वीर |
शब्दभेद से उन्हें पता था, अन्दर एक शरीर ||
बहते बहते गई पेटिका, गंगा में अति दूर।
लेकिन दशरथ रहे तैरते, यद्यपि थककर चूर|
बेहोशी छाने से पहले, करता मदद जटायु |
पत्र-पुष्प-जड़-छाल अर्क से, करता सक्रिय स्नायु ||
भूपति की बेहोशी जाती, करे असर संलेप |
गिद्धराज के सम्मुख सारी, कथा कही संक्षेप |
बनो मित्र अब मेरा वाहन, करो सिद्ध अब काम।
पहुँचाओ अतिशीघ्र वहाँ पर, करना क्या आराम।।
बहुत दूर तक उड़े खोजते, पहुँचे सागर पास |
जैसे मिली पेटिका खोली, हुई बलवती आस ||
कौशल्या बेहोश पड़ी थी, साँस रही थी टूट।
नारायण-नारायण नारद, सब यश लेते लूट ।।
नारायण नारायण सुनकर, कौसल्या चैतन्य।
मिल जटायु नारद दशरथ से, राजकुमारी धन्य ||
घटना घटती गंगातट पर, डूब गए छल-दम्भ।
होते एकाकार युगल-मन, पूर्णाहुति प्रारम्भ।।
मुनि नारद भवितव्य जानकर, रखते पूरा ध्यान ।
देकर के उपदेश युगल का, दूर करें अज्ञान ।|
फिर विधिवत करवाते मुनिवर, हर वैवाहिक रीत |
दशरथ को मिल जाती ऐसे, कौसल्या मनमीत ||
दोनों को लेकर उड़ पहुँचे, गिद्धराज साकेत|
भावी कड़ी पिरोकर नारद, दे जाते संकेत ||
अवधपुरी फिर सजी स्वर्ग सी, आये कोशलराज |
फिर से दुहराये जाते सब, शुभ वैवाहिक काज ||
भाग-5
रावण के क्षत्रप
सोरठा
रास-रंग-उत्साह, अवधपुरी में जम रहा |
उत्सुक देखे राह, कनक-महल सजकर खड़ा ||
चौरासी विस्तार, अवध-नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार, हृदय-कोष सन्तोष-धन |
कनक-भवन आगार, अष्ट-कुञ्ज थे द्वार सह |
पाँच कोस विस्तार, वन-उपवन बारह सजे ||
शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज नहान भी |
झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||
चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |
केसर-कदम-तमाल, वन विचित्र नाग्केसरी-||
लौंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
वृन्दावन नायाब, उपवन जूही माधवी ||
करें भ्रमण हर शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करते ईर्ष्या देवता ||
रावण के उत्पात, रहे झेलते साधुजन |
बैठ लगा के घात, कैसे रोके अरि जनम ||
था मायावी पाश, आया कल ही अवधपुर ।
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर छुपा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-देव सब ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफकारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||
रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के शुभ-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से |
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंपता ||
खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, वध कर देते साधु का ||
कुत्सित नजर गड़ाय, राज्य अवध को ताकते |
खबर रहे पहुँचाय, अधिपति लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||
असली घोड़ा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या पर वार, अश्व छली रथ ले भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान दिखता नहीं ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका याद थी |
ढीला करके गात, कूद सुरक्षित वह गई ||
लुढ़क गयी कुछ दूर, झाड़ी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश गया बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौड़ाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजा धावक ख़ास, समाचार सब जानने ||
भाग-6
रावण का गुप्तचर
दोहा
खर-चेष्टा असफल हुई, वह बेहद गमगीन |
लंका जाकर के खड़ा, मुखड़ा दुखी मलीन ||
रावण बरबस पूछता, क्यूँ हो बन्धु हताश |
कौशल्या के गर्भ का, करके सत्यानाश ||
हरिगीतिका
आश्वस्त हो खर पूछता, भ्राता बताओ बात सब।
घटना घटित कैसे हुई, आया यहाँ संदेश कब।
गतिमान रथ से कूदती, दौड़ा रहे थे तेज जब।
घायल हुई रानी बहुत ही, गिर गया था भ्रूण तब।।
सार छंद
सज्जन खुशियाँ बाँटा करते, दुर्जन कष्ट बढ़ाते।
दुर्जन मरकर खुश कर जाते, सज्जन किन्तु रूलाते।
खुशी मनाए सारी लंका, दुखी अयोध्या कोशल।
सुग्गासुर खर के सँग आया, लगा दिखाने छल-बल।।
दोहा
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||
विकट मार्मिक कष्टकर, सुना सकल दृष्टांत ।
असहनीय दुष्कर लगे, होता चित्त अशांत ।
गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||
आहों से कैसे भरे, मन के गहरे घाव ।
मरहम-पट्टी वक्त के, शमन करेंगे भाव ।।
गुरु की अनुमति प्राप्तकर, पहुँच गये ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैन छलकते प्यार ||
सूरज ने संक्रान्ति से, दिए किरण उपहार |
कटु-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक |
दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक ।।
कुण्डलियाँ
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
अपनों के उपहार, खोलकर खूब निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
ऊर्जा करलो प्राप्त, करो मत आपाधापी ।।
दोहा
विदा कराकर आ गए, राजा-रानी साथ |
झूमे चिंतातुर प्रजा, होकर पुन: सनाथ ||
शनैः शनै बीता शरद, छोटी होती रात |
हवा बसंती बह रही, होता शीघ्र प्रभात |
सुलेखा छंद
दिग-दिगंत बौराया | मादक बसंत आया ||
तोते सदा पुकारे | मैना मन दुत्कारे ||
काली कोयल कूके | जनगण होली फूंके ||
सरसों पीली फूली | शीत शेष मामूली ||
भौरां मद्धिम गाये | तितली मन बहलाए ||
भाग्य हमारे जागे | ऊनी कपड़े त्यागे ||
सार छंद
पीली सरसों लगी फूलने, हैं प्रसन्न नर नारी।।
कृषक निराई करे कहीं पर, कहीं सिंचाई जारी ||
पौधे भी संवाद परस्पर, करें अनवरत रविकर।
गेहूं जौ से गले मिले तो, खुशी फैलती घर घर।|
सरसी छंद
तरह तरह की जीव जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
लगे विचरने सभी प्रसन्न मन, नए सीखते ढंग |
कौशल्या रह रही मगन-मन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूल रही गम, कली-कुसुम को चूम ||
दोहा
पहले कुल पत्ते झड़ें, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।।
कुंडलियां
खिलें बगीचे में सदा, भाँति भाँति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ सारे न्यारे ।
दुनिया होती दंग, आय के दशरथ द्वारे ।
नित्य पौध नव रोप, स्वयं ही हरदिन सींचे ।
कठिन परिश्रम होय, तभी तो खिलें बगीचे ।।
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
कमल-कुमुदनी से पटा, नीर क्षीर निष्काम ।
नीर क्षीर निष्काम, केलि कर काई कीचड़ ।
रहे नोचते *पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।
भौरों की बारात, पतंगे जलते मोघे ।
श्रेष्ठ विदेही पात, नहीं बन जाते घोंघे ।|
सार छंद
कौशल्या के नवल गर्भ की, पूरी रक्षा करना।
दशरथ चिंतातुर दिखते पर, नहीं जानते डरना।
रहे सुरक्षित जातक नारी, सता न कोई पाये।
पिता-पुत्र-पति का संरक्षण, आगे बढ़ मुस्काये।।
तोते कौवे बढ़े अचानक, कम होती गौरैया।
पर रहस्य न समझ सके नृप, रम्भाती क्यों गैया।
पर जटायु को बुलवाते वह, जो झटपट आ जाते।
रहे किन्तु वह छद्म रूप में, शुभचिंतक के नाते।
सरसी छंद
गिद्ध-दृष्टि रखने लग जाते, बदला-बदला रूप |
अलंकरण सब त्याग दिए थे, खुश हो जाते भूप ||
जान रहे थे केवल दशरथ, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में हैं दानव, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़ आता, राजमहल की ओर |
पर जटायु को देख हटे वह, हारे मन का चोर |
चमक रहा सुन्दर तन लेकिन, रखता छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में पड़ी हुई ज्यों, कीलें कई हजार ||
एक दिवस कौशल्या जाती, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर की मीठी बोली, आती उनको रास।
माथे पर टीका सुन्दर सा, लेता है मनमोह |
ऊपर से वह भला लगे पर, मन में रखता द्रोह ||
मत्तगयन्द सवैया
बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।
साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।
मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।
दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।
सरसी छंद
रानी आ जाती फिर वापस, आई अब नवरात |
दुर्गा माँ को पूज रही वे, जाकर नित्य प्रभात।
सुग्गासुर की दृष्टि हमेशा, स्वर्ण हार पर ख़ास |
अवसर पाकर उड़ा एकदिन, लेकिन व्यर्थ प्रयास ||
देख रहा था उसे गिद्ध वह, करे मार्ग अवरूद्ध |
सुग्गासुर से भिड़ जाता फिर, होकर अतिशय क्रुद्ध |
जान बचाकर भगा वहाँ से, था कच्चा अय्यार ||
आश्रय पाया वह सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||
सार छंद
रानी पाकर हार दुबारा, अति प्रसन्न हो जाती।
राजा का उपहार हार वह, पहन पुन: मुस्काती।
पूरा करके व्रत नवमी को, नौ कन्या बुलवाती |
धोकर उनके चरण पूजती, पूड़ी-खीर जिमाती ||
दोहा
दारुण होता जा रहा, 'रविकर' दिन का ताप ।
हुए पाँव भारी मगर, कौशल्या चुपचाप ||
विधाता छंद
आम इमली भी नहीं, लगते उन्हें स्वादिष्ट अब।
यदि बढ़े चिंता चिता सी, व्यर्थ छप्पन-भोग तब।
स्वयं से संघर्ष कर के, प्राप्त करना है विजय।
अन्यथा हो हानि अपनी, हो न सकता दूर भय।।
दोहा
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |
कुंडलियां
मन की मनमानी खले, रखना खींच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ यदि किया अनर्गल ।
अनजाना क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, तुम्हीं ज्ञानी अज्ञानी ।
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
सर्ग-1 : समाप्त
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सर्ग-२ - भाग-1: शांता जन्म-कथा

