Thursday 30 August 2012

कछुवा कुछ भी न छुवा, हाथी काटे केक



  का न करै अबला प्रबल?.....(मानस प्रसंग-7)

 (Arvind Mishra) 
(1)
 बिगत युगों की परिस्थिति, मुखर नहीं थी नार ।
सोच-समझ अंतर रखे, प्रगटे न उदगार ।
 प्रगटे न उदगार, लांछित हो जाने पर ।
यह बेढब संसार, जिंदगी करता दूभर ।
रहस्यमयी वह रूप, किन्तु अब खुल्लमखुल्ला ।
पुरुषों को चैलेन्ज, बचे न पंडित मुल्ला ।
(2)
अब रहस्य कुछ भी नहीं, नहीं छुपाना प्रेम ।
कंधे से कन्धा मिला, करे कुशल खुद क्षेम ।
करे कुशल खुद क्षेम, मिली पूरी आजादी ।
कुछ भी तो न वर्ज्य, मस्त आधी आबादी ।
का न करे अबला, प्रबल है पक्ष चुपाओ ।
राम चरित का पाठ, इन्हें फिर कभी पढाओ ।।




तुम्‍हें ढूंढने के क्रम में ...

सदा  
  SADA  


बड़े पुन्य का कार्य है, संस्कार आभार ।
 तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।

मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना  जल प्राण गँवाए ।

हे मूरत तू धन्य , कटोरी जल से भरती ।
दो मुट्ठी भर कनक , हमारी विपदा हरती ।।


कछुवा कुछ भी न छुवा, हाथी काटे केक ।
बन्दर केला खाय के, छिलका देता फेंक ।
छिलका देता फेंक, फिसल कर गैंडा गिरता ।
बेहद मोटी खाल, हिरन से जाकर भिड़ता ।
चिड़िया हंसती जाय, देख के नाटक सारा ।
जन्म-दिवस का केक, फेंक के हाथी मारा ।।


साम्यवाद के शत्रु ये मार्क्सवादी' ---

विजय राज बली माथुर 
परबाबा खोदें कुआँ,  पीता पानी लाय  ।
झक्की-पन में एक ठो, मोटर दिया लगाय ।
मोटर दिया लगाय,  बड़ा कचडा है लेकिन ।
पानी रहे पिलाय , सभी को इसका हरदिन ।
देश काल माहौल, बदलता है तेजी से ।
करें इसी का पान, नियम से बन्धेजी से ।।


देवेन्द्र पाण्डेय 
पीपल के पत्ते दिखे , लत्ते बिना शरीर ।
सुन्दरता मनभावनी, पी एम् सी के तीर ।
पी एम् सी के तीर, पीर लेकर हैं लौटे ।
कितने रांझे-हीर, यहीं पर छुपे बिलौटे ।
सौन्दर्य उपासक शिष्य,  खाय के सैंडिल चप्पल ।
धूनी रहे रमाय,  बुद्धि का दाता पीपल ।।


" मेरा मन पंछी सा "

Reena Maurya 
तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिक्स...आभार

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  2. हमेशा की तरह ब्यूटीफुल !

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  3. कछुवा कुछ भी न छुवा, हाथी काटे केक ।
    बन्दर केला खाय के, छिलका देता फेंक ।
    छिलका देता फेंक, फिसल कर गैंडा गिरता ।
    बेहद मोटी खाल, हिरन से जाकर भिड़ता ।
    चिड़िया हंसती जाय, देख के नाटक सारा ।
    जन्म-दिवस का केक, फेंक के हाथी मारा ।।


    तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
    सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
    पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
    सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
    पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
    यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।

    क्या बात है भाई साहब निखार है छंदों में दिन प्रति दिन बधाई .. यहाँ भी पधारें -

    बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
    लम्पटता के मानी क्या हैं ?
    लम्पटता के मानी क्या हैं ?

    लम्पटता के मानी क्या हैं ?

    कई मर्तबा व्यक्ति जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिलतें हैं .अब कोई भले किसी अखबार का सम्पादक हो उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है वह भाषा का सही ज्ञाता भी हो हर शब्द की ध्वनी और संस्कार से वाकिफ हो ही .लखनऊ सम्मलेन में एक अखबार से लम्पट शब्द प्रयोग में यही गडबडी हुई है .

    हो सकता है अखबार कहना यह चाहता हों ,ब्लोगर छपास लोलुप ,छपास के लिए उतावले रहतें हैं बिना विषय की गहराई में जाए छाप देतें हैं पोस्ट .

    बेशक लम्पट शब्द इच्छा और लालसा के रूप में कभी प्रयोग होता था अब इसका अर्थ रूढ़ हो चुका है :

    "कामुकता में जो बारहा डुबकी लगाता है वह लम्पट कहलाता है "

    अखबार के उस लिखाड़ी को क्षमा इसलिए किया जा सकता है ,उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिला ,पटरी से उतरा हुआ शब्द मिला .जब सम्पादक बंधू को इस शब्द का मतलब समझ आया होगा वह भी खुश नहीं हुए होंगें .
    http://veerubhai1947.blogspot.com/
    ram ram bhai

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