खुद से नाड़ा बाँध ले, वो ही बाल सयान।
ढीला होने दे नहीं, वही तरुण बलवान।।
ढीला होने दे नहीं, वही तरुण बलवान।।
मित्र सुदामा के चरण, धुलें द्वारिकानाथ।
शक्ति कहाँ थी अन्यथा, बैठ सके वो साथ।।
शक्ति कहाँ थी अन्यथा, बैठ सके वो साथ।।
करें न सज्जन खुद प्रकट, नापसन्द व्यवहार।
देते वे अवसर अपितु, कर लो ताकि सुधार।
अच्छी बातें कह चुका, जग तो लाखों बार।
किन्तु करेगा कब अमल, कब होगा उद्धार।।
अच्छी आदत वक्त की, करता नहीं प्रलाप।
अच्छा हो चाहे बुरा, गुजर जाय चुपचाप।।
अर्थ वन्दना के छले, खले धूप की गंध।मदन बदन पर जो चढ़े, तोड़े हर कटिबंध।।
अपने पर इतरा रहे, तीन ढाक के पात |
तुल जाए तुलसी अगर, दिखला दे औकात ||
अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा में गये, रविकर के दिन चार।।
अनुभव का अनुमान से, हरदम तिगुना तेज।
फल बिखरे अनुमान का, अनुभव रखे सहेज।।
अजगर सो के साथ में, रोज नापता देह।
कर के कल उदरस्थ वह, सिद्ध करेगा नेह।।
अपनी गलती पर बने, रविकर अगर वकील।
जज बन कर खारिज़ करे, पत्नी सभी दलील।।
अन्य पराजय पीर दे, पराधीनता अन्य।
पतन स्वयं के दोष से, रह रविकर चैतन्य ।।
आँख न देखे आँख को, किन्तु कर्मरत संग |
संग-संग रोये-हँसे, भाये रविकर ढंग || 10
अजनबियों के शोर से, पड़े न रविकर फर्क |
लेकिन उनके मौन से, गया कलेजा दर्क ||
अग्रेसर करता खड़े, कहाँ कभी अवरोध।
जो बाधा पैदा करें, करो न उनपर क्रोध।
अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।
अगर शिकायत एक से, कर ले उससे बात।
किन्तू कई से है अगर, खुद से कर शुरुआत।।
अगर उपस्थिति आपकी, ला सकती मुस्कान।
समझो सार्थक जिंदगी, सच में आप महान।।
आतप-आपद् में पड़े, हीरा-कॉच समान।
कॉच गर्म होता दिखा, हीरा-मन मुस्कान।
अमृत पीकर के अमर, रविकर हुए अनेक।
विष पीने वाला मगर, अमरनाथ तो एक।।
अक्सर जोड़-घटाव में, हुई जिंदगी फेल।
भिन्न दशमलव शून्य का, चालू रेलमपेल।।
असफल जीवन पर हँसे, रविकर धूर्त समाज।
किन्तु सफलता पर वही, ईर्ष्या करता आज।।
असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही तो श्रेष्ठ गुरु, कर वन्दना सहर्ष।।20
अपनों से होना खफा, बेशक है अधिकार।
मान मनाने से मगर, यदि अपनों से प्यार।।
आप खुशी अनुभव करें, कथा सूक्तियाँ छाप।
रविकर उनपर छंद रच, करे कौन सा पाप।।
"आकांक्षा के पर क़तर, तितर बितर कर स्वप्न |
दें अपने ही दुःख अगर, निश्चय बड़े कृतघ्न ||
आहों से कैसे भरे, मन के गहरे जख्म ।
मरहम-पट्टी समय के, जख्म करेंगे ख़त्म ।।
आत्मा भटके, तन मरे, कल-परसों की बात।
तन भटके, आत्मा मरे, रविकर आज हठात।।
उलझे बुद्धि विचार से, लगे लक्ष्य भी दूर |
किन्तु भक्ति कर दे सुगम, सुलझे मार्ग जरूर।।
उधर तमन्ना रो उठी, इधर सिसकती पीर।कहाँ करे फरियाद फिर, रविकर अधर अधीर।।
उछल-उछल अट्टालिका, ले शहरों को घेर।
वायु-अग्नि-क्षिति-जल-गगन, आँखे रहे तरेर।।
आकांक्षा छूने चली, उछल उछल आकास |
लेकिन नखत प्रयास का, उड़ा रहे उपहास ।।
ऊँचे दामों में बिका, रविकर शाश्वत् झूठ।
सत्य नहीं सम्मुख टिका, बेमतलब जग रूठ।।
आगे पीछे बगल में, आशा अनुभव सत्य।।
दिल में दृढ़-विश्वास यदि, मिले शर्तिया लक्ष्य।।
अर्थ पिता से ले समझ, होता क्या संघर्ष।
संस्कार माँ दे रही, दे बलिदान सहर्ष ||
इश्क सरिस होता नहीं, रविकर घर का काम।
दिन-प्रति-दिन करना पड़े, हो आराम हराम।।30
ईश-कथा सी जन-व्यथा, रविकर आदि न अन्त।
करते यद्यपि कोशिशें, हम जीवनपर्यन्त।।
इंद्रजाल पर भी किया, जो कल तक विश्वास।उसे हकीकत भी नहीं, अब आती है रास।।
इक्का मिला यकीन का, मित्र खोजना बंद |
किन्तु भरोसे के मिलें, फिर भी जोकर चंद ||
उठे धुँआ अंतस जले, सहकर दर्द-विछोह।
लेकिन मुस्काते अधर, करते दिल से द्रोह।|
उड़ो नहीं ज्यादा मियां, धरो धरा पर पैर।
गुरु-गुरूर देगा गिरा, उड़ो मनाते खैर ।।
आपेक्षा यदि अत्यधिक, सके उपेक्षा तोड़।
चादर यदि जाये सिकुड़, कुढ़ मत, घुटने मोड़।।
आसमान में दूर तक, तक तक हारा जंतु ।
पानी तो पूरा पड़ा, प्यासा मरा परन
आत्मा भटके, तन मरे, कल-परसों की बात।
तन भटके, आत्मा मरे, रविकर आज हठात।।
आतप-आफत में पड़ा, हीरा कांच समान।
कांच गर्म होता दिखा, हीरा-मन मुस्कान।
आँधी से भी अतिविकट, रविकर क्रोध-प्रहार।
गिरे इधर दीवार तो, उठे उधर दीवार।।
आँधी-पानी-बर्फ से, बचा रही जो टीन।
भड़भड़ का आरोप सुन, हो जाती गमगीन ||40
कर रविकर कल से कलह, सुलह अकल से आज।
फिर भी हो यदि मन विकल, प्रभु को दे आवाज।।
कभी नहीं आती उसे, रविकर तेरी याद।
पहले ही तू कर चुकी, याददाश्त बरबाद।।
करो माफ दस मर्तवा, पड़े न ज्यादा फर्क।
किन्तु भरोसा मत करो, उनसे रहो सतर्क।।
कवि-गिरोह की जब गिरा, रही गिरावट झेल।
अली-कली से ही बिंध्यो, दियो राष्ट्र-हित ठेल।।
कंधे पर चढ़ बाप के, जो छूता आकाश।उनको कंधा दे वही, करे जमीन तलाश।।
कई छोड़कर के गये, सहकर के अपमान ।
निभा रहा रिश्ता मगर, रविकर मन नादान।।
क्यूं दिमाग में घेरता, दुश्मन ज्यादा ठौर।
शुभचिन्तक दिल में बसे, जगह दीजिए और।।
कुल के मंगलकार्य में, करे जाय तकरार।
हर्जा-खर्चा ले बचा, चालू पट्टीदार ।।
कर न सके पहचान माँ, खोये यदि नवजात।
पर माँ की पहचान कब, है शिशु से अज्ञात।।
करें याद जब हम तुम्हें, करो हमें तुम याद।
फिर भी दावा साथ का, वाह वाह उस्ताद।।
करे प्रशंसा मूर्ख जब, खूब बघारे शान।
सुनकर निंदा हो दुखी, तथाकथित विद्वान।।50
किसे सुनाने के लिए, ऊँची की आवाज।
कर ऊँचा व्यक्तित्व तो, सुने अवश्य समाज।।
करे कदर कद देख के, जहाँ मूर्ख इंसान |
निरंकार-प्रभु को भला, ले कैसे पहचान ||
कुछ तो तेरे पास है, जिनसे वे महरूम।
निंदा करने दो उन्हें, तू मस्ती से घूम।।
