Sunday 31 October 2021

शांता 2/2

 शांता 2

हो परिक्रमा शिव की अधूरी, पूर्ण दुर्गा की मगर.

हनुमान जी की तीन करना, विष्णु जी की चार कर.

साक्षात भगवन सूर्य की कुल सात करनी परिक्रमा.

प्रतिसर करें बाहर निकलते मांग ले प्रभु से क्षमा.


फिर ध्यान-मुद्रा में, कहीं उन सीढ़ियों पर बैठकर.

फिर से निहारो छवि वही, आये अभी जो देखकर.

कल्याण करते देव-देवी, कर्म नित करते रहो.

करते रहो नित ध्यान उनका, सर्वदा आभास हो.


सोरठा 

करते सुबह नहान,  सप्त-पोखरों में सभी  |

पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||


कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा | 

सृंगी मन्दिर द्वार, लगा इन्हें हुस्कारने ||


रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करें |

हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||


तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |

अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||


जाती शांता झेप, चितवन चंचल उर चढ़ी |

मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||


बारम्बार प्रणाम, रूपा सादर बोलती।

शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की |।


जोड़े दोनो हाथ,  शांता फिर होती मगन |

पा वैचारिक साथ, वापस भागी शिविर में |


पूजा लम्बी होय, सौजा-कौला की इधर 

शिव को रही भिगोय, बेल पत्र मधु दूध से  ||


रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |

था दुपहर में भोज, विविन्डक आये  शिविर ||


गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |

मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||


बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |

साथ बैठता सोम,  पूज्य विविन्डक के निकट ||


संध्या जाय न पाय, सब कोसी को पूजते।

रूपा रही घुमाय, शांता को ले साथ में ||


अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |

सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं |


लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें |

करके देख विचार, दाढ़ी भी लगती भली ||


खट-पट करे खड़ाँव, देख सामने हैं खड़े |

छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||


शांता चर्चा छोड़, असमंजस में है  पड़ी |

जिभ्या चुप्पी तोड़, कह प्रणाम चुप हो गई  ||


वह सृंगी पहचान, पुत्र विविन्डक रिष्य का |

करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||


मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |

सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||


पिता बड़े विद्वान,  मिले मुझे सौभाग्य से।

उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी लूँ उठा  ||


कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रातदिन |

खोजे कौन सवाल, अनुत्तरित जो हैं पड़े  ||


सरसी-छंद 

रिस्य श्रृंग की बात सुनी तो बदल गईं झट सोच.

जोड़े हाथ मरोड़े भी फिर, कम न हुआ संकोच.

तभी लौटकर रूपा आई, ऋषि जाते कर जोड़.

