बत्ती कली सुबुद्धि जब, गुल हो जाय हुजूर।
चोर भ्रमर दीवानगी, मौज करें भरपूर।।
कलियों के सौंदर्य का, करे मधुप गुणगान।
गुल बनते ही वह कली, करे कैद ले जान।
तेज छात्र मैं मैथ का, करना कठिन प्रपोज़।
तुम हो मेरी प्रियतमा, करता रोज सपोज।।
बिजली गुल, गुल का नशा, और शोर-गुल तेज।
बाँट गुलबदन गुलगुला, सजी गुलगुली सेज।।
रास रचाई कल तलक, आज न आये रास।
बात बात पर दे करा, गर्मी का अहसास।।
गर मीसे अमिया पकी, नमक पुदीना नीर।
गरमी के अहसास से, तब हो मुक्त शरीर।।
अर्थ वन्दना के छले, खले धूप की गंध।
मदन बदन पर जो चढ़े, तोड़े हर कटिबंध।।
झूठ प्रफुल्लित हो रहा, आनंदित व्यभिचार।
सत्य बिछा के पाँवड़े, नीति करे सत्कार।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।
आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
है उत्तरदायित्व बिन, व्यर्थ ज्ञान भंडार।
वितरित कर जिज्ञासु को, कर खुद पर उपकार।।
मरती अपनी जिंदगी, कैसे अपने-आप।
उलटें जब वरदान सब, पलटें कुल अभिशाप।।
कुम्भकर्ण की जीभ पर, वागेश्वरी सवार।
करे निवेदन सुपनखा, देते राम नकार।।
सूर्पनखा सी नारि जब, रविकर खाये खार।
कुल पुलस्त्य पांडित्य का, करवाती संहार।।
वन्दनीय वन्दन करे, आराधन आराध्य।😊😊
तुनुकमिजाजी नारि की, है अन्यथा असाध्य।
ठंडा ठंडाई पिये, किन्तु व्यग्र सुकुमारि।
जब पति से मनभर लड़ी, तब ठंडाई नारि।
क्षमा माँगना वीरता, देना शक्ति प्रतीक।
रहें सुखी फिर भूलकर, रविकर सूक्ति सटीक।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।
आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
है उत्तरदायित्व बिन, व्यर्थ ज्ञान भंडार।
वितरित कर जिज्ञासु को, कर खुद पर उपकार।।
मरती अपनी जिंदगी, कैसे अपने-आप।
उलटें जब वरदान सब, पलटें कुल अभिशाप।।
लेकर हंड़िया इश्क की, चला गलाने दाल।
खाकर मन के गुलगुले, रहा बजाता गाल।।
समझ सके समझा सके, नहीं शब्द शब्दार्थ।
बढ़ा गए तब दूरियाँ, वे व्याख्या भावार्थ।।
संशोधित
समझ सके समझा सके, नहीं शब्द शब्दार्थ।
बढ़ा गए वे दूरियाँ, कर व्याख्या भावार्थ।।
सच्चाई वेश्या सरिस, मन तो लेती जीत।
अपनाता कोई नहीं, यद्यपि करते प्रीत।।
मर्दाना कमजोरियाँ, इश्तहार चहुँओर।😊😊
औरत को कमजोर कह, किन्तु हँसे मुँहचोर।।
सीधे-साधे को सदा, सीधे साधे व्यक्ति।
टेढ़े-मेढ़े को मगर, साधे रविकर शक्ति।।
बत्तिस तक मस्ती मगर, चालिस तक आश्वस्त।
पैतालिस जब पार हो, करे ताप-वय पस्त।
लात मारता पेट में, हँसकर सहती पीर।
लात मारता पेट पर, देती त्याग शरीर।।
सुख दुख जो तूने दिए, लूँ सप्रेम मैं स्वाद।
सुख में करता शुक्रिया, दुख में कर फरियाद।।
छह अंको में आय है, है संतुलित दिमाग ।
खाने वाली चाहिए, विज्ञापन अनुभाग !!
छह अंको में आय है, है संतुलित दिमाग ।
खाने वाली चाहिए, विज्ञापन अनुभाग !!