कुत्ते भागे दुम दबा, जूता काटे पैर।
रविकर लो मरहम लगा, अपनों से क्या बैर।।
करे वेषभूषा असर, लेकिन क्षणिक प्रभाव।
दे निखार व्यक्तित्व को, बोली सँग बर्ताव।
करे गर्व क्या रूप पर, गुण पर भी क्या गर्व।
ज्ञान क्षमा बिन व्यर्थ मनु, क्रमिक सजाओ सर्व।।
कर्तव्यों का निर्वहन, कभी न रहता याद।
पर अधिकारों के लिए, करे रोज बकवाद।।
कबूतरों को काटकर, अमन-चमन के गिद्ध।।
अपना उल्लू कर रहे, सीधा और समृद्ध।।
कलमबद्ध हरदिन करें, वह तो रविकर पाप।
किन्तु कभी रखते नहीं, इक ठो दर्पण आप।।
कागज का गज लो सुमिर, रचो लोक हित छन्द।
छोड़-छाड़ छलछन्द छल, छको अमिय-मकरन्द।
काट हथेली को रही, हर पन्ने की कोर।
खिंची भाग्य रेखा नई, खिंचा तुम्हारी ओर।।60
कई साल से गलतियाँ, रही कलेजा साल।
रविकर जब गुच्छा बना, अनुभव मिला कमाल।।
कभी नहीं रविकर हुआ, दुर्जन-मन संतुष्ट।
अपने, अपने-आप से, रहे अनवरत रुष्ट।।
कभी सुधा तो विष कभी, मरहम कभी कटार।
आडम्बर फैला रहे, शब्द विभिन्न प्रकार।।
कशिश तमन्ना में रहे, कोशिश कर भरपूर।
लक्ष्य मिले अथवा नही, अनुभव मिले जरूर।।
केले सा जीवन जियो, बनना नहीं बबूल |
नीति-नियम प्रतिबंध कुल, दिल से करो क़ुबूल ||
किया बुढ़ापे के लिए, जो लाठी तैयार।
मौका पाते ही गयी, वो तो सागर पार।
कलियों के सौंदर्य का, करे मधुप गुणगान।गुल बनते ही वह कली, करे कैद ले जान।
कहो न उसको मूर्ख तुम, करो न उसपर क्रोध।
आप भला तो जग भला, रविकर सोच अबोध।।
कर जीवन अब चेतकर, "ख्वाहिश" से परहेज।
"वक्त" दवा हर मर्ज की, असर सनसनीखेज।।
कौन जन्म-पद-जाति को, रविकर सका नकार।
किन्तु बड़प्पन का रहा, संस्कार आधार।।
किया सैकड़ों गलतियाँ, फिर पाया ईनाम।
इक सुंदर सा नाम दे, लगा बिताने शाम।।70
करे फैसला क्रोध यदि, वादा कर दे हर्ष।
शर्मसार होना पड़े, रविकर का निष्कर्ष।।
करे कदर कद देख के, जहाँ मूर्ख इंसान |
निरंकार-प्रभु को भला, ले कैसे पहचान ||
करे हथेली कर्म तो, बदलेगी तकदीर।
मुट्ठी भींचे व्यर्थ ही, रविकर भाग्य-लकीर।।
कभी पकड़ने क्यों पड़ें, तुम्हें गैर के पैर।
पकड़ गुरू के हाथ को, कर दुनिया की सैर।।
करे इधर की उधर नित, इधर-उधर की फेक।
टांग अड़ाना काम में, देता खुशी अनेक।।
करे बुराई विविधि-विधि, जब कोई शैतान |
चढ़ी महत्ता आपकी, उसके सिर पहचान ||
करती गर्व विशिष्टता, अगर शिष्टता छोड़।
क्या विशिष्ट अंदर भरा, देख खोपड़ी तोड़।।
कड़ुवे-सच से जब कई, गए सैकड़ों रूठ।
तब जाकर सीखा कहीं, रविकर मीठा-झूठ।।
कान लगाकर सुन रहा, जब सारा संसार।
रविकर सुनता दिल लगा, हर खामोश पुकार।।
खोने की दहशत-सनक, हद पाने की चाह।
भटक रहा रविकर मनुज, मठ-मंदिर-दरगाह।।80
खरी बात कड़ुवी दवा, रविकर मुंह बिचकाय ।
खुशी खुशी तू कर ग्रहण, ग्रहण व्याधि हट जाय।।
खड्ग तीर चाकू चले, बरछी चले कटार।
कौन घाव गहरा करे, देखो ताना मार ।।
खा के नमक हराम का, रक्तचाप बढ़ जाय।
रविकर नमकहराम तो, लेता किन्तु पचाय।।
खोल हवा की गाँठ जब, चिड़िया चुगती खेत।
दिल बैठा खिल्ली उड़ी, रविकर हुआ अचेत।।
खले मूढ़ की वाह तब, समझदार जब मौन।
काव्य शक्ति-सम्पन्न तो, कवि को भूले कौन।।
गलाकाट प्रतियोगिता, सह समझौतावाद।
मार मनुजता को सकें, बना सकें जल्लाद।।
गिरे स्वास्थ्य दौलत गुमे, विद्या भूले भक्त।
मिले वक्त पर ये पुन:, मिले न खोया वक्त।।
गुरु बिन मिले न मोक्ष सुन, रविकर करे कमाल।
गुरु-गुरूर लेता बढ़ा, बनता गुरु-घंटाल।|
गुजरे अच्छे दिन सभी, गुजरे समकालीन।
साक्ष्य पेश कैसे करूँ, ली जब लील जमीन ।।
घटना घटती घाट पे, डूब गए छल-दम्भ।
होते एकाकार दो, तन घटना आरम्भ।।90
कच्चे घर सच्चे मनुज, गये समय की बात।
रहे घरौंदे जो बना, उनकी क्या औकात ।।
कहो नहीं कठिनाइयाँ, प्रभु से सुबहो-शाम।
कठिनाई को बोल दो, रविकर सँग हैं राम।।
करो प्रार्थना या हँसो, दोनो क्रिया समान।
हँसा सको यदि अन्य को, देंगे प्रभु वरदान।।
कह रविकर निज मुश्किलें, करो न प्रभु को तंग।
अपितु मुश्किलों से कहो, प्रभु हैं मेरे संग।।
गिन-गिन गलती गैर की, त्यागे दुनिया प्राण।
जो अपनीे गलती गिने, उसका हो कल्याण।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।
गली गली मत गाइये, दिल का दर्द हुजूर।
घडी-साज अतिशय कुशल, देता घडी सुधार |
बिगड़ी जब उसकी घडी, गया घड़ी सब हार ॥
क्षमा माँगना वीरता, देना शक्ति प्रतीक।रहें सुखी फिर भूलकर, रविकर सूक्ति सटीक।।
चतुराई छलने लगे, ज्ञान बढ़ा दे दम्भ।
सोच भरे दुर्भाव तब, पतन होय प्रारम्भ।।
चंद-चुनिंदा मित्र रख, जिन्दा शौक-तमाम।
ठहरेगी बढ़ती उमर, रश्क करेंगे आम।।
चाह नहीं बदलाव की, शक्ति न पाये पार।
तो पेचीदा जिंदगी, जस की तस स्वीकार।।
चुनौतियां देती बना, ज्यादा जिम्मेदार।
जीवन बिन जद्दोजहद, हो निष्फल बेकार।100
चींटी से श्रम सीखिए, बगुले से तरकीब।
मकड़ी से कारीगरी, आये लक्ष्य करीब।।
चार दिनों की जिंदगी, कहने का क्या अर्थ।
जीना सीखा देर से, सच आकलन तदर्थ।|
चार दिनों की जिन्दगी, बिल्कुल स्वर्णिम स्वप्न।
स्वप्न टूटते ही लुटे, देह-नेह-धन-रत्न।।
चूड़ी जैसी जिंदगी, होती जाये तंग।
काम-क्रोध-मद-लोभ से, हुई आज बदरंग।।
चाहे जितना रंज हो, कसे तंज पर तंज।
किन्तु कभी मारे नहीं, अपनों को शतरंज।।
चूहे पहले भागते, डूबे अगर जहाज ।
गिरती दिखे दिवाल जो, ईंट न करती लाज ।
चक्षु-तराजू तौल के, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।
चुनौतियों को यूँ कभी, करो न सीमित मीत।
अपितु चुनौती दो सभी, सीमाओं को जीत।।
चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।
चले शूल पर तो चुभा, जूते में बस एक।
पर उसूल पर जब चले, चुभते शूल अनेक।।110
चला कोहरा को हरा, कदम सटीक उठाय।