सुध - बुध खोकर लौटी शांता, रूपा रही झिंझोड़ ।।


भाग-5


शांता का सन्देश


सरसी छंद 

सृंगेश्वर से आई शांता, हुई जरा चैतन्य |

त्याग करे वह प्रेम विषय का, लगी सोचने अन्य |

रिश्तों की पूंजी अलबेली, हर-पल संयम वर्त |  

पूर्ण-वृत्त पेटक रख रविकर, कहीं न कोई शर्त ||


हरिगीतिका

जब अंग के युवराज होते सोम तो सोचा गया।

बिन पुत्र के राजन-अयोध्या पर उसे आई दया।

संदेशवाहक भेजकर, संदेश कुलगुरु को दिया।

उल्लेख करती शोध का जो रिष्य सृंगी ने किया।।


हर्षित हुए कुलगुरु, बुलाकर भूप दशरथ से कहा |

पुत्रेष्ट की संकल्पना सुन अश्रु नयनों से बहा। 

निर्देश गुरुवर ने दिया, प्रस्थान भूपति ने किया।

आश्रम पहुँच छू ऋषि-चरण आशीष पावन पा लिया।।


सरसी छंद


लगे बोलने  रिस्य  विविंडक राजन धरिए  धीर।

श्रृंगेश्वर की पूजा करिए, वही हरेंगे पीर |

मैं तो मात्र तुच्छ साधक हूँ, शंकर ही हैं सिद्ध |

दोनों हाथ उठाकर बोले, चिन्ता यहाँ निषिद्ध ||


सात दिनों तक करूँ आपकी, विधिवत पूरी जाँच |

सृन्गेश्वर में तब तक राजन, शिव पुराण लो बाँच |

सात दिनों की प्रबल तपस्या, औषधिमय खाद्यान |

दशरथ पाते सकल पुष्टता, मिट जाता व्यवधान ||


फिर बना यज्ञ की पूरी सूची, सृंगी देते सौप |

लगी दीखने बुड्ढे तन में, तरुणाई सी चौप |

कुछ प्रायोगिक कार्य शेष हैं, कोसी की भी बाढ़ |

कर प्रबंध राजन सब रखिए, शुभ-मुहूर्त आषाढ़ ।


ख़ुशी-ख़ुशी दशरथ चल जाते, रौनक रही बताय | 

देरी के कारण हर रानी, मन ही मन अकुलाय |

अवधपुरी के पूर्व दिशा में, आठ कोस पर एक |

बहुत बड़ा भू-खंड यज्ञ हित, खटते श्रमिक अनेक ||


दोहा छंद 

शांता भी आई वहां, रही व्यवस्था देख |

फुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख ||


समझ न पाए भाष्य जब, बिषय-वस्तु गंभीर |

फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर || 


प्रेम प्रस्फुटित कब हुआ, नहीं जानते सृंग |

भटके सरयू तीर पर, प्रेम-पुष्प पर भृंग ||


सरसी छंद 

हवन कुंड मंडप मठ मंदिर, बटुरा अवध प्रदेश |

आषाढ़ मास की पावन पूनम, आये अवध नरेश। 

सॄंगी ने फिर उन्हें बताया, एक समस्या गूढ़।

महापुरोहित के आसन पर, किसे करें आरूढ़।।


पिता हमारे नहीं स्वस्थ हैं, है शारीरिक क्लेश।

शक्ति बैठने की समाप्त है, मिला अभी सन्देश। 

मैं भी तो अविवाहित अब तक, कैसे हल हो प्रश्न। 

भूपति बोले करो ब्याह फिर, हो वैवाहिक जश्न।।


कुछ के माता-पिता नकारें, कुछ का गया विवेक। 

और न कोई मन को भाती, देखी गई अनेक। 

फिर मुहूर्त ही बीत गया तो, दिया यज्ञ को टाल।

वापस लौट गए सृंगी भी, शांता भी तत्काल।।


हरिगीतिका छंद 

प्राय: प्रथम परिचय बदन मुख वेशभूषा से मिले।

वाणी कराये दूसरा परिचय अगर जिभ्या हिले।

वह व्यक्ति उन सब के लिए, फिर भी अपरिचित ही रहे।

सीरत नहीं सूरत अपितु जो देखकर हाँ ना कहे।।


दोहा छंद 

अंग-अंग विकलांग ले, शांता जाती अंग |

दशा विकट रिस्य सृंग की, पड़ी शोध में भंग ||


भाग-6


नारी-शिक्षा


सार छंद 

अंगराज का स्वास्थ्य सभी ने, ढीला-ढाला पाया।

चम्पारानी की खुशियों पर, पड़ता काला साया |

आये राजकुमार आज ही,  शिक्षा पूरी करके। 

अस्त्र-शस्त्र में प्राप्त महारथ, शास्त्रागम सब पढ़के।


नीति-रीति में पूर्ण कुशलता, जरा दृष्टि तो डालो।

नृप कह देते हैं कुमार से, शासन देखो-भालो ||

हामी भरते ही गूँजा फिर, अति बुलंद जयकारा।

निश्चित तिथि पर जमावड़े में, मुकुट शीश पर धारा।


सारे मंगल कार्य सँभाले, वही पिता को देखी।

तीन दिनों तक चहल पहल थी, सोम बघारे शेखी।

गुरुजन का सानिध्य मिला तो, बोध बटुक को होता |

शिक्षा-हित शांता के सम्मुख, अपना दुखड़ा रोता।


दोहा छंद 

प्रारम्भिक शिक्षा हुई,  दीदी शांता संग |

समुचित शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||


सार छंद 

सुनकर अच्छा लगा उसे भी, लेने लगी बलैया ।

श्रृंगेश्वर भेजूंगी तुझको, यदि आज्ञा दे मैया।

इसी बात पर गाँठ पुरानी, शांता खोल रही है।

एक पाठशाला खोलूंगी, माँ से बोल रही है।।


आज मनाते रक्षाबंधन, राखी सोम बँधाता।

मोती माणिक भ्राता देता, किन्तु न इसको भाता।

पूछ रहा युवराज  प्रेम से, फिर क्या लोगी बहना।

कन्या-शाला दे दो सबको, भैया ना मत कहना ||


दोहा छंद 

भाई ने हामी भरी, शीघ्र खुलेगा केंद्र |

नया खेल लेकिन शुरू, कर देते देवेंद्र ||


सरसी-छंद 

त्राहि-त्राहि जनता करती है, पड़ता विकट अकाल |

खेत धान के सूख चुके हैं, बुरे अंग के हाल |

गौशाला में आता रहता, बेबस गोधन खूब |

बीती वर्षा-ऋतु बिन वर्षा, हर जन-गण-मन ऊब ||


सूखे के है असर भयंकर, बही नहीं जलधार ।

था सावन का मौसम सूखा , भादौं होता पार ।

दूर दूर से आती है नित, जनता मय परिवार |

गंगाजी के नीर तीर पर, पड़ता भारी भार |।


छोड़े अपने बैल सभी ने, गौ भेजें गौशाल |

जोहर पोखर सूख गये हैं, बढ़ता विकट बवाल |

शिविरों में संख्या बढ़ जाती, होता खाली कोष |

कन्याशाला के लिए अभी, मत दे बहना दोष ||


इतने में दालिम दिख जाता, बोला जय युवराज |

मंत्री-परिषद् बैठ चुकी है, कुछ आवश्यक काज |

पढ़ चेहरे के भाव अजब से, दालिम समझा बात |

शांता बिटिया दुख से पीड़ित, दुखी दीखती मात ||


दालिम से कहने लगी वह, परम बटुक की चाह |

पढने की इच्छा जागी है, दे दो तनिक सलाह |

जोड़-घटाना गुणा जानता, जाने वह इतिहास |

उसे नही सेवक बन जीना, करना है कुछ खास ||


तभी उसे सन्देश मिला तो, पाई ख़ुशी अपार |

कन्याशाला हित पाती वह, बढ़िया कमरे चार |

माता को लेकर जाती वह, उनके अपने कक्ष |

अपनी इच्छा को रख देती, अपने पिता समक्ष ।।


सैद्धांतिक सहमति मिल जाती, सौ पण का अनुदान |

इस प्रकार शाळा खुल जाती, शुरू नारि उत्थान |

दूर दूर के कई कारवाँ, उनके सँग परिवार |

रूपा शांता गई साथ में,  करने वहाँ प्रचार |।


रुढ़िवाद ने टाँग अड़ाया, पूरा किया विरोध |

किन्तु कई मिल रहे प्रेम से, कोई करता क्रोध |

पास न कुछ भी अन्न सम्पदा, भटको सुरसरि तीर |

जाने कब दुर्भिक्ष काल में, छोड़े प्राण शरीर |।


आठ साल तक की कन्यायें, छोड़ो मेरे पास |

अपनी देख-रेख में रखना, उनको ग्यारह मास |

इंद्र-देव जब खुश होकर के, देंगे जल सौगात।

तब कन्या ले जाना भाई, मान लीजिये बात ||


दोहा छंद 

गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |

मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||


धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |

जर जमीन जोरू सकल, इच्छित मिलें पदार्थ ||


चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |

कन्यायें तेरह जमा, देती शाला खोल ||


विधाता-छंद 

बिछाया एक कमरे में, करीने से दरी चादर।

सुरक्षा सह सफाई से, सजा पंद्रह दिए बिस्तर।

बड़ा सा अधखुला कमरा, चुनाया भोजनालय हित।

बना फिर एक कार्यालय, व्यवस्था से सभी हर्षित। 


शुरू फिर कक्ष में कक्षा, यहीं शांता पढ़ाती है

पकाती रोटियाँ कौला, कथा सौजा सुनाती है।

मिले सहयोग रूपा का, बटे तख्ती बटे खड़िया।

पढ़ाई हो रही उत्तम, व्यवस्था हो रही बढ़िया।।


दोहा छंद 

रानी माँ आकर करें, शाळा का आरम्भ |

पर आड़े आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||


नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |

आई रमणी रमण की, बंटा रही खुद हाथ ||


पहले दिन की प्रार्थना, करें सभी जन साथ। 

माँ के चरणों में झुका, श्रद्धा से सब माथ।।


प्रार्थना (विधाता छंद आधारित )

नमन हे मातु शतरूपा सरस्वति शारदा मैया।

करें हम नित्य आराधन तनिक स्वीकार ले मैया।


अधिष्ठात्री तुम्ही तो माँ कला विज्ञान विद्या की

दमन कर मूर्खता-जड़ता करो उद्धार हे मैया।


खिला दो मन कमल जैसा, बना दो श्वेत निर्मल तन

बनाकर हंस सा जीवन, विराजो शीश पे मैया।


तपस्या साधना भूला, अभी तक मूढ़मति ही हूँ

जरा उन मूढ़ भक्तों सा, मुझे भी मंत्र दे मैया।


कहाँ वीणा बजाती हो, नहीं आवाज आती है

सुना दे सप्त स्वर मंजुल विनय रविकर करे मैया।।


सरसी छंद 

स्वस्थ बदन ही सह सकता है, सांसारिक सब भार |

बुद्धि सदा निर्मल हितकारी, बढ़े तभी परिवार |

रूपा ने व्यायाम कराया, बच्चे थक कर चूर |

शुद्ध दूध फिर मिला सभी को, घुघनी भी भरपूर ||


पहली कक्षा में करते हैं, बच्चे कुछ अभ्यास ||

बना रहे गोला रोटी सा, रेखा जैसे बांस ||

एक घरी अभ्यास कराया, गिनती सीखी जाय  |

दस तक की गिनती गिनवाया, रूपा ने समझाय ||


सृजन-शीलता से जल जाते, तन-मन के खलु व्याधि ।

बुरे बुराई सभी दूर हों, आधि होय झट आधि ।

सृंगी के अभिलेख सिखाते, सीधी सच्ची बात |

पारेन्द्रिय अभ्यास किया तो, हुई स्वयं निष्णात ||


सार छंद 

दोपहर में छुट्टी जब होती, पंगत सभी लगाते |

हाथ-पैर मुंह धोकर आते, दाल-भात सब खाते |

एक एक केला मिल जाता, कमरों मे सब जाते।

कार्यालय में आकर सबजन, कार्य कई निपटाते ||


खेलों की सूची देकर फिर, रूपा को समझाना |

तीन घरी का खेल कराना, घरी बाद अब जाना ||

गौशाला से हर संध्या भी, शुद्ध दूध मँगवाना।

संध्या वंदन करवा कर के, रोटी खीर खिलाना ||


सौजा दादी से कहती वह, कहना रोज कहानी |

बच्चों की प्रेरणा बने वे, कह शांता मुस्कानी ||

राज-महल जाकर फिर शांता, अपना ध्यान लगाती |

पावन मन्त्रों के जपने से, दूरानुभूति आ जाती ||


हरिगीतिका

मस्तिष्क सृंगी का प्रसारित कर रहा शाब्दिक लहर।

होने लगी वार्ता अनोखी, प्रेम से मन तरबतर।

शांता कुशलता पूछती सादर नमस्ते बोलकर। 

मंथन करें फिर संग दोनों अंग के हालात् पर।।


भाई बटुक को भेजना मैं चाहती गुरुकुल वहाँ।

अनुमति मिली तो माँग लेती शिक्षिका अपने यहाँ।

माँ कर रही खट-खट मगर, शांता न देती ध्यान है।

सम्पर्क फिर टूटा स्वतः, आया स्वयं व्यवधान है।।


सार छंद 

दालिम को जाकर मिलती वह, ऊँच-नीच समझाई |

परम बटुक करता तैयारी, गुरुकुल वह भिजवाई |

आयु वर्ष चौदह की उसकी, पढने में मेधावी।

शिक्षा हित वह  भेज वहाँ  दी , जहाँ गमन सम्भावी ||


दोहा

प्रीति न होती भय बिना, नहीं दंड बिन नीति ।

शिक्षा गुरुवर बिन नहीं, सद-गुण बिना प्रतीति।।


सृंगेश्वर से शिक्षिका, आकर करे प्रणाम। 

अगले दिन से कर रही, शिक्षा के सब काम। ।


सुंदरी सवैया

बहिना इतिहास पुनीत बना, बन वाय रही कनिया पठशाला ।

पढना गढ़ना हल सीख रही, अब उद्यत उन्नति को हर बाला ।

अपने पर निर्भर हो बिटिया, शुभ मंगल मंगल मानस माला ।

ललनी ममतामय शिक्षण से, अब खोल सके बिन कुंजिक ताला ।।


*सर्ग 4*


भाग 1

अंग में अकाल 


सरसी  छंद 

बिटिया वेद-पुराण आदि में, रही पूर्णत: दक्ष |

शिल्प-कला की भी वह ज्ञाता, मंत्री के समकक्ष |

राजा सँग उपवन में बैठी, करती गूढ़ विचार |

अंगदेश का किस-प्रकार से, होगा बेड़ा पार ||


चर्चा में वे पिता - सुता थे , पूर्णतया तल्लीन |

प्रजा रहे सुख शान्ति प्रेम से, हरदम कष्ट विहीन |

अंग भूमि से दूर बढ़ा है, असुरों का संत्रास |

दूर भूख भय से पीड़ित जन, घटा आत्मविश्वास ||


दोहा छंद 

इसी बीच पहुँचे हुए, पहुँचे विप्र-किसान |

अपने आश्रम-खेत हित, लेने कृषि सामान ||


गीतिका

ध्यान देते नहीं दोनों, रहे तल्लीन राजा जी।

देखकर छुद्र अनदेखी, दिखाते विप्र नाराजी।

शाप देकर चले जाते, न वर्षा राज्य में होगी।

राज्य दुर्भिक्ष झेलेगा, बढ़ेंगे कुछ अधिक रोगी .


सरसी छंद 

जाते देखा दूर विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |

क्षमा क्षमा कह भूपति दौड़े, किन्तु गये विद्वान ||

भादों की वर्षा भी रविकर, ठेंगा गई दिखाय |

ताल, तलैया झील सूखती धरती फट-फट जाय ||


झाड़ हुए झंखाड़ सभी अब, बची पेड़ की ठूठ |

कृषक बिचारा क्या कर सकता, छूटी हल की मूठ |

खाने को लाले पड़ जाते, कंठ सूखता जाय |

खिचड़ी पत्तल में बट जाती, गंगा माँ शर्माय ||


सार छंद 

अंगदेश की विकट परिस्थिति कड़ी परीक्षा होती |

नगरसेठ अधिकारी सोते, सारी जनता रोती  |

कन्याएं दो-चार हमेशा, हरदिन बढ़ती जाती।

चार कक्ष बनवाने होंगे, शांता धन ले आती ||


उसने अपना कोष लुटाया, बन जाती सन्यासिन।

पढ़ा रही निरपेक्ष भाव से, बीत गया फिर आश्विन। 

आती सर्दी से बढ़ जाती, लोगों में बीमारी |

औषधि बांटे वैद्य-चिकित्सक, बाँटे प्यार कुमारी ||


कभी कभी बादल घिर आते, गरजे अति चिग्घाड़ें |

जाकर बरसें दूर देश में, व्यर्थ कलेजा फाड़ें |

अनुष्ठान जप तप सब करते, सुने न रविकर ईश्वर |

ऊपर उड़ते गिद्ध दीखते, नीचे कंकड़ पत्थर ||


धीरे धीरे और हुई कम, सूरज की भी गर्मी।

मार्गशीर्ष की शीत भयंकर, मरते निर्धन कर्मी।

उत्कल का चावल व्यापारी, ज्यादा दाम वसूले।

अवधराज बँटवाते चावल, वे अपना दुख भूले ||


अंगदेश पर पड़ी मुसीबत, अजब निराशा छाई।

कैसे गर्मी काट सकेंगे,  गंगा माँ अलसाई।

लोग पलायन करने लगते, राजा की मजबूरी |

सृंगेश्वर में कई मनीषी, बैठक करें जरूरी ।।


किया आकलन काल-खण्ड का, फिर उपाय पा हरसे।

सृंगी-शांता का विवाह हो, तो ही बादल बरसे।

लेकर यह सन्देश सभी का, परम बटुक है जाता |

किन्तु साधु-वर सोच-सोच कर, माँ का मन अकुलाता ||


 मत्तगयन्द सवैया


सृंग सजे सिर ऊपर जो जननी तनु-प्राण विदारत देखा |

अंग जले जल सूख घरे हर ओर पुकारत  आरत देखा |

देख मुसीबत में जनता ममता बिटिया प्रिय वारत देखा |

साधु वरे सुकुमारि धिया घबराकर माँ मन मारत देखा |


हरिगीतिका

युवराज शाला में पधारे, किन्तु शांता थी नहीं।

काफी दिनों से भेंट उसने सोम से भी की नहीं।

करने लगे फिर वे निरीक्षण, देखते सब ध्यान से।

पर ध्यान करती भंग रूपा, सोम जाता जान से।।


थी मोहिनी सूरत गजब, कातिल निगाहें मारती।

हलचल मचाती मार टक्कर, ओह फिर उच्चारती।

युवराज भी दिल हारता, वह भी वहीं दिल हारती।

शांता खड़ी यह दृश्य देखे, देखती माँ भारती ।।


घनाक्षरी

धरती के वस्त्र पीत, अम्बर की बढ़ी प्रीत

भवरों की हुई जीत, फगुआ सुनाइये ।

जीव-जंतु हैं अघात, नए- नए हरे पात

देख खगों की बरात, फूल सा लजाइये ।

चांदनी तो सर्द श्वेत, आग भड़काय देत

कृष्णा को करत भेंट, मधुमास आइये ।

धीर जब अधीर हो, पीर ही तकदीर हो

उनकी तसवीर को , दिल में बसाइए ।।


सार छंद 

कार्यालय में सोम गये फिर, दीदी भी आ जाती |

विषम परिस्थिति पर भाई से, चिन्तित-मन बतियाती.