हरिगीतिका

भयभीत कौशल्या रहे, वह रह रही चिंतित सदा ।
आतंक फैला शत्रु का, कैसे टले यह आपदा ।
कुलदेवता रक्षा करो, इस भ्रूण की तुम सर्वदा ।
अथ देवि-देवों को मनाती, भाग्य में है क्या बदा ॥

दोहा

धनदा-नन्दा-मंगला, मातु कुमारी रूप |
माँ विमला-पद्मा-वला, महिमा अमिट-अनूप ||
जीवमातृका वन्दना, काट सकल जंजाल |
सुगढ़ जीवमंदिर करो, माता रखो सँभाल ||

हरिगीतिका

रोती रही रनिवास में रानी सुबह से अनवरत्।
उच्छ्वास भरकर अश्रु से सिंचित करे धरती सतत्।
दरबार से दशरथ घड़ी भर, देर से पहुँचे महल।
दिखती न कौशल्या कहीं, होने लगे भूपति विकल।
कोई न दीपक जल रहा, घेरा अँधेरा है विकट।
फिर देख दशरथ को वहाँ, कुछ दासियाँ आई निकट।
दशरथ कुपित हो डाँटते, थी पास जो दासी खड़ी।
लेकिन सुबकने की तभी आवाज कानों में पड़ी|
होता उजाला कक्ष में, रानी पड़ी थी भूमि पर।
भूपति हुए विह्वल बहुत, यह दृश्य रविकर देखकर।
झट पास जाकर बैठकर, सहला रहे हैं भूप सिर।
पुचकार कर दुलरा रहे, करते प्रदर्शित प्रेम फिर।

दोहे

बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
कौन रुलाया है तुम्हें, किया कौन नाराज ??
बढती जीवन-स्वास यदि, जाये निकल भड़ास ।
आँसू बह जाएँ अगर, घटे दर्द अहसास ।।

विधाता छंद

हरे हों जख्म या सूखे कभी जग को दिखाना मत।
गली-कूँचे नगरपथ पर कभी निज दर्द गाना मत।
मिले मरहम नहीं घर में, मगर मिलते नमक-मिर्ची।
बचा दामन निकल रविकर, कभी आँसू बहाना मत।।

सरसी छंद
मद्धिम स्वर में बोली रानी, यद्यपि हिचकी तेज |
इस बच्चे को कैसे हमसब, बोलो रखें सहेज |
ऐसा सुनकर दशरथ झटपट, लेते अंग लगाय |
कहते चिंता करो नहीं अब, करूं सटीक उपाय ||
सुबह-सुबह दशरथ जा पहँचे , गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ भूप के, जिन पर अति-विश्वास ||
गुप्त योजना बनी वहाँ पर, शत्रु न पाया जान।
गर्भ सुरक्षित किया गया फिर, काट सकल व्यवधान ||
अगले दिन दरबार सजा था, आया यह सन्देश |
कौशल्या की माता को है, कुछ शारीरिक-क्लेश।
डोली सज तैयार हुई तो, कौला भी तैयार |
छद्म वेश धर कौशल्या का, डाल गले में हार ||
वक्षस्थल पर झूल रहा था, वही पुराना हार |
जिसको लेकर कभी भगा था, सुग्गासुर अय्यार ||
संग चली सेना के डोली, बहती शीतल वायु।
साथ-साथ उड़ता चौकन्ना, सबके साथ जटायु।।
अभिमंत्रित कर राजमहल को, कौशल्या के पास |
गुप्त रूप से कड़ी सुरक्षा, करें दासियाँ दास ।
खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे ठिकाना छोड़।
डोली के पीछे चल देता, उन सबका गठजोड़।
कौला कौशल्या बन जाती, हैं प्रसन्न अब भूप।
रानी का हित दासी साधे, अभिनय सहज अनूप ||
वर्षा-ऋतु फिर आ जाती तो, सरयू बड़ी अथाह |
दासी तो उत्तर में रहती, दक्षिण में उत्साह ||