धीरे धीरे ही सही, मंजिल आती जाय।।
चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||
चींटी से श्रम सीखिए, बगुले से तरकीब।
मकड़ी से कारीगरी, आये लक्ष्य करीब।।
छिद्रान्वेषी मक्खियाँ, करती मन-बहलाव।
छोड़े कंचन-वर्ण को, खोजे रिसते घाव।।
जिम्मेदारी की दवा, पीकर रविकर मस्त।
दौड़-धूप दिनभर करे, किन्तु न होता पस्त।।
जीवन की संजीवनी, हो हौंसला अदम्य |
दूर-दृष्टि, हो प्रभु कृपा, पाए लक्ष्य अगम्य |
जोश शान्ति हिम्मत सहित, बुझता दीप समृद्ध।
किन्तु दीप उम्मीद का, करे कार्य कुल सिद्ध।।
जिसपर अंधों सा किया, लगातार विश्वास।
अंधा साबित कर गया, रविकर वह सायास।।
जब पीकर कड़ुवी दवा, मुँह बिचकाये बाल।
खरी बात सुन कै करें, तब जवान तत्काल।
जल है तो कल है सखे, जल बिन जग जल जाय |
कल बढ़ते कल-कल घटे, कल-बल कलकलियाय |120
जब गठिया पीड़ित पिता, जाते औषधि हेतु।
डॉगी को टहला रहा, तब सुत गाँधी सेतु।।
जब घमंड हो ज्ञान का, अधिक-आत्मविश्वास।
खुद की गलती का भला, कैसे हो अहसास।।
जब भी खींचे जिंदगी, हट पीछे निर्भीक।
वेधेगी वह तीर सा, निश्चय लक्ष्य सटीक।।
जब सीखा था बोलना, रही उम्र दो साल।किन्तु बोलना क्या किसे, सीख न पाया लाल।।
जीत अनैतिकता रही, रिश्ते हुए स्वछंद।
लंद-फंद छलछंदता, हैं हौसले बुलंद।।
जीवन में बदलाव हित, अवसर मिले अनेक |
समय बदलने के लिए, जीवन-अवसर एक ||
जो बापू के चित्र के, पीछे रही लुकाय।
वही छिपकली रूप में, जी भर जीव चबाय ।।
जार जार रो, जा रही, रोजा में बाजार।
रोजाना गम खा रही, सही तलाक प्रहार।।
जीवन-नौका तैरती, भव-सागर विस्तार।
लोभ-मोह सम द्वीप दस, रोक रहे पतवार।।
जल-धारा अनुकूल पा, चले जिंदगी नाव ।
धूप-छाँव लू-कँपकपी, मिलते गए पड़ाव ।।
जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
तुम अच्छे लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।130
जीवन-फल हैं शक्ति-धन, मूल मित्र-परिवार।
हो सकते फल बिन मगर, मूल जीवनाधार।।
जीवन जिये गरीब सा, पैसा रहा बचाय।
ताकि धनी बनकर मरे, वाह वाह सदुपाय ।।
जी जी कर जीते रहे, जग जी का जंजाल।
जी जी कर मरते रहे, जीना हुआ मुहाल।।
जीवन की संजीवनी, हो हौंसला अदम्य |
दूर-दृष्टि, प्रभु की कृपा, पाए लक्ष्य अगम्य ॥
जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।
ज़िंदा है माँ जानता, इसका बड़ा सुबूत ।
आज पौत्र को पालती, पहले पाली पूत ।|
जिनके होने का हुआ, कभी नहीं अहसास |
इस अनाथ से पूछ लो, वे थे कितने ख़ास |
जर-जमीन निगला मगर, बुझे नहीं यह प्यास |
है गरीब का खून तो, दे दो तीन गिलास ||
जीर्ण शीर्ण प्रारम्भ में, अग्नि रोग ऋण पाप।
ज्यों ज्यों ये रविकर बढ़ें, बढ़े घोर संताप।।
जहाँ मुसीबत खोल दे, कुछ लोगों की आँख
आँख मूँद के मूढ़ मन, रहा वहीं पर काँख ||140
जहाँ धनात्मक सोच पर, सारे विष बेकार।वहीं ऋणात्मक सोच पर, गई दवाएं हार।।
जिम्मेदारी की दवा, पीकर रविकर मस्त।
दौड़-धूप दिनभर करे, किन्तु न होता पस्त।।
जिरह-बगावत-फैसला, कर बैठे अल्फाज।
क्यों बिन देखे आइना, बाहर निकले आज।।
जर्जर होते जा रहे, पल्ला छत दीवार।
खोज रहा घर दूसरा, रविकर सागर पार।।।।
जब भी नाचें ख्वाहिशें, सत्ता खाये खार।
दे अनारकलियाँ चुना, बना-बना दीवार।।
जीवन की कठिनाइयाँ, दे उनको अवसाद ।
किन्तु छुपा सामर्थ्य वे, मुझे कराती याद।।
छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।
छूकर निकली जिन्दगी, सिहरे रविकर लाश।
जख्म हरे फिर से हुए, फिर से मौत हताश।।
छिद्रान्वेषी मक्खियाँ, करती मन-बहलाव।
छोड़े कंचन-वर्ण को, खोजे रिसते घाव।।
छतरी काम न कर सके, बारिश में कुछ खास।
विकट चुनौती हेतु दे, किन्तु आत्मविश्वास।|
सत्य बिछा के पाँवड़े, नीति करे सत्कार।।
टूटा तारा देख कर, माता के मन-प्राण |
एकमात्र वर माँगते, हो जग का कल्याण ||150
टूटे यदि विश्वास तो, काम न आये तर्क।
विष खाओ चाहे कसम, पड़े न रविकर फर्क।।
टका टके से मत बदल, यह विनिमय बेकार ।
दो विचार यदि लो बदल, होंगे दो दो चार।।
टूट सहारा झूठ का, बची बेंत की मूठ।
झूठ-मूठ दे सांत्वना, भाग्य-भरोसा रूठ।।
ठोकर खाकर हो गयीं, चीजें चकनाचूर।पर ठोकर खाकर मनुज , कामयाब भरपूर।।
तेरे जाने मात्र से, कहाँ मिलेगा चैन।
याददाश्त जाये चली, या मुँद जाएँ नैन।
तन्त्र-मन्त्र-संयन्त्र को, दे षडयंत्र हराय।
शकुनि-कंस की काट है, केवल कृष्ण उपाय।।
तन चमके बरतन सरिस, तभी बढ़े आसक्ति।
कौन भला मन को पढ़े, रविकर चालू व्यक्ति।।
तन्हाई में कर रही, यादें रविकर छेद।
रिसे उदासी छेद से, टहले प्रेम सखेद।।
तनातनी तमके तनिक, रिश्ते हुवे खराब।
थोडा झुकना सीख लो, मत दो उन्हें जवाब।।
तेरे हर गुरु से रहा, ज्यों मैं सदा सचेत।
मेरे शिष्यों से रहो, त्यों ही तुम-समवेत्।।
तरु-शाखा कमजोर, पर, गुरु-पर, पर है नाज ।
कभी नहीं नीचे गिरे, छुवे गगन परवाज ।।160
तेज धूप-वाष्पीकरण, फिर संघनन-पयोद।
वर्षा-ऋतु से खिलखिला, हँसती माँ की गोद।।
दो अवश्य तुम प्रति-क्रिया, दो शर्तिया जवाब।
लेकिन संयम-सभ्यता, का भी रखो हिसाब।।
दिल-दिमाग हर अंग पे, रविकर पड़े निशान।
कहीं छुरी बेलन कहीं, कैंची कहीं जुबान।।
दिल में ज्यों-ज्यों उतरते, तरते जाते प्राण।
लेकिन दिल से उतरते, करते प्राण प्रयाण।।
दिल से करदी बेदखल, दिखला दी औकात।
रहता अब बोरा बिछा, धत् लैला की जात ।।
दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।
दर्दे-दिल को आँख में, छुपा रहे जब आम।
रविकर की मुस्कान में, छुपते दर्द तमाम।।
दुख में जीने के लिए, तन मन जब तैयार।
छीन सके तब कौन सुख, रविकर इस हरबार।।
देखो पत्थर मील का, दूर हजारों मील।