चैत्र मास भी बीत रहा है, गर्मी बहुत सताये।

है हमको बारात बुलाना, यदि सहमति मिल जाये।


भाई मेरी दोनों शर्तें, पहले पूरी करिए |

तनिक नहीं आपत्ति मुझे पर, विकट कष्ट ये हरिए |

भव्य भवन हो शाळा का भी, फिर अनुदान दिलाओ |

संरक्षक बनकर तुम देखो, सतत यहाँ पर आओ ||


सरसी छंद 

तन मन धन जीवन मैं करता, दीदी तेरे नाम |

शर्त दूसरी भी अब बोलो, बाकी काम, तमाम |

इसी बीच रूपा आ जाती, करवाती जलपान। 

मुखड़े पर थी सहज सरलता, मधुर-मधुर मुस्कान ||


शांता बोली फिर रख दूंगी, भाई दूजी बात |

आगे काम बढ़ाओ पहले, होने दो बरसात ||

यह कह बाहर गई कार्यवश, पड़ी सोम की दृष्ट |

मित्र-मण्डली सच कहती थी, रूपा है उत्कृष्ट ||


कैसी शाळा चले तुम्हारी, पूछ रहे जब सोम ।

ठीक-ठाक कहकर के रूपा, लगी ताकने व्योम । 

फिर प्रणाम कह रही उन्हें जब, करे सोम प्रस्थान। 

पीछे से वह ताक रही है, भली करें भगवान।।


बटुक परम के पास पहुँचकर, शांता पूछे हाल |

आश्रम में रखते सब गुरुजन, उसका बेहद ख्याल |

गुरुवर ने दीदी की खातिर, भेजा यह रुद्राक्ष |

रूपा सुनकर समाचार यह, करती व्यंग-कटाक्ष |


हँसी हँसी में कह जाती फिर, बातें रूपा गूढ़ |

शांता भी यादों में खोती, लगे पुरनिया-बूढ़ |।

भेज रहा संदेश अयोध्या, अवधि न होवे पार।

करें सुनिश्चित मातु-पिता फिर, शुभ-विवाह का वार |।


परम बटुक के साथ वहाँ पर, गए सोम युवराज |

रिस्य-विविन्डक के चरणों में, सिद्ध हुए सब काज |

लग्न-पत्रिका सौंप रहे वो, कर पूजा अरदास |

सादर आमंत्रित कर देते, उल्लेखित दिन ख़ास ||


परम बटुक मिलने चल जाता, रिस्य-सृंग के कक्ष |

किया दंडवत सादर उसने, रखे अंग का पक्ष |

गुरुवर ! दीदी ने भेजा है,  भर मुट्ठी यह धान |

मूक रही थी मगर रही थी, अधरों पर मुस्कान ||


लेते दोनों हाथ लगाकर, रहे बटुक से बोल।

दो क्यारी की मिट्टी कोड़ो, बीज बड़े अनमोल |

संस्कारित कर उन धानों से, बेरन रहे बनाय।

गर्मी की यह तप्त धरा भी, रविकर हुई  सहाय।।


भाग-2


पाठशाला-पर्व


हरिगीतिका  छंद 

वह नारि-शिक्षा पर लिखा, आलेख अपना पढ़ रही।

सच्चे सरल सिद्धांत से, जीवन सभी का गढ़ रही।

तारे सुता यदि तोड़ने का हठ करे, हिम्मत बढ़ा।

ऊँची बनाकर एक चौकी, बालिका को दे चढ़ा।।

 

साहस बढ़ाना नित्य इनका, आत्म-निर्भरता बढ़े।

नौ माह रखकर कोख में जो, एक मानव तन गढ़े।

नौ मास में कैसे नहीं अपने लिए कन्या पढ़े।

हर एक कन्या जिन्दगी भर, जिन्दगी अपनी गढ़े।।


सरसी छंद 

जेठ मास में ही होने हैं, अब पूरे नौ मास |

बालाओं के लिए किया है, सबने कठिन प्रयास |

कन्याएं साक्षर होकर अब, लिख लेती निज नाम |

फल-फूलों के चित्र बनाकर, खेलें वे अविराम ||


नौ महिनों में ही पढ़ लेती, दो वर्षों का पाठ |

तीन-पांच भी सभी बूझती, बारह पंजे साठ |

करने में सक्षम हैं सारी, अपने जोड़ -घटाव  |

दिन बीते कुल ढाई सौ पर, पाई नया पड़ाव ||


हर बाला को सिखा रही थी, तन-मन का हर भेद |

साफ़ सफाई बहुत अहम् है, पट हों स्वच्छ सफेद |

मीठी बोली बोलो हरदम, लेकिन रहो सचेत |

चंडी बन कर मार गिराओ, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||


अच्छी तरह जानती वे सब, हर स्नेहिल सुस्पर्श |

गन्दी नजर भाँपती झट से, शांता है आदर्श |

हुआ पाठशाला उत्सव तो, आते अंग-नरेश |

भाँति-भाँति के कार्यक्रमों को, करती विधिवत पेश ||


दिखा एक नाटक में कैसे, मिट सकता दुर्भिक्ष |

तालाबों की दिखी महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेल रहा हो, अपना सारा देश |

कालाबाजारी पहुँचाती, जन गण मन को क्लेश ||


हरिगीतिका छंद 

खाद्यान्न जो बर्बाद करते, रोक उनको ध्यान से।

पानी बचा नित अन्यथा हर जीव जाये जान से।

आचार्य-गण गुरुकुल उपस्थित, आज उद्बोधन करें।

कह नारि-शिक्षा पर रहे, उत्साह वे रविकर भरें।। 


दस शिक्षकों के तुल्य है आचार्य रविकर जानिए।

आचार्य सौ से भी बड़ा अपने पिता को मानिए |

माता मगर दस सौ गुना, रखती अपेक्षित ज्ञान है।

कन्या पढ़ाई यदि करे, तो मान अति-सम्मान है।।


सार छंद 

विदुषी गार्गी मैत्रेयी भी, कहलाती आचार्या ।

आचार्याइन कहलाती हैं, आचार्यों की भार्या।

कात्यायन की देख वर्तिका, है उसमें उल्लेखित |

लिखती हैं व्याकरण नारियाँ , करती मन उद्वेलित ||


जो भी जन  महिला शिक्षा पर, व्यर्थ सवाल उठाते।

पढ़े पतंजलि-ग्रन्थ आज ही, अभिभावक के नाते |

शांता जी ने किया यहाँ पर, कार्य बड़ा अलबेला।

नारी शिक्षा आवश्यक है, नर क्यों पढ़े अकेला।।


पांच साल का पूर्ण पाठ्यक्रम, दूंगा भेज सवेरे।

चलो दीप से दीप जलाओ, तमस न रविकर घेरे।

चार गुना अनुदान करें नृप , अति आभार जताते.

