प्रेरणास्रोत भजन का काव्यानुवाद
राम जाते जनक फुलवारी, मिली सीता प्यारी कि वाह वाह.
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह
शांता सुता अवध महकाई.
खुश दशरथ कौशल्या माई
दोनों खोजें भद्र जमाई.
राजपुरुष पर खोज न पाई.
ले भागा कुमारी प्यारी, जटाजूट धारी कि वाह वाह..
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह
चौथेपन तक पुत्र न पाया.
दशरथ जी ने जुगत भिड़ाया.
श्रृंगी ऋषि से यज्ञ कराया.
सात दिनों तक खीर पकाया.
खीर खाकर अवध की नारी, बने महतारी कि वाह वाह..
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह
धनुष भंगकर सीता पाये
लखन भरत रिपुसूदन आये
खुशी न दशरथ हृदय समाती
आये सजधजकर बाराती
क्यों आई न राजकुमारी, बहन बेचारी कि वाह वाह।
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह।।
एक कलश से खीर बंटाई।
कौशल्या-कैकेई पाई।
पर आधी आधी ही खाई
शेष सुमित्रा को दे आई।
छवि किसी पुत्र की गोरी, किसी की कारी कि वाह वाह
खिलाती उन्हें दे दे गारी, जनकपुर की नारी कि वाह वाह।।
वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में शांता का वर्णन
इच्छ्वाकूणाम् कुलेजातो, भविष्यति सुधार्मिक:
नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान् सत्य प्रतिश्रव: ।।1-11-2।।
अंगराजेन सख्यम् च तथ्य राज्ञो भविष्यति।
कन्या च अस्य महाभागा, शांतानाम भविष्यति।।1-11-3।।
पुत्रस्तु अंगस्य राज्ञ: तु रोम्पाद इति श्रुत:
तम् स राजा दशरथो गमिष्यति महायशा:।।1-11-4।।
(1)
सार-अंश सम्मत सबही की : रविकर
प्रिय पाठक,
यह प्रबंध-काव्य कोई संयोग नहीं अपितु बाल्यकाल से ही नियति संकेत देती रही थी | बचपन में हम सभी बच्चे अपने ननिहाल चिलवरिया बहराइच (उ प्र ) अपने नाना-नानी स्व रामविहारी - स्व राधारानी के यहाँ अक्सर जाया करते थे. वहाँ के मुख्य मंदिर में जनकपुर से एक प्रवचनकर्ता आया करते थे. उनके द्वारा उपस्थित सभी नारियों को सीता दल और राम दल में बाँटकर भजन कराया जाता था. राम दल का नेतृत्व प्रायः मेरी माँ स्व विद्योत्तमा और सीता दल का नेतृत्व मेरी प्रिय मौसी शकुंतला जी किया करती थी. पूर्व-पृष्ट पर प्रस्तुत भजन के यही जटाजूट धारी राम जी के बहनोई हैं.
राजकीय इंटर कॉलेज, अयोध्या से मैंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई की है. यहीं पास में मखौड़ा गाँव है, यही पुत्रेष्ट-यज्ञ का मखक्षेत्र है | झाँसी से मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा किया है. यहीं पर पास में ही बरुवा सागर नाम का नगर है, जहां श्रृंगी ऋषि का प्राचीन मंदिर स्थित है. उस समय तक मुझे विदिशा के मंदिर की जानकारी भी प्राप्त हो चुकी थी.
आई आई टी धनबाद से टेक्निकल सुपरिटेंडेंट के रूप में अगस्त 2020 में अवकाशप्राप्त किया, अर्थात कोसी अंगदेश एवं सृंगेश्वर महादेव की छत्रछाया में काफी समय व्यतीत किया है।
जब मेरे सुपुत्र कुमार शिवा (AGM, सरकारी उपक्रम) ने 2011 में मेरा पहला ब्लॉग "कुछ कहना है " बनाया तो मेरी रचनाओं को एक सशक्त आधार मिल गया और कुछ मास उपरांत ही मैंने " प्रभु श्रीराम की सहोदरी : देवि शांता"
नामक प्रबंध-काव्य की रचना प्रारम्भ की. ब्लॉग पर तो 2012 में ही पूरा प्रबंध काव्य प्रकाशित का दिया था परन्तु कतिपय कारणों से यह पुस्तक रूप में आपके कर-कमलों में आज आ पाई.
ब्लॉग लेखन के समय मेरे साहित्यिक गुरू श्री रुपचंद्र शास्त्री मयंक खटीमा उत्तराखंड मित्रों श्री अरुण कुमार निगम दुर्ग छत्तीसगढ़ श्री प्रतुल वशिष्ठ, नई दिल्ली एवं श्री संतोष त्रिवेदी, नई दिल्ली मेरा उत्साह वर्धन करते रहे. फेसबुक की दुनिया में श्री गोप जी मिश्र, जयपुर जिन्होंने पुस्तक प्रकाशन से पूर्व सश्वर पाठ कर संशोधन कराया तथा श्री विश्वम्भर त्रिपाठी जसपुर उत्तराखण्ड के प्रति आभार प्रकट करता हूँ.