किस सांचे में तुम ढले, यौवन बढ़ता नित्य।
देह ढले हर दिन ढले, करूँ कौन मैं कृत्य।।
भार "तीय" का दे दबा, भारतीय बेहाल।
किन्तु "रती" तो फूल सी, रहा सहर्ष सँभाल।।
रविकर भोजन-भट्ट का, दिखा खीर से प्यार।
दो दो खीरा खा रहा, रा का हटा अकार।।
मृग-मरीचि की लालसा, घुटने पे दौड़ाय।
दम घुटने से अक्ल भी, घुटने में मर जाय।।
चीरहरण की पढ़ खबर, करें शहर जो बंद।
शीलहरण को देखकर, उठा रहे आनन्द।।
भावार्थ:
सुनी सुनाई पर करे, जो प्रतिक्रिया अनेक।
देख देख घटना घृणित, आँख रहे वे सेक।।
षडयंत्रों के गाँव मे, दिखे दाँव दर दाँव।
काँव-काँव से शीघ्र ही, लगा गूँजने गाँव।।
खाऊँ मैं मैदा नही, करूँ न मदिरा पान।
यही खेल-मैदान ही, मेरा धर्म-इमान।।
खाऊँ मैं "मैदा नही", खाऊँ पौष्टिक अन्न।
रखे खेल-"मैदान ही", रविकर मुझे प्रसन्न।।
बिन डगमग करते रहें, दो डग मग में कर्म।
गर्व नहीं अगला करे, पिछला करे न शर्म।
शहर ख्वाहिशों का बड़ा, रहा रात-दिन जाग।
पकड़ जरूरत की गली, छोड़ो भागमभाग।।
अब तो आजा बाज रे, मैदा खाना छोड़।
चने बेझड़े बाजरे, की रोटी बेजोड़।
गेहूं ने तो बीस में, बहुत दिखाया भाव।
अब बेझड में खुद मिले, रविकर ठंडा ताव।।
संशोधन
गेहूं ने तो बीस में, बहुत दिखाया भाव।
बेझड से इक्कीस में, करे भला बर्ताव।।
हर मियाद के दरमियाँ, प्यार खुशी आबाद।
जीने से जीवन बने, खो देने से याद।।
शब्द शब्द लेता समझ, रविकर ज्ञान अपार।
अर्थ हेतु लेकिन उसे, अनुभव की दरकार।
पति से लड़ने में उसे, आया जो आनन्द।
छोड़ दुआ-ताबीज वह, करे रोज छल-छन्द।।
दुविधा जिज्ञासा खुशी, शांति क्रोध भय युद्ध।
करे न पत्नी बात तो, अनुभव करें प्रबुद्ध।।
पति से लड़ने में मिले, अगर खुशी हर बार।
करे दुआ-ताबीज क्यों, क्यों न रहे तैयार।।
लगे बोझ यदि बुद्धि में, रहता रविकर ज्ञान।
किन्तु अगर व्यवहार में, हो आचरण समान।।
उतरा जब व्यवहार में, हुआ सफल तब ज्ञान।
मात्र बुद्धि में ही अगर, तो वह बोझ समान।
असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही गुरु श्रेष्ठ हैं, निश्चित है उत्कर्ष।।
शिशु के रोने पर हँसी, मैया पहली बार।
किन्तु पुनः इस मूल्य पर, हुई न वो तैयार।।
या
शिशु के रोने पर हँसी, मैया पहली बार।
किन्तु हँसी हित फिर रुदन, उसे नहीं स्वीकार।।
उधर तमन्ना रो उठी, इधर सिसकती पीर।
कहाँ करे फरियाद फिर, रविकर अधर अधीर।।
लगी "महान गरीयसी", सोच महानगरीय।
किन्तु महानगरीय दिल, की हालत दयनीय।।
उछल-उछल अट्टालिका, ले शहरों को घेर।
वायु-अग्नि-क्षिति-जल-गगन, आँखे रहे तरेर।।
सोते सूखे प्राकृतिक, भोजन डब्बा बंद।
करे शोरगुल शाँति गुल, सोते घण्टे चंद।।
सत्तरसाला नीम की, असहनीय अब पीर।
अंदर होती खोखली, बाहर बहता नीर।
सत्तरसाला मकबरा, चित्र उकेर उकेर।
गौ हलधर पंजा कमल, मचा रहे अंधेर।।
सत्तरसाला मकबरा, खुरच खुरच दीवाल।
छाप रहे पंजा कमल, बजा बजा के गाल।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