उठो जगो आगे बढ़ो, मत दो रविकर ढील।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
दाम चुका दाम्पत्य का, अस्त-व्यस्त पति पस्त।
पीर लिखी तकदीर में, नैन-बैन से त्रस्त।।
देरी में हामी भरें, जल्दी में इनकार।
रविकर यह आदत बुरी, कर ले शीघ्र सुधार।।
दायें रखकर शून्य को, हुआ दस गुणित अंक।
सज्जन भी तो शून्य सम, दायें रखो निशंक।।
नजर-तराजू तौल दे, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, करे हमेशा दंग।।
दोनो हाथों से रहा, रविकर माल बटोर।
यद्यपि खाली हाथ ही, जायेगा उस छोर।।170
दिया कहाँ परिचय दिया, परिचय दिया उजास।
कर्मशील का कर्म ही, दे परिचय बिंदास ।।
दुश्मन घुसा दिमाग में, करे नियंत्रित सोच।
जगह दीजिए दोस्त को, दिल में नि:संकोच।।
देह जलेगी शर्तिया, लेकर आधा पेड़।
दो पेड़ों को दो लगा, दो आंदोलन छेड़।।
दिनभर पत्थर तोड़ के, करे नशा मजदूर।
रविकर कुर्सी तोड़ता, दिखा नशे में चूर।।
दे कम ज्यादा कामना, क्रमश: सुख दुख मित्र।
किन्तु कामना शून्य-मन, दे आनन्द विचित्र।।
धर्मोलंघन, पर-अहित, सह के निज अपमान।
करे जमा धन, किन्तु कब, सुख पाया इंसान।।
धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।
धूप-हौसले से अगर, पिघले हिम-परवाह |जल-प्रवाह में भी मिले, रविकर जीवन थाह ।।
धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||
धत तेरे की री सुबह, तुझ पर कितने पाप।
ख्वाब दर्जनों तोड़ के, लेती रस्ता नाप।।
नहीं सफाई दो कहीं, यही मित्र की चाह |
शत्रु करे शंका सदा, करो नहीं परवाह ||180
नई परिस्थिति में ढलो, ताल-मेल बैठाय।
करो मित्रता धैर्य से, काहे जी घबराय।।
नींद शान्ति पानी हवा, साँस खुशी उजियार।
मुफ्तखोर लेकिन करें, महिमा अस्वीकार।।
नोटों की गड्डी खरी, ले खरीद हर माल।
किन्तु भाग्य परखा गया, सिक्का एक उछाल।।
नेह-जहर दोपहर तक, हहर हहर हहराय।
देह जलाये रात भर, फिर दिन भर भरमाय।।
नीरसता तो मृत्यु की, जिभ्या पर आसीन।
रविकर जीवन यदि रसिक, कौन सके फिर छीन।।
नीयत रखो सुथार की, करो भूल स्वीकार।
इन भूलों से शर्तिया, होगा बेड़ापार।।
निंदा की कर अनसुनी, बढ़ मंजिल की ओर।
मंजिल मिलते ही रुके, बेमतलब का शोर।।
नोटों की गड्डी खरी, ले खरीद हर माल।
किन्तु भाग्य परखा गया, सिक्का एक उछाल।।
नंगे बच्चे को रही, मैया थप्पड़ मार।
लेकिन नंगा आदमी, बच जाता हरबार।।
नहीं मूर्ख बुजदिल नहीं, हुनरमंद वह व्यक्ति।
निभा रहा सम्बन्ध जो, यद्यपि हुई विरक्ति।।
प्रेम परम उपहार है, प्रेम परम सम्मान।
रविकर खुश्बू सा बिखर, निखरो फूल समान।।
प्रभु सुंदरता सोम में, रवि में प्रभु की शक्ति।सुंदरतम कृति ईश की, है रविकर हर व्यक्ति।।
पैदा होते ही थमे, रविकर बढ़ती आयु।
संग-संग घटने लगे, छिति-नभ-जल-शुचि-वायु।।190
पहले तो लगती भली, फिर किच-किच प्रारम्भ।
रविकर वो बरसात सी, लगी दिखाने दम्भ।।
प्रीति-पीर पर्वत सरिस, हिमनद सा नासूर।
रविकर की संजीवनी, रही दूर से घूर।।
पैर न ढो सकते बदन, किन्तु न कर अफसोस।
पैदल तो जाना नही, तत्पर पास-पड़ोस ।।
प्रभु से माँगे भीख फिर, करे दान नादान।
शिलापट्ट पर नाम लिख, गर्व करे इन्सान।।
पकड़ गुरू का हाथ तू, कर दुनिया की सैर।।
कभी पकड़ने क्यों पड़े, फिर गैरों के पैर।।
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, खोजो नित्य जवाब।।
प्रश्नपत्र सी जिन्दगी, विषयवस्तु अज्ञात।
हर उत्तर उगलो तुरत, वरना खाओ मात।।
पैसे से ज्यादा बुरी, और कौन सी खोज |
किन्तु खोज सबसे भली, परखे रिश्ते रोज ||
पहले दुर्जन को नमन, फिर सज्जन सम्मान।
पहले तो शौचादि कर, फिर कर रविकर स्नान।।
पानी मथने से नहीं, निकले घी श्रीमान |
साधक-साधन-संक्रिया, ले सम्यक सामान ||200
बीज उगे बिन शोर के, तरुवर गिरे धड़ाम।
मौन-सृजन प्रायः सुने, विध्वंसक कुहराम।।
बिटिया रो के रह गई, शिक्षा रोके बाप।
खर्च करे कल ब्याह में, ताकि अनाप-शनाप।।
बहुत व्यस्त हूँ आजकल, कहने का क्या अर्थ |
अस्त-व्यस्त तुम वस्तुत:, समय-प्रबंधन व्यर्थ ||
बेवकूफ बुजदिल सही, सही हमेशा पीर।
किन्तु रहा रिश्ता निभा, दिल का बड़ा अमीर।।
बना घरौंदे रेत के, करे प्रेम आराम।
करे घृणा का ज्वार तब, रविकर काम-तमाम।।
बासी-मुँह पढ़कर मनुज, जिसको दिया बिसार।
कीमत जाने वक्त की, रविकर वह अखबार।
बड़ा वक्त से कब कहाँ, कोई भी कविराज।
कहाँ जिन्दगी सी गजब, कोई कविता आज।।
बड़ी चुनौती है यही, सभी चाहते प्यार ।
किन्तु जहाँ देना पड़ा, कर बैठें तकरार ॥
बता सके असमय-समय, जो धन अपने पास।
किन्तु समय कितना बचा, क्या धन को अहसास।।
बदले मौसम सम मनुज, वर्षा गर्मी शीत।
रंग-ढंग बदले गजब, गिरगिटान भयभीत।।210
बिके झूठ सबसे अधिक, बहुत बुरी लत मोह।
मृत्यु अटल है इसलिए, कभी बाट मत जोह।।
चोर भ्रमर दीवानगी, मौज करें भरपूर।।
बुझी-बुझी आँखे लिए, ताके दुर्ग बुजुर्ग।
बुर्ज-बुर्ज पे घर बने, घर घर में कुछ दुर्ग।।
बुरे वक्त में बुद्धि भी, रविकर चरती घास।
इसीलिए तो आदमी, सदा वक्त का दास।।
बिन गलती मांगी क्षमा, दिया कलह को टाल।
है रिश्ते की अहमियत, रविकर नहीं मलाल।।
बिन डगमग करते रहें, दो डग मग में कर्म।
गर्व नहीं अगला करे, पिछला करे न शर्म।
बिजली गुल, गुल का नशा, और शोर-गुल तेज।
बाँट गुलबदन गुलगुला, सजी गुलगुली सेज।।
बदनामी चुपचाप हो, शोहरत करती शोर ।
चलो खिलायें गुल नये, नाम होय चहुंओर।।
बिन जाने निन्दा करे, क्षमा करूँ अज्ञान।
अगर जान लेता मुझे, छिड़का करता जान।।
बुरा-भला खोता-खरा , क्षमा करूँ अज्ञान।
अगर जान लेते मुझे, छिड़का करते जान।।
बीज उगे बिन शोर के, तरुवर गिरे धड़ाम।
सृजन-शक्ति अक्सर सुने, विध्वंसक कुहराम।।
बँधी रहे उम्मीद तो, कठिन-समय भी पार |
सब अच्छा होगा कहे, यही जीवनाधार |
