छतरी काम न कर सके, बारिश में कुछ खास।
विकट चुनौती हेतु दे, किन्तु आत्मविश्वास।|
झूठ प्रफुल्लित हो रहा, आनंदित व्यभिचार।
सत्य बिछा के पाँवड़े, नीति करे सत्कार।।
टूटा तारा देख कर, माता के मन-प्राण |
एकमात्र वर माँगते, हो जग का कल्याण ||150
टूटे यदि विश्वास तो, काम न आये तर्क।
विष खाओ चाहे कसम, पड़े न रविकर फर्क।।
टका टके से मत बदल, यह विनिमय बेकार ।
दो विचार यदि लो बदल, होंगे दो दो चार।।
टूट सहारा झूठ का, बची बेंत की मूठ।
झूठ-मूठ दे सांत्वना, भाग्य-भरोसा रूठ।।
ठोकर खाकर हो गयीं, चीजें चकनाचूर।
पर ठोकर खाकर मनुज , कामयाब भरपूर।।
तेरे जाने मात्र से, कहाँ मिलेगा चैन।
याददाश्त जाये चली, या मुँद जाएँ नैन।
तन्त्र-मन्त्र-संयन्त्र को, दे षडयंत्र हराय।
शकुनि-कंस की काट है, केवल कृष्ण उपाय।।
तन चमके बरतन सरिस, तभी बढ़े आसक्ति।
कौन भला मन को पढ़े, रविकर चालू व्यक्ति।।
तन्हाई में कर रही, यादें रविकर छेद।
रिसे उदासी छेद से, टहले प्रेम सखेद।।
तनातनी तमके तनिक, रिश्ते हुवे खराब।
थोडा झुकना सीख लो, मत दो उन्हें जवाब।।
तेरे हर गुरु से रहा, ज्यों मैं सदा सचेत।
मेरे शिष्यों से रहो, त्यों ही तुम-समवेत्।।
तरु-शाखा कमजोर, पर, गुरु-पर, पर है नाज ।
कभी नहीं नीचे गिरे, छुवे गगन परवाज ।।160
तेज धूप-वाष्पीकरण, फिर संघनन-पयोद।
वर्षा-ऋतु से खिलखिला, हँसती माँ की गोद।।
दो अवश्य तुम प्रति-क्रिया, दो शर्तिया जवाब।
लेकिन संयम-सभ्यता, का भी रखो हिसाब।।
दिल-दिमाग हर अंग पे, रविकर पड़े निशान।
कहीं छुरी बेलन कहीं, कैंची कहीं जुबान।।
दिल में ज्यों-ज्यों उतरते, तरते जाते प्राण।
लेकिन दिल से उतरते, करते प्राण प्रयाण।।
दिल से करदी बेदखल, दिखला दी औकात।
रहता अब बोरा बिछा, धत् लैला की जात ।।
दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।
दर्दे-दिल को आँख में, छुपा रहे जब आम।
रविकर की मुस्कान में, छुपते दर्द तमाम।।
दुख में जीने के लिए, तन मन जब तैयार।
छीन सके तब कौन सुख, रविकर इस हरबार।।
देखो पत्थर मील का, दूर हजारों मील।
उठो जगो आगे बढ़ो, मत दो रविकर ढील।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।
आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
दाम चुका दाम्पत्य का, अस्त-व्यस्त पति पस्त।
पीर लिखी तकदीर में, नैन-बैन से त्रस्त।।
देरी में हामी भरें, जल्दी में इनकार।
रविकर यह आदत बुरी, कर ले शीघ्र सुधार।।
दायें रखकर शून्य को, हुआ दस गुणित अंक।
सज्जन भी तो शून्य सम, दायें रखो निशंक।।
नजर-तराजू तौल दे, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, करे हमेशा दंग।।
दोनो हाथों से रहा, रविकर माल बटोर।
यद्यपि खाली हाथ ही, जायेगा उस छोर।।170
दिया कहाँ परिचय दिया, परिचय दिया उजास।
कर्मशील का कर्म ही, दे परिचय बिंदास ।।
दुश्मन घुसा दिमाग में, करे नियंत्रित सोच।
जगह दीजिए दोस्त को, दिल में नि:संकोच।।
देह जलेगी शर्तिया, लेकर आधा पेड़।
दो पेड़ों को दो लगा, दो आंदोलन छेड़।।
दिनभर पत्थर तोड़ के, करे नशा मजदूर।
रविकर कुर्सी तोड़ता, दिखा नशे में चूर।।
दे कम ज्यादा कामना, क्रमश: सुख दुख मित्र।
किन्तु कामना शून्य-मन, दे आनन्द विचित्र।।
धर्मोलंघन, पर-अहित, सह के निज अपमान।
करे जमा धन, किन्तु कब, सुख पाया इंसान।।
धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।
धूप-हौसले से अगर, पिघले हिम-परवाह |
जल-प्रवाह में भी मिले, रविकर जीवन थाह ।।
धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||
धत तेरे की री सुबह, तुझ पर कितने पाप।
ख्वाब दर्जनों तोड़ के, लेती रस्ता नाप।।
नहीं सफाई दो कहीं, यही मित्र की चाह |
शत्रु करे शंका सदा, करो नहीं परवाह ||180
नई परिस्थिति में ढलो, ताल-मेल बैठाय।
करो मित्रता धैर्य से, काहे जी घबराय।।
नींद शान्ति पानी हवा, साँस खुशी उजियार।
मुफ्तखोर लेकिन करें, महिमा अस्वीकार।।
नोटों की गड्डी खरी, ले खरीद हर माल।
किन्तु भाग्य परखा गया, सिक्का एक उछाल।।
नेह-जहर दोपहर तक, हहर हहर हहराय।
देह जलाये रात भर, फिर दिन भर भरमाय।।
नीरसता तो मृत्यु की, जिभ्या पर आसीन।
रविकर जीवन यदि रसिक, कौन सके फिर छीन।।
नीयत रखो सुथार की, करो भूल स्वीकार।
इन भूलों से शर्तिया, होगा बेड़ापार।।
निंदा की कर अनसुनी, बढ़ मंजिल की ओर।
मंजिल मिलते ही रुके, बेमतलब का शोर।।
नोटों की गड्डी खरी, ले खरीद हर माल।
किन्तु भाग्य परखा गया, सिक्का एक उछाल।।
नंगे बच्चे को रही, मैया थप्पड़ मार।
लेकिन नंगा आदमी, बच जाता हरबार।।
नहीं मूर्ख बुजदिल नहीं, हुनरमंद वह व्यक्ति।
निभा रहा सम्बन्ध जो, यद्यपि हुई विरक्ति।।
प्रेम परम उपहार है, प्रेम परम सम्मान।
रविकर खुश्बू सा बिखर, निखरो फूल समान।।
प्रभु सुंदरता सोम में, रवि में प्रभु की शक्ति।
सुंदरतम कृति ईश की, है रविकर हर व्यक्ति।।
पैदा होते ही थमे, रविकर बढ़ती आयु।
संग-संग घटने लगे, छिति-नभ-जल-शुचि-वायु।।190
पहले तो लगती भली, फिर किच-किच प्रारम्भ।
रविकर वो बरसात सी, लगी दिखाने दम्भ।।
प्रीति-पीर पर्वत सरिस, हिमनद सा नासूर।
रविकर की संजीवनी, रही दूर से घूर।।
पैर न ढो सकते बदन, किन्तु न कर अफसोस।
पैदल तो जाना नही, तत्पर पास-पड़ोस ।।
प्रभु से माँगे भीख फिर, करे दान नादान।
शिलापट्ट पर नाम लिख, गर्व करे इन्सान।।
पकड़ गुरू का हाथ तू, कर दुनिया की सैर।।
कभी पकड़ने क्यों पड़े, फिर गैरों के पैर।।
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, खोजो नित्य जवाब।।
प्रश्नपत्र सी जिन्दगी, विषयवस्तु अज्ञात।
हर उत्तर उगलो तुरत, वरना खाओ मात।।
पैसे से ज्यादा बुरी, और कौन सी खोज |
किन्तु खोज सबसे भली, परखे रिश्ते रोज ||
पहले दुर्जन को नमन, फिर सज्जन सम्मान।
पहले तो शौचादि कर, फिर कर रविकर स्नान।।
पानी मथने से नहीं, निकले घी श्रीमान |
साधक-साधन-संक्रिया, ले सम्यक सामान ||200
बीज उगे बिन शोर के, तरुवर गिरे धड़ाम।
मौन-सृजन प्रायः सुने, विध्वंसक कुहराम।।
बिटिया रो के रह गई, शिक्षा रोके बाप।
खर्च करे कल ब्याह में, ताकि अनाप-शनाप।।
बहुत व्यस्त हूँ आजकल, कहने का क्या अर्थ |
अस्त-व्यस्त तुम वस्तुत:, समय-प्रबंधन व्यर्थ ||
बेवकूफ बुजदिल सही, सही हमेशा पीर।
किन्तु रहा रिश्ता निभा, दिल का बड़ा अमीर।।
बना घरौंदे रेत के, करे प्रेम आराम।
करे घृणा का ज्वार तब, रविकर काम-तमाम।।
बासी-मुँह पढ़कर मनुज, जिसको दिया बिसार।
कीमत जाने वक्त की, रविकर वह अखबार।
बड़ा वक्त से कब कहाँ, कोई भी कविराज।
कहाँ जिन्दगी सी गजब, कोई कविता आज।।
बड़ी चुनौती है यही, सभी चाहते प्यार ।
किन्तु जहाँ देना पड़ा, कर बैठें तकरार ॥
बता सके असमय-समय, जो धन अपने पास।
किन्तु समय कितना बचा, क्या धन को अहसास।।
बदले मौसम सम मनुज, वर्षा गर्मी शीत।
रंग-ढंग बदले गजब, गिरगिटान भयभीत।।210
बिके झूठ सबसे अधिक, बहुत बुरी लत मोह।
मृत्यु अटल है इसलिए, कभी बाट मत जोह।।
बत्ती कली सुबुद्धि जब, गुल हो जाय हुजूर।
चोर भ्रमर दीवानगी, मौज करें भरपूर।।