देखूँ अब संतान स्वयं की, हुई बलवती चाह |
दशरथ सबपर रखें स्वयं भी, चौकस कड़ी निगाह ||
सात मास बीते ऐसे ही, गोद-भराई भूल |
राजमहल संरक्षित रहता, रानी के अनुकूल ||

आया फिर नवरात्रि पर्व तो, सकल नगर उल्लास |
गर्भवती रानी ने लेकिन, नहीं किया उपवास |
आँगन में बैठी बैठी वह, काया रही भिगोय |
शरद पूर्णिमा भी बीती यों, रात अँधेरी होय ।।

किरीट सवैया ( S I I X 8 )

झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ घर-बाहर ।
दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।
दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।
नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव जै शिव-शंकर ।।

दोहा छंद

धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||
प्रसव-पूर्व की पीर है, रही होंठ वो भींच |
रानी सिसकारी भरे, जान न पाते नींच |

सरसी छंद

वह तो टहले बड़े कक्ष में, करे नित्य व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खाकर करती, हल्के-फुल्के काम ||
कोसलपुर में चले अनोखा, दासी का वह खेल |
खर-दूषण के कई गुप्तचर, रहे व्यर्थ ही झेल |
महिना फाल्गुन शुक्ल पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव हैं जमे शीश पर, ईश्वर का आभार ||
पुत्रीजन्म महल में होता, कौशल्या हरसाय |
राज्य ख़ुशी से लगा झूमने, पुत्री जन्म छुपाय ||
एक पाख उपरांत प्राप्तकर, समाचार दस-सीस |
खर दूषण को डांट पिलाता, सुग्गा सुर पर रीस |
किन्तु जन्म कन्या का सुनकर , रावण पाता चैन |
फिर भी डपटा क्षत्रपगण को, निकसे तीखे बैन ||
छठियारी में सब जन आये, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार कौला ने पाया, किया काम निष्काम ||
गिद्धराज गिद्धौर गये फिर, कर दशरथ का काम |
सम्पाती से जाकर मिलते, करते शोध तमाम ||

दोहा

दूरबीन का कर रहे, वे प्रयोग भरपूर |
प्रक्षेपित कर यान को, भेजें दूर-सुदूर ||

सरसी छंद

जच्चा-बच्चा की सेवा में, लगती कौला धाय |
एक पैर को छूते ही वह , सुता उठी अकुलाय |
कौशल्या ने राजवैद्य को, झटपट लिया बुलाय |
जांच परख समुचित कर कहते, तथ्य तनिक सकुचाय |।
एक पैर में अल्पदोष है, लगे न स्वस्थ शरीर ।
सुनकर अप्रिय वचन-बाण से, रानी सहती पीर |
फटा कलेजा महाराज का, निकली मुख से आह।
कैसे सेहतमंद सुता हो, करने लगे सलाह ।।

सर्भाग 2 भाग 2: सम गोत्रीय विवाह

सरसी छंद

तन्हाई गम चिंता ने ली, सकल जिंन्दगी घेर।
मिले न कुछ भी बिना परिश्रम, किन्तु मिलें ये ढेर।।
रात-रात भर देख रहे वे, उसकी दुखती टांग |
सपने में भी आकर करते, नट-नटनी अब स्वांग ||

हरिगीतिका

तब मार्ग-दर्शन के लिए गुरुगृह स्वयं दशरथ गए ।
कर दंडवत संतान के आसन्न दुख कहते भये ।
गुरुवर कहें कुल वैद्य चर्चित को बुला संसार के ।
हों वैद्य सारे देश के, हों वैद्य सागर पार के ।

सरसी

पीड़ा बेहद बढ़ जाती जब, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब वही नीलिमा, कागद पर छा जाय ।
उद्यम करता हुआ मनुज ही, लगे हमेशा ठीक |
सही कर्म ही तो पूजा है, बाकी लगे अनीक ||
वैज्ञानिक ऋषि वैद्य आदि को, रहे भेज सन्देश ।
हरकारों को मिल जाता ज्यों, राजा का आदेश ॥
नीमसार की पावन-भू पर, मंडप बड़ा सजाय |
श्रावण की पूर्णिमा बीतती, रही चांदनी छाय ||
रक्षा बंधन पर्व बीतता, जमे चिकित्सक वीर |
जांच कुमारी की जब करते, होता विकल शरीर ||
विषय बहुत ही साफ़-साफ़ था, वक्ता थे शालीन |
सबका क्रम निश्चित हो जाता, हुए सभी आसीन ||
उदघाटन करने जब आये, अंग-देश के भूप |
नन्हीं बाला का देखा तब, सौम्य सरस सा रूप ||
स्वागत भाषण पढ़ कर करते, राज वैद्य अफ़सोस |
जन्म कथा सारी कह जाते, रहे स्वयं को कोस ||
वक्तागण फिर रखने लगते, वर्षों की निज खोज |
सुबह-सुबह ही हो जाती थी, परिचर्चा हर रोज |
दूर दूर से आते रहते, रोज कई बीमार |
शिविरों में कर रहे बैद्यगण, उन सबका उपचार ||

दोहा छंद

रहो छिडकते इत्र सा, मदद दया मुस्कान |
खुशबू सी फैले ख़ुशी, बढ़े जान-पहचान |।
भर जीवन सुनता रहे, देखे दर्द अथाह |
एक वैद्य की है अजब, सरल-विरल सी राह ।।
चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |
गोत्रज व्याहों की विकट, महा विकलता देन ||
राजा रानी अवध के, हैं दोनों गोतीय |
अल्पबुद्धि-विकलांगता, सम दुष्फल नरकीय ||
गुण-सूत्रों की विविधता, बहुत जरूरी चीज |
मात्र खीज पैदा करें, रविकर गोत्रज बीज ||
गोत्रज दुल्हन जनमती, एकल-सूत्री रोग |
दैहिक सुख की लालसा, बेबस संतति भोग ||
साधु साधु कहने लगे, सब श्रोता विद्वान |
सत्य वचन हैं आपके, बोले वैद्य महान ||
अब तक के वक्ता सकल, करके अति संकोच |
मूल विषय को टाल के, रखें अन्य पर सोच ||
सारे तर्क अकाट्य थे, छाये वहाँ सुषेन |
भारी वर्षा थम गई, नीचे बैठी फेन ||
आदर से दशरथ कहें, वैद्य दिखाओ राह |
विषम परिस्थिति में हुआ, कौशल्या से ब्याह ||
नहीं चिकित्सा शास्त्र में, इसका दिखे उपाय |
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||
इस प्रकार रखते भये, बातें वैद्य अनेक ।
ऋष्य विविन्डक ने कहा, मार्ग बचा है एक ॥
संतति हो ऐसी अगर, झेले अंग-विकार |
गोद किसी की दीजिये, रविकर मोह विसार ||
प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |
धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होती जय जय घोष ||

सवैया

गोतज दोष-विशेष लगे, तनया विकलांग बनावत है ।
माँ बिलखे चितकार करे, कुल धीरज शाँति गंवावत है ।
वैद गुनी हलकान दिखे, निकसे नहिं युक्ति, बकावत है ।
औध-दशा बदहाल हुई, अघ रावण हर्ष मनावत है ।।

सार छंद

अंगराज दशरथ से मिलकर, करते एक निवेदन।
शांता हमको सौंप दीजिए, रिक्त हमारा आँगन।
रानी इनकी देवि वर्षिणी, कौशल्या की बहना |
चम्पारानी उन्हें कहें सब, उनका भी यह कहना ||
बारह वर्ष ब्याह को होते, गोद अभी भी खाली।
डालो सुता गोद में मेरी, कहकर सुता उठा ली।।
कैसे दे दें सुता गोद में, दशरथ का मन भारी ।
निर्णय करना बहुत कठिन है, मन में मंथन जारी॥

कुंडलियां
शान्त *चित्ति के फैसले, करें लोक कल्यान |
चिदानन्द संदोह से, होय आत्म-उत्थान |
होय आत्म-उत्थान, स्वर्ग धरती पर उतरे |
लेकिन चित्त अशान्त, सदा ही काया कुतरे |
चित्ति करे जो शांत, फैसले नहीं *कित्ति के |
होते कभी न व्यर्थ, फैसले शान्त चित्ति के ||
(चित्ति = बुद्धि / कित्ति = कीर्ति)

सरसी छंद

सहमत हो जाती कौशल्या, चुनी सुता-कल्याण।
लगकर गले कहे बहना से, बसें सुता में प्राण।
रस्म गोद लेने की होती, हुआ शीघ्र सम्पन्न |
दो दो माता पिता प्राप्त कर, कन्या हुई प्रसन्न।।
दिव्य-अंग की सुता अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ का करते, बहुत-बहुत आभार |
फिर सुषेन के शिविर पहुँचकर , बोले अवध नरेश |
अब क्या करना होगा मुझको, कटे न मेरा क्लेश।।
बोले वैद्य सुषेन प्रेम से, सुनिए हे महिपाल |
ऐसी संताने सहती हैं, बीमारी विकराल |
गोत्रज शादी कभी न करिए, इसे दीजिए टाल |
खड़ी करे मंजूरी इसकी, रविकर बड़े सवाल ||
परिजन लेते गोद अगर तो, रखें अपेक्षित ध्यान |
दोष दूर हो जाता है यदि, हो सहाय भगवान् ॥
पानी हवा प्रांत जब बदले, गुण नवीन हों प्राप्त।
संयम विद्या बुद्धि रूप बल, साहस बढ़े पर्याप्त ||
सहज रूप से सफल हुआ अब, रावण का अभियान |
दूर हुआ रनिवास भूप से, विधि का यही विधान |
कोई नया अगर आ जाये, अथवा जाये छोड़।
बदले तब जिंदगी शर्तिया, आगे तीखे मोड़।।
आठ माह की मात्र आयु थी, बदल गया परिवार |
अंग देश को चल पड़ती वह, सरयू अवध विसार |
कौला भी कौला सी चलती, नव-कन्या के संग |
जननी आती याद सतत् तो, करती कन्या तंग ||

दोहा छंद

प्रगट करे कृतज्ञता, कौशल्या के भाव ।
हृदय-पटल पर जल रहा, यद्यपि एक अलाव ।।

कुंडलियां

नेह हमारा साथ है, ईश्वर पर विश्वास |
अन्धकार को चीर के, फैले धवल उजास |
फैले धवल उजास, मिला ममतामय साया |
कुशल वैद्य जन साथ, हितैषी कौला आया |
शुभकामना असीम, दौड़ ले बिना सहारा |
करे अनोखे काम, साथ है नेह हमारा ||

सर्ग 2 - भाग 3 : कन्या का नामकरण

सरसी छंद :

कौशल्या दशरथ कहते हैं, रुको और अधिराज |
अंगराज जब चलने लगते, लेकर सकल समाज ||
राज काज का होता हरदिन, मित्र बहुत नुकसान |
चलने की आज्ञा अब दे दो, राजन हमें विहान ||
सुबह सुबह हो गई पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज भी रथ पर होते, मय परिवार सवार |
दशरथ विनती कर देते हैं, उनको एक सुझाव |
सरयू में तैयार खड़ी है, बड़ी राजसी नाव ||
जल धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों की ही यात्रा है, हों मत आप अधीर ||
पूरे दो सौ कोस यहाँ से, अंग देश है दूर |
उत्तम यह प्रस्ताव मिला तो, करते नृप मंजूर |
पहुंचे उत्तम घाट जहाँ पर, बँधी बड़ी सी नाव |
हर नाविक ही बहुत कुशल है, परिचित नदी बहाव ||
बैठ गये सब लोग चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चल पड़ते, लेकर सैनिक चंद ||
धीरे धीरे गति बढ़ जाती, सीमा होती पार |
गंगा से सरयू मिलती है, संगम का आभार |
चार घड़ी रुक पूजा करते, देते नाव बढ़ाय |
मिलजुल कर हर एक वहाँ पर, कन्या को बहलाय।।
परम हर्ष उल्लास प्रेम का, देखा फिर अतिरेक |
मुख्य घाट फिर मिला मार्ग में, अंगदेश का एक |
गंगातट पर उतर सभी ने, आसन लिया जमाय |
राजकुमारी का फिर जनगण, स्वागत करता आय |।

विधाता छंद

जब खून के रिश्ते कई निभते नहीं संसार में।
जब कोख के जन्मे कई दुश्मन बने व्यवहार में।
रिश्ते बना के तब निभाने की कला जो सीखता।
वह जीतता रहता सदा इस जिंदगी में प्यार में।

सरसी छंद

किलकारे रोये भी कन्या, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती पग अपने, रानी रही सँभाल ||
उत्तम औषधि कुशल वैद्य दे, दे गुणकारी लेप |
लेप मला जाता है नियमित, बूटी-जड़ी समेत ||
नई नई फल-फूल वनस्पति, शीतल नई समीर |
खान-पान सब नया शुरू है, नई नई तासीर |
अंग देश की हुई बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल अन्न प्रेम से, अंगदेश के खाय ||
रानी के सँग खेल रही वह, भूल रही हर क्लेश |
राज काज के काम नियम से, निबटा रहे नरेश |
एक अनोखा था विवाद उस, ग्राम प्रमुख के पास |
गजब सौतिया डाह दिखाती, उड़ा रही उपहास। ।
सौतेले सह तीन पुत्र हैं, किन्तु न उनका बाप |
एक बाघ खा गया पुत्र को, सौजा करे विलाप ।
रो-रो कर सौतेले पर वह, लगा रही आरोप |
यद्दपि घायल पड़ा पुत्र वह, फिर भी करती कोप।।

कुंडलियां
फांके हफ़्तों से करे, अपनों से खा मात ।
जिन्दा रहने के लिए, करता वो आघात ।
करता वो आघात, क्षमा रविकर कर देते ।
पर कैसा वह शौक, प्राण जो यूँ हर लेते ।
भरे पेट का मौज, शिकारी हरदिन हांके।
हत्यारे बेखौफ, मौज से पाचक फांके ।।