दे नकार सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सम्पर्कों की सूचिका, लंबी-चौड़ी मित्र।
किन्तु शून्य सम्बद्धता, *यात्रा चित्र विचित्र।।
*जीवन यात्रा
रविकर विनय विवेक बिन, सब सद्गुण बेकार।
जिस भी चोटी पर चढो, ये उसके आधार।।
सिद्ध प्रतिज्ञा का करो, पितृ-भक्त औचित्य।
चीर-हरण अम्बा-मरण, लाक्षा-गृह दुष्कृत्य।।
खस की टट्टी खास हित, किन्तु खुले में आम।
या तो वे आँधी सहें, या तो काम-तमाम।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
व्यर्थ हुआ सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सीते हा सीते किया, दिया शत्रु-मद तोड़।
फिर क्यों सीते ओंठ तुम, उस सीते को छोड़।।
साकी सा की प्रेम-छल, पिला पिला कुछ घूँट।
प्यास बढ़ाके प्रियतमा, ली तन मन धन लूट।।
संशोधित
प्यास नहीं रविकर बुझी, कर से प्याला छूट।
साकी सा की प्रेम-छल, ली तन मन धन लूट।।
😊
जगमग-जगमग तन रतन, गए पतंगे जूझ।
जल-जल कर मरते रहे, कारण किन्तु अबूझ।।
जहाँ धनात्मक सोच पर, सारे विष बेकार।
वहीं ऋणात्मक सोच पर, गई दवाएं हार।।
देख मुसीबत में तुझे, छोड़ गए जो मीत।
बड़ा भरोसा है उन्हें, होगी तेरी जीत।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश लोग।
करे बुराई विविध-विधि, करें न बुद्धि प्रयोग।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश मूढ़।
करे बुराई विविध-विधि, होकर ईर्ष्यारूढ़।।
चोर भ्रमर दीवानगी, मौज करें भरपूर।।
कलियों के सौंदर्य का, करे मधुप गुणगान।
गुल बनते ही वह कली, करे कैद ले जान।
तेज छात्र मैं मैथ का, करना कठिन प्रपोज़।
तुम हो मेरी प्रियतमा, करता रोज सपोज।।
बिजली गुल, गुल का नशा, और शोर-गुल तेज।
बाँट गुलबदन गुलगुला, सजी गुलगुली सेज।।
रास रचाई कल तलक, आज न आये रास।
बात बात पर दे करा, गर्मी का अहसास।।
गर मीसे अमिया पकी, नमक पुदीना नीर।
गरमी के अहसास से, तब हो मुक्त शरीर।।
अर्थ वन्दना के छले, खले धूप की गंध।
मदन बदन पर जो चढ़े, तोड़े हर कटिबंध।।
झूठ प्रफुल्लित हो रहा, आनंदित व्यभिचार।
सत्य बिछा के पाँवड़े, नीति करे सत्कार।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।
आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
है उत्तरदायित्व बिन, व्यर्थ ज्ञान भंडार।
वितरित कर जिज्ञासु को, कर खुद पर उपकार।।
मरती अपनी जिंदगी, कैसे अपने-आप।
उलटें जब वरदान सब, पलटें कुल अभिशाप।।
कुम्भकर्ण की जीभ पर, वागेश्वरी सवार।
करे निवेदन सुपनखा, देते राम नकार।।
सूर्पनखा सी नारि जब, रविकर खाये खार।
कुल पुलस्त्य पांडित्य का, करवाती संहार।।
वन्दनीय वन्दन करे, आराधन आराध्य।😊😊
तुनुकमिजाजी नारि की, है अन्यथा असाध्य।
ठंडा ठंडाई पिये, किन्तु व्यग्र सुकुमारि।
जब पति से मनभर लड़ी, तब ठंडाई नारि।
क्षमा माँगना वीरता, देना शक्ति प्रतीक।
रहें सुखी फिर भूलकर, रविकर सूक्ति सटीक।।