राष्ट्रीय कवि संगम के राष्ट्रीय अध्यक्ष आदरणीय जगदीश मित्तल जी महामंत्री डॉ अशोक बत्रा जी एवं झारखण्ड प्रांत के राष्ट्रीय कवि संगम के प्रभारी श्री दिनेश जी देवघरिया, अध्यक्ष श्री सुनील खवाड़े जी, उपाध्यक्ष द्वय श्री उदयशंकर उपाध्याय जी एवं श्री पंकज झा जी, महामंत्री श्री सरोजकांत झा जी को सादर प्रणाम करता हूँ एवं अपने प्रिय शिष्य अनंत महेन्द्र का आभार व्यक्त करता हू। धनबाद छोड़ने के बाद मैं राष्ट्रीय कवि संगम झारखण्ड प्रान्त के मुख्य मार्गदर्शक के दायित्व का निर्वहन अभी भी कर रहा हूँ। ( छपते-छपते ) देवि शांता की कृपा से ही मुझे IIIT राँची में पुनर्नियुक्ति मिली है |
अपने पिता स्व लल्लूराम यज्ञसैनी बाबा कालीचरण और बड़े भैया श्री सुरेश चंद्र के चरणों में सादर प्रणाम करता हूँ.
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सीमा गुप्ता के कड़े अनुशासन और परिवार संभालने की विलक्षण प्रतिभा को सादर प्रणाम करता हूँ. उनके सहयोग के बिना ऐसी स्वछंदता का समय तो बिल्कुल ही नहीं प्राप्त होता.
सुपुत्र कुमार शिवा पुत्र-वधु प्रिया (बैंक मैनेजर, बैंक ऑफ़ बड़ौदा ) सुपुत्री मनु गुप्ता (टेस्ट लीड, IT, बंगलौर) दामाद रमेश मद्धेशिया (लीड DevOps इंजीनियर, IT बंगलौर) एवं सुपुत्री स्वस्तिमेधा (शोधछात्र, IIT) दामाद अंकुर अग्रवाल (शोधछात्र, IIT) का बहुत बहुत आभार जिनके सहयोग से मैं सतत अपना रचनाधर्म निभाता जा रहा हूँ.
कवि-परिचय
दिनेश चन्द्र गुप्ता 'रविकर'
पटरंगा मंडी, अयोध्या
उत्तर प्रदेश 225404
माता-पिता
स्व विद्योत्मा , स्व लल्लू रामगुप्ता
जन्म: 15-08-1960
शिक्षा : आई आई टी (आई एस एम) धनबाद से एडवांस डिप्लोमा इन माइनिंग इंस्ट्रूमेंटेशन एंड टेलीकम्युनिकेशन
आई आई टी (आई एस एम) धनबाद से अगस्त 2020 में अवकाशप्राप्त ।
दिसम्बर 2021 से आई आई आई टी रांची, झारखण्ड में टेक्निकल सुपरिटेंडेंट के रूप में पुनर्नियोजन।
प्रकाशन: एक दर्जन साझा संस्करण
सम्पादन: काव्य-मयूरी साझा काव्य-संग्रह : शब्दांकुर प्रकाशन दिल्ली
उल्लेखनीय योगदान: कर्नाटक राज्य अक्कमहादेवी महिला विश्वविद्यालय, विजयपुर के बी. एस् सी. तृतीय सेमेस्टर (अनिवार्य) पाठ्यक्रम में मेरी कविता "आरोग्य सूत्र" पाठ के रूप में स्वीकृत।
dcgpth@gmail.com
9793734837
(2)
मस्तिष्क सृंगी का प्रसारित कर रहा शाब्दिक लहर
· कवि दिनेश चन्द्र गुप्ता 'रविकर' (पटरंगा मंडी, अयोध्या) का नाम किसी परिचय का मुहताज नहीं है। हिन्दी ब्लॉगिंग के शैशवावस्था से ही ये अपने निम्न ब्लॉगों "कुछ कहना है, लिंक-लिक्खाड़, रविकर की कुण्डलियाँ, रविकर-पुंज, शांता : श्री राम की बहन के द्वारा देवनागरी की निरन्तर सेवा में संलग्न हैं।
दिनेश चन्द्र गुप्ता “रविकर” जी से मेरा परिचय 12-13 साल पुराना है। उस समय ये आई.आई.टी. धनबाद में के वरिष्ठ तकनीकी सहायक के पद पर कार्यरत थे। इस अवधि में मैंने यह अनुभव किया है कि कवित्व आपके भीतर कूट-कूट कर भरा है। जिसकी परिणति है "मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता" का सृजन। जिसमें भावपक्ष के साथ-साथ कलापक्ष भी प्रबल रहा है।