कुंडलियां
ढर्रा बदलेगी नहीं, रोज अड़ाये टांग ।
खांई में बच्चे सहित, सकती मार छलांग ।
सकती मार छलांग, भूलती मानुष माटी ।
मात्र सौतिया डाह, चलाये वो परिपाटी ।
रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
बर्रा प्राकृत दर्प, पुराना पकड़े ढर्रा ।।

सरसी छंद

लड़ा दिलेरी से यह लड़का, चौकीदार गवाह |
बाघ खींच ले गया पुत्र को, रोक न पाया राह |
लेकिन सौजा सोच रही है, देने को संताप |
सौतेले ने किया स्वयं ही, ऐसा दुर्धुश पाप ||
नहीं चाहती रहे यहाँ पर, अब वह इसके साथ |
ईश्वर की खातिर इसका अब, न्याय कीजिए नाथ |
लाया गया सभा में दालिम, हट्टा-कट्टा वीर |
मुखड़े पर पीलिमा पड़ी थी, घायल पड़ा शरीर ||
सौजा से भूपति ने पूछा, दालिम का अपराध |
सुनकर ग्राम-निकाला देते, रहे किन्तु हितसाध |
किन्तु छुवो माँ के पग पहले, ले लो आशीर्वाद |
दिया नाव पर भेज उसे फिर, देती जनता दाद।।

दोहा छंद

राजा तो है पारखी, है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ।।

कुंडलियां

ममता में अंधी हुई, अपना पूत दिखाय |
स्वार्थ सिद्ध में लग गई, देश भाड़ में जाय |
देश भाड़ में जाय, खाय ले सौतन बच्चा |
एक सूत्र जो पाय, चबाये बच्चा कच्चा |
देती हृदय हिलाय, कोप जब रविकर थमता |
मंद मंद मुसकाय, महामाया मय ममता ।।

सरसी छंद

सेनापति से कहें रोमपद, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त गाँव यह, करो बाघ की खोज ||
जीव-जंतु जंगल सर सरिता, सागर खेत पहाड़ |
वंदनीय है प्रकृति हमारी, इनको नहीं उजाड़ ||
रक्षा इनकी जो भी करता, उसकी रक्षा सिद्ध |
दोहन करना स्वीकार्य पर, शोषण सदा निषिद्ध ।
केवल क्रीड़ा की खातिर क्यों , करते हो आखेट |
भरे न शाकाहार कभी क्या, रविकर मानव पेट ||
जीव जंतु वे धन्य-धन्य जो, परहित धरें शरीर |
हैं निकृष्ट वे सभी जानवर, खाँय इन्हें जो चीर ||
नरभक्षी के मुँह में लगता, जब मानव का खून |
जल्दी ही मारा जाये वह, होगा तभी सुकून ||
अगली संध्या में कर जाते, भूपति नगर प्रवेश |
अंग-अंग प्रमुदित हो जाता, झूमा अंग प्रदेश ||
गुरुजन का आशीष लिया फिर, मंत्री संग विचार |
नामकरण का दिवस हुआ तय, अगला मंगलवार ||
महा-पुरोहित करें स्थापना, थापित महा-गणेश |
देवलोक से देख रहे हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश |
रानी माँ की गोद भरी है, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे वह रह रह, होते मंगल काज ||
कौला दालिम साथ साथ ही, राजकुमारी पास |
वे दोनों भी करें परस्पर, स्वयं खास अहसास ||
महापुरोहित लगे बोलने, करे न कोई शोर।
शांता सुन्दर नाम धरा है, देख सुता की ओर।
शांता-शांता कह उठता फिर, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता जनगण मन प्रमुदित, कन्या खूब सुहाय ||
विधिवत हो जाता उत्सव जब, विदा हुए सब लोग |
एक दिवस कौला से पूछें, पाकर भूप सुयोग ||
शांता की तुम चतुर धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम हमको लगे भला जो, रखे तुम्हे खुशहाल ||
तुमको यदि अच्छा लगता वह, मन में है यदि चाह |
सात दिनों में ही करवाऊं, तुम दोनों का ब्याह ||
कौला शरमा जाती सुनकर, गई वहाँ से भाग |
भाग्योदय दालिम का होता, बढ़ा राग-अनुराग |
दोनों की शादी हो जाती, चले एक ही राह |
शांता का प्रिय बना युगल यह, बढ़ी परस्पर चाह ||
विधाता छंद

परिस्थिति है नई यद्यपि, पुरातन रीति है लेकिन।
समझ बेहद जरूरी है, रहे खुश जिन्दगी हर दिन।
बड़ी ममतामयी कौला, बहुत ही धैर्य वाली है।
समझकर देवि शांता को, अभी तक नित्य पाली है।।

समाप्त - सर्ग 2
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सर्ग-3 - भाग-1 : शांता के चरण

घुटुरवन चल रही शांता, महल में हर्ष छाया है।
कुमारी को सभी घेरे, मगर माँ अंक भाया है।
विनोदी तोतली बोली, सभी को खूब भाती है।
सदा कौला सुबह आकर, उसे औषधि लगाती है।
कराता रोज दालिम ही, उसे व्यायाम हल्का सा।
यही सब नित्य करवाते, हुई फिर बलवती आसा।
चली वह डेढ़ वर्षों में, मगर उम्मीद जगती है।
अवध सन्देश जाता है, अभी वह ठीक लगती है।
सार छंद
दशरथ कौशल्या आ जाते, रथ को वहाँ उड़ाते।
पग धरते देखा शांता को, दोनो ही हरसाते |
कौशल्या को मौसी कहती, मौसा भूप कहाते।
सरयू-दर्शन का न्यौता दे, दोनो वापस जाते||
अस्सी प्रतिशत ठीक हुई है, आठ महीना जाते।
रानी के सँग गई अवधपुर, जन-गण-मन हरसाते।
कौला भी दालिम की होकर, शांता के सँग जाती।
ईर्ष्या करती कई दासियाँ, उन्हें न कौला भाती ||
प्रेम दया विश्वास आदि के, बनो नही व्यापारी।
दंड भेद भय साम दाम से, बात न बनती सारी।।
स्नेह-समर्पण किया स्वयं ही, मांगे क्यों कुछ आगे।
इच्छाएं कर दफ़न स्वयं की, क्योंकर पीछे भागे।।
सरसी छंद
मौसा-मौसी आनंदित हैं, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करती वह, कौला को वह पस्त |
अपने अंगदेश फिर आती, एक पाख के बाद |
मिला रोमपद को रानी से, महा-मस्त संवाद ||
प्रथम चरण की धमक सुने नृप, लक्षण हैं सुस्पष्ट |
रानी चम्पावती गर्भ से , हर्षित सहती कष्ट |
हर्षित भूपति मगन हुए हैं, बढ़ा और भी प्यार |
बिठा पीठ पर शांता को वे, करें प्रकट आभार।।
पैरों में पायल की रुन-झुन, कंगन बाजे खूब |
आनंदित माँ-पिता स्वजन सब , गये प्यार में डूब |
शांता माता से हो जाती, किन्तु जरा सा दूर |
कौला देती रहती लेकिन, उसे प्यार भरपूर ||
राजा भी रख रहे आजकल, बेटी का खुब ध्यान |
अंगराज को मिल जाती है, एक और संतान |
चम्पारानी पुत्रवती अब, आया राजकुमार।
नन्हें-मुन्ने पर शांता भी, लुटा रही है प्यार ||
कौला भी माता बन जाती, दालिम बनता बाप |
पुत्री संग लगे रहने वे, मिटे सकल संताप |
फिर से कौला माँ बन जाती, करे पुत्र वह प्राप्त ।
बनी बहन भाई की जोड़ी, खुशी चतुर्दिक व्याप्त ||