शांता संग सभी शुभचिंतक , मंद-मंद मुस्काते ||


शाळा की चिंता लेकर वह, शब्द -तरगें  साधे। 

आधा कार्य यहाँ हो जाता, सृंगी करते आधे |

सारे स्वप्न स्वयं के पूरे, कुछ हैं किन्तु अधूरे।

समय करेगा पूरे कुछ तो, रिस्य-सृंग कुछ पूरे।।


सवैया

सेहत से हत-भाग्य सखी, सितकारत सेवत स्वामि सदा |

कीमत सेंदुर की मत पूछ, चुकावत किन्तु न होय अदा |

रंग-गुलाल उड़ावत लोग, उड़ावत रंग बढ़े विपदा |

लालक लाल लली लहरी लखिमी कय किस्मत काह बदा ।।


हरिगीतिका

विस्तृत हुई चर्चा वहाँ पर, शेष दस दिन हैं मगर।

मजबूत करती हर व्यवस्था, रात-दिन सब एक कर।

आई नई फिर शिक्षिका, आभार सृंगी का कहे।

रविकर समय के साथ में फिर प्रेम में शांता बहे।।


वह साध्यवधु शांता जपे, सृंगेश्वरम् - सृंगेश्वरम् ।

कल्याण कर सबका सदा, होता रहा हर नेत्र नम।

जो शिक्षिका आई उसे दे हौसला दे शक्ति भी।

दे पाठशाला के लिए उसमें सरस आसक्ति भी।।


भाग-3


शांता-सृंगी विवाह


दोहा

इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।

गिरह कटें अब तो सही, विरह सही कब जाय ।।


हरिगीतिका छंद 

इस ब्याह की करते प्रतीक्षा, रंक-राजा मुनि कृषक।

दुर्भिक्ष के मारे हुए आकाश ताकें एकटक ।

परिवार-हित सब चाहते, सब चाहते सन्तान हित।

देरी न कोई चाहता, सब चाहते, हों सम्मिलित।।


कल्याण करती अंग का, करने जगत का भी चली।

अबतक वरुण की बेवफाई देश को बेहद खली।

उम्मीद सृंगी ने जगाई, हर्ष-वर्षा की यहाँ।

सारे अतिथि आने लगे, आने लगा सारा जहाँ।।


बारात सजती है वहाँ, सृंगी सजे दूल्हा बने।

सौगात वर्षा की बटुक गुरु से लगा है माँगने।

दूल्हा बगल में पोटली, दाबे हुआ है एक जब।

बजने विविध बाजे लगे, आगे बढ़ी बारात तब।


मँडरा रहे बादल गरजते, दस दिनों से अंग में।

जाते न तो वे अंग से, आते न तो वे रंग में।

चम्पा नगर में आ गई बारात जैसे रिस्य की।

भूरे हुए बादल सभी, सबने लगाई टकटकी।।


दोहा छंद 

गरज अंग की देख के, गरज-गरज घन खूब।

चुल्लू भर पानी लिए, गये उसी मे डूब।।


विधाता छंद 

करें फिर भूप अगवानी, सभी के संग मिल कर के।

विविन्डक रिष्य का करते प्रकट आभार पग धर के|

हुआ प्रारम्भ द्वाराचार तो, बादल करें टप-टप।

करें दादुर शुरू टर-टर, विविन्डक का सफल जप-तप||


परोसा भोग जो छप्पन, बराती चापते छककर।

बटुक शांता मिले फिर से, मिला था शीघ्र ही अवसर।

पिया-हित पीयरी पहने, पहुँचती पास पंडित के।

वहीं बैठे मिले सृंगी, नमन करते नयन खिल के ।।


सरसी छंद

रची कई रचना ईश्वर ने, हर तन मन मति भिन्न |

यदि स्वभाव से भिन्न लगे कुछ, करे खिन्न खुद खिन्न।

दृष्टि-भेद से रहे उपजते, अपने अपने राम |

लेकिन शाश्वत-सत्य एक ही, वही राम सुखधाम ।।


कौशल्या वर्षिणी रोमपद, दशरथ रहे विराज।

रिस्य विविन्डक भी बैठे हैं, बैठा सकल समाज।

जमा पुरोहित उभय-पक्ष के, सुन्दर लग्न विचार |

गठबंधन करवाकर रविकर,  फेरे को तैयार ||


विधाता छंदारित (सात-वचन)

चले जब तीर्थ यात्रा पर, मुझे तुम साथ लोगे क्या।

सदा तुम धर्म व्रत उपक्रम, मुझे लेकर करोगे क्या।

वचन पहला करो यदि पूर्ण, वामांगी बनूँगी मैं

बताओ अग्नि के सम्मुख, हमेशा साथ दोगे क्या।।


कई रिश्ते नए बनते, मिले परिवार जब अपने।

पिता-माता हुवे दो-दो, बढ़े परिवार अब अपने।

करोगे एक सा आदर, वचन यदि तुम निभाओगे।

तभी वामांग में बैठूँ, बने सम्बन्ध तब अपने।।


युवा तन प्रौढ़ता पाकर बुढ़ापा देखता आया।

यही तीनों अवस्थाएं हमेशा भोगती काया।

विकट चाहे परिस्थिति हो, करो यदि एक सा पालन।

तभी वामांग में बैठूँ, बनूँ मैं सत्य हमसाया।।


अभी तक तो कभी चिंता नहीं की थी गृहस्थी की।

हमेशा घूमते-फिरते रहे तुम, खूब मस्ती की।

जरूरत पूर्ति हित बोलो बनोगे आत्मनिर्भर तो-

अभी वामांग में बैठूँ, शपथ लेकर पिताजी की।।


गृहस्थी हेतु आवश्यक सभी निर्णय करो मिलकर।

करेंगे हर समस्या हल, परस्पर मंत्रणा कर कर।

सकल व्यय-आय का व्यौरा बताओगे हमेशा तुम

वचन दो तो अभी बैठूँ उधर वामांग में ऋषिवर।।


सखी के संग यदि बैठी नहीं मुझको बुलाओगे।

कभी भी दुर्वचन आकर न कोई भी सुनाओगे।

जुआं से दुर्व्यसन से भी रहोगे दूर जीवन में-

अभी वामांग में बैठूँ, वचन यदि ये निभाओगे।।


पराई नारि को माता सरिस क्या देखता है मन।

रहे दाम्पत्य जीवन में परस्पर प्रेम अति पावन ।

कभी भी तीसरा कोई करे क्यों भंग मर्यादा-

वचन दो तो ग्रहण करती, अभी वामांग में आसन।।


कुंडलियाँ  छंद 

अभिमुख ध्रुवतारा लखे, पाणिग्रहण संस्कार। 

हुई प्रज्वलित अग्नि-शुभ, होता मंत्रोच्चार। 

होता मंत्रोच्चार, सात फेरे करवाते।

सात वचन स्वीकार, एक दोनों हो जाते।

ले उत्तरदायित्व, परस्पर बाँटें सुख-दुख।

होय अटल अहिवात, कहे ध्रुवतारा अभिमुख।।


हरिगीतिका छंद 

सप्तर्षि-मंडल से अटल-ध्रुव सह सुशोभित है गगन।

जुड़वा-सितारा एक सँग में, वर-वधू पूजें मगन।

वाशिष्ठ पति, पत्नी अरूंधति नाम वेदों ने  दिए।

करते परस्पर परिक्रमा छह अन्य ऋषियों को लिए ।।


दोहा छंद 

अत्रि पुलस्त्या क्रतु पुलह, अंगीरस मारीच।

हैं वशिष्ठ सप्तर्षि में, इन ऋषियों के बीच ।।


सरसी-छंद

सातों वचनों को कर लेते, दोनों अंगीकार |

बारिश की लग गई झड़ी फिर, हुई मूसलाधार |

वर्षा होती सदा एक सी, उर्वर लेती सोख |

ऊसर सर-सर सरका देती, रहती बंजर कोख |


तीन-दिनों तक हुई अनवरत, बहुत तेज बरसात |

घुप्प अँधेरा रहा अंग में, बीती तीनों रात |

किच-किच हो जाता मंडप में, लगे ऊबने लोग |

भोजन की किल्लत हो जाती, खलता यह संयोग ||


सूर्य-देव फिर दर्शन देते,  रविकर चौथे रोज |

मस्ती में सब लगे झूमने, नव-आशा नव-ओज |

है विवाह-मंडप में रौनक, शुरू अन्य संस्कार |

विधियाँ सब विधिवत् पूरी कर, बाराती तैयार ||


शांता इच्छा प्रकट करे जब, आ जाते युवराज |

कन्याशाळा अब कैसी है, चलो दिखाओ आज |

मुझे देखनी प्रगति वहाँ की, संभावित व्यवधान। 

सृंगी रूपा सहित कई जन, करें साथ प्रस्थान ||


आधा से ज्यादा निर्मित है, दस बीघा फैलाव | 

सॄंगी खोल पोटली कहते, बोना है सद्भाव। 

अब तक गीली रही पोटली, लाया बटुक सँभाल।

चार क्यारियाँ स्वयं बनाता, सृंगेश्वर का लाल |।


शांता को रुद्राक्ष मिला तो, भेजी थी वह धान |

तंत्र-मंत्र से उन धानों में, डाली ऋषि ने जान |

उच्च-कोटि के इन धानों में, अन्नपूर्णा वास।

चार क्यारियों में रोपेंगी, चार नारियाँ खास |।


वैसा ही चावल निकलेगा, होगी जैसी सोच।

बारह-मासी धान उगेगा,  बो दो नि:संकोच |

कन्याओं को सदा मिलेगा, मन-भर बढ़िया भात |

द्रोही यदि इनको छू लेगा, देंगे ये आघात ||


आत्रेयी माँ कौला रूपा, रमणी बोती धान |

अपनी अपनी सजा क्यारियाँ, रखती पूरा ध्यान ||

करें सोमपद तभी घोषणा,  दो हजार अनुदान |

सदा कोष से राशि मिलेगी, रुके नहीं अभियान ||


दीदी मैंने शर्त तुम्हारी, पूरी कर दी आज |

बोलो अपनी शर्त दूसरी, खोलो अब तो राज |

जुटे बहुत से लोग यहाँ पर, अभी न आया वक्त |

धैर्य रखो कुछ दिवस और तुम, भाव करे वह व्यक्त ||


सहमत सोम हुआ दीदी से, यह अध्याय समाप्त। 

सृंगी का आशीष मिला तो, खुशी चतुर्दिक व्याप्त|

हरी-भरी होने लग जाती, अंगदेश की गोद |

रूपा के सँग सोम करे नित, हँसी-मजाक-विनोद।।


दोहा

चंपानगरी छूटती, सृंगेश्वर प्रस्थान। 

शुरू विदाई जब हुई, छिनजाती मुस्कान।।


हरिगीतिका छंद 

कुछ पेटिका में पुस्तकें सलवार कुरते छोड़ के।

गुड़िया खिलौने छोड़ के चुनरी खड़ी है ओढ़ के।

रो के कहारों से कहे रोके रहो डोली यहाँ।

घर-द्वार भाई माँ-पिता को छोड़कर जाऊँ कहाँ।

लख अश्रुपूरित नैन से बारातियों की हड़बड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


हरदम सुरक्षित मैं रही सानिध्य में परिवार के।

घूमी अकेले कब कहीं मैं वस्त्र गहने धार के।

क्यूँ छोड़ने आई सखी, निष्ठुर हुआ परिवार क्यों।

अन्जान पथ पर भेजते अब छूटता घरबार क्यों।।

रोती गले मिलती रही, ठहरी न लेकिन वह घड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


आओ कहारों ले चलो अब अजनबी संसार में।

शायद कमी कुछ रह गयी हम बेटियों के प्यार में।

तुलसी नमन केला नमन बटवृक्ष अमराई नमन।

दे दो विदा लेना बुला हो शीघ्र रविकर आगमन।।

आगे बढ़ी फिर याद करती जोड़ जाती हर कड़ी।

लल्ली लगा ली आलता लावा उछाली चल पड़ी।।


कुँडलियाँ छंद 

कई वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |

शांता आगे बढ़ चली, देकर हर्षोल्लास |

देकर हर्षोल्लास, जन्मदाता से कहती।

शीघ्र कटेगा क्लेश, अयोध्या जो भी सहती।

कटा यज्ञ का विघ्न, समय अब परम-हर्ष का।

पूर्ण करेंगे स्वप्न, अवध के कई वर्ष का।


अरसात सवैया

शांत शरिष्ठ शशी सम शीतल, शारित शिक्षित शीकर शांता  ।

वाम विहारक वाहन वाजि वनौध विषाद विभीत वि-भ्रांता ।

स्नेह दिया शुभ कर्म किया, खुशहाल हुवे कुल दोउ वि-श्रांता ।

भीषण-काल अकाल पड़ा, तब कष्ट हरे बन श्रृंगिक -कांता.