दिनेश चन्द्र गुप्ता 'रविकर' ने अपने ब्लॉग "कुछ कहना है" में जब रामायण के इस उपेक्षित पात्र का वर्णन किया तो मुझे आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ। तभी मैंने इनको सुझाव दिया कि आप इसको पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराइए। मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि इन्होंने देर से ही सही लेकिन मेरे सुझाव को माना और इस सृजन को मुझसे साझा किया है। "मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता" (प्रबंध काव्य) की पाण्डुलिपि को मैंने कई बार सांगोपांग बाँचा है। उसी के आधार पर इस प्रबन्ध काव्य के विषय में दो शब्द लिखने को बाध्य हूँ।
यद्यपि दिनेश चन्द्र गुप्ता 'रविकर' की प्रबन्ध काव्य के रूप में "मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहनः भगवती शांता" शायद यह पहली ही पुस्तक है जो अब प्रकाशन के लिए तैयार है। दिनेश चन्द्र गुप्ता 'रविकर' ने प्रबन्ध काव्य की सभी मान्यताओं और विशेषताओं का संग-साथ लेकर दशरथपुत्र राम की सहोदरी "भगवती शांता" के कथानक को पाँच सर्गों में बाँधा है। जिसमें दोहा-सोरठा, सार छन्द, सरसी छन्द, हरिगीतिका छन्द, गीतिका छन्द, चौपाई छन्द, सवैया, राधिका छन्द आदि का प्रयोग किया गया है।
इस संकलन के कुछ दोहे उदाहरणस्वरूप निम्नवत् हैं-
"इड़ा पिंगला साधते, मिले सुषुम्ना गेह ।
बरस त्रिवेणी में रहा , सुधा समाहित मेह ।।
--
जल-धारा अनुकूल पा, चले जिंदगी-नाव ।
धूप-छाँव लू कँपकपी, मिलते नए पड़ाव ।।"
"मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहनः भगवती शांता" प्रबन्धकाव्य में घनाक्षरी छन्द का भी प्रयोग बहुत सुन्दर बन पड़ा है-
" घनाक्षरी
धरती के वस्त्र पीत, अम्बर की बढ़ी प्रीत
भवरों की हुई जीत, फगुआ सुनाइये ।
जीव-जंतु हैं अघात, नए- नए हरे पात
देख खगों की बरात, फूल सा लजाइये ।
चांदनी तो सर्द श्वेत, आग भड़काय देत
कृष्णा को करत भेंट, मधुमास आइये ।
धीर जब अधीर हो, पीर ही तकदीर हो
उनकी तसवीर को , दिल में बसाइए ।।"
संकलन में प्रयुक्त सवैया छन्द के भी उदाहरण देखिए-
"अरसात सवैया
शांत शरिष्ठ शशी सम शीतल, शारित शिक्षित शीकर शांता ।
वाम विहारक वाहन वाजि वनौध, विषाद विभीत वि-भ्रांता ।
स्नेह दिया शुभ कर्म किया, खुशहाल हुवे कुल दोउ वि-श्रांता ।
भीषण-काल अकाल पड़ा, तब कष्ट हरे बन श्रृंगिक -कांता |
"मत्तगयन्द सवैया
संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा ।
संभव वर्षण कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा ।
पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा ।
स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा।।"
धार्मिक कथानक में हरिगीतिका छन्द का बहुत महत्व होता है। देखिए-
"हरिगीतिका छंद
मस्तिष्क सृंगी का प्रसारित कर रहा शाब्दिक लहर।
होने लगी वार्ता अनोखी, प्रेम से मन तरबतर।
शांता कुशलता पूछती सादर नमस्ते बोलकर।
मंथन करें फिर संग दोनों अंग के हालात् पर।।
सरसी छन्द का भी प्रयोग इस प्रबन्धकाव्य में मणि-कांचन के संयोग जैसा है-
"सरसी-छंद
सातों वचनों को कर लेते, दोनों अंगीकार |
बारिश की लग गई झड़ी फिर, हुई मूसलाधार |
वर्षा होती सदा एक सी, उर्वर लेती सोख |
ऊसर सर-सर सरका देती, रहती बंजर कोख |
प्रबन्ध काव्य की शोभा बढ़ा रहा चौपाई का भी एक प्रयोग देखिए-
"द्विगुणित चौपाई
छेद नाव में, अटके-नौका, कभी नहीं नाविक घबराये ।
जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाये ।
इतना लम्बा जीवन-अनुभव, नाव शर्तिया तट पर आये.
पतवारों पर अटल भरोसा, भव-सागर भी पार कराये ।।"
संकलन में सार छन्द भी सुन्दर बन पड़ा है-
"सार छंद
औषधि वितरण करें जहां पर, वहाँ पहुँचती दीदी.
देख परस्पर तृप्त हुआ मन, आँखें किन्तु उनीदी.