सर्ग 3 - भाग -2 सृंगी जन्मकथा


विधाता छंद
बहुत से शोध आश्रम में, विविन्डक रिष्य करवाते।
परा-विज्ञान प्रजनन पर, फलादिक अन्न में माते।
विकट तप से तपस्या से, हिलाते आप इंद्रासन।
तभी तो उर्वशी मोहित, समर्पित कर दिया तन- मन।
स्वयं को कर रही प्रस्तुत, विविन्डक शोध करते हैं।
विचरते अप्सरा सँग पर न पत्नी को अखरते हैं  |
इधर आसक्त हो ऋषिवर, निवेदन प्रेम का करते।
उधर वे स्वर्ग के अधिपत, विविन्डक रिष्य से डरते।
कराया रिष्य- पत्नी ने, स्वयं ही ब्याह दोंनो का।
हुए खुश इंद्र भी रविकर, उन्होंने भी नहीं रोका।
व्यवस्थित जिंदगी उलझी, उलझता शोध भी थोड़ा।
चतुर्दिक राह खुलती तो, करे कुछ भूल यह जोड़ा।
दिया फिर जन्म बेटे को, गई झट स्वर्ग वापस वो।
विविन्डक काम से जाते, गई वो एक काँटा बो।
उगे थे पुत्र के दो दो, अजब से सृंग माथे पर।
खरी-खोटी सुनाती है, प्रथम पत्नी उन्हें अक्सर। ।
लुटाती नेह बेटे पर, छुपाती सृंग मस्तक के।
नदी कोसी किनारे वह, गई ले सृंग दो ढक के।
वहीं अब पल रहे सृंगी, हिमालय की तराई में।
वहीं पर पढ़ रहे एकल, लगे मन हर पढाई में।
हुई है उम्र तेरह की, पधारे हैं पिता श्रृषिवर।
रहे अंजान दुनिया से, रही माँ मात्र इस घर पर।
बसे अब सप्तपोखर में, सुहावन दृश्य संगम का।
बहे कोसी बहे गंगा, हुआ आरम्भ आश्रम का।।

(सरसी छंद)

सृंगेश्वर की वहीं थापना, सृंगी से करवाय।
देश भ्रमण के लिए विविन्डक, सँग में पत्नी जाय।
जोर शोर से चहुंदिश फैला, सृंगेश्वर का नाम ।
मयपरिवार रोमपद भूपति , करने चले प्रणाम।।
शिविर लगा मंदिर प्रांगण में, करते सब विश्राम ।
शांता रूपा बड़ी चंचला, घूम रही निष्काम ।
छोटी छोटी ये कन्यायें, पहुँची आश्रम बीच ।
सृंगी बैठे ध्यान लगाये, दोनों आँखे मीच ।
पर रूपा की शैतानी से, ध्यान हुआ जब भंग ।
देख एक दूजे को दोंनो, सृंगी शांता दंग ।
सृंगी पहली बार देखते, बाला का यह रूप ।
लगी वेशभूषा दोनों की, उनको परम अनूप ।।
सोहे सृंगी सृंग शिखा से, शांता के मन भाय।
परिचय देती उन्हें शांता, उनका परिचय पाय ।
बाल-सुलभ मुस्कान देखकर, तृप्त हृदय हो जाय ।।
उन्हें बुलाकर रानी माँ से, दे परिचय करवाय।।
इन बच्चों को देखा सबने, होते सभी प्रसन्न ।
पर सृंगी संकोच करें वे, ग्रहण न करते अन्न ।
तीन दिनों का समय मिला है, सृंगी को अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन में आये, भाये शांता बोल ।।