दर्पण शुचिता-सादगी, से होकर के रुष्ट।
आडम्बर को कर रहा, दिन प्रति दिन सन्तुष्ट।।
है उत्तरदायित्व बिन, व्यर्थ ज्ञान भंडार।
वितरित कर जिज्ञासु को, कर खुद पर उपकार।।
मरती अपनी जिंदगी, कैसे अपने-आप।
उलटें जब वरदान सब, पलटें कुल अभिशाप।।
लेकर हंड़िया इश्क की, चला गलाने दाल।
खाकर मन के गुलगुले, रहा बजाता गाल।।
समझ सके समझा सके, नहीं शब्द शब्दार्थ।
बढ़ा गए तब दूरियाँ, वे व्याख्या भावार्थ।।
संशोधित
समझ सके समझा सके, नहीं शब्द शब्दार्थ।
बढ़ा गए वे दूरियाँ, कर व्याख्या भावार्थ।।
सच्चाई वेश्या सरिस, मन तो लेती जीत।
अपनाता कोई नहीं, यद्यपि करते प्रीत।।
मर्दाना कमजोरियाँ, इश्तहार चहुँओर।😊😊
औरत को कमजोर कह, किन्तु हँसे मुँहचोर।।
सीधे-साधे को सदा, सीधे साधे व्यक्ति।
टेढ़े-मेढ़े को मगर, साधे रविकर शक्ति।।
बत्तिस तक मस्ती मगर, चालिस तक आश्वस्त।
पैतालिस जब पार हो, करे ताप-वय पस्त।
लात मारता पेट में, हँसकर सहती पीर।
लात मारता पेट पर, देती त्याग शरीर।।
सुख दुख जो तूने दिए, लूँ सप्रेम मैं स्वाद।
सुख में करता शुक्रिया, दुख में कर फरियाद।।
छह अंको में आय है, है संतुलित दिमाग ।
खाने वाली चाहिए, विज्ञापन अनुभाग !!
छह अंको में आय है, है संतुलित दिमाग ।
खाने वाली चाहिए, विज्ञापन अनुभाग !!
किस सांचे में तुम ढले, यौवन बढ़ता नित्य।
देह ढले हर दिन ढले, करूँ कौन मैं कृत्य।।
भार "तीय" का दे दबा, भारतीय बेहाल।
किन्तु "रती" तो फूल सी, रहा सहर्ष सँभाल।।
रविकर भोजन-भट्ट का, दिखा खीर से प्यार।
दो दो खीरा खा रहा, रा का हटा अकार।।
मृग-मरीचि की लालसा, घुटने पे दौड़ाय।
दम घुटने से अक्ल भी, घुटने में मर जाय।।
चीरहरण की पढ़ खबर, करें शहर जो बंद।
शीलहरण को देखकर, उठा रहे आनन्द।।
भावार्थ:
सुनी सुनाई पर करे, जो प्रतिक्रिया अनेक।
देख देख घटना घृणित, आँख रहे वे सेक।।
षडयंत्रों के गाँव मे, दिखे दाँव दर दाँव।
काँव-काँव से शीघ्र ही, लगा गूँजने गाँव।।
खाऊँ मैं मैदा नही, करूँ न मदिरा पान।
यही खेल-मैदान ही, मेरा धर्म-इमान।।
खाऊँ मैं "मैदा नही", खाऊँ पौष्टिक अन्न।
रखे खेल-"मैदान ही", रविकर मुझे प्रसन्न।।
बिन डगमग करते रहें, दो डग मग में कर्म।
गर्व नहीं अगला करे, पिछला करे न शर्म।
शहर ख्वाहिशों का बड़ा, रहा रात-दिन जाग।
पकड़ जरूरत की गली, छोड़ो भागमभाग।।
अब तो आजा बाज रे, मैदा खाना छोड़।
चने बेझड़े बाजरे, की रोटी बेजोड़।
गेहूं ने तो बीस में, बहुत दिखाया भाव।
अब बेझड में खुद मिले, रविकर ठंडा ताव।।
संशोधन
गेहूं ने तो बीस में, बहुत दिखाया भाव।
बेझड से इक्कीस में, करे भला बर्ताव।।
हर मियाद के दरमियाँ, प्यार खुशी आबाद।
जीने से जीवन बने, खो देने से याद।।
शब्द शब्द लेता समझ, रविकर ज्ञान अपार।
अर्थ हेतु लेकिन उसे, अनुभव की दरकार।
पति से लड़ने में उसे, आया जो आनन्द।
छोड़ दुआ-ताबीज वह, करे रोज छल-छन्द।।