भाग 4


पुत्रेष्ट-यज्ञ


हरिगीतिका

तैयारियाँ होने लगी, फिर से अयोध्या-धाम में।

फिर से सजा मंडप पुराना, लग गये सब काम में।

सृंगी पुरोहित बन गये, शांता विराजी बाम में।

गंधर्व-सुर ऋषि-मुनि उपस्थित, रुचि जिन्हें अंजाम में।


मखक्षेत्र की रौनक बढ़ी, पूरी सजावट हो गई। 

पावन-कलश तंदुल भरे है नीर नदियों का कई।

ला दुग्ध कपिला गाय का, ग्वाले कई करते जमा।

हर यज्ञसैनी भोग की तैयारियों में है रमा।


मौली अगरबत्ती रुई कर्पूर कपड़े चौकियाँ।

माचिस सुपारी आम के पत्ते सहित मधु चूड़ियाँ।

जौ पंच-मेवा आम की लकड़ी कलावा आ गये।

लाये कमल गट्टे गये, छोटे बड़े दीपक नये।


मेवे बतासे लौंग गुग्गल पान कुमकुम फूल फल।

सम्पूर्ण सामग्री जमा घृत धूप दुर्वा नारियल।

राजा पधारे रानियाँ भी साथ उनके आ गईं।

नर वस्त्र पहने हैं नये, सब नारियाँ साड़ी नई।


विधाता छंद

निरीक्षण कर रहे श्रृंगी, हुए संतुष्ट वे रविकर।

सुनिश्चित आसनों पर अब विराजे हैं सकल गुरुवर.

बहुत ही व्यस्त दिनचर्या, कई दिन यज्ञ में लगते।

रही प्रतिबद्धता पूरी, अवध के भाग्य भी जगते।


समय वातावरण सुन्दर, भरोसे से भरा जन-मन।

बड़ी श्रद्धा समर्पण से हुआ परिपूर्ण आयोजन। 

गजब संयोग था उस दिन, हुए नव चन्द्र के दर्शन ।

रहे दे भूप पूर्णाहुति, करें फिर रिस्य का वंदन।।


सार छंद 

पूर्णाहुति के बाद वहाँ पर , अग्नि देवता आते।

कर-कमलों से कलश खीर का, नृप को स्वयं थमाते।

ग्रहण करें दोनों हाथों से, नृप दशरथ आभारी।

गुरु वशिष्ठ सृंगी शांता की,  सकल सृष्टि  बलिहारी ।।


आसमान से देवि-देवता, जय जयकार सुनाते |

कौशल्या के पास कलश ले, नृप दशरथ आ जाते.

आधी खीर थमाते उनको  कैकेयी को आधा.

कौशल्या कैकेयी की तो, कट जाती सुत-बाधा.


लेकिन दोनों खीर स्वयं की, करते आधी-आधी.

दिया सुमित्रा को दोनों ने, परम-मित्रता साधी।

रिष्य सृंग के मंत्रों ने फिर,  रक्षातंत्र  सँभाला।

कौशल्या के दोष कटे कुल, दुष्टों  का मुँह काला ||


द्विगुणित चौपाई 


उच्च-अवस्थिति रहे पंच-ग्रह, नखत पुनर्वसु कर्क लगन था.

चैत्र मास के शुक्लपक्ष की, नवमी तिथि का मंगल क्षण था.

तदनुसार जनवरी रही दस, इक्यावन सौ चौदह बी सी.

बारह बजकर पांच मिनट पर, मंद पवन थी धूप खिली सी.


प्रसव पीर सहती हर रानी, कौशल्या माँ पहले बनती.

हुए राम अवतरित धरा पर, पाप-पुण्य की रविकर ठनती.

कैकेयी के भरत हुए फिर, मगन मंथरा झूम रही  है।

हुए लखन शत्रुघ्न सहोदर, मातु सुमित्रा चूम रही है।


दोहा छंद 

घड़ा पाप का भर रहा, जब कोई अति - दुष्ट।

भगवन का अवतार हो, जन-गण-मन संतुष्ट।।


लंकापति रावण बड़ा, उत्पाती बरबंड |

मानव को जोड़े नहीं, बढ़ता गया घमंड ||


जीत यक्ष गन्धर्व सुर, रावण हुआ मदांध |

शनि को उल्टा टाँगता, यम को पाटी-बांध ||


गीतिका छंद

पितृ-ऋण ऐसे उतारे दिव्य कन्या भूप की.

साथ श्रृंगी का मिला तो, कर्म सुखकर कर सकी.

यज्ञ की अति-व्यस्तता से, आज वह बेहद थकी.

भेंट कर हर एक से फिर , मौन-मन प्रस्थान की.


भाग  5

शांता की ससुराल

विधाता-छंद 

करे प्रस्थान सृंगेश्वर, अवध का कार्य निपटाकर.

अधूरी रीतियाँ पूरी, करे ससुराल पुनि आकर।

लगे दो दिन सफर में फिर, पहुँचते तीर कोसी पर।

लगाकर साथ में डुबकी, करें आराधना जाकर।।


दिवस अगला बहुत ही व्यस्त,अति-प्रात: जगी शांता.

चरण सासू - ससुर के छू, सफाई में लगी शांता.

करे कुलदेवि की पूजा, सभी आराध्य का पूजन.

सभी का ख्याल रखती वह, सभी का जीत लेती मन.


सरसी छंद

सासू माँ की अनुमति लेकर, बना रही पकवान.

आश्रम के सब जन बन जाते , शांता के मेहमान |

बड़ी रसोई में जलवाती, चूल्हे पूरे सात |

दही-बड़े जुरिया बनवाती,  उरद-दाल सह भात ||


आलू-गोभी की पकवाती, सब्जी भी रसदार |

मेवे वाली खीर स्वयं ही, छाई वहाँ बहार |

दस पंगत लम्बी लगती फिर, कुल्हड़ पत्तल साज |

स्वयं अन्नपूर्णा करवाती, सबको भोजन आज ||


परम बटुक सँग में लग जाता, रिस्य सृंग पद भूल |

अतिथि हमारे देवि - देवता, सबको किया क़ुबूल |

परम बटुक से हैं प्रसन्न सब, शारद सदा सहाय |

एक बार के पढ़ने से ही, गूढ़ विषय आ जाय ||


विधाता छंद

चिकित्सा-शास्त्र पढ़कर वह, करेगा लोकहित भरदम.

निरोगी हों सभी प्राणी, सभी का स्वास्थ हो उत्तम.

नहीं धन-सम्पदा चाहे, न कोई और चाहत है.

नये जो शोध होते हैं, उसे उनसे मुहब्बत है.


कई याचक कई रोगी कई दाता धनी आते.

मनोवांछित मिले सबको, सभी आनंद-मन जाते.

सुबह आकर कई प्रतिनिधि, निवेदन कर रहे सादर.

बिगड़ते हाल घाटी के, हिमाचल की दशा बदतर.


रही अब बीत वर्षा-ऋतु, मगर बरसा नहीं पानी |

कुपित हैं इंद्र हम सब से, करें वे नित्य मनमानी.

दरकते गिरि सुलगते वन, तड़पते जीव भी सारे.

निकलकर खोह से बाहर, व्यथित इंसान को मारे.


बगीचे सूखते सारे, न खेती हो रही नीचे.

कहाँ तक निर्झरों का जल, सभी के खेत को सींचे.

हरो विपदा हमारी अब, बचा लो देव-भू प्यारी.

बहुत ही धैर्य से सुनते, विविंडक ऋषि कथा सारी।।


त्रिशुच की पीर अब कैसे,  मिटेगी हल बताते हैं.

किया फिर मंत्रणा सुत से, सरस निर्णय सुनाते हैं.

वधू शांता सहित श्रृंगी, नई  नौका अभी लेंगे.

अवध के मार्ग से दोनों, इसी सप्ताह पहुंचेंगे।।


चरण माता -पिता के छू, बटुक को साथ ले लेते.

बहे गंगा बहे सरयू, अवध को दर्श वे देते.

सकल नगरी इकट्ठा है, सभी में जोश भारी है।

पधारे आज पहुना हैं, बहन शांता पधारी है।


चौपाई छंद


भाग्य अवध के फिर से जागे.

स्वागत करते दशरथ आगे.

चारो भाई चरण पखारें .

दोनों की आरती उतारें.


ठुमुक-ठुमुक चलता हर भाई, 

दृश्य देख शांता हरसाई.

लगी रानियाँ आवभगत में.

सबसे प्रिय यह युगल जगत में.


दर्शन करने जनगण आया.

तरह-तरह की भेंट चढ़ाया.

शांता ने लेकिन समझाया.

किन्तु किसी को समझ न आया.


सरसी छंद


सृंगी ऋषि फिर लगे बोलने, हम सन्यासी लोग |

करे नहीं संचयन वस्तु का, करे नहीं अति भोग |

करिए कृपा, दीजिए अनुमति,  हम सबको श्रीमान |

दो दिन खातिर बाँध रही वह, कुछ अवधी पकवान |

सड़क मार्ग से पहुंच गये हैं, देवभूमि आराध्य।

स्वागतकर्ता देख रहे हैं, साधक साधन साध्य।।


कहे रिस्य को महाराज सब, हर्षित सकल समाज |

सभी प्रमुख आने लग जाते, प्रेम-पालकी साज |

कर सबको आश्वस्त वहाँ पर, रिस्य करें अब राज |

कर्म गूढ़ करने लग जाते, सिरमौरी को साज ||


दोहा छंद 

रिस्य गुफा में यज्ञ कर, करें लोक-कल्यान |

बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||


सर्ग 4 समाप्त


*सर्ग 5*

भाग 1


सरसी छंद 

उधर अंग में, इधर अंग में , उथल-पुथल गंभीर |

रूपा-रति को लग जाते हैं,  सोम-मदन के तीर |

अंगराज हो गये स्वस्थ अब, मंत्री-परिषद संग |

लगे समस्याएं निपटाने, प्रगति-पंथ पर अंग ||


 सार छंद 

शाला में बाला बढ़ती नित, नया भवन बनवाया|

आचार्या बारह आ जाती, माली श्रमिक बढ़ाया |

इंतजाम अति-उत्तम करते, यश भूपति का बढ़ता।

पुंड्रा बंग मगध उत्कल पर, शाला का रँग चढ़ता ||


परिवर्तन आया सुखदायी, बढ़े कार्य नित आगे।

नीति-नियम से शाला चलती, भाग्य अंग के जागे।

सोम सदा आते रहते हैं, रविकर कन्या-शाला।

रूपा से बातें कर उसने, रूपा को रँग डाला।


रूपा को जब भी शांता की, यादें बहुत सताती.

होकर तब बावली भटकती, गंगा तट पर आती.