बंद घड़ी भी दे जहाँ, सही समय दो बार।
वहाँ किसी भी वस्तु को, मत कहना बेकार।।
बन्धक बने विचार कब, पाते ही जल-खाद।
होते पुष्पित-पल्लवित, बनते जन-संवाद ||
परछाई से क्यों डरे, रे मानुस की जात।
वहीं कहीं है रोशनी, सुधरेंगे हालात।।
परमात्मा दिखता नहीं, कहे सभी शंकालु।जब कुछ भी सूझे नहीं, दिखते वही कृपालु।
परछाईं ख्वाहिश बढ़े, घटते कद औकात ।
रविकर पक्का मानिए, होगी लम्बी रात।।220
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, रविकर खोज जवाब।।
पूरे होंगे किस तरह, कहो अधूरे ख्वाब।
सो जा चादर तान के, देता चतुर जवाब।।
प्रतिभा प्रभु से प्राप्त हो, देता ख्याति समाज ।
मनोवृत्ति मद स्वयं से, रविकर आओ बाज।।
पाँच साल गायब रहा, हुआ स्वार्थ ज्यों सिद्ध।
द्वार-द्वार मँडरा रहा, सिर गिन गिन के गिद्ध।
प्रभु से माँगे भीख फिर, करे दान नादान।
शिलापट्ट पर नाम लिख, गर्व करे इन्सान।।
प्रभु से सबने पा रखी, दो पारखी निगाह।समलोचना एक से, दे दूसरी सलाह।।।
पहले कुल पत्ते झड़े, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।
पड़े पुष्प प्रभु-पाद में, कण्ठ-माल से खिन्न।
सहे सुई की पीर जो, वो ही भक्त-अभिन्न।।
पीछे पीछे वक्त के, भाग रहा अनुरक्त।
पकड़ न पाया वह कभी, और न पलटा वक्त।
पीछे-पीछे वक्त के, रहा भागता भक्त।
पकड़ न पाया वह कभी, पलट न पाया वक्त।।
पल्ले भी मिलते गले, घरभर में था प्यार।
अब एकाकी कक्ष सब, सदमें में दीवार।।
पढ़े-बढ़े बेटी बचे, बदला किन्तु बिधान।
वंश-वृद्धि हित अब बचा, रविकर हर संतान।।
पीड़ित दुहराता रहे, वही समस्या रोज।
निराकरण नायक करे, समुचित उत्तर खोज।।230
पल्ले पड़े न मूढ़ के, मरें नहीं सुविचार।
समझदार समझे सतत्, चिंतक धरे सुधार।।
फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।
फूले-फूले वे फिरें, खुद में रहे भुलाय |
फिर भी दूँ उनको दुआ, फूले-फले अघाय ||
फल मन के विपरीत यदि, हरि-इच्छा कह भूल।
किन्तु मान ले हरिकृपा, यदि मन के अनुकूल।
भलमनसाहत पर करे, जब रविकर संदेह।
बचें असर से कब भला, देह-देहरी-गेह।।
भूख भक्ति से व्रत बने, भोजन बनता भोग।
पानी चरणामृत बने, व्यक्ति मनुज संयोग।।
भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।
भँवर सरीखी जिंदगी, हाथ-पैर मत मार।
देह छोड़, दम साध के, होगा बेडा पार ।।
भजन सरिस रविकर हँसी, प्रभु को है स्वीकार।
हँसा सके यदि अन्य को, सचमुच बेड़ापार।।
भरो भरोसे हित वहाँ, चाहे तुम जल खूब।
चुल्लू भर भी यदि लिया, कह देगी जा डूब।।240
भले कभी जाता नहीं, पैसा ऊपर साथ।
लेकिन धरती पर करे, रविकर ऊँचा माथ।।
भोजन पैसा सुख अगर, नहीं पचाया जाय |
चर्बी मद क्रमश: बढ़ें, पाप देह को खाय ||
माँसाहारी का बदन, रविकर कब्रिस्तान।
करे रोज मुर्दे दफन, फिर भी खाली स्थान।।
माफी देते माँगते, जो दिल से मजबूत।
खले खोखले मनुज को, बिखरे पड़े सुबूत।।
मार्ग बदलने के लिए, यदि कन्या मजबूर |
कुत्ता हो या हो सुवर, कूटो उसे जरूर ||
मंडप कहते हैं जिसे, जहाँ मंगलाचार।
करें हिरणियाँ बाघ का, रविकर वहीं शिकार।।
माथे पर बिंदी सजा, रही नदी में तैर।
करें बेटियाँ आजकल, आसमान तक सैर।।
माता की चौकी सजी, चुन री चुनरी लाल।
हर सवाल माँ हल करे, तू तो चुनरी डाल।।
मनुज गहे रविकर अगर, सुसंस्कार सुविचार।
कंठी माला की कभी, पड़े नहीं दरकार।
मन का मतलब वासना, बिडम्बना जंजाल।
प्रश्न पहेली कल्पना, भूत-भविष्य बवाल।।250
मित्र, सोच, पुस्तक, बही, राह, लक्ष्य, हमराह।
कर देते गुमराह जब, हो जिंदगी तबाह।।
मनमुटाव झूठे सपन, जोश भरें भरपूर।
टेढ़ी मेढ़ी जिन्दगी, चलती तभी हुजूर।।
मतलब के रिश्ते दिखे, ला मत लब पर नाम।
रिश्ते का मतलब सिखा, जाते दूर तमाम।।
मनभर का तन तनतना, लगा जमाने धाक।
जला जमाने ने दिया, बचा न एक छटाक।
मार बुरे इंसान को, जिसकी है भरमार।
कर ले खुद से तू शुरू, सुधर जाय संसार।।
मेरे मोटे पेट से, रविकर-मद टकराय।
कैसे मिलता मैं गले, लौटा पीठ दिखाय।।
मक्खन या चूना लगा, बोलो झूठ सफेद।
यही सफलता मंत्र है, कहने में क्या खेद ।
मजे-मजे मजमा जमा, दफना दिया जमीर |
स्वार्थ-सिद्ध सबके हुवे, लटका दी तस्वीर
मृग-मरीचि की लालसा, घुटने पे दौड़ाय।
दम घुटने से अक्ल भी, घुटने में मर जाय।।
मुदित-मुदिर मुद्रा मटक, मुद्रा रही कमाय ।
जिला रही नश्वर-बदन, जिला-जँवार घुमाय ।|260
बंद घड़ी भी दे जहाँ, सही समय दो बार।
वहाँ किसी भी वस्तु को, मत कहना बेकार।।
बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, विष खा रहा किसान।।
बचपन की जिद यूँ बढ़ी, पचपन तक बेजार।
समझौते करने लगी, बदल गया व्यवहार।।
बाबा-बापू चल बसे, बसे अनोखे पूत ।
संस्कार की छत ढहे, अजब-गजब करतूत ।।
बढ़ जाए खुबसूरती, यदि थोड़ा मुस्काय |
फिर भी जाने लोग क्यूँ, लेते गाल फुलाय ||
मिला कदम से हर कदम, चलते मित्र अनेक।
कीचड़ किन्तु उछालते, चप्पल सम दो-एक।।
मृग-मरीचि की लालसा, घुटने पे दौड़ाय।दम घुटने से अक्ल भी, घुटने में मर जाय।।
मेहनत थककर चूर है, हुई बुद्धि नाकाम।
भाग्य दखल देने लगा, चलो बाँह लो थाम।।
मोह-लालसा लाल सा, सिर पर लिया चढ़ाय।
किन्तु जलधि में भार से, नित डूबे उतराय।।
माँग हौंसलो से रहा, रविकर प्यार सुबूत।
ठोकर खा के हँस पड़ा, फिर से जिन्दा भूत।।
माटी का पुतला मनुज, माटी में मिल जाय।
पर पत्थर की प्रियतमा, नहीं सिकन भी आय।।
बड़ा वक्त से कब कहाँ, कोई भी कविराज।
कहाँ जिन्दगी सी गजब, कोई कविता आज।।270
बोलो खुल के बोल लो, नहीं रहो चुप आज।
अगर जरूरी मौन से, रविकर के अल्फ़ाज़।।
परेशान किसको करूँ, ऐ दिल कुछ तो बोल।
जो सुकून से जी रहा, उसकी नब्ज टटोल।|
पूरी करो जरूरतें, साथी रहे प्रसन्न।