पीड़ा सहकर भी करता है, परहित मेरा भाई.
सही चिकित्सक कर्म यही है, रविकर बहुत
बधाई
|"संकलन में विधाता छन्द का प्रयोग भी प्रबन्ध काव्य की शोभा को द्विगुणित कर रहा है। देखें-
"विधाता छंद
कुशलता से व्यवस्था कर, सकल आश्रम सजाया है।
हुए सुत आठ दो कन्या, सभी को ही पढ़ाया है।
बने गुणवान गुणवंती, पुराणों वेद के ज्ञाता।
किसी को शास्त्र भाता है, किसी को शस्त्र भी भाता।
विविन्डक रिष्य अब अपनी विरासत सौंपने आते।
जहाँ पर रुद्र खंडेश्वर उसी आश्रम चले जाते।
इसी को भिंड अब कहते, यहीं पर मोक्ष वे पाते।
बढ़ा परिवार पौत्रों से, बढ़े रिश्ते बढ़े नाते।।
कुण्डलिया छन्द के तो कवि दिनेश चन्द्र गुप्ता "रविकर" विशेषज्ञ माने जाते हैं। इस संकलन में एक प्रयोग कुण्डलिया छन्द का भी देखिए-
" कुंडलियाँ छंद
अभिमुख ध्रुवतारा लखे, पाणिग्रहण संस्कार।
हुई प्रज्वलित अग्नि-शुभ, होता मंत्रोच्चार।
होता मंत्रोच्चार, सात फेरे करवाते।
सात वचन स्वीकार, एक दोनों हो जाते।
ले उत्तरदायित्व, परस्पर बाँटें सुख-दुख।
होय अटल अहिवात, कहे ध्रुवतारा अभिमुख।।"
मुझे आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि “मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता” प्रबन्धकाव्य पाठकों के दिलों की गहराइयों तक जाकर अपनी जगह बनायेगा और समीक्षकों की दृष्टि में भी उपादेय सिद्ध होगा।
मुझे यह भी आशा है कि कवि दिनेशचन्द्र गुप्ता “रविकर” जी की और भी कई कृतियाँ जल्दी ही प्रकाशित होंगी।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कवि एवं साहित्यकार
टनकपुर-रोड, खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262308
E-Mail . roopchandrashastri@gmail.com
हमारे मामा राम चंद्र यज्ञसैनी कोट बाजार पयागपुर श्रावस्ती में रहते थे, उन्हें कविता रचते देखना और सश्वर पाठ करना मुझे आकर्षित करता था. उन्हें देखकर मैं भी तुकबंदी करने लगा, मेरी कविता
हम हिंदुस्तानी बड़े भाग्यशाली हैं .
यह भूमि हमारी पोषण करने वाली है.
उस दिन मैं जनता ट्यूबवेल & हैण्डपम्प कम्पनी के अपने ऑफिस /शॉप पर बैठा हुआ कागज पर यह पंक्तियाँ उकेर रहा था कि तभी कक्षा 4 में पढ़ने वाले मेरे अनुज दिनेश विद्यालय से आये उन्होंने पूछा कि भैया यह क्या है तो मैंने उन्हें बताया कि कविता रचने कि कोशिश कर रहा हूँ. वे भी तुकबंदी करते हुए मुझे देखने लगे, अचानक दिनेश ने कहा कि यह पंक्ति गड़बड़ है, ऐसे कहिए
हर हिंदुस्तानी बड़ा भाग्यशाली है.
यह भूमि हमारी पोषण करने वाली है.
फिर बोले
हमारी पोषण भी मत करिए. हमारा पोषण करना सही रहेगा. वह दिन और आज का दिन. अपने अनुज पर बहुत गर्व है मुझे. बहुत बहुत आशीर्वाद.
सुरेश चंद्र गुप्ता
पटरंगा मंडी,
जिला: अयोध्या
(4)
'प्रभु श्रीराम की सगी बहिन - भगवती शांता' के रचयिता प्रज्ञान-कवि दिनेश चंद्र गुप्ता 'रविकर' की एक विशेष कृति है जो साहित्य के फलक पर अपना विशेष महत्त्व रखती है। विशेष इसलिए क्योंकि यह प्रबंध-काव्य महाकाव्य रामायण के उस चरित्र का वर्णन करता है जो सर्वथा उपेक्षित रहा है।
शांता सुता,दशरथ पिता हैं, मातु कौशल्या रही
शृंगी मिले पति रूप में, है लोक गाथा कुछ कही
श्रीराम की भगिनी मगर,तुलसी महाकवि मौन है
विद्वान - विदुषी पूछते, 'यह देवि शांता कौन है?'
