Sunday 10 February 2013

आलिंगन आँगन लगन, मन लिंगार्चन जाग -


तीन कुण्डलिया छंद –


अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 



पोस्ट-मार्टम शब्द का, लब मतलब मत तलब |
बलम मलब तल तक खलब, दृष्टि निगम की अजब


 सत्ता मद यह हेकड़ी, पैदा कर हालात ।
संवैधानिक पोस्ट को, दिखा रहे औकात ।
दिखा रहे औकात, लगाते मुख पर ताला  ।
खुद करते बकवाद, और पाते पद आला ।
मौसेरे यह चोर, बताते सबको धत्ता ।
लुटते रोज करोड़, मौज में छक्का सत्ता ।।
Virendra Kumar Sharma 
 
 पुतले बावन कार्ड के, इक जोकर पा जाय ।
सत्ता-तिर्यल पायके,  ठगे कार्य-विधि-न्याय ।
ठगे कार्य-विधि-न्याय, किंग बेगम के गुल्लू ।
दिग्गी छक्के फोर, बनाते घूमे उल्लू ।
काला सा ला देख, करा ले शो तो पगले ।
जीतें इक्के तीन, हार जाएँ सब पुतले ।।

 भारत स्वाभिमान दिवस
बड़ी बड़ी बाड़ी खड़ी, