सह सकता सारे सितम, सुन सम्पूरक स्नेह।
किन्तु कृपा-करुणा-दया, सह न सके यह देह।।
इंद्रजाल पर भी किया, जो कल तक विश्वास।
उसे हकीकत भी नहीं, अब आती है रास।।
हौले हौले हौसले, हों प्रियतम के पस्त।
हो ली होली में प्रिया, भाँग छान अलमस्त।।
पहले कुल पत्ते झड़े, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।
चढ़े घमंड-शराब तो, जाने सकल जहान।
किन्तु चढ़े जिसपर नशा, वही दिखे अंजान।।
मियाँ प्राप्त प्रभुता करो, करो शुरू उत्पात।
धरो धरा पर क्यूँ कदम, करो हवा से बात।
दायें रखकर शून्य को, हुआ दस गुणित अंक।
सज्जन भी तो शून्य सम, दायें रखो निशंक।।
जी जी कर जीवन जिए, मर मर जीवन पार।
जो परहित जीवन जिए, पढ़ उनके उद्गार।।
मेहनत थककर चूर है, हुई बुद्धि नाकाम।
भाग्य दखल देने लगा, चलो बाँह लो थाम।।
भले मनुज भी कब भला, दिखे बनाते भीड़।
कई भले लेते बना, किन्तु भीड़ में नीड़।।
रविकर मरने का मिला, जब सु-प्रीम अधिकार।
कातिल नैनों का गिरा, भाव बीच बाजार।।
वे जब खोए ही नहीं, रहा उन्हें क्यों खोज ।
बहुत बदल वे तो गए, दिखें गली में रोज।।
रविकर वह बो कर चरस, करे जिंदगी झंड।
रहो होश में बोल कर, करती जुल्म प्रचंड।।
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आकांक्षा छूने चली, उछल उछल आकास |
लेकिन नखत प्रयास का, उड़ा रहे उपहास ।।
प्रश्न मोक्ष का है खड़ा, लेकर गजब तिलिस्म |
कई तीन-तेरह हुवे, सड़ता रविकर जिस्म||
सुनी सनाई बात पर , मत करना विश्वास |
अंतर-आत्मा जो कहे, वही सत्य-अहसास ||
धूप-हौसले से अगर, पिघले हिम-परवाह |
जल-प्रवाह में भी मिले, रविकर जीवन थाह ।।
शादी की संभावना, घटा गए उस्ताद।।
खुश रहने का दे गए, कल ही आशीर्वाद।
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बुझी-बुझी आँखे लिए, ताके दुर्ग बुजुर्ग।
बुर्ज-बुर्ज पे घर बने, घर घर में कुछ दुर्ग।।
बुरे वक्त में बुद्धि भी, रविकर चरती घास।
इसीलिए तो आदमी, सदा वक्त का दास।।
सागर सी कठिनाइयाँ, जामवंत आधार।
याद कराये शक्ति तो, पाते हनुमत पार।।
हँसी अश्रु धीरज क्षमा, सहनशीलता त्याग।
मिटी सकल कमजोरियाँ, शक्ति नारि की जाग।।
हरे, पनीले दृश्य दुख, हँसे शिशिर-हेमंत ।
अधर-गुलाबी रस भरे, पी ले पिया-बसंत॥
नजर-तराजू तौल दे, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, करे हमेशा दंग।।
दाम चुका दाम्पत्य का, अस्त-व्यस्त पति पस्त।
पीर लिखी तकदीर में, नैन-बैन से त्रस्त।।
चतुराई छलने लगे, ज्ञान बढ़ा दे दम्भ।
सोच भरे दुर्भाव तब, पतन होय प्रारम्भ।।
लसा लालसा लाल सा, कहीं नहीं मद-द्वेष।
मनके मनके खोज के, माला गूँथ विशेष।।
समय शब्द उपयोग में, दुनिया लापरवाह।
ये अवसर दे कब पुनः, रविकर सुनो सलाह।।
हवा चक्र हैंडिल धुरी, प्राण हस्त पद नैन।
चले सायकिल जिंदगी, किन्तु जरूरी चैन।।
प्रभु सुंदरता सोम में, रवि में प्रभु की शक्ति।
सुंदरतम कृति ईश की, है रविकर हर व्यक्ति।।
देरी में हामी भरें, जल्दी में इनकार।
रविकर यह आदत बुरी, कर ले शीघ्र सुधार।।
बिन गलती मांगी क्षमा, दिया कलह को टाल।
है रिश्ते की अहमियत, रविकर नहीं मलाल।।
उम्दा।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-03-2017) को "कविता का आथार" (चर्चा अंक-2919) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर
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