इसलिए रविकर जी द्वारा रचित इस काव्य में इस पक्ष की पीड़ा, विडम्बना, शोषण,भेदभाव और संघर्ष बहुत उभर कर सामने आया है। प्रबंधकाव्य का भूगोल बहुधा कवि के अनुभव क्षेत्र का परिवेश हुआ करता है क्योंकि काव्य में संवेदना के साथ परिवेश अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है। यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि हमारे रचनाकार रविकर जी छंद - विशेषज्ञ हैं, दोहा-छंद सह हरिगीतिका, गीतिका विधाता, राधिका, चौपाई , सरसी, सार, सोरठा, सवैया आदि से सुसज्जित है यह प्रबंध-काव्य।।
दिनेश चंद्र गुप्त रविकर जी तकनीकी संस्थान से जुड़े रहे हैं। उन्होंने एशिया के सबसे प्रख्यात और बड़े खनन संस्थान आई आई टी (आई एस एम), धनबाद में टेक्निकल सुपरिटेंडेंट के रूप में अपनी सेवा दी है और अब अवकाश-प्राप्ति पर पूरी तरह साहित्य को समर्पित हो गए हैं।
कुल पाँच सर्गों में समाहित इस कृति की शुरुआत सोरठा छंद में गणपति वंदना के साथ की गयी है। दशरथ-बाल, कौशल्या - दशरथ मिलन के साथ-साथ शांता-जन्म प्रथम सर्ग में हैं। पहले सर्ग में ही रावण का परिचय है जिसका उद्भव काल भी दशरथ के समय का ही है। गेहूँ और जौ के पकने के समय को ; वसंत आगमन और मौसम के बदलाव के साथ इतनी अच्छी तरह पिरोया गया है कि कहीं भी कथा बोझिल नहीं लगती। प्रथम सर्ग के छठे भाग में शांता के जन्म की कथा रची गयी है।
मास फाल्गुन शुक्ल पंचमी, मद्धिम बहे बयार ।
सूर्य देव हैं जमे शीश पर, ईश्वर का आभार ।
पुत्री जन्म महल में होता, कौशल्या हरसाय ।
राज्य ख़ुशी से लगा झूमने, जन - गण नाचे - गाय।।
पुत्री जन्म के बाद पता चलता है कि शांता के बायें पैर में दोष है, जिसका कारण राजा - रानी का समगोत्रीय होना है। इसीलिए आधुनिक युग में भी इस बात की जाँच-पड़ताल होती है।
नहीं चिकित्सा शास्त्र बताती, इसका सही उपाय।
गोत्रज जोड़ी सदा-सर्वदा, संतति का सुख खाय।।
ऐसा माना जाता है कि ऐसे दिव्यांग बच्चे का परिवेश बदलने से कुछ दोष स्वतः कट जाते हैं, इसलिए अंगदेश की रानी चम्पावती जो कौशल्या की नि:संतान बहन थी, उन्हें गोद दे दी जाती है। एक बच्ची की पीड़ा देखिए जो दिव्यांग है, मगर उस समय की मान्यताओं के अनुसार , स्वास्थ्य-लाभ हेतु माता - पिता के सुख से वंचित हो जाती है। रावण के गुप्तचर भी यह संदेश फैला देते हैं कि दशरथ के पहले पुत्र जिससे रावण को डर था, उन्हें तो कन्या हुई है। इससे वहाँ भी ख़ुशी है। कौशल्या ने पुत्री संग अपनी विश्वस्त दासी कौला को भी अंगदेश भेजा ताकि उसका लालन - पालन अच्छी तरह हो सके। कौला उसे अपनी बेटी सा मानती है जिसका विवाह राजदरबार में न्याय के लिए आए सौजा के सौतेले पुत्र दालिम से होता है। प्रबंध काव्य में यह छूट रहती है कि मूल कहानी में छेड़छाड किए बिना किसी अन्य पात्र का सृजन किया जा सकता है जो कहानी को आगे बढ़ाने में रोचकता ला सके। कौला, दालिम, सौजा, रमण, रूपा और बटुक ऐसे ही पात्र हैं। ये पात्र अपनी विश्वसनीयता बनाए हुए हैं और मूल कहानी के इर्द - गिर्द घूमते हुए उस काल खंड के ऐसे चरित्रों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इस बीच कौशल्या और दशरथ का बीच - बीच में शांता को देखने आना उनके वात्सल्य प्रेम को दिखलाता है। दो वर्षों की लगातार इलाज और मालिश - लेप के बाद शांता की दिव्यांगता में भी परिवर्तन आता है।