बिन सींचे क्या खेत भी, रविकर देता अन्न।।
कण कण में जब प्रभु बसे, क्यूँ तू मंदिर जाय।
पवन धूप में भी चले, पर छाया में भाय।।
बिन चंदा बेचैन कवि, नेता, बाल, चकोर।
रविकर चारो ताकते, बस चंदा की ओर।।
बुरे वक्त में छोड़ के, गये लोग कुछ खास।
रविकर के कृतित्व पर, उनको था विश्वास।।
भूतल में जलयान के, बढ़े छिद्र आकार।
छिद्रान्वेषण कर रहे, छत पर खड़े सवार।।
भले कभी जाता नहीं, पैसा ऊपर साथ।
लेकिन धरती पर रखे, रविकर ऊँचा माथ।।
भारी बारिस में जहाँ, पंछी रहे लुकाय।
बाज बाज आये नहीं, बादल पे चढ़ जाय ।।
भँवर सरीखी जिंदगी, हाथ-पैर मत मार।
देह साध, दम साध के, होगा बेडा पार ।।280
भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।
ये तन धन सत्ता समय, छोड़ें रविकर साथ।
सच स्वभाव सत्संग सह, समझ पकड़ ले हाथ।।
युवा वर्ग से कर रही, दुनिया जब उम्मीद |
तब बहुतेरे सिरफिरे, मिट्टी करें पलीद ||
यदा कदा नहला रही, किस्मत की बरसात।
नित्य नहाने के लिए, करो परिश्रम तात।।
यदि शर्मिंदा भूल पर, है कोई इन्सान।
आँसू पश्चाताप के, देते बना महान।।
युद्ध महाभारत छिड़ा, बटे गृहस्थ-पदस्थ।
लड़े शिखण्डी भी जहाँ, अवसरवाद तटस्थ।।
रखे व्यर्थ ही भींच के, मुट्ठी भाग्य लकीर।
कर ले दो दो हाथ तो, बदल जाय तकदीर।।
रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||
रस्सी रिश्ते एक से, समुचित ऐंठ सुहाय।
बिखर जाय कम ऐंठ से, अधिक ऐंठ उलझाय।
रिश्ता तोड़े भुनभुना, किया भुनाना बन्द।
बना लिए रिश्ते नये, हैं हौसले बुलन्द।।290
रोज़ खरीदे नोट से, रविकर मोटा माल।
लेकिन आँके भाग्य को, सिक्का एक उछाल।।
राजनीति पर कर बहस, कभी न रिश्ते तोड़।
विपदा में होंगे यही, मददगार बेजोड़।।
रुपिये-रिश्तों का रखो, रविकर भरसक ध्यान ।
इन्हें कमाना है कठिन, पर खोना आसान।।
रविकर की पाचन क्रिया, सचमुच बड़ी विचित्र।
धन-दौलत लेता पचा, परेशान हैं मित्र।
रविकर मद-मदिरा चढ़े, जाने सकल जहान।किन्तु चढ़े जिसपर नशा, वही दिखे अंजान।।
रविकर तो उम्मीद का, लेता दामन थाम।
चाहत में गुजरे सुबह, पर दहशत में शाम।।
रविकर की पाचन क्रिया, सचमुच बड़ी विचित्र।
रुपिया पैसा ले पचा, परेशान हैं मित्र।
रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।
रविकर घिस्सू के अजब, हाव भाव बर्ताव।
कलम व्यर्थ घिसता रहे, कभी न होय अघाव।
रविकर संस्कारी बड़ा, किन्तु न माने लोग।
सोलहवें संस्कार का, देखें अपितु सुयोग।।
रफ़्ता रफ़्ता जिन्दगी, चली मौत की ओर।
रोओ या विहँसो-हँसो, वह तो रही अगोर।।300
रविकर के कृतित्व पर,जिनको था विश्वास।
बुरे वक्त में छोड़ के, गये वही कुछ खास।|
रविकर सम्यक *धूप से, प्राप्त करे आनंद |
साधक पूजक कृषक तरु, करते सभी पसंद ||
रविकर पल्ला झाड़ दे, देख दीन मेहमान।
लेकिन पल्ला खोल दे, यदि आये धनवान।
रविकर उनके साथ है, जिनका वक्त खराब।
बुरी नीति जिनकी उन्हें, देता खरा-जवाब।।
रविकर तेरी याद ही, सबसे बड़ा प्रमाद।
कई व्यसन छोटे पड़े, धंधे भी बरबाद।।
रविकर रिश्तों के लिए, नित्य निकालो वक्त।।
इन रिश्तों से अन्यथा, कर दे वक्त विरक्त।।
रविकर हर व्यक्तव्य का, करे सदा सत्कार।
श्लाघा देती प्रेरणा, निंदा करे सुधार।।
रे रविकर यूँ ठेल मत, पट बाहर की ओर।
खुशियाँ तो अंदर पड़ी, झट-पट-खोल, बटोर।।
रफ़्ता रफ़्ता जिन्दगी, चली मौत की ओर।
रोओ या विहँसो-हँसो, वह तो रही अगोर।
रविकर करता धूप में, अपने केश सफेद।
दौड़-धूप कर जो करें, रँगते दिखे सखेद।।
रविकर विनय विवेक बिन, सब सद्गुण बेकार।जिस भी चोटी पर चढो, ये उसके आधार।।
रोते-रोते आगमन, रुला-रुला प्रस्थान।
यही सत्य तो बाँटिये, नित्य हँसी-मुस्कान।।
रविकर तरुवर सा तरुण, दुनिया भुगते ऐब।
एक डाल नफरत फरत, दूजे फरे फरेब।
रहन-सहन से ही बने, सहनशील व्यक्तित्व।
कर्तव्यों का निर्वहन, सीखे सह-अस्तित्व।310
रचें सार्थक काव्य नित, करे काम की बात ।
दुनिया में खुश्बू भरे, दे नफरत को मात ।|
रहे प्रेम की प्रेरणा, राह दिखाये ज्ञान।
तो समझो जीवन सफल, भली करें भगवान.।।
रोज़ खरीदे नोट से, रविकर मोटा माल।
लेकिन आँके भाग्य को, सिक्का एक उछाल।।
रुतबा सत्ता ओहदा, गये समय की बात।
आज समय दिखला गया, उनको भी औकात।।
रहे बाँटते आज तक, जो रविकर की पीर।
चलो खींच लें साथ में, यादगार तस्वीर।।
रहें ख़्वाहिशों के सदा, आसमान पर भाव |सस्ती खु़शियों से सदा, रविकर रखो लगाव ||
रिश्ता तोड़े भुनभुना, किया भुनाना बन्द।
बना लिए रिश्ते नये, हैं हौसले बुलन्द।।
रिश्ते 'की मत' फ़िक्र कर, यदि कीमत मिल जाय।
पहली फुरसत में उसे, देना तुम निपटाय।।
राजनीति जब वोट की, अपने अपने स्वार्थ |
संविधान बीमार है, मोहग्रस्त है पार्थ ||
लेडी-डाक्टर खोजता, पत्नी प्रसव समीप।
बुझा बहन का जो चुका, रविकर शिक्षा-दीप।।
लोकगीत लोरी कथा, व्यथा खुशी उत्साह।
मिट्टी के घर में बसे, रविकर प्यार अथाह।।
लक्ष्मण खींचे रेख क्यों, क्यों जटायु तकरार।
बुरा-भला खुद सोच के, नारि करे व्यवहार।।320
लफ्फाजी भर जिंदगी, मक्खी भिनके आज।
धू-धू कर जलती चिता, थू-थू करे समाज।।
लगे गलत व्यवहार यदि, हैं दो-दो तरकीब ।
या तो मुँह से बोल दो, या मत रहो करीब ।।
लगे कठिन यदि जिंदगी, उसको दो आवाज।
करो नजर-अंदाज कुछ, बदलो कुछ अंदाज।।
लात मारता पेट में, हँसकर सहती पीर।लात मारता पेट पर, देती त्याग शरीर।।
लगे जिन्दगी बोझ जब, तन ढोना दुश्वार।
काम-क्रोध मद लोभ को, रविकर शीघ्र उतार ।।
वृक्ष काट कागज बना, लिखते वे सँदेश |
"वृक्ष बचाओ" वृक्ष बिन, बिगड़ेगा परिवेश ||
वक्त बदलने पर अगर, बदल जाय विश्वास।
रिश्ते में ही खोट है, भरो नहीं उच्छवास।।
वह अच्छे पल के लिए, देता खुद को श्रेय।
किन्तु बुरे पल पर कहे, राहु-केतु-शनि देय।।
