Wednesday 16 November 2011

भगवती शांता परम

(मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)

 सर्ग-२

 भाग-1

महारानी कौशल्या-महाराज दशरथ  
और 
रावण के क्षत्रप 
सोरठा
रास रंग उत्साह,  अवधपुरी में खुब जमा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||
चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार,  हृदय कोष सन्तोष धन |
पांच कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||
शयन केलि श्रृंगार,  भोजन और स्नान कुञ्ज |
झूलन कुञ्ज बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख |
चम्पक विपिन रसाल, पारिजात चन्दन महक |
केसर कदम तमाल, नाग्केसरी वन विचित्र ||
लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
  वृन्दावन लघुबाग, कदली जूही माधवी || 
घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||
रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
लगा के बैठा घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||
मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्यदेवता ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||  
रावण के षड्यंत्र, यदा कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्य देव के तेज से | 
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी  |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
 निकट अवध संभाग, खर दूषण को सौंपता ||
खर दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की || 
कुत्सित नजर गढ़ाय, ताकें राज्य अवध  को |
 खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, सूर्य छुपे सप्ताह भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||

 असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||
लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर फंसी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, इक सैनिक ने भाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब आय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||

आगे की कथा का सूत्र 

भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)

12 comments:

  1. बेहद सुन्दर शब्द जय श्रीराम,

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  2. jawaab nahin aapki lekhni ka !

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  3. मुझे तो रामायण पाठ सा सुख मिल रहा है।

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  4. अच्छे सोरठा निकाले हैं सर जी
    तारीफ़ करनी होगी, इतने सुन्दर वर्णन के लिए

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  5. दिनेश जी,
    आपकी आलोचना करने का मन है... करके ही मानूँगा..
    सोरठा छंद की तारीफ़ नवीन जी द्वारा हो ही चुकी है... इस लिए छंद पर चुप्पी लगाते हैं.
    राम की सहोदरा 'शांता' पर मेरा संशय बरकरार है....
    क्या यह सत्य नहीं कि 'शांता' युवराज दशरथ के विवाह पूर्व जन्मी थी?
    क्या यह सत्य नहीं कि मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम के चरित्र के विपरीत 'दशरथ' का चरित्र विलासी था?
    यदि 'शांता' कौशल्या पुत्री थी तो सहोदरा ही मानी जायेगी... अन्यथा वह सहोदरा नहीं केवल बहिन ही मानी जानी चाहिए....

    दूसरी बात, आप जितना उत्कृष्ट लिखते हैं ब्लॉग का नामकरण उसके उपयुक्त कतई नहीं है..'दिनेश की दिल्लगी, दिल की सगी' ...
    यदि 'चाणक्य' जैसे नीति आचार्य का नाम 'लालू प्रसाद' होता या 'छोटे लाल' होता तो असंगत दोष होता.... साहित्य/सृजन के अनुकूल नाम भी होना चाहिए.... ऐसा मेरा मानना है.
    अरसा हुआ आपसे विमर्श किये .... इसी इच्छा ने आपसे तकरार को उकसाया है.

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..

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  7. लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
    वृन्दावन उपवन, कदली जूही माधवी ||

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  8. प्रिय दिनेश जी बहुत सुन्दर ...गजब रंग ..ये सोरठा .अभी पूरा प्रसंग समझ नहीं आया ..कुछ समझा दिया करें कुछ प्रसंग ...भ्रमर ५

    मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
    देखा पंथ निशान, इक सैनिक ने भाग्य से ||


    लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
    नर-नारी सब आय, हाय-हाय करने लगे ||

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  9. सच तो ये है कि आपकी लेखनी और उसके अंदाज का कोई जवाब नहीं

    बहुत बढिया

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  10. बहुत अच्छा लगा...बहुत सारी जानकारियाँ मिलती हैं...

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