खुशी तो हड़बड़ी में थी, घरी भर भी नहीं ठहरी।
मगर गम को गजब फुरसत, करे वो मित्रता गहरी।।
उदासी बन गयी दासी दबाये पैर मुँह बाये
सुबह तक तो गिने तारे, कटे काटे न दोपहरी।।
हुआ यूँ शान्तिमय जीवन, तड़प मिट सी गई तन की।
सहन ताने करे नियमित, व्यथा कैसे कहे मन की।
सवेरे काम पर जाता, अँधेरे लौटकर आता-
मशीनी आदमी रविकर, मगर दुनिया कहे सनकी।।
हुई कब नींद भी पूरी, तुझे प्रत्येक दिन घेरी।
करे जद्दोजहद रविकर, हुई कल खत्म मजबूरी।
अधूरी नींद भी पूरी, जरूरत भी हुई पूरी।
अच्छे विचारों से हमेशा मन बने देवस्थली।
शुभ आचरण यदि हैं हमारे, तन बने देवस्थली।
व्यवहार यदि अच्छा रहे तो धन बने देवस्थली।
तीनो मिलें तो शर्तिया, जीवन बने देवस्थली।।
किसी का दिल दुखाकर के तुम्हें यदि चैन आता है।
किसी को चोट पहुँचाना, तुम्हे यदि खूब भाता है।
मिलेगा शर्तिया धोखा, सुनो चेतावनी देता-
दुखेगा दिल तुम्हारा भी, तुम्हे रविकर बताता है।।
किसी की माँ पहाड़ों से हुकूमत विश्व पर करती।
बुलावा भेज पुत्रों के सिरों पर हाथ है धरती।
किसी की मातु मथुरा में भजन कर भीख पर जीवित
नहीं सुत को बुला पाती, अकेली आह भर मरती ।।
कभी क्या वक्त रुकता है, घड़ी को बंद रखने से ।
कभी क्या सत्य छुपता है, अनर्गल झूठ बकने से।
रुके फिर क्यों कभी कविता, सतत् बहती रहे अविरल
नहीं चूके बुराई पर, कभी कवि चोट करने से।।
करीने से सजा करके, चिता मेरी जलाई थी।
सितमगर हाथ भी सेंकी, धुँवे से तिलमिलाई थी।
मुहब्बत फिर शुरू कर दी, कदम पीछे हटाकर वो-
उडी जब राख रविकर की, उठाकर फूल लाई थी ।।
जलेगी देह जब तेरी जलेगा पेड़ भी आधा।
लगा दे पेड़ दो ठो तो, कटेगी प्रेत-भवबाधा।
अगर दो वृक्ष का रोपण लगे भारी तुझे रविकर
बदन ही दान तू कर दे, करेंगे शोध ही डाक्टर।।
किसी की राय से राही पकड़ ले पथ सही अक्सर।
मगर मंज़िल नही मिलती, बिना मेहनत किए डटकर।
तुम्हें पहचानते होंगे प्रशंसक, तो कई बेशक
मगर शुभचिंतकों की खुद, करो पहचान तुम रविकर।।
बहस माता-पिता गुरु से, नहीं करता कभी रविकर |
अवज्ञा भी नहीं करता, सुने फटकार भी हँसकर।
कभी भी मूर्ख पागल से नहीं तकरार करता पर
सुनो हक छीनने वालों, करे संघर्ष वह डटकर।।
गगन जब साफ़-सुथरा तो कुशल पायलट' नहीं बनते।
सड़क दुर्गम अगर है तो भले ड्राइवर' वहीं बनते।
नहीं यूँ जिंदगी चलती, कहीं ठोकर कहीं गड्ढे
तनिक जोखिम उठाते जो वहीं इंसाँ सही बनते।।
भला क्या चाहते बनना बड़े होकर, बताओ तो।
यही तो प्रश्न सब पूछें, कभी नजदीक जाओ तो।
बुढापा आज ले आया, अनोखे प्रश्न का उत्तर।
बड़े होकर बनूँ बच्चा, चलो मुझको बनाओ तो।।
विदेशी आक्रमणकारी बड़े निष्ठुर बड़े बर्बर |
पराजित शत्रु की जोरू-जमीं-जर छीन लें अकसर |
कराओ सिर कलम अपना, पढ़ो तुम अन्यथा कलमा
जिन्हें थी जिंदगी प्यारी, बदल पुरखे जिए रविकर ||
उमर मत पूछ औरत की, बुरा वह मान जायेगी।
मरद की आय मत पूछो, उसे ना बात भायेगी।
फिदाइन यदि मरे मारे, मियाँ तुम मौन रह जाना।
धरम यदि पूछ बैठे तो, सियासत जान खायेगी।।
मदर सा पाठ लाइफ का पढ़ाता है सिखाता है।
खुदा का नेक बन्दा बन खुशी के गीत गाता है।
रहे वह शान्ति से मिलजुल, करे ईमान की बातें
मगर फिर कौन हूरों का, उसे सपना दिखाता है।।
अपेक्षा मत किसी से रख, किसी की मत उपेक्षा कर ।
सरलतम मंत्र खुशियों का, खुशी से नित्य झोली भर।
समय अहसास बदले ना, बदलना मत नजरिया तुम
वही रिश्ते वही रास्ता वही हम सत्य शिव सुंदर।।
आलेख हित पड़ने लगे दुर्भाग्य से जब शब्द कम।
श्रुतिलेख हम लिखने लगे, नि:शब्द होकर के सनम।
तुम सामने मनभर सुना, दिल की सुने बिन चल गयीं
हम ताकते ही रह गये, अतिरेक भावों की कसम।।
अकेले बोल सकते हो मगर वार्त्ता नहीं मुमकिन।