बुझी-बुझी आँखे लिए, ताके दुर्ग बुजुर्ग।
बुर्ज-बुर्ज पे घर बने, घर घर में कुछ दुर्ग।।
बुरे वक्त में बुद्धि भी, रविकर चरती घास।
इसीलिए तो आदमी, सदा वक्त का दास।।
बिन गलती मांगी क्षमा, दिया कलह को टाल।
है रिश्ते की अहमियत, रविकर नहीं मलाल।।
बिन डगमग करते रहें, दो डग मग में कर्म।
गर्व नहीं अगला करे, पिछला करे न शर्म।
बिजली गुल, गुल का नशा, और शोर-गुल तेज।
बाँट गुलबदन गुलगुला, सजी गुलगुली सेज।।
बदनामी चुपचाप हो, शोहरत करती शोर ।
चलो खिलायें गुल नये, नाम होय चहुंओर।।
बिन जाने निन्दा करे, क्षमा करूँ अज्ञान।
अगर जान लेता मुझे, छिड़का करता जान।।
बुरा-भला खोता-खरा , क्षमा करूँ अज्ञान।
अगर जान लेते मुझे, छिड़का करते जान।।
बीज उगे बिन शोर के, तरुवर गिरे धड़ाम।
सृजन-शक्ति अक्सर सुने, विध्वंसक कुहराम।।
बँधी रहे उम्मीद तो, कठिन-समय भी पार |
सब अच्छा होगा कहे, यही जीवनाधार |
बंद घड़ी भी दे जहाँ, सही समय दो बार।
वहाँ किसी भी वस्तु को, मत कहना बेकार।।
बन्धक बने विचार कब, पाते ही जल-खाद।
होते पुष्पित-पल्लवित, बनते जन-संवाद ||
परछाई से क्यों डरे, रे मानुस की जात।
वहीं कहीं है रोशनी, सुधरेंगे हालात।।
परमात्मा दिखता नहीं, कहे सभी शंकालु।
जब कुछ भी सूझे नहीं, दिखते वही कृपालु।
परछाईं ख्वाहिश बढ़े, घटते कद औकात ।
रविकर पक्का मानिए, होगी लम्बी रात।।220
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, रविकर खोज जवाब।।
पूरे होंगे किस तरह, कहो अधूरे ख्वाब।
सो जा चादर तान के, देता चतुर जवाब।।
प्रतिभा प्रभु से प्राप्त हो, देता ख्याति समाज ।
मनोवृत्ति मद स्वयं से, रविकर आओ बाज।।
पाँच साल गायब रहा, हुआ स्वार्थ ज्यों सिद्ध।
द्वार-द्वार मँडरा रहा, सिर गिन गिन के गिद्ध।
प्रभु से माँगे भीख फिर, करे दान नादान।
शिलापट्ट पर नाम लिख, गर्व करे इन्सान।।
प्रभु से सबने पा रखी, दो पारखी निगाह।
समलोचना एक से, दे दूसरी सलाह।।।
पहले कुल पत्ते झड़े, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।
पड़े पुष्प प्रभु-पाद में, कण्ठ-माल से खिन्न।
सहे सुई की पीर जो, वो ही भक्त-अभिन्न।।
पीछे पीछे वक्त के, भाग रहा अनुरक्त।
पकड़ न पाया वह कभी, और न पलटा वक्त।
पीछे-पीछे वक्त के, रहा भागता भक्त।
पकड़ न पाया वह कभी, पलट न पाया वक्त।।
पल्ले भी मिलते गले, घरभर में था प्यार।
अब एकाकी कक्ष सब, सदमें में दीवार।।
पढ़े-बढ़े बेटी बचे, बदला किन्तु बिधान।
वंश-वृद्धि हित अब बचा, रविकर हर संतान।।
पीड़ित दुहराता रहे, वही समस्या रोज।
निराकरण नायक करे, समुचित उत्तर खोज।।230
पल्ले पड़े न मूढ़ के, मरें नहीं सुविचार।
समझदार समझे सतत्, चिंतक धरे सुधार।।
फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।
फूले-फूले वे फिरें, खुद में रहे भुलाय |
फिर भी दूँ उनको दुआ, फूले-फले अघाय ||
फल मन के विपरीत यदि, हरि-इच्छा कह भूल।
किन्तु मान ले हरिकृपा, यदि मन के अनुकूल।
भलमनसाहत पर करे, जब रविकर संदेह।
बचें असर से कब भला, देह-देहरी-गेह।।
भूख भक्ति से व्रत बने, भोजन बनता भोग।
पानी चरणामृत बने, व्यक्ति मनुज संयोग।।
भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।
भँवर सरीखी जिंदगी, हाथ-पैर मत मार।
देह छोड़, दम साध के, होगा बेडा पार ।।
भजन सरिस रविकर हँसी, प्रभु को है स्वीकार।
हँसा सके यदि अन्य को, सचमुच बेड़ापार।।
भरो भरोसे हित वहाँ, चाहे तुम जल खूब।
चुल्लू भर भी यदि लिया, कह देगी जा डूब।।240