Monday, 25 April 2011

था निठल्ला घूमता, व्यर्थ में मशगूल की

 (1)
पंचायत जिसके परमेश्वर हैं पञ्च 
जो कराएँ पंचनामा या करे प्रपंच 
(2)
 तूने बड़ी भूल की, जो दोस्ती क़ुबूल की 
था निठल्ला घूमता, व्यर्थ में मशगूल की
             (3)
 जिंदगी जीते हैं, मदिरा पीते हैं
भावों की क्या, घट-घट रीते हैं 
   
                   (4)
महफूज़ हम क्योंकर रखे अपना ईमान ?
सुन्दरता पर अपने करो जो, तुम गुमान.
है तबीयत में तुम्हारे इत्मीनान
सितम सहते बंद कर अपनी जुबान .

                      (5)
तू नहीं तेरी यादें हैं वो,
अधिक सताती हैं जो 
                      (6) 

ऐसा उठा-उठा के पटका है मेरा दिल. 
लाखों करम हुए  पर चूर न हुआ
             

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