गंगातट पर पहले से ही, मिलते सोम टहलते।

बालू पर वे अपनी अपनी, कहते-सुनते रहते।।


दोहा छंद 

शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |

प्राकृति पहुँचाई वहाँ, रूपा का उन्माद  ||


सरसी छंद 

शांता रहती अनमयस्क सी, आते ख्याल तमाम |

कार्य-सिद्ध कर लौटेंगे सृंगी, अब श्रृंगेश्वर-धाम |

देवभूमि के संकट कटते, बीता पूरा मास |

अंगदेश जाना चाहूँ मैं, शांता करे प्रयास ||


फेरे की है रस्म जरूरी, किन्तु काम थे ढेर।

टलता रहा आज तक लेकिन, करो न इसमें देर।

सहमति पाकर चली पालकी, ऊँचीं-नीची राह |

धीरे-धीरे लगे छूटने, अचल कंदरा गाह ||


तेजधार गंगा की धीमी, आया सम मैदान |

नाविक गण अब थाम रहे हैं, यात्रा हेतु कमान ||

लौट रही वह अंग देश अब, परम बटुक के साथ.

गंगा जी में चली नाव फिर, जय जय भोलेनाथ..


मंगल-भावों से आनंदित, छाये परमानंद |

शुभ-शुभ योगायोग बना तो, विरह अग्नि हो मंद.

हरी-भरी अति उर्वर धरती, गंगा का मैदान |

प्रभु की महिमा से अति-उन्नत, भारत माँ की शान ||


सार छंद 

गंगा माँ में मिलती जाती, छोटी नदियाँ आकर.

यमुना भी मिलकर हो हर्षित, गंगा गले लगाकर ||

सरस्वती से बने त्रिवेणी, है प्रयाग अलबेला।

हरिद्वार सा लगे यहाँ भी, महाकुंभ का मेला।।


दोहा छंद 

इड़ा पिंगला साधते, मिले सुषुम्ना गेह ।

बरस त्रिवेणी में रहा , सुधा समाहित मेह ।।


सरसी-छंद 

सरस्वती गंगा यमुना का, विशद त्रिवेणी धाम |

देख विहंगम दृश्य यहाँ का, हर्षित भक्त तमाम |

रात यहीं विश्राम किया फिर, सुबह बढ़ाई नाव |

काशी में दर्शन कर बढ़ता, रविकर भक्त स्वभाव ||


दोहा छंद  

गंगा उत्तर वाहिनी, थी जलराशि अथाह |

नाव चलाने में कुशल, रविकर हर मल्लाह ||


धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |

गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||


जल-धारा अनुकूल पा, चले जिंदगी-नाव ।

धूप-छाँव लू कँपकपी, मिलते नए पड़ाव ।।


सरसी-छंद 

अगहन में वर्षा हो जाती, बढ़ी रात में शीत |

नाविक आगे बढ़ते रहते, मनभावन संगीत  |

अनजाने ही मुई नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |

फँसते बालू-भित्ति बीच वे, होने लगी कुबेर ||


बीत गई दोपहर वहीं पर, अति लम्बा ठहराव |

हिकमत कर-कर हार गये वे, निकल न पाई नाव |

टकराने से खुल जाते हैं, नाव मध्य दो जोड़ |

जल अन्दर घुसने लगता है, उलचें बाहें मोड़ ||


द्विगुणित चौपाई 

छेद नाव में, अटके-नौका, कभी नहीं नाविक घबराये ।

जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाये ।

इतना लम्बा जीवन-अनुभव, नाव शर्तिया तट पर आये.

पतवारों पर अटल भरोसा, भव-सागर भी पार कराये ।।


हरिगीतिका छंद


असफल हुआ हर यत्न तो,  करने लगे नाविक पता.

दो कोस पर है गाँव आगे, एक जन जाता बता.

लाने मदद आगे बढ़े, नाविक बटुक जब साथ में,

तो एक पण शांता रखे, रविकर बटुक के हाथ में.


सामान कुछ उससे मंगाती. घट चुका जो मार्ग में.

दोनों गये बाकी वहीं तट के किनारे ही रमे.

गतिमान रविकर अनवरत है, दो पहर बीते मगर.

लौटे अभी तक वे नहीं, नजरें गड़ी हैं राह पर.


कुछ और बीता वक़्त तो, आते दिखे दो व्यक्ति ही.

यह देखकर सबको लगा शायद मदद पाई नहीं.

लेकिन बटुक उनमें नहीं, नाविक अपरचित व्यक्ति सह.

वह व्यक्ति फिर सादर नमन कर, कह रहा रविकर वजह.


फैली महामारी यहाँ पर, वैद्य है कोई नहीं.

मरते रहे हर दिन कई, मिलती नहीं औषधि कहीं.

हैं संक्रमित अधिकांश जनगण, ज्वर चढ़े, काँपे सभी.

औषधि बटुक जी की नियंत्रित कर रही मौतें अभी।


इन्सान में इन्सान से कीटाणु यह जाता लिपट।

सारी व्यवस्था व्यर्थ है, आई समस्या अति विकट। 

होते हजारों संक्रमित तो दर्जनों जाते निपट।

अब आप से विनती करूँ, इस ग्राम के चलिए निकट।


वह अपरचित फिर करे शांता चरण में दण्डवत.

कुछ दिन गुजारो आप तट पर, इस तरह दो छोड़ मत.

दे सांत्वना शांता कहे, सौभाग्य है मेरा परम.

करता बटुक अपना करम, हम भी निभाएंगे धरम.


हमको बटुक पर गर्व है, जुग -जुग जिए भाई बटुक.

तम्बू तना, शांता वहीं, तट के किनारे जाय रुक.

प्रात: पधारे भद्रजन, कुछ टोकरी लेकर इधर।

गन्ना शहद कुछ सब्जियाँ, फल-फूल राशन भेंट कर।।


सरसी छंद 

साध्वी शांता को करते सब, आदर सहित प्रणाम। 

इसी बीच में एक वृद्ध ने, लिया ग्राम का नाम।।

क्या दालिम को आप जानते, शांता करे सवाल.

जिसने ग्राम-निकाला पाया, बीते चौबिस साल.


हाँ कहते ही ग्राम -प्रमुख के, शांता हुई प्रसन्न.

सौजा रमन बाघ की बातें, हो परिचय सम्पन्न.

जय जय जय जय देवी शांता, जय जय जय जयकार |

दालिम का ही पुत्र गाँव में, आज करे उपचार ||


सार छंद

औषधि वितरण करें जहां पर,  वहाँ पहुँचती दीदी.

देख परस्पर तृप्त हुआ मन, आँखें किन्तु उनीदी.


पीड़ा सहकर भी करता है, परहित मेरा भाई.

सही चिकित्सक कर्म यही है, रविकर बहुत बधाई |

परम् बटुक को पता चला ज्यों, है यह ग्राम पिता का.

धरती माँ को नमन करें त्यों, कह मुखिया को काका.


यह औषधि जानो -पहचानो, सम्यक मात्रा देना |

साफ-सफाई की भी पूरी, जिम्मेदारी लेना |

रोज सुबह तुलसी का काढ़ा, सबके घर बनवाना.

छोटे-बड़े सभी प्राणी को, है जरूर पिलवाना.


दोहा 

नाव ठीक कर दी गई, होता ग्राम सुधार.

लेकर फिर सब से विदा, होते सभी सवार.


हरिगीतिका छंद

सामान आवश्यक मिला, वापस बटुक वह पण करे.

उपयोग जब उसका नहीं तो पास अपने क्यों धरे.

शांता कहे रख पास अपने, काम आयेगा कभी।

लो आप ही यह पण रखो, यह तो अनावश्यक अभी। 


ज्वर एक नाविक को चढ़ा रविकर अँधेरी रात में।

लक्षण वही ग्रामीण से, वह काँपता सन्ताप में।

विलगाव कर, उस नाव पर ही  वह रहा एकांत में।

औषधि वही उसको खिलाया जो उगे उस प्रांत में।।


दोहा छंद 

पानी  ढोने का  करे,  जो बन्दा  व्यापार  |

मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||


गंगा उत्तरवाहिनी, सुन्दर पावन घाट |

नाव किनारे पर लगा, घूम रहे सब  हाट ||


सरसी छंद 

परम बटुक करने लग जाता, राजनीति पर बात।

कहो आय पर कितना कर हो, कैसा हो अनुपात।

 उत्तरदायी रहे राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |

मंत्री का आदर्श कर्म क्या, कहिये दीदी सोय ||


विधिसम्मत कैसे रह सकते, रहे न्याय का राज |

राज-पुरुष के दोष-पाप पर, उठे कहाँ आवाज |

प्रमुख विराजें ग्राम-ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |

कैसे हो कल्याण सभी का, कैसा रखें स्वरूप ||


उत्तर-प्रत्युत्तर में माते, रहे न दिन का ध्यान.

यूँ ही चर्चा चली सतत तो, हुई  राह आसान 

हितकारी शासन हो कैसा, करता बटुक सवाल.

व्यापक सामाजिक सेवा का, फैले अंतरजाल.


रोटी कपड़ा व मकान की, रहे व्यवस्था ठीक.

शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा पर हो, शासन सोच सटीक.

यात्रा पूरी हुई नाव की, उतरे सभी सवार |

नाविक के विश्राम आदि का, बटुक उठाये भार ||


सार छंद 

राजमहल शांता का जाना, माँ का गले लगाना.|

माथ चूमना प्यार जताना,  जल उतार ढरकाना.

मिली पिता से झटपट जाकर, दोनो ही हरसाये |

स्वस्थ पिता को देख देख वह ,फूली नहीं समाये ||


क्षण भर ही विश्राम करे फिर, गई सोम से मिलने |

किन्तु वहाँ रूपा का मिलना, अस्वीकारा दिल ने.

गले सहेली से मिलती वह, आँखें लगी चुराने.

सोम अभी आते ही होंगे, खुद से लगी बताने ||


किन्तु न आये सोम वहाँ पर, लम्बी हुई प्रतीक्षा |

शांता चली पाठशाळा को, करने लगी समीक्षा.

शाला में शांता को पाकर, होते सभी प्रफुल्लित |

अपनी कृति को देख-देख कर, शांता भी आनंदित||


आत्रेयी आचार्या मिलती, उनको गले लगाकर |

बालायें संकोच करें सब, मिलें न सम्मुख आकर |

नव कन्याएं देख रही हैं, शांता का पहरावा.|

सन्यासिन का वेश प्रभावी, आया तभी बुलावा ||


सभी जमे आनन-फानन में, क्रीड़ास्थल पर आकर |

संध्या की वंदना हुई फिर , रूपा कहती सादर |

का |

कन्याशाला देन इन्हीं की, इनके बिन सब फीका |

शांता के उद्बोधन से फिर, दिन का हुआ समापन.