अकेले खुश रहे लेकिन मना उत्सव कहाँ तुम बिन।
दिखी मुस्कान मुखड़े पर मगर उल्लास गायब है
तभी तो एक दूजे की जरूरत पड़ रही हरदिन।।
बड़ी तकलीफ़ से श्रम से, रुपैया हम कमाते हैं ।
उसी धन की हिफाज़त हित बड़ी जहमत उठाते हैं।
कमाई खर्चने में भी, निकलती जान जब रविकर
कहो फिर जिंदगी को क्यों कमाने में खपाते हैं।।
मनाओ मूर्ख अधिकारी, अधिक सम्मान दे करके।
अगर लोभी प्रशासक है, मनाओ दान दे करके।
प्रशासक क्रूर यदि मिलता, नमन करके मना लेना।
मगर विद्वान अफसर को, हकीकत सब बता देना।।
समस्यायें समाधानों बिना प्राय: नहीं होती।
नजर आता नहीं हल तो, बढ़ा है आँख का मोती।
करो कोशिश मिलेगा हल, समस्या पर न पटको सिर।
नही हल है अगर उसका, उसे प्रभु-कोप समझो फिर।।
परिस्थितियाँ अगर विपरीत, यदि व्यवहार बेगाना।
सुनो कटु शब्द मत उनके, कभी उस ओर मत जाना।
नहीं हर बात पर उनकी, जरूरी प्रतिक्रिया देना-
मिले परिणाम प्राणान्तक, पड़े दृष्टाँत हैं नाना।
फिसलकर सर्प ऊपर से गिरा जब तेज आरे पर।
हुआ घायल, समझ दुश्मन, लिया फिर काट झुँझलाकर।
हुआ मुँह खून से लथपथ, जकड़ता शत्रु को ज्यों ही
मरे वह सर्प अज्ञानी, कथा-संदेश अतिसुंदर।।
होता अकेला ही हमेशा आदमी संघर्ष मे ।
जग साथ होता है सफलता जीत में उत्कर्ष में।
दुनिया हँसी थी मित्र, जिस जिस पर यहाँ गत वर्ष तक
इतिहास उस उस ने रचा इस वर्ष भारत वर्ष में।।
हाँ हूँ नकलची तथ्य का, हाँ कथ्य भी चोरी किए।
पर शिल्प यति गति छंद रस लय सर्वथा अपने लिए।
वेदों पुराणों उपनिषद को विश्व को किसने दिए।
क्यों नाम के पीछे पड़े, क्यों मद्य मद रविकर पिये।।
भरोसे में बड़ी ताकत, विजयपथ पर बढ़ाता है।
खुशी संतुष्टि जीवन में हमें रविकर दिलाता है।
मगर विश्वास खुद पर हो तभी ताकत मिले वरना
भरोसा गैर पर करना हमें निर्बल बनाता है।।
हक छोड़ते श्रीराम तो, शुभ ग्रन्थ रामायण रचा।
इतिहास उन्नति का समाहित विश्व में मानव बचा।
लेकिन बिना हक जब हड़पता सम्पदा बरबंड तब
इतिहास अवनति का रचा रविकर महाभारत मचा।।
कामार्थ का बैताल जब शैतान ने रविकर गढ़ा।
तो कर्म के कंधे झुका, वो धर्म के सिर पर चढ़ा।
मुल्ला पुजारी पादरी परियोजना लाकर कई
पूजाघरों से विश्व को वे पाठ फिर देते पढा।
जब धाक, धाकड़-आदमी छल से जमाना सीख ले ।
सारा जमाना नाम, धन-दौलत कमाना सीख ले |
ईमान रिश्ते दीनता तब बेंच खाना सीख तू
फिर कर बहाना बैठकर आंसू बहाना सीख ले
सडे़ दोनों गले दोनों, गले मिलना नहीं भाया।
सलामी के लिए दिल को नहीं रविकर मना पाया।
वही खाकी वही खादी सभी के आचरण गंदे
चरण कुछ साफ़ देखे तो, उन्हें गणतंत्र छू आया।
शैतानियाँ शिशु कर रहा, मैया डराती ही रही।
बाबा पकड़ ले जायगा, हर बात पर मैया कही।
खाया पिया सोया डरा, पर आज खुश है शिशु बड़ा
पकड़े गये बाबा कई, तो जिद करे शिशु फिर अड़ा।।
किसी की राय से राही पकड़ ले पथ सही रविकर।
मगर मंज़िल नही मिलती, बिना मेहनत किए डटकर।
तुम्हें पहचानते बेशक प्रशंसक, तो बहुत सारे
मगर शुभचिंतकों की खुद, करो पहचान तुम प्यारे।।
बहस माता-पिता गुरु से, नहीं करता कभी रविकर ।
अवज्ञा भी नहीं करता, सुने फटकार भी हँसकर।
कभी भी मूर्ख पागल से नहीं तकरार करता पर-
सुनो हक छीनने वालों, करे संघर्ष बढ़-चढ़ कर।।
पतन होता रहा प्रतिपल, मगर दौलत कमाता वो ।
करे नित धर्म की निन्दा, खजाना लूट लाता वो।
सहे अपमान धन खातिर, बना गद्दार भी लेकिन
पसारे हाथ आया था, पसारे हाथ जाता वो।।
जब मूढ़ अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बना तो जग हँसा।
जब ठोक पाया खुद नहीं वह पीठ अपनी, तो फँसा।
रविकर कभी तुम पीठ अपनी मत दिखाना यूँ कहीं
शाबासियाँ मिलती यहीं, मिलता यहीं खंजर धँसा।