वह रोटी लेता कमा, उसका सारोकार।
किन्तु साथ परिवार के, खाता कभी-कभार।।
वक्त कभी देते नहीं, रहे भेजते द्रव्य |
घड़ी गिफ्ट में भेज के, करें पूर्ण कर्तव्य ||
वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।
वही शब्द दुख बाँटता, वही शब्द दे हर्ष।
समय परिस्थिति भाव से, निकल रहा निष्कर्ष।।
सत्य सादगी स्वयं ही, रखते अपना ख्याल।
ढकोसला हित झूठ हित, खर्च कीजिए माल।।330
सुख जोड़े दुख दे घटा, नहीं गणित में ताब।
होता हल हर प्रश्न का,कहती किन्तु जनाब।|
सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।
साथ जिंदगी के चले, काबिलियत किरदार।
दोनों से क्रमशः मिले, लक्ष्य सुकीर्ति-अपार।।
सत्य प्रगट कर स्वयं को, करे प्रतिष्ठित धर्म।
झूठ छुपा फिरता रहे, उद्बेधन बेशर्म।।
सुख दुख निन्दा अन्न यदि, रविकर लिया पचाय।
पाप निराशा शत्रुता, चर्बी से बच जाय।।
सुख में करता शुक्रिया, दुख में कर फरियाद।।
समय, शब्द उपयोग में, दुनिया लापरवाह।
ये अवसर दे कब पुनः, रविकर सुनो सलाह।।
सीते हा सीते किया, दिया शत्रु-मद तोड़।
फिर क्यों सीते ओंठ तुम, उस सीते को छोड़।
सौ गुण पर भारी पड़े, एक अपरिचित खोट।
तंज आत्मसम्मान को, रह-रह रहा कचोट।।
स्वाभिमान है सत्य का, यूँ ही नहीं हठात।
रविकर अपनी बात पर, अड़ा रहा दिन-रात।|
सत्य बसे मस्तिष्क में, होंठों पर मुस्कान।
दिल में बसे पवित्रता, तो जीवन आसान।।
सहो प्रसव-पीड़ा तनिक, पुनर्जन्म के वक्त।
धैर्य परिस्थिति माँगती, माँग रही कब रक्त।।
साँस खतम हसरत बचे, रविकर मृत्यु कहाय।
साँस बचे हसरत खतम, मनुज मोक्ष पा जाय।।
सका न जब वो बिल चुका, खाय मार बेभाव।
उसी भाव पर किन्तु फिर, माँगा मटन-पुलाव।।340
सार्वजनिक आलोचना, मारे गहरी चोट।
दो सलाह एकांत में, है यदि रविकर खोट।
शत्रु छिड़कता है नमक, मित्र छिड़कता जान।
जान छिड़क कर के नमक, छिड़के मेहरबान ।।
शनैः शनैः रविकर चढ़े, कुछ रिश्तों पर रंग।
शनैः शनैः कलई खुले, शनैः शनैः कुछ भंग।।
किन्तु हँसी हित शिशु रुदन, उसे न अब स्वीकार।।
साल रही रविकर कमी, प्रस्तुत एक मिसाल।
संग साल दर साल रह, कहे न दिल का हाल।।
सच्चाई वेश्या सरिस, मन तो लेती जीत।अपनाने में हद-हिचक, यद्यपि करते प्रीत।।
सत्य प्रगट कर स्वयं को, करे प्रतिष्ठित धर्म।
झूठ छुपा फिरता रहे, उद्बेधन बेशर्म।।
सोना सीमा से अधिक, दुखदाई है मित्र।
चोर हरे चिन्ता बढ़े, बिगड़े स्वास्थ्य चरित्र।
संग एक पासंग है, रहा उसी से तोल।
इस पलड़े से बेच दे, ले दूजे से मोल।।
सबको देता अहमियत, रविकर बारम्बार।
बुरे गये दुत्कार कर, भले करें सत्कार।।
समझौते करके रखा, दुनिया को खुशहाल।
मैं भी सबसे खुश रहा, सबकी त्रुटियाँ टाल।।
सीख ध्यान मुद्रा सरल, छिड़े योग अभियान,
भोगी पारंगत हुआ, था मुद्रा में ध्यान ||
सह सकता सारे सितम, सुन सम्पूरक स्नेह।किन्तु कृपा-करुणा-दया, सह न सके यह देह।।
शब्द चखो शबरी सरिस, लेकर रविकर स्वाद।
फिर परोस करके सुनो, रामनाम अनुनाद।।350
श्याम-सलोने सा रहा, सुंदर रविकर बाल ।
भैरव-बाबा दे बना, सांसारिक जंजाल।।
शब्द-शब्द में भाव का, समावेश उत्कृष्ट |
शिल्प-सुगढ़, लयबद्ध-गति, यति रविकर सारिष्ट ||
शिल्पी से शिल्पी कहे, पूजनीय कृति मोर।
पर, प्रभु तेरी कृति कुटिल, खले छले कर-जोर।।
शीलहरण पे पढ़ रही, भीड़ व्याह के मन्त्र |
सहनशील-निरपेक्ष मन, जय जय जय जनतंत्र ||
शूकर उल्लू भेड़िया, गरुड़ कबूतर गिद्ध।
घृणा मूर्खता क्रूरता, अति मद काम निषिद्ध।।
श्रेय नहीं मिलता अगर, चिंता करो न तात।
करो काम निष्काम तुम, मिले स्वयं-सौगात।
सोना तो कारक बड़ा, करवा सकता जंग।
जंग लड़ी जाती मगर, रविकर लोहे संग।।
सबसे बड़ा प्रमाद है, रविकर तेरी याद।
कई व्यसन छोटे पड़े, काम-धाम बरबाद।।
सम्यक सोच-विचार के, कर सम्यक संकल्प।
कार्य प्रगति पथ पर बढ़े, लक्ष्य अवधि हो अल्प।।
बढ़ा गए वे दूरियाँ, कर व्याख्या भावार्थ।।
सकते में है जिंदगी, क्या कर सकते नेक।
जलसे में जल से करें, जब नंगे अभिषेक।
सोते सूखे प्राकृतिक, भोजन डब्बा बंद।
करे शोरगुल शाँति गुल, सोते घण्टे चंद।।
सत्तरसाला नीम की, असहनीय अब पीर।
सागर सी कठिनाइयाँ, जामवंत आधार।
याद कराये शक्ति तो, पाते हनुमत पार।।
सज्जन तो पारा सरिस, परख न बारम्बार।
जाए बिन टूटे फिसल, बिन उगले उद्गार।।
सुनी सनाई बात पर , मत करना विश्वास |
अंतर-आत्मा जो कहे, वही सत्य-अहसास ||
अंदर होती खोखली, बाहर बहता नीर।
स्वर्ण-हिरण की लालसा, दी पति को दौड़ाय।
स्वर्ण-दुर्ग फिर क्यों नहीं, बिन पतिदेव सुहाय।।
सुई सूत बिन व्यर्थ है, सूत्रधार बिन सूत।
काया-कथरी कब सिले, कब होगी मजबूत।।
सना वासना से बदन, बदबू से भर जाय।
यदि हो आत्मिक प्यार तो, दे काया महकाय।।360
सुखा रहा नित धूप में, रविकर अपना स्वेद |
करे नहीं गलती मगर, माँगे क्षमा सखेद ||
सीख निभाना मू्र्ख से, मूर्ख बनाना सीख।
झिंगालाला जिंदगी, दीन-दुखी मत दीख।।
सुता बने भगिनी बुआ, मौसी पत्नी माय ।
नए नए नित नाम पा, यह धरती महकाय ।।
सुता सयानी हो रही, मातु हुई चैतन्य |
साम दाम भय भेद से, सीख सिखाती अन्य ||
साहस देती भीड़ यह, पर छीने पहचान।
बाहर निकलो भीड़ से, रहो न भेड़ समान।।
सत्य सादगी स्वयं ही, रखते अपना ख्याल।
ढकोसला हित झूठ हित, खर्च कीजिए माल।।
सीधे-साधे को सदा, सीधे साधे व्यक्ति।
टेढ़े-मेढ़े को मगर, साधे रविकर शक्ति।।
हर मकान में बस रहे, अब तो घर दो चार।
पके कान दीवार के, सुन सुन के तकरार।।
है भविष्य कपटी बड़ा, दे आश्वासन मात्र।
वर्तमान में सुख निहित, करते प्राप्त सुपात्र।।
हुआ रूह से रूह का, रिश्ता आज दुरूह।
नारि-देह को नोचते, कामी दैत्य-समूह।।
हुई लाल-पीली प्रिया, करे स्याह सम्भाव |