वापस राजमहल वह जाती, कर सबका अभिनंदन..


पुत्तुल-पुष्पा नामक छात्रा,  बनती सखी सहेली।

मातु-पिता के चिर-वियोग का, एक सरिस दुख झेली।

कौला-सौजा करें मातृवत, कन्याओं का पालन |

सीख रही गृहकार्य सभी वे, बना रही हर व्यंजन ||


दोनों बालाएं आ मिलती, शांता ले लिपटाया |

आंसू पोछे बड़े प्रेम से, सस्नेह शीश सहलाया |

क्रीड़ा कक्षा शुरू हुई तो, खेल रही बालायें।| 

खेल खेल में जीवन जीना, आचार्या सिखलायें।


सरसी-छंद 

हों समाप्त संध्या से पहले, रविकर सारे खेल।

तभी सोम घोड़े पर आया, डाले कौन नकेल।

खोज रहीं रूपा को आँखें, आँख दिखाये कौन।

देख रहे सब, समझ रहे सब, फिर भी साधे मौन।।


शांता को सम्मुख देखा तो, आया झट से सोम |

करता उनकी चरणवंदना, किन्तु ताकता व्योम ||

चेहरे पर गंभीर भाव हैं, मुकुट राजसी वेष।

हलके में मत लेना इनको, हैं ये चीज विशेष ||


पूरा दिवस बिता देती वह, देती कई सलाह।

कहा सोम ने सभी देखते, राजमहल में राह।

सौजा कौला मिली  प्रेम से, रमणी है बेचैन |

दालिम काका भी मिल लेते, आधी बीती रैन ||


नाव गाँव का सुना रही वह, फिर सारा वृत्तांत|

सौजा पूंछ रही है सब  कुछ, दालिम दीखे शांत |

पर मन में हलचल मच जाती, जन्मभूमि का प्यार |

वैद्य बटुक शाबाशी पाता, किया खूब उपचार ||


रमणी से मिलकर वह करती, रविकर बातें गूढ़ |

वैसे तो अत्यंत चतुर वह, बने न रूपा मूढ़ |

अगले दिन रूपा करती है, यूँ ही साज-सिंगार |

जाने को उद्दत  दिखता है, बाहर राजकुमार ||


विधाता छंद

ठिठोली कर रही शांता, करे श्रृंगार रूपा जब.

जलाने जा रही किसको, सखी अंगार बनकर अब.

लगे सौन्दर्य को कोई, न धब्बा  ध्यान रखना है .

नियंत्रित आचरण करना, न भावों में बहकना है..


दोहा छंद 

रूपा को सोहे नहीं, असमय यह उपदेश |

तभी बुलावा भेजते, रविकर अंग-नरेश।।


रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |

कुछ ज्यादा चिंतित दिखे, मुखड़ा तनिक उदास ||


विधाता छंद 

पिता जी सोम को लेकर बड़ी चिंता प्रकट करते.

अजब चंचलमना है वह, भविष्यत् काल से डरते.

बढ़ी है आयु अब मेरी, शिथिल होती दिखे काया.

कई दिन हो गये लेकिन नहीं दरबार वह आया।।

 

नहीं उत्साहवर्धक है, खबर हैरान करती है.

तुम्हारी ही सखी रूपा, खड़ा व्यवधान करती है.

हुआ है राजमद सुत को, शुरू मनमानियाँ करता.

नहीं सुनता किसी की वह, किसी से भी नहीं डरता।।


प्रशासन में न रुचि लेता, अड़ंगा हर जगह डाले.

लगे जिस चीज के पीछे उसे वह शर्तिया पा ले.

निरंकुश सोम को तुम ही, चला सकती सही पथ पर।

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, भरोसा है मुझे तुमपर।।


दोहा

मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |

राजा पर अंकुश रहे,  नहीं बने शैतान ||


पञ्च रत्न का हो गठन, वही उठाये भार | 

करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||


शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |

दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||


करिए इनका व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |

महासचिव की आन पर, किन्तु न आवे आँच ||


हरिगीतिका छंद 

सहमत हुए नृप हर विषय पर, दे दिया अधिकार सब।

वह भी हुई हर्षित बहुत, सम्पन्न करना कार्य अब।

युवराज भी संदेश पाकर आ गये भूपति जहाँ।

रोमांच था अपने चरम पर, दृश्य झट बदला यहाँ।


संक्षेप में सारी कथा, शांता कही युवराज से।

वह  सँभालेगी व्यवस्था, राज्य की भी आज से।

युवराज लम्बी सांस लेकर, रह गये ऐसा लगा।

सारी हकीकत जान कर, फिर सिर झुका बाहर भगा।।


डुग्गी बजी फिर हर जगह, उन पांच-रत्नों के लिए। 

होना इसी रविवार साक्षात्कार रविकर आइए। 

पंडित बुलाकर शुभ मुहूरत देखते इस व्याह का।

फिर से टटोला मन गया रूपा सहित युवराज का।


हे तात इतनी शीघ्रता इस ब्याह हित क्यों कर रहे.

मन में मगर मोदक दबाये, सोम शांता से कहे.

अपनी सखी से पूछ लो, सहमति जरुरी है बहन.

मुझको नहीं आपत्ति कोई, आज हो या कल लगन.


शुभ ब्याह की पारम्परिक हर रीति की जाने लगी.

गौरी गजानन को मनाने गीत सब गाने लगी.

आये अवध-नृप राम-लक्ष्मण संग कौशल्या रही.

भाई भतीजे भाभियों को देखकर कौला कही.


आभार है माँ आपका, परिवार जो लाई बुला.

स्वागत करे हर एक का वह, पैर सबके दी धुला.

सृंगी न आ पाये मगर, ऋषिराज आये है वहाँ.

पर ब्याह की इस हड़बड़ी से, सोम चिंतित है यहाँ.


 दोहा छंद 

जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |

दीदी से जाकर करें, वह विनती मनुहार ||

 

दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |

शर्त दूसरी पूर्ण कर, कर न व्यर्थ संताप ||


दीदी के छूकर चरण, शर्त दूसरी मान।

गया कक्ष में सोम फिर, सोया चादर तान।।


हरिगीतिका छंद 

नारी बहन माँ गुरु सखी, पत्नी बुआ मौसी बने।

कितने विविध आयाम हैं, देखे सुने संसार ने।

ममता समर्पण स्नेह श्रद्धा, त्याग की विश्वास की.

प्रतिमूर्ति नारी है युगों से, पर न मानें पातकी ।।


दायित्व लेकर सत्यनिष्ठा से करे हर कर्म वह.

रानी बने सन्यासिनी, हर्षित निभाए धर्म वह 

दासी सुता रानी बने, पर गर्व किंचित भी नहीं.

दो दो घरों की शान ये, होती कहीं जाती कहीं.


नारी सबल, सामर्थ्यमय, कम शक्ति है तन में भले.

मजबूत अंतर्मन मगर, वह हर परिस्थिति में ढले.

