खरा खरा उत्तर---
जिधर मिलेगा काफ़ियः, कवि उधर ही चल दिया --
गोरी की चोली से आगे-
दुल्हन की डोली से आगे
मस्तक की रोली से आगे
कातिल की गोली से आगे
भोली सी सूरत के पीछे
मन्दिर की मूरत के पीछे
रक्षक की जुर्रत के पीछे
भक्षक की फितरत के पीछे
उपवन के फूलों में झांके
सावन के झूलों को लाके
मौसम के अवसर को ताके
मतलब के शब्दों को पाके --
मिला लेता है अपना काफिय:
पर
अगर रवि यही बेगार करता रहे तो --
तन काले मन काले और
धन काले जन काले
फन काले कन काले
को कौन दिखायेगा उजाले ||
यहाँ तो रवि भी कवि बन गया है।
ReplyDeleteको कौन दिखायेगा उजाले ||
ReplyDeleteरवि ही कवि है कि कवि ही रवि है...
सर, इसीलिए तो कहा जाता है जहाँ न पहुचे रवि वहां पहुंचे कवि. आप तो रवि भी है और कवि भी है ..
ReplyDeleteवाह भाई वाह! बहुत ख़ूब
ReplyDeletebeautiful
ReplyDeletepoem
अति सुन्दर...
ReplyDeletewonderful
ReplyDeleteरविकर के आगे इक रविकर
ReplyDeleteरविकर के पीछे इक रविकर
आगे रविकर, पीछे रविकर ... बोलो कितने रविकर?
ब्रह्माण्ड .... इतना विशाल है कि कल्पना उसे घेर ही नहीं सकती.
जहाँ तक कल्पना उड़ान भरती है ... हमारी वही वैचारिक आकाश-गंगा बन जाती है.
आपकी कवितायें इस दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण हैं कि आपकी कविताओं से बाल-कवियों को काव्य-लेखन kaa praathmik अभ्यास करवाया जा सकता है.