भाग 3 शांता की शिक्षा
दोहा छंद
शांता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||
कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||
जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |
गुमसुम सी रहने लगी, प्राकृत हुई विलोम ||
माता से वह हठ करे, करे पिता को तंग |
मैं भी पढ़ने के लिए, जाऊँ भाई संग ||
माता समझाने लगी, कौला रही बताय |
यहीं महल में पाठ का, समुचित हुआ उपाय ||
विधाता छंद
शुरू पढ़ना करे शांता, बटुक रूपा वहीं पढ़ते।
गुरूजी नित्य आकर के, सभी कच्चे-घड़े गढ़ते।
बहन के साथ शांता का, बटुक भी ध्यान रखता है।
बँधाकर सूत्र रक्षा का, बटुक मिष्ठान चखता है।
सुबह ही सोम गुरुकुल से, मनाने पर्व आ जाता।
बंधाया सूत्र उसने भी, सभी का साथ है भाता।
विनय प्रभु से करे शांता, हमेशा खुश रहें भाई ।
सभी ने खूब मस्ती की, मगर रूपा नहीं आई।।
दोहा
दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |
राजमहल का बन प्रमुख, हँसता किन्तु विमूढ़ ||
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माँ को लो बुलवाय ||
सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||
संदेसा भेजा गया, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए अहसास ||
छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा दिखता रमण, विनयशील अति-शिष्ट ||
रमण सुरक्षा हित चला, शांता पास तुरन्त |
रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||
हरिगीतिका छंद
रूपा बटुक का ख्याल रखने लग गई सौजा भली।
कौला करे सेवा सभी की, गोद में शांता पली।
रानी कृपा करती सदा, बच्चे बड़े होने लगे।
कोई न उनमें भेद था, सब लग रहे रविकर सगे।
उपचार करते वैद्य को, अब हो चुके थे वर्ष छह।
शांता निरोगी हो गई, जाते मगर कुछ चिह्न रह।
आनंद ही आनंद है, परिवार पूरा हो गया।
अब सोम शांता संग सारे खेल करते नित नया।।
सरसी छंद
एक दिवस फुर्सत में सारे, करें बैठकर बात।
घटना बारह वर्ष पुरानी, सौजा का व्याघात।
सौजा दालिम से कहती है, वह आतंकी बाघ |
कातिक में बारह को मारा, दस न देखते माघ ||
सेनापति ने रात-रात भर, चारा रखा लगाय |
किन्तु पास के एक ग्राम में, गया एक को खाय |
वह नरभक्षी पूरा पागल, बनता सबका काल |
पशुओं को वह कभी न छूता, फाड़े मनुज कपाल ||
एक रात जब सभी शिकारी, बैठे घात लगाय |
नारी छाया पड़ी दिखाई, अंधियारे में जाय ||
एक शिला पर जम जाती फिर, वह नारी निर्भीक।
आखेटक दल का नायक दे, तब निर्देश सटीक ||
बिना योजना के जा बैठी, लेकर के शमशीर।
कुछ के हाथों में भाला था, कुछ के धनु पर तीर ||
तीन घरी बीती थी यूँ ही, लगी टकटकी दूर |
किन्तु अभी भी आस बँधी है, आये बाघ जरूर ||
फगुआ गाती नारी साया, मधुरिम मादक गीत |
आकृति आते एक दिखी तब, कूकी कोयल मीत |
होते ही संकेत सभी जन, हो जाते तैयार |
घोर विषैले तीर चलाकर, करते बड़ा शिकार ||
भालों के वे वार भयंकर, बेहद थे गंभीर |
फाड़े छाती दुष्ट बाघ की, माथा देते चीर |
शांता की चिंता बढ़ जाती, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या होता फिर, जिसका कर्म अमोल ||
नहीं बोलती सौजा कुछ भी, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छूकर के, दालिम बाहर जाय |
सौजा माँ ऐसे करती है, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम हित वर बनता, माँ का वह अभिशाप ||
दोहा छंद
शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
वेद कला संगीत के, सीखे सकल सऊर ||
शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||
गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
सहज सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||
अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||
कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, सुंदरतम रथ साज ||
रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||
रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||
बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शांता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||
फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कह आय ||
भाग-4
चिन्तित अवध
शांता गई खुशियाँ गईं, पर आ गई नव आपदा।
कल्याण कैसे हो अवध का, भाग्य में क्या-क्या बदा।
संतान सुख हो प्राप्त कैसे, सोचते दशरथ सदा।
समगोत्रता की कर न सकते वे पुन: कीमत अदा।।
बढ़ता रहा अवसाद यूँ जब बोल कौशल्या पड़ी।
ले आइये अब दूसरी, यह बोलकर वह तो अड़ी।
तब भूप उनको देखते, आश्चर्य से होकर चकित।
अनुनय करे रानी पुन:, हद से अधिक होकर व्यथित।
कोई गिला-शिकवा न भूपति मैं करूंगी आप से।
वर्ना न मैं अब जी सकूं, संतान बिन संताप से।।
बहना बना उसको रखूँगी, ढेर सारा प्यार दे।
हो पूर्ण कैसे स्वप्न यह, कोई सबल आधार दे।।
दोहा
बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, उसके कटते क्लेश ||
यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
अब संतति कैसे बढ़े, विषय बड़ा गंभीर ||
अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||
अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||
संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखते, भूप सहित सब राह ||
हरिगीतिका छंद
बहती जहाँ पर पंच-नदियाँ, राज्य कैकय है उधर।
सम्बंध की इच्छा जताते, भेंट भूपति भेजकर।
कैकय महाराजा जिन्हे सब अश्वपति कहते वहाँ।
वे जानते है विहग-भाषा, विद्वान उनसा था कहाँ।
सरसी छंद
उनकी कन्या बड़ी रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों बीच पली वह, पलकों रखी सहेज ||
किन्तु न माँ का प्यार मिला था, वह तो थी वाचाल |
देश निकाला उसे मिला था, बीते बारह साल ||
घटना है यह एक सुबह की, रहा न कोई काज।
उपवन में रानी सँग भूपति, रविकर रहे विराज।
हँसे अचानक बड़ी जोर से, सुन चीं-चीं आवाज |
पूछ रही रानी जब कारण, कर देते नाराज।।
भूपति खोलें भेद अगर तो, प्राण जाँय तत्काल |
नहीं छोड़ती त्रिया त्रिया-हठ, करती बड़ा-बवाल |
भेद खोलकर नॄप न चाहते, देना अपनी जान।
इसीलिए रानी कर जाती, कैकय से प्रस्थान |।
संबंधों की बड़ी श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
ले सशर्त सन्देश लौटता, कैकय से वह दूत |
मेरी पुत्री का बेटा ही, होगा यदि युवराज |
खुशी-खुशी स्वागत होगा तब, सिद्ध समझिए काज ||
कौशल्या सहमत हो कहती, बड़ा दिवस है आज।
कैकेयी रानी बन जाये, पुत्र बने युवराज।।
रानी बन आती कैकेयी, साथ मंथरा धाय |
जिसका कटु-व्यवहार खले तो, महल रहा उकताय |
चार साल का काल गया षर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा रानी आई, हुए भूप मजबूर ||
दोहा छंद
कौशल्या की गोद के, सूख गए जो फूल |
रावण अपनी मौत की, गया कहानी भूल।||
सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे शत्रुता दुष्टता, दशरथ के भी संग ||
युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||
कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||
घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बढ़ता मान विशेष ||
शांता बिन ये शादियाँ, हो जाती नाकाम |
चौथेपन में भूप के, केश सफ़ेद तमाम ||
चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ती मस्तक बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप, रखते आँखें मीच ||
भाग-5 वन-विहार
सरसी छंद
माता सँग गुरुकुल जाती जब, बढ़ता भ्रात विछोह |
दक्षिण की मनभावन शोभा, लेती थी मन मोह |
गंगा के दक्षिण में उपजे, सौ योजन तक झाड़ |
श्वेत बाघ बहुमूल्य खनिज वन, झरने नदी पहाड़ ||
मन की चंचलता पर चलता, कहाँ किसी का जोर |
रूपा के सँग रथ लेकर वो, दौड़ी वन की ओर |
पंखो को फैलाकर उड़ती, मिला खुला आकाश |
खुद से करने निकल पड़ी वह, खुद की खुदी तलाश ||
वटुक-परम पीछे लग जाता, सका न कोई जान।
अस्त्र-शस्त्र कुछ और नहीं पर, आता तीर-कमान |
औषधि लेकर कौला सबको, रही भोर से खोज|
जल्दी ही हल्ला मच जाता, लगी खोजने फौज |।
राजा-रानी लगे ढूंढने, रमण हृदय हलकान |
बुद्धिहीन सा बदल रहा वह, अपने दिए बयान |।
अपने-अपने अश्व साजकर, खोजें सब चहुंओर।
रमण दौड़ता दक्षिण दिश में, मचा नगर में शोर ||
काका झटपट लगा भागने, बड़े लक्ष्य की ओर |
घोड़ा समझ इशारा दौड़े, बीत चुकी है भोर |
गुरुकुल पीछे गया छूट तो, आई घटना याद |
बाघ देखने की जिद करती, शांता की बकवाद ||
पहियों के ताजे चिह्नों को, पड़े भूमि पर देख |
माथे पर गहरी खिंच जाती, चिंता की आरेख ||
आगे जाकर देख रहा वह, झरना एक विशाल |
पड़ी दिखाई खांई केवल, पथ को खाई ढाल |
पड़े न रथ के चिह्न दिखाई, जैसे गया बिलाय|
अनहोनी की सोच-सोच के, रहा अँधेरा छाय ||
उतरा घोड़े से तो पाया, अंगवस्त्र अश्वेत |
आगे बढ़ने पर दिख जाता, रथ फिर अश्व समेत |
व्याकुलता ज्यादा बढ़ जाती, झटपट झाड़ी फांद |
तभी सामने पड़ी दिखाई, गुप्त बाघ की मांद ||
जी धकधक करने लग जाता, गहे हाथ तलवार |
एक एक कर आने लगते, मन में बुरे विचार |
हिम्मत कर आगे बढ़ जाता, आया शर सर्राय |
देखा अचरज से जब उसने, खड़ा बटुक मुसकाय ||
बोला तेजी से फिर काका, परम बटुक दे ध्यान |
काका तेरा इधर खड़ा है, ले लेगा क्या जान |
सुनकर के आवाज रमण की, दोनों बाला धाय |
काका का अभिवादन करके, रही बहुत घबराय ||
गीतिका
बाघ के ही माँद में बैठी हुई थी अब तलक।
देखना वह चाहती थी बाघ की केवल झलक।
प्राणघातक थी मगर, इन बच्चियों की यह ललक।
वास्तविकता ज्ञात होने पर न झुकेगा पलक।।
दोहा छंद
काका जब फटकारते उनको, नैन बहाते नीर |
तभी बाघ की गुर्राहट सुन, काँपा सकल शरीर |
झटपट ताने धनुष-बाण वे, सावधान अत्यन्त |
दिखा न लेकिन बाघ कहीं भी, रथ पर चढ़े तुरन्त।।
शांता रूपा छुप जाती झट, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर घोड़ा लाया, इसी बीच रथ खीच ||
समाचार गुरुकुल में फैला, बोला शिष्य विशेष।
रथ तेजी से भगा रही जो, परिचित उसका वेष।
शायद राजकुमारी थी वह, चले सोम के मित्र |
तीर धनुष तलवार उठाये, हरकत करें विचित्र |
रथ की लीक पकड़ कर बढ़ते, मित्रों सह जब सोम।
अस्त्रों को भांजते व्यर्थ ही, व्यर्थ गुजरते व्योम ||
उधर बाघ न दिखा किसी को, किन्तु गर्जना घोर |
व्याकुलता होकर दिखे भागते, कहीं जंगली ढोर |
घोड़ा भी हिनहिना रहा है, अकुलाता मजबूर |
जैसे पास दौड़ता आता, कोई हिंसक क्रूर |।
गिर-कंदर में गूंज रही है, लगातार आवाज |
भू पर मानो अभी गिरेगी, महाभयंकर गाज |
रमण स्वयं घबराता फिर भी, हिम्मत लिया बटोर |
स्वयं तेज दौड़ाए रथ को, थाम लिया खुद डोर।।
जान बचाकर घोड़ा दौड़े, रथ तो झटके खाय |
जैसे पीछे पड़ा हुआ हो, हिंस्र एक अतिकाय |
सचमुच था अतिकाय भयंकर, लेता घेरा डाल |
घोड़ा ठिठका बड़ी जोर से, खड़ा सामने काल ||
रमण बोलते सुनो बटुक तुम, रथ की वल्गा थाम |
मुझे छोड़कर भागो सरपट, हुआ विधाता वाम ||
शांता रूपा देख रही थी, थी परदे की ओट |
आठ-हाथ की देह खड़ी थी, खुद को रही नखोट ||
दोनों की घिघ्घी बँध जाती, लेकिन दालिम-पूत |
तेजी से रथ हांक रहा ज्यों, पाई शक्ति अकूत |
याद रमण को आ जाता वह, दालिम का अहसान |
लड़ा बाघ से जान लड़ाकर, बची हमारी जान।।
ध्यान-भंग हो उसका कैसे, रमण मारता तीर |
पकड़ हाथ से तीर रमण का, देती नख से चीर |
बोली मैं हूँ विकट ताड़का, मानव खाना काम |
पिद्दी सा तू क्या कर लेगा, व्यर्थ न धनुही थाम।।
साफ़-साफ़ दिख रही उसे अब, भद्दी विकट कुरूप |
पीछे तो है गहरी खाईं, आगे गहरा कूप।
घोड़े पर फिर बैठ वीर वो, लेकर भागा जान |
अपने पीछे उसे लगाया, योद्धा बड़ा सयान |
लम्बे-लम्बे डग रख अपने, करने चले शिकार।
जोर-जोर चिग्घाड़ रही वो, हाथ वक्ष पर मार।
कूद गया फिर रमण नदी में, लम्बी लगा छलाँग।
गिरते-गिरते बच्चों का हित, लेता प्रभु से माँग।
परम बटुक रथ तेज हाँक कर, लाया बारह कोस।
पर काका के लिए सभी जन, प्रकट करें अफसोस।
तभी दिखाई पड़ा सोम तो, उसको मित्रों संग।
रथ पर झट बैठाकर शांता, करे मौनव्रत भंग।।
बैठे-बैठे रथ पर उसने, बता दिया सब सार।
काका रमण बचाते कैसे, छोड़ गये संसार |
गुरुकुल पहुंच गये फिर सारे, हुए सभी आश्वस्त।
बेमतलब की भागदौड़ से, सारा गुरुकुल पस्त ।।
गुरुकुल से सन्देश गया तो, आये अंग नरेश |
मिले सुरक्षित सारे बच्चे, कटे सभी के क्लेश ||
यक्ष वंश की नारि ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
उस तप से पैदा होती जो, किया पुत्र के हेतु ||
असुर-राज से व्याह हुआ था, थी ताकत में चूर |
दैत्य सुमाली से संतानें, हुई क्रूर अतिक्रूर |
केेकेसी सी सुता इसी की, सुत सुबाहु मारीच ।
केकेसी रावण की माता, बैठी लंका बीच।।
वही ताड़का उसे दिखी थी, सौजा रही बताय |
पुत्र रमण की मृत्यु हुई तो, तनिक न वह घबराय||
शोक करूँ किस हेतु बताओ, हमें गर्व अनुभूत |
बचा लिया रूपा शांता को , लगे देव का दूत ||
सबसे प्यारा बटुक हमारा, छोटा वीर महान |
अच्छी संगत से हो जाता, वह भी आज सयान |
दालिम से भी सौजा कहती, मत कर बेटा शोक |
इसी कार्य के लिए पुत्र यह, आया था इस लोक ||
रो रोकर शांता करती है, रविकर पश्चाताप।
खुद को दोषी मान रही वह, प्राय: करे विलाप।।
रोते धोते बीत गये यूँ, दुख के महिने चार |
वीर रमण वापस आ जाता, चमत्कार आभार ||
कूदा जहाँ वहाँ पर जल का, था बहाव अति तेज |
ढीली तन कर कूद गया वह, पूरी शक्ति सहेज |
पानी में बहता रह जाता, पूरी काली रात |
बहुत दूर वह बह कर आया, पीछे छोड़ प्रपात ||
सन्यासी ने कृपा किया तो, मौत न पाई मार।
महादेव सृंगेश्वर की है, महिमा अपरम्पार ।
कुण्डलियाँ
हिम्मत से रहना डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चढ़ने की करो, चाहे दुर्गम राह |
चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह, दीप आँधी में जलता |
चढ़ते रहो पहाड़, अगर दिल में है चाहत।
दीजै झंडे गाड़, छोड़ना कभी न हिम्मत ।।
दोहा छंद
सपना अपना चुन लिया, करे नहीं पर यत्न ।
बिन प्रयत्न कैसे मिले, कोई अद्भुत रत्न ।।
सर्ग 3 समाप्त