पालक-पिता का कर भला, की जन्मदाता का भला।

करने सखी का अब चली, जब दीप शिक्षा का जला।।


दोहा छंद 

हो जाता सम्पन्न यूँ , पाणिग्रहण संस्कार।

वर-वधु शांता से मिले, प्रकट करें आभार।


सरसी छंद 

हुई प्रबल अनुभूति-तरंगें, सूर्यदेव जब अस्त |

समाचार ले रहे परस्पर, शांता सृंगी व्यस्त  |

परम बटुक पाने लग जाता, राजवैद्य का नेह |

साधक आयुर्वेद साधता, करता अर्पित देह ||


कौशल्या कन्याशाला में, रही सुबह से घूम।

मन आनंदित कर देती है, ललनाओं की धूम।

एक अकेली कन्या आकर, करती यहाँ कमाल।

संस्कारित शिक्षित करती वह, दो सौ कन्या पाल |।


हर बाला ही वंश बेल है, फूले-फले विशाल |

देवि मालिनी कर देती है,  हरी-भरी हर डाल ||

शाळा को देती कौशल्या, दो हजार अनुदान |

ऐसी ही शाला खोलेगी, लेती मन में ठान।।


राम-लखन के साथ समय का, उसे न रहता ध्यान।

दूल्हा-दुल्हन का पथ छेकी, बहना के अरमान।।

स्वर्णाभूषण आप त्यागती, आडम्बर से दूर । 

भौतिकता भी नहीं सुहाता, है कुछ बात जरूर ||


दीदी बोली सही सोम तुम, शर्त दूसरी मान |

हरदिन रूपा जाये शाला, बिना किसी व्यवधान ।

जिम्मेदारी इसे सौंप दो, खींचों नहीं लकीर  |

नारी में है शक्ति अनोखी, बदल सके तस्वीर ||


कन्याएं दो सौ से ज्यादा, रहे व्यवस्था ठीक। 

हरे पाठशाला की चिंता, रूपा सोच सटीक।

बना व्यवस्था चल पड़ती फिर, वह शाळा की ओर |

आचार्या आत्रेयी को दी, पञ्च-रत्न की डोर ||


भाग 2


पञ्च-रत्न 


सरसी-छंद 

आचार्या करने लग जाती, प्रश्न-पत्र तैयार |

कई चरण की जाँच-परख से, पाना होगा पार |

नियत समय तिथि पर आते हैं, लेकर सब उम्मीद |

कन्याशाला में ठहरे सब,  पढ़ उद्धृत-ताकीद ||


पहले दिन आराम करें सब, हुई न कोई जाँच |

कोई नगर भ्रमण करता है, कोई पुस्तक बाँच |

कोई देखे बाग़-बगीचे, कोई गंगा तीर |

क्रीड़ास्थल पर खेल रहे हैं, कई सयाने वीर ||


मिताहार है कई लोग तो, मिताचार से प्यार |

कुछ तो भोजन-भट्ट दिखे हैं, कई दिखे लठमार |

कोई मंदिर होकर आया, कोई गाये गीत। 

कोई चित्र बनाने बैठा, रहा समय यूँ बीत।


विधाता

सुबह सूची हुई जारी, गये इक्कीस घर वापस। 

परीक्षण स्वास्थ्य का होता, हुए वापस यहाँ भी दस।

हुए उत्तीर्ण इक्तालिस,  बुलाती धार गंगा की।

डुबाया भाग्य ग्यारह ने, रहे अब तीस जन बाकी।।


परीक्षा फिर लिखित होती, हुए उत्तीर्ण अट्ठारह। 

अतिथि लेकिन अभी भी वे, वहीं रहते सभी बारह।

सफल प्रतिभागियों को फिर, अकेला कक्ष मिल जाता।

परीक्षा एक निर्णायक, न कोई किन्तु घबराता।।


दोहा छंद 

था पहले इक्कीस में, शाला के प्रति द्वेष |

शिक्षा के प्रति रुचि घटी, कुछ में दर्प विशेष ||


सार छंद 

राजकाज के एक तरह के, कार्य सभी ने पाये |

तीन दिनों का समय सुनिश्चित, शीघ्र न कोई आये |

प्रतिवेदन प्रस्तुत कर देते, फिर सारे प्रतियोगी |

छँटनी करना बहुत कठिन है, पर ग्यारह की होगी ||


गुप्तचरों की मिली सूचना, पढ़कर प्रस्तुत विवरण |

चुने महामंत्री शांता सह, नौ प्रतिभागी तत्क्षण |

अनुत्तीर्ण इक्कीस रुके हैं, वहीं अतिथि शाला में।

सुख-दुख बाँट रहे आपस में, कुछ डूबे हाला में।।


दोहा छंद 

अगले दिन दरबार में, बैठे अंग नरेश |

नौ के नौ आयें वहाँ, धर दरबारी वेश ||


साहस संयम शिष्टता, अनुकम्पा औदार्य |

मितव्ययी निर्बोधता, न्याय-पूर्ण सद्कार्य ||


क्षमाशीलता सादगी, हैं सहिष्णु गंभीर |

सब प्रफुल्ल-मन सत्य-व्रत, निष्कपटी रणधीर ||


शुद्ध स्वस्ति मेधा चपल, हो चारित्रिक ऐक्य |

दानशील आस्तिक सजग, अग्र-विचारी शैक्य ||


सर्वगुणी सब विधि भले, सब के सब उत्कृष्ट |

अंगदेश को गर्व है, गर्व करे यह सृष्ट ||


जाँच-परखकर कर रहे, सबको यहाँ नियुक्त |

एक वर्ष उपरांत ही, होंगे चार विमुक्त ||


अनुत्तीर्ण तेइस जने, उनमें से भी तीन।

रखे गये दरबार में, अवसर मिला नवीन।।


विधाता छंद 

मिली पुष्पा मिली पुत्तुल, बुलाकर पास रमणी से।

सुरक्षा का निवेदन कर,  मिली भाभी सहेली से।

मनाने जन्मदिन सबका, अयोध्या-धाम जाती वह।

बिताकर एक पखवारा, पुन: ससुराल आती वह।।


भाग  3


विधाता-छंद 

उजेरे चैत्र की नवमी, बिताकर पाख चल देती। 

नहीं उपहार कुछ लेती, पुराने वस्त्र ले लेती।

बटुक भी साथ में आया, बढ़ी रौनक खुशी छाई।

बदलती चाल भी उनकी, बड़ी उम्मीद ले आई।।


लगे हैं शोध में सृंगी, लगी है सास सेवा में। 

सभी पौष्टिक पदार्थों सह खिलाती फल कलेवा में।

हुआ बदलाव काया में, बदल जाता अभी भोजन।

सभी खुश रख रहे उनको, हुआ आनंदमय जीवन।।


दोहा छंद 

वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |

सृन्गेश्वर की है कृपा, उपजा बढ़िया धान ||


विधाता

हुआ फिर जन्म कन्या का, बजी थाली बजी ताली।

प्रसूता स्वस्थ है शिशु भी, चतुर्दिक खूब खुशहाली।

पितामह और मातामह नहीं फूले समाते हैं।

अयोध्या अंग से माता, पिता, भ्रातादि आते हैं।।


हुए यूँ वर्ष दो पूरे, हुआ दीक्षांत सम्मेलन। 

बटुक का पाठ्यक्रम पूरा, गया वह वैद्य रविकर बन।

किया परिवार से चर्चा, गया वह गाँव फिर वापस।

बुलाया मातु मातामह, हुए सब साथ में समरस।


सार-छंद 

तीन साल में कीर्ति-पताका, दूर-दूर फहराई।

एक दिवस चम्पानगरी से, शुभ राजाज्ञा आई।

राजवैद्य का रिक्त हुआ पद, शोभा तुम्हें बढ़ाना।

गाँव छोड़कर किन्तु वैद्यमन, नहीं चाहता जाना।।


दोहा छंद 

क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छूटता ग्राम |

आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||


सार छंद 

इस रक्षाबंधन पर शांता, गाँव बटुक के जाती।

पुत्र गोद में खेले पुत्री, मामा कह तुतलाती।

पाणिग्रहण पुत्तुल का करना, अपनी इच्छा बोलो।

मेरी तो सहमति है दीदी, पुत्तुल हृदय टटोलो ||


शांता लेकर बटुक वैद्य को, चम्पानगरी जाती |

पुत्तुल ने इनकार किया तो, समझाती, मुस्काती || 

यह जीवन शाळा को अर्पित, कहीं न मुझको जाना|

बस नारी-उत्थान करूंगी, मन में मैंने ठाना ||


पुष्पा से एकांत अंत में, मिलती शांता बहना |

वैद्य बटुक से व्याह करोगी, बोलो क्या है कहना |

शरमाकर वह बाहर भागी, जैसे भरती हामी।

बनती अर्धांगिनी बटुक की, वैद्य हुआ जो नामी।।


रूपा से मिलकर के दीदी, अति-प्रसन्न जाती।

एक गोद में मिला खेलता, दूजी रोती-गाती।

पञ्च-रत्न की कथा अनोखी, हँसती शांता सुनकर ।

छद्म-असुर से चार अभागे, भागे रविकर डरकर।


सरसी-छंद 

पञ्च-रत्न को दिया एक दिन, वह अभिमंत्रित धान |  

खेती करने को कहती वह, देकर पञ्चस्थान |

बढ़िया रोपण हुआ दुबारा, मन सा निर्मल भात | 

खाने में स्वादिष्ट बहुत ही, भूखा पेट अघात || 


राज काज मिल देख रहे हैं, पंचरत्न सह सोम | 

महासचिव हैं  साथ हमेशा, कुछ भी नहीं विलोम |

एक दिवस फिर पिता-सुता ने, सबको लिया बुलाय | 

पंचरत्न में सदा चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय |


चाटुकारिता से नित बचना, इंगित करना भूल | 

यही मंत्रिपरिषद का समझो, सबसे बड़ा उसूल |

औरन की फुल्ली लखते जो, आपन  ढेंढर  नाय

ऐसे   मानुष  ढेर जगत में,   चलिए  इन्हे  बराय|| 


जीवन तो निर्बुद्धि व्यक्ति का, सुख-दुःख से अन्जान |

निर्बाधित जीवन जी लेता,  बिना किसी व्यवधान  |

श्रमिक बुद्धिवादी है रविकर,  पाले  घर  परिवार |

मूंछे  ऐठें  ठसक दिखाये,  बैठे  पैर पसार  ||


बुद्धिजीवियों का  है लेकिन, अति-रोचक अन्दाज |

जिभ्या ही करती रहती है, राज-काज आवाज |

बुद्धियोगियों का मन  कोमल,  लेकर  चले समाज |

करे जगत का सदा भला ये, लेकिन दुर्लभ आज ||


सेवा के नि:स्वार्थ भाव से, देखो भाग विभाग | 

पैदा करने में लग जाओ, जनमन में अनुराग |

वहाँ सही संतुष्टि प्राप्तकर, लौट रही ससुराल। 

मातु-पिता से कहकर लौटी, आऊँगी पर-साल।।


विधाता-छंद 

कुशलता से व्यवस्था कर, सकल आश्रम सजाया है।

हुए सुत आठ दो कन्या, सभी को ही पढ़ाया है।

बने गुणवान गुणवंती, पुराणों वेद  के ज्ञाता।

किसी को शास्त्र भाता है, किसी को शस्त्र भी भाता।


विविन्डक रिष्य अब अपनी विरासत सौंपने आते।

जहाँ पर रुद्र खंडेश्वर उसी आश्रम चले जाते।

इसी को भिंड अब कहते, यहीं पर मोक्ष वे पाते।

बढ़ा परिवार पौत्रों से, बढ़े रिश्ते बढ़े नाते।।


दोहा छंद 

गिरे पुराने पात तो, धारे वृक्ष नवीन।

बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||


नहीं बुढ़ापे से बड़ी, जग में कोई व्याधि।

बसे विविन्डक भिंड में, रविकर सजी समाधि।।


भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |

सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात || 


सरसी-छंद 

एक अवध में जा बसे हैं, सरयू तट के पास |

बरुआ सागर झांसी आता, एक पुत्र को रास |

विदिशा जाकर बस जाते हैं, शांता पुत्र कनिष्ठ। 

बढ़ा रहा पुष्कर की शोभा, जो था तनिक वरिष्ठ|।


आगे जाकर यह कहलाये, छत्तीस कुल सिंगार |

छह-न्याती भाई का कुनबा, अतुलनीय विस्तार ||

आज हिमाचल में बसते हैं, चौरासी सद्ग्राम | 

वंशज सृंगी के रहते हैं, यहाँ सतत् अविराम ||


सृंगी दक्षिण में चल जाते, पर्वत बना निवास |

ज्ञान बाँट कर परहित करते , शांता रहती पास |

वंश-बेल बढती जाती है, तरह तरह के रूप | 

कहीं मनीषी बनकर रमते, हुए कहीं के भूप || 


मंत्र-शक्ति है प्रबल प्रभावी, तंत्रों पर अधिकार | 

कलियुग के प्रारब्ध काल तक, करे वंश व्यवहार |

भूप परीक्षित हुए भ्रमित जब, कलियुग का संत्रास | 

बुद्धि भ्रष्ट कर देता करके, स्वर्ण-मुकुट में वास।।


सार छंद 

सरिता तट पर ऋषि शमीक ने, प्रभु में ध्यान लगाया।

ढोंगी समझा उन्हें परीक्षित, मरा सर्प ले आया।

ऋषि शमीक की गर्दन में फिर, वही सर्प लिपटाया।

ऋषि कुमार जो कहीं दूर था, समाचार जब पाया। 


अंजुलि में जल लेकर उसने, नृप को शाप दिया था।

मरे सर्प ने डसा भूप को, फिर वह कहाँ जिया था।

मंत्रों की इस महाशक्ति से, कोई नहीं अपरिचित। 

किन्तु कठिन उद्यम से करता, कोई  कोई अर्जित।।


पूर्ण सफल जीवन शांता का, बनकर रही सुहागन।

पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण करे आज आराधन। 

सूखे के दुर्योग काटते, मंत्र-शक्ति हितकारी।

वंश बढ़ाते श्रृंगी-शांता, जन-गण-मन आभारी।।


मत्तगयन्द सवैया  

संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा ।

संभव वर्षण कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा । 

पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा ।

स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा।।

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