भाग चार में विविंडक ऋषि का उल्लेख होता है जो परा - विज्ञान, प्रजनन आदि पर निरंतर शोध कर रहे थे। उनके विकट तप से इंद्र का आसन भी डोलने लगता है। उसी समय उनके जीवन में उर्वशी का आगमन होता है। दोनों के मेल से सृंगी का जन्म होता है,लेकिन उनके सिर पर उगे सृंग उन्हें साधारण मानव से दूर कर देते हैं। उर्वशी वहाँ से वापस इंद्रलोक चली जाती है। शिशु-सृंगी को लेकर ऋषि-पत्नी हिमालय की तराई में कोसी नदी के किनारे चली जाती है। बाद में वहीं सृंगेश्वर धाम की स्थापना होती है।
शांता के सात वर्ष का होने के पश्चात जब उसके चार वर्षीय भाई सोम को गुरुकुल भेजा जाता है, तब शांता ने भी पढ़ने की इच्छा जतायी। यह उस परिवार के कुलीन होने का एक बड़ा उदाहरण है जहाँ नारियों की शिक्षा भी ज़रूरी समझी गयी । इसे ध्यान में रख कर उनकी और उनके भाई - बहन बटुक - रूपा की भी शिक्षा व्यवस्था महल में ही कर दे गयी। दालिम राजमहल का प्रमुख रक्षाकर्मी नियुक्त हो जाता है।
सृंगी एक दिन तपस्या में लीन थे तब शांता और रूपा अपनी चंचलता से उनका ध्यान भंग करते हैं। सृंगी का ध्यान भंग होता है। पहली बार वह किसी कन्या को देखते हैं और आकर्षित भी होते हैं। कुछ ऐसा ही हाल शांता का भी होता है।
कहानी में कौशल्या द्वारा दशरथ को दूसरे विवाह के लिए आग्रह करना और उनका कैकेय नरेश की कन्या से विवाह का प्रसंग भी आता है। सृंगी आश्रम ज्ञान प्रचार - प्रसार का बड़ा केंद्र था। शांता का सृंगी संग वैचारिक प्रश्नों का उल्लेख भी आता है। शायद दिव्यांगता ही सृंगी और शांता दोनों में एक - दूजे के प्रति आकर्षण का केंद्र बनती है, लेकिन दोनों की विद्वता भी प्रशंसनीय है।।
शांता भी आयी वहाँ,रही व्यवस्था देख।
फ़ुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख।।
शांता के ही साथ फिर बटुक की भी शिक्षा हुई। शांता ने नारी शिक्षा की ज्योति जगायी थी। विद्यालय खोलने की उसकी प्रबल इच्छा थी। इसके लिए उसने भाई सोम का सहारा लिया था-
' भाई ने हामी भारी, शीघ्र खुलेगा केंद्र।
नया खेल लेकिन शुरू, कर देते देवेंद्र।।'
ऐसा नहीं था कि उस समय के रूढ़िवादी समाज ने इस पाठशाला का विरोध नहीं किया था।
उसी समय भयानक अकाल पड़ा। घर के घर नाश हो गए। गाय - गोरू बिक गए। अंग भूमि से दूर असुरों का भी आतंक बढ़ गया था। विप्र वर्ग में रोष था कि राजा अपनी प्रजा का ध्यान नहीं रख रहे हैं।
शाप देकर चले जाते, न वर्षा राज्य में होगी।
राज्य दुर्भिक्ष झेलेगा, बढ़ेंगे कुछ अधिक रोगी।।
अंगदेश की इस विकट परिस्थिति में भी अपने कोष से शांता अपने आश्रम में पढ़ाई के बाद पंगत लगवाती और भूखे को खाना खिलवाती। सृंगेश्वर में मनीषियों की बैठक में जब काल - खंड का आकलन किया गया तब हल निकला कि सृंगी और शांता का विवाह होने पर ही वर्षा होगी। बटुक यह संदेश लेकर अंगदेश जाता है परंतु रानी माँ का हृदय साधु वेश में शांता का वर सृंगी को मानने से अकुलाता भी है। अयोध्या भी यह ख़बर पहुँचायी जाती है। विविंडक ऋषि ने वैवाहिक कार्य पूरे करवाए और देश हित में शांता ने सृंगी को अपना वर मान लिया। अकाल का निवारण होते ही भाई सोम द्वारा शांता ने दोनों शर्तें पूरी करवाई - पाठशाला का निर्माण और उसका स्वयं उस शाला का संरक्षक बन कर रहना।।
जो भी जन महिला शिक्षा पर, व्यर्थ सवाल उठाते।
पढ़े पतंजलि ग्रंथ आज ही, अभिभावक के नाते।
शांता जी ने किया यहाँ पर, कार्य बड़ा अलबेला।
नारी शिक्षा आवश्यक है,नर क्यों पढ़े अकेला।।
शांता - सृंगी विवाह के सम्पन्न होते ही बादल छाए, वर्षा हुई। अंग-भू अभिशाप मुक्त हो गयी।चम्पा नगरी से शांता सृंगेश्वर प्रस्थान कर गयी। कुंडलिया छंद में कविवर ने शांता के प्रवास और फिर जन्मदाता माता-पिता के कष्ट-हरण के उपाय का भी बहुत अच्छा वर्णन किया है।