अंग-अंग नीला करे, हरा हरा हर घाव ||370
होते कातिल भीड़ के, बीस हाथ, दस-माथ।
दिल-दिमाग रविकर मगर, कभी न देता साथ।।
है भविष्य की राह में, उत्सुकता अवरोध।
भूतकाल का हल कहाँ, अब कोई त्रुटि-बोध।
है भविष्य कपटी बड़ा, दे आश्वासन मात्र।
वर्तमान से सुख तभी, करते प्राप्त सुपात्र।।
हाथ मिलाने से भला, निखरे कब सम्बन्ध।
बुरे वक्त में थाम कर, रविकर भरो सुगन्ध।|
है उत्तरदायित्व बिन, व्यर्थ ज्ञान भंडार।वितरित कर जिज्ञासु को, कर खुद पर उपकार।।
हौले हौले हौसले, हों प्रियतम के पस्त।
हो ली होली में प्रिया, भाँग छान अलमस्त।।
हरे, पनीले दृश्य दुख, हँसे शिशिर-हेमंत ।
अधर-गुलाबी रस भरे, पी ले पिया-बसंत॥
हवा चक्र हैंडिल धुरी, प्राण हस्त पद नैन।
चले सायकिल-जिंदगी, किन्तु जरूरी चैन।।
हँसी अश्रु धीरज क्षमा, सहनशीलता त्याग।
मिटी सकल कमजोरियाँ, शक्ति नारि की जाग।।
हो रोमांचित जिन्दगी, नई चुनौती देख |
करके फिर जद्दो-जहद, खींचे लम्बी रेख ||
हो ली होली में प्रिया, भाँग छान अलमस्त।।
हरे, पनीले दृश्य दुख, हँसे शिशिर-हेमंत ।
अधर-गुलाबी रस भरे, पी ले पिया-बसंत॥
हवा चक्र हैंडिल धुरी, प्राण हस्त पद नैन।
चले सायकिल-जिंदगी, किन्तु जरूरी चैन।।
हँसी अश्रु धीरज क्षमा, सहनशीलता त्याग।
मिटी सकल कमजोरियाँ, शक्ति नारि की जाग।।
हो रोमांचित जिन्दगी, नई चुनौती देख |
करके फिर जद्दो-जहद, खींचे लम्बी रेख ||
है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान।
भ्रम-प्रमाद ले जो चढ़े, रविकर गिरे उतान।।
है पहाड़ सी जिन्दगी, चोटी पर अरमान।
रविकर झुक के यदि चढ़ो, हो चढ़ना आसान।।
होती ख्वाहिश जिंदगी, पैदा तो इक साथ।
रही दौड़ती जिंदगी, मलें ख्वाहिशें हाथ।।
होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।
हिंसा-पत्नी जिद-बहन, मद-भाई भय-बाप।
निंदा माँ चुगली सुता, क्रोध-सुवन संताप।।
हुई सकल यात्रा सफल, रहा ज्ञान का हाथ।
अंतिम यात्रा में मगर, धर्म कर्म दे साथ।।
हीरा खीरा रेतते, लेते इन्हें तराश।
फिर दोनों को बेचते, कर दुर्गुण का नाश।।380
सुनकर, "जाओ भाड़ मे", पति कार्यालय जाय।
बॉस "जहन्नुम जा कहे", तो वापस घर आय।।
बीवी या बेइज्जती, किसको भला पसन्द।
पर दूजे की देख के, आता है आनन्द।।
अभी मरम्मत चल रही, दिखा न रविकर चुस्त |
रँग-रोगन तो शर्तिया, तबियत करे दुरुस्त।।
सुखी रहे वह, जो सुने, अंदर की आवाज़।
सदा रसोई से गिरे, मर्दजात पर गाज़।
परेशान किसको करूँ, ऐ दिल कुछ तो बोल।
जो सुकून से जी रहा, उसकी नब्ज टटोल।।
नमक सरीखी जिंदगी, रिश्ते खींचे खाल।
लगे नमक जितना जिसे, ले भोजन में डाल।।
सम्बन्धों के मध्य में, आवश्यक विश्वास।
करो सुनिश्चित प्रियतमा, जाय न पत्नी पास।।
क्यों उँगली टेढ़ी करें, करूँ कनस्तर गर्म।
निकलेगा घी शर्तिया, यही धर्म सद्कर्म।।।
रुचे कहाँ शहनाइयाँ, जब प्राणांतक दर्द।
पर तन्हाई इश्क में, चाहें औरत-मर्द।।
है मीठा फल सब्र का, इससे कब इन्कार।
हर मीठे फल पर मगर, तेज छुरी की धार।।390
शून्य सरिस मै , अंक तुम, किसको रही अगोर।
होना है यदि दस-गुना, आओ बायीं ओर।।
पत्नी पूछे हो कहाँ, कहे पड़ोसन पास।
वो फिर बोली 'किस'-लिए, पति बोला यस-बॉस।।
तुम तो मेरी शक्ति प्रिय, सुनकर नारि दबंग।
कमजोरी है कौन फिर,कहकर छेड़े जंग।।
मिला कदम से हर कदम, चलते मित्र अनेक।
कीचड़ किन्तु उछालते, चप्पल सम दो-एक।।
जिसपर अंधों सा किया, लगातार विश्वास।
अंधा साबित कर गया, वो तो बिना प्रयास ।।
मकड़ी को टक्कर कड़ी, दे सदैव इन्सान।
बुना जाल ले ले मगर, बुनकर की ही जान।।
मंडप कहते हैं जिसे, जहाँ मंगलाचार।
करें हिरणियाँ बाघ का, रविकर वहीं शिकार।।
है जीवन शादीशुदा, ज्यों रविकर कश्मीर।
खूबसूरती है मगर, आतंकित वर-वीर।।
जहाँ झूठ के पाँव के, दिखते चिन्ह सपाट।
झूठ बोलने से वहीं, कौआ लेता काट।।
पहली कक्षा से सुना, बैठो तुम चुपचाप।
यही आज भी सुन रहा, शादी है या शाप।।
चढ़े बदन पर जब मदन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाय।
चित्रकूट में घूमता, खजुराहो पगलाय।।400
चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।
दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।
नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देख कभी मगरूर ||
तुम हो मेरी प्रियतमा, करता रोज सपोज।।
वन्दनीय वन्दन करे, आराधन आराध्य।😊😊
तुनुकमिजाजी नारि की, है अन्यथा असाध्य।
मर्दाना कमजोरियाँ, इश्तहार चहुँओर।😊😊
औरत को कमजोर कह, किन्तु हँसे मुँहचोर।।
छह अंको में आय है, है संतुलित दिमाग ।
खाने वाली चाहिए, विज्ञापन अनुभाग !!
रविकर भोजन-भट्ट का, दिखा खीर से प्यार।
दो दो खीरा खा रहा, रा का हटा अकार।।
पति से लड़ने में उसे, आया जो आनन्द।
छोड़ दुआ-ताबीज वह, करे रोज छल-छन्द।।
दुविधा जिज्ञासा खुशी, शांति क्रोध भय युद्ध।
करे न पत्नी बात तो, अनुभव करें प्रबुद्ध।।
पति से लड़ने में मिले, अगर खुशी हर बार।
करे दुआ-ताबीज क्यों, क्यों न रहे तैयार।।
शादी की संभावना, घटा गए उस्ताद।।
खुश रहने का दे गए, कल ही आशीर्वाद।
उतरा जब व्यवहार में, हुआ सफल तब ज्ञान।
मात्र बुद्धि में ही अगर, तो वह बोझ समान।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-10-2018) को "विद्वानों के वाक्य" (चर्चा अंक-3127) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह लाजवाब।
ReplyDeleteKoi jwab nhi..sb ek se badhkr ek.. behitreen 🙏👌naman aapki lekhni ko
ReplyDelete
ReplyDeleteदोहों में करता रहा रविकर अपनी बात ,
बात बात में बात से निकले है हर बात।
खूबसूरत मैराथन दोहावली रविकर जी की :
veersa.blogspot.com
veerujan.blogspot.com
veerujibraj.blogspot.com