दुविधा जिज्ञासा खुशी, शांति क्रोध भय युद्ध।
करे न पत्नी बात तो, अनुभव करें प्रबुद्ध।।
पति से लड़ने में मिले, अगर खुशी हर बार।
करे दुआ-ताबीज क्यों, क्यों न रहे तैयार।।
लगे बोझ यदि बुद्धि में, रहता रविकर ज्ञान।
किन्तु अगर व्यवहार में, हो आचरण समान।।
उतरा जब व्यवहार में, हुआ सफल तब ज्ञान।
मात्र बुद्धि में ही अगर, तो वह बोझ समान।
असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही गुरु श्रेष्ठ हैं, निश्चित है उत्कर्ष।।
शिशु के रोने पर हँसी, मैया पहली बार।
किन्तु पुनः इस मूल्य पर, हुई न वो तैयार।।
या
शिशु के रोने पर हँसी, मैया पहली बार।
किन्तु हँसी हित फिर रुदन, उसे नहीं स्वीकार।।
उधर तमन्ना रो उठी, इधर सिसकती पीर।
कहाँ करे फरियाद फिर, रविकर अधर अधीर।।
लगी "महान गरीयसी", सोच महानगरीय।
किन्तु महानगरीय दिल, की हालत दयनीय।।
उछल-उछल अट्टालिका, ले शहरों को घेर।
वायु-अग्नि-क्षिति-जल-गगन, आँखे रहे तरेर।।
सोते सूखे प्राकृतिक, भोजन डब्बा बंद।
करे शोरगुल शाँति गुल, सोते घण्टे चंद।।
सत्तरसाला नीम की, असहनीय अब पीर।
अंदर होती खोखली, बाहर बहता नीर।
सत्तरसाला मकबरा, चित्र उकेर उकेर।
गौ हलधर पंजा कमल, मचा रहे अंधेर।।
सत्तरसाला मकबरा, खुरच खुरच दीवाल।
छाप रहे पंजा कमल, बजा बजा के गाल।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
दे नकार सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सम्पर्कों की सूचिका, लंबी-चौड़ी मित्र।
किन्तु शून्य सम्बद्धता, *यात्रा चित्र विचित्र।।
*जीवन यात्रा
रविकर विनय विवेक बिन, सब सद्गुण बेकार।
जिस भी चोटी पर चढो, ये उसके आधार।।
सिद्ध प्रतिज्ञा का करो, पितृ-भक्त औचित्य।
चीर-हरण अम्बा-मरण, लाक्षा-गृह दुष्कृत्य।।
खस की टट्टी खास हित, किन्तु खुले में आम।
या तो वे आँधी सहें, या तो काम-तमाम।।
रही बेखुदी में कसक, खली बेरुखी खूब।
व्यर्थ हुआ सनकारना, गया सनक में डूब।।।😊
सीते हा सीते किया, दिया शत्रु-मद तोड़।
फिर क्यों सीते ओंठ तुम, उस सीते को छोड़।।
साकी सा की प्रेम-छल, पिला पिला कुछ घूँट।
प्यास बढ़ाके प्रियतमा, ली तन मन धन लूट।।
संशोधित
प्यास नहीं रविकर बुझी, कर से प्याला छूट।
साकी सा की प्रेम-छल, ली तन मन धन लूट।।
😊
जगमग-जगमग तन रतन, गए पतंगे जूझ।
जल-जल कर मरते रहे, कारण किन्तु अबूझ।।
जहाँ धनात्मक सोच पर, सारे विष बेकार।
वहीं ऋणात्मक सोच पर, गई दवाएं हार।।
देख मुसीबत में तुझे, छोड़ गए जो मीत।
बड़ा भरोसा है उन्हें, होगी तेरी जीत।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश लोग।
करे बुराई विविध-विधि, करें न बुद्धि प्रयोग।।
बराबरी पर वश नहीं, रविकर परवश मूढ़।
करे बुराई विविध-विधि, होकर ईर्ष्यारूढ़।।
वाह
ReplyDeleteसुंदर दोहे
ReplyDeleteखैर
वाह...बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...
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