सोम के चंचल व्यवहार से पिता की चिंता, रूपा का उन्माद फिर दोनों का पाणि संस्कार, अंग देश में शासन हेतु पाँच रत्न का गठन ,इनका चित्रण भी स्वभाविक ढंग से कथा के मोड़ स्वरूप दिखलाया गया है। कहानी में रवानी है,कहीं - कहीं मुख्य विषय से भटकाव भी दिखता है,लेकिन वह कथा को बांधे रहता है। लेखक को पता है कि पाठक शांता से जुड़े पहलुओं पर आकर्षित होंगे इसलिए वह बीच के गढ़े चरित्रों को ज़्यादा नहीं खींचते। विविंडक भिंड में बस जाते हैं, शांता पुत्र सागर, विदिशा और पुष्कर में ज्ञान बाँट कर कल्याण कार्य में जुड़ गए।सृंगी और शांता दक्षिण चले जाते हैं । इस तरह शांता की वंश बेल बढ़ती गयी। परीक्षित और ऋषि शमीक की घटना से मंत्रों का प्रभाव दिखाया गया है। साथ ही, समय की अनिश्चतता और कलयुग का संत्रास भी।
पूर्ण सफल जीवन शांता का, बनकर रही सुहागन।
पूरब पश्चिम,उत्तर दक्षिण करे आज आराधन।
सुख के दुर्योग काटते ,मंत्र शक्ति हितकारी।
वंश बढ़ाते शृंगी - शांता,जन गण मन आभारी।।
कहते हैं जो शक्ति नारी को प्राप्त है वह अगर उनसे छीन ली जाय तो संसार का अंत निश्चित है। नारी अपने जन्म क्षेत्र से लेकर कर्म क्षेत्र तक के उत्थान का कारण है। एक राजकुमारी साध्वी भी हो सकती है और एक साध्वी राजकुमारी भी,कथ्य यह है कि किसी भी स्थिति में वह विचलित हुए बिना अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करती है। कन्याओं का दुःख शांता से नहीं देखा गया, उसे शिक्षा में ही स्वयं के उद्धार की बुनियाद दिखती है इसलिए नारी शिक्षा के लिए वह आजीवन प्रयत्नरत रही। उसकी विकलांगता उसके लिए वरदान बन गयी क्योंकि ऋषि शृंगी से मिलना और उनका वरण करने में यही दिव्यांगता काम आयी। लेखक ने हर पात्र को स्थान देकर उनके साथ न्याय किया है। कथा में रवानी है। छंद विधा में शिल्प का निर्वाह भी आकर्षक है । मुझे उम्मीद है कि रविकर जी का यह प्रबंध काव्य पाठकों में अमिट छाप छोड़ेगा। हर पीढ़ी के लिए यह सृजन रोचक और जानकारी भरा होगा।
शुभकामनाएँ
डॉ. कविता विकास
(लेखिका व शिक्षाविद्)
कोयलानगर,धनबाद
ई मेल – kavitavikas28@gmail.com
मोबाइल - 9431320288
सर्वप्रथम श्री दिनेश रविकर जी को उनकी बहुप्रतीक्षित प्रबंध -काव्य 'प्रभु श्री राम की सगी बहन : देवि शांता' के लिए हृदय के अंतस्थल से
बधाई
। यह अनमोल कृति न केवल एक पुस्तक मात्र होगी, अपितु यह विशिष्ट छंदावली अपनी सरस व प्रवाहमयी छंदों से आगामी पीढ़ियों तक जनश्रुति के माध्यम से सनातन इतिहास के एक नेपथ्य चरित्र देवी शांता को लोकमानस तक पहुँचायेगी। मैं अपने इस बधाई-सन्देश में इस अनुपम कृति की प्रशंसा में और लिखने हेतु अपनी शब्दावली में रिक्तता का अनुभव कर रहा हूँ, तथापि आप सभी अन्य सन्देश प्रेषकों के भावानुभूतियों को अग्र-पश्च पृष्ठों में पढ़ पा रहे होंगे। अतएव, मैं इस पुस्तक के रचयिता श्री दिनेश रविकर जी के प्रति अपने भाव प्रकट करना पसंद करूँगा। विगत पाँच वर्षों के प्रगाढ़ संबंध में मैंने उन्हें साहित्य के पद्य विधा में एक मनोयोगी की भाँति साधनालीन पाया है। छंद के विविध प्रकारों को साध चुके श्री रविकर न ही स्वयं अपने रचना-संसार में डूबे रहे, वरन पारम्परिक छंदों को नवीन पीढ़ी के रचनाकारों तक प्रायोगिक व प्रासंगिक कैसे किया जाय, सदैव इसकी चिंता भी की। उदाहरण स्वरूप आधुनिक संचार माध्यमों की सहायता से सैकड़ों नवरचनाकारों को नियमित छंद विधान आदि बताने व अभ्यास करवाने में अति सक्रिय रहते हैं। इस कड़ी में 'छंद के छलछन्द' व्हाट्सएप पटल; जिसकी स्थापना का सौभाग्य मुझे है, विगत वर्षों में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। छंद विधान समझाने