रंगमंच पर दो जमा, रविकर ऐसा रंग।
अश्रु बहे, पर्दा गिरे, ताकि तालियों संग।।
रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||
धत तेरे की री सुबह, तुझ पर कितने पाप।
ख्वाब दर्जनों तोड़ के, लेती रस्ता नाप।।
चंद चुनिंदा मित्र रख, जिंदा रख हर शौक।
हारे तब बढ़ती उमर, करे जिक्र हर चौक।|
कह दो मन की बात तो, हो फैसला तुरंत।
वरना बढ़ता फासला, हो रिश्ते का अंत।।
मार्ग बदलने के लिए, यदि लड़की मजबूर |
कुत्ता हो या मर्द हो, कूचो उसे जरूर ||
हाथ मिलाने से भला, निखरे कब सम्बन्ध।
बुरे वक्त में थाम कर, रविकर भरो सुगन्ध।।
नंगे बच्चे को दिया, माँ ने थप्पड़ मार।
लेकिन नंगा आदमी, बच जाता हरबार।।
संग जलेगा शर्तिया, रविकर आधा पेड़ |
एक पेड़ तो दो लगा, अब जो हुआ अधेड़ ||
अपनी हो या आपकी, हँसी-खुशी-मुस्कान।
रविकर को लगती भली, प्रभु-वंदना समान।।
रोटी तो लेता कमा, पहला सारोकार।
किन्तु साथ परिवार के, खाता कभी-कभार।।
बिन चंदा बेचैन कवि, नेता, बाल, चकोर।
रविकर चारो ताकते, बस चंदा की ओर।।
चढ़कर पारा काँच को, दर्पण रहा बनाय।
रविकर दर्पण दे दिखा, झट पारा चढ़ जाय।।
मिले और बिछुड़े जगत, बढ़िया रीति-रिवाज़।
मिलो न बिछड़ो तुम कभी, क्यों मेरे सरताज़।।
है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान।
भ्रम-प्रमाद ले जो चढ़े, रविकर गिरे उतान।।
पैसे से ज्यादा बुरी, और कौन सी खोज |
किन्तु खोज सबसे भली, परखे रिश्ते रोज ||
अच्छी बातें कह चुका, जग तो लाखों बार।
किन्तु करेगा कब अमल, कब होगा उद्धार।।
कान लगाकर सुन रहा, जब सारा संसार।
रविकर सुनता दिल लगा, हर खामोश पुकार।।
रखे व्यर्थ ही भींच के, मुट्ठी भाग्य लकीर।
कर ले दो दो हाथ तो, बदल जाय तकदीर।।
भँवर सरीखी जिंदगी, हाथ-पैर मत मार।
देह छोड़, दम साध के, होगा बेडा पार ।।
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, रविकर खोज जवाब।।
लगे कठिन यदि जिंदगी, उसको दो आवाज।
करो नजर-अंदाज कुछ, बदलो कुछ अंदाज।।
गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।
फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।
खले मूढ़ की वाह तब, समझदार जब मौन।
काव्य शक्ति-सम्पन्न तो, कवि को भूले कौन।।
छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।
असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही तो श्रेष्ठ गुरु, कर वन्दना सहर्ष।।
रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।
जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।
भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।
चक्षु-तराजू तौल के, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।
अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।
बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा में गये, रविकर के दिन चार।।
रुतबा सत्ता ओहदा, गये समय की बात।
आज समय दिखला गया, उनको भी औकात।।
अन्य पराजय पीर दे, पराधीनता अन्य।
पतन स्वयं के दोष से, रह रविकर चैतन्य ।।
आँख न देखे आँख को, किन्तु कर्मरत संग |
संग-संग रोये-हँसे, भाये रविकर ढंग ||
चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||
लेडी-डाक्टर खोजता, पत्नी प्रसव समीप।
बुझा बहन का जो चुका, रविकर शिक्षा-दीप।।
गिरे स्वास्थ्य दौलत गुमे, विद्या भूले भक्त।
मिले वक्त पर ये पुन:, मिले न खोया वक्त।।
वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।
चले शूल पर तो चुभा, जूते में बस एक।
पर उसूल पर जब चले, चुभते शूल अनेक।।
दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा से व्यथित, रविकर यह संसार।।
चाहे जितना रंज हो, कसे तंज पर तंज।
किन्तु कभी मारे नहीं, अपनों को शतरंज।।
अनुभव का अनुमान से, हरदम तिगुना तेज।
फल बिखरे अनुमान का, अनुभव रखे सहेज।।
आतप-आफत में पड़ा, हीरा कॉच समान।
कॉच गर्म होता दिखा, हीरा-मन मुस्कान।
प्रतिभा प्रभु से प्राप्त हो, देता ख्याति समाज ।
मनोवृत्ति मद स्वयं से, रविकर आओ बाज।।
सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।
होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।
दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।
रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।
चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।
पहली कक्षा से सुना, बैठो तुम चुपचाप।
यही आज भी सुन रहा, शादी है या शाप।।
रहा तरस छह साल से, लगे निराशा हाथ |
दिखी आज आशा मगर, दो बच्चों के साथ ||
पूरे होंगे किस तरह, कहो अधूरे ख्वाब।
सो जा चादर तान के, देता चतुर जवाब।।
नहीं हड्डियां जीभ में, किन्तु शक्ति भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियाँ, सुन रविकर मगरूर ||
भेड़-चाल जनता चले, खले मुफ्त की मार।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उनका ऊन उतार।।
धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।
धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||
अश्रु बहे, पर्दा गिरे, ताकि तालियों संग।।
रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||
धत तेरे की री सुबह, तुझ पर कितने पाप।
ख्वाब दर्जनों तोड़ के, लेती रस्ता नाप।।
चंद चुनिंदा मित्र रख, जिंदा रख हर शौक।
हारे तब बढ़ती उमर, करे जिक्र हर चौक।|
कह दो मन की बात तो, हो फैसला तुरंत।
वरना बढ़ता फासला, हो रिश्ते का अंत।।
मार्ग बदलने के लिए, यदि लड़की मजबूर |
कुत्ता हो या मर्द हो, कूचो उसे जरूर ||
हाथ मिलाने से भला, निखरे कब सम्बन्ध।
बुरे वक्त में थाम कर, रविकर भरो सुगन्ध।।
नंगे बच्चे को दिया, माँ ने थप्पड़ मार।
लेकिन नंगा आदमी, बच जाता हरबार।।
संग जलेगा शर्तिया, रविकर आधा पेड़ |
एक पेड़ तो दो लगा, अब जो हुआ अधेड़ ||
अपनी हो या आपकी, हँसी-खुशी-मुस्कान।
रविकर को लगती भली, प्रभु-वंदना समान।।
रोटी तो लेता कमा, पहला सारोकार।
किन्तु साथ परिवार के, खाता कभी-कभार।।
बिन चंदा बेचैन कवि, नेता, बाल, चकोर।
रविकर चारो ताकते, बस चंदा की ओर।।
चढ़कर पारा काँच को, दर्पण रहा बनाय।
रविकर दर्पण दे दिखा, झट पारा चढ़ जाय।।
मिले और बिछुड़े जगत, बढ़िया रीति-रिवाज़।
मिलो न बिछड़ो तुम कभी, क्यों मेरे सरताज़।।
है पहाड़ सी जिंदगी, चोटी पर अरमान।
भ्रम-प्रमाद ले जो चढ़े, रविकर गिरे उतान।।
पैसे से ज्यादा बुरी, और कौन सी खोज |
किन्तु खोज सबसे भली, परखे रिश्ते रोज ||
अच्छी बातें कह चुका, जग तो लाखों बार।
किन्तु करेगा कब अमल, कब होगा उद्धार।।
कान लगाकर सुन रहा, जब सारा संसार।
रविकर सुनता दिल लगा, हर खामोश पुकार।।
रखे व्यर्थ ही भींच के, मुट्ठी भाग्य लकीर।
कर ले दो दो हाथ तो, बदल जाय तकदीर।।
भँवर सरीखी जिंदगी, हाथ-पैर मत मार।
देह छोड़, दम साध के, होगा बेडा पार ।।
प्रश्न कभी गुत्थी कभी, कभी जिन्दगी ख्वाब।
सुलझा के साकार कर, रविकर खोज जवाब।।
लगे कठिन यदि जिंदगी, उसको दो आवाज।
करो नजर-अंदाज कुछ, बदलो कुछ अंदाज।।
गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।
फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।
खले मूढ़ की वाह तब, समझदार जब मौन।
काव्य शक्ति-सम्पन्न तो, कवि को भूले कौन।।
छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।
असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही तो श्रेष्ठ गुरु, कर वन्दना सहर्ष।।
रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।
जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।
भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।
चक्षु-तराजू तौल के, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।
अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।
बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा में गये, रविकर के दिन चार।।
रुतबा सत्ता ओहदा, गये समय की बात।
आज समय दिखला गया, उनको भी औकात।।
अन्य पराजय पीर दे, पराधीनता अन्य।
पतन स्वयं के दोष से, रह रविकर चैतन्य ।।
आँख न देखे आँख को, किन्तु कर्मरत संग |
संग-संग रोये-हँसे, भाये रविकर ढंग ||
चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||
लेडी-डाक्टर खोजता, पत्नी प्रसव समीप।
बुझा बहन का जो चुका, रविकर शिक्षा-दीप।।
गिरे स्वास्थ्य दौलत गुमे, विद्या भूले भक्त।
मिले वक्त पर ये पुन:, मिले न खोया वक्त।।
वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।
चले शूल पर तो चुभा, जूते में बस एक।
पर उसूल पर जब चले, चुभते शूल अनेक।।
दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।
अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा से व्यथित, रविकर यह संसार।।
चाहे जितना रंज हो, कसे तंज पर तंज।
किन्तु कभी मारे नहीं, अपनों को शतरंज।।
अनुभव का अनुमान से, हरदम तिगुना तेज।
फल बिखरे अनुमान का, अनुभव रखे सहेज।।
आतप-आफत में पड़ा, हीरा कॉच समान।
कॉच गर्म होता दिखा, हीरा-मन मुस्कान।
प्रतिभा प्रभु से प्राप्त हो, देता ख्याति समाज ।
मनोवृत्ति मद स्वयं से, रविकर आओ बाज।।
सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।
होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।
दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।
रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।
चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।
पहली कक्षा से सुना, बैठो तुम चुपचाप।
यही आज भी सुन रहा, शादी है या शाप।।
रहा तरस छह साल से, लगे निराशा हाथ |
दिखी आज आशा मगर, दो बच्चों के साथ ||
पूरे होंगे किस तरह, कहो अधूरे ख्वाब।
सो जा चादर तान के, देता चतुर जवाब।।
नहीं हड्डियां जीभ में, किन्तु शक्ति भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियाँ, सुन रविकर मगरूर ||
भेड़-चाल जनता चले, खले मुफ्त की मार।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उनका ऊन उतार।।
धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।
धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||
वाह बहुत सुन्दर
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