व सोदाहरण उन्हें अभ्यास करवाने की इनकी विशिष्ट शैली ने कई नए रचनाकारों को छंदबद्ध रचना कर पाने में पारंगत किया। कार्यशाला उपरांत समय-समय पर 'दोहा लिखो प्रतियोगिता' एवं प्रदत्त समयान्तर्गत 'त्वरित छंद रचो' प्रतियोगिता आदि अभ्यास प्रयोगों ने साधकों को नियमित सीखने को प्रेरित किया। मैं आश्वस्त हूँ कि निकट भविष्य में भी श्री रविकर जी इसी प्रकार साहित्य पुंज की भाँति अपनी सक्रियता से युवा रचनाकारों का साहित्य के विविध आयामों से परिचय करवायेंगे एवं उन तक अपना लेखन कौशल अग्रसारित करेंगे। पुनश्च हार्दिक शुभेच्छा
अनंत महेन्द्र
कवि व संस्थापक - पोएट्रीवुड संस्था
पता- धनबाद, झारखंड
सम्पर्क - 9905514121
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पंक्ति - पंक्ति के मध्य में पढ़ते चलो अकथ्य |
पौराणिक कथा, संस्कृति दर्शन आध्यात्म आदि मे सदा से ही मेरी विशेष रुचि रही है | इसी कारण से सन 2012 में जब पिताजी ने भगवती शांता की परम पवित्र कथा को अपने ब्लॉग "कुछ कहना है" के माध्यम से प्रस्तुत करने का निर्णय लिया , तभी से मैंने इस प्रबंध-काव्य की प्रगति को बड़ी निकटता से अनुसरण करना प्रारम्भ कर दिया था । सौभाग्य से उनका ब्लॉगिंग से परिचय कराने वाला भी मैं ही था। समय-समय पर पिताजी कुछ चरण पूरा कर ब्लॉग पर साझा करते और मैं उसे पढ़ता फिर चर्चा करता | इस प्रकार से मुझे इस प्रबंध-काव्य की प्रकाशित प्रति के प्रथम पाठक होने का सौभाग्य मिला और आज मुझे असीम प्रसन्नता के साथ गौरव की अनुभूति भी हो रही है कि ये पुस्तक सभी पाठकों के लिए उपलब्ध हो चुकी है |
पुस्तक व लेखक की शैली के विषय मे बताने से पूर्व पाठकों को बताता चलूँ कि ये कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है बल्कि ये कवि के शोध और रचनात्मक-योग्यता से रचा हुआ प्रबंध-काव्य है जिसमे, सुनी-अनसुनी कथाएं बड़े रोचक और व्यवहारिक ढंग से प्रस्तुत की गईं हैं।
पिताजी की लेखन शैली के बारे में कुछ उन्ही के अंदाज़ में कहूंगा :
सादा सा जीवन सदा, रखते उच्च विचार ।
कविताओं में ही करें,अलंकरण श्रृंगार ।।
ये कवि की अद्भुत कलात्मकता का ही परिणाम है कि एक ही स्थान पर आपको भिन्न भिन्न छंद पढ़ने को मिल रहे हैं ।ये इतने मधुर और सरल शब्दों में हैं कि आपके दो-चार बार पढ़ने पर ही कुछ पद कंठस्थ हो जायेंगे । देवि शांता की रोचक कथा के साथ-साथ भिन्न-भिन्न छंदों और अलंकारों से सजे पद इस प्रबंध- काव्य को रुचिकर बनाते है ।
इस पुस्तक को पढ़ने से संबंधित एक सुझाव देना चाहूंगा । आप इस पुस्तक में हर छंद को उसके संबंधित प्रचलित फिल्मी गीत की लय में गाकर देखें । किसी भी छंद को उसके गेय-शैली में पढ़ने से अभिरुचि बढ़ जाती है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :-
दिग्पाल छंद: जबसे हुई है' शादी, आंसू बहा रहा हूँ ...
विधाता छंद: बहारों फूल बरसाओ, मे'रा महबूब आया है ..
गीतिका: आपकी नज़रों ने' समझा, प्यार के काबिल मुझे ...
हरिगीतिका श्री राम चंद कृपालु भजमन, हरण भव भय दारुणं ... (2)
सार छंद: रोते रोते हंसना सीखो, हंसते-हंसते रोना ... (1)
द्विगुणित चौपाई/ राधेश्यामी छंद : उठ जाग मुसाफिर भोर भई ...
(और भी कई उदाहरण google के माध्यम से आपको मिल जाएंगे)
अंत मे, भगवती माँ शांता को नमन करते हुए मैं पिताजी को उनके अथक परिश्रम के लिए प्रणाम करता हूँ और आशा प्रकट करता हूँ ये पुस्तक आप सबको भी खूब पसंद आएगी ।
।।जय श्री राम।।
अदभुद ही कहा जा सकता है| आपका रचना संसार ही अद्भुद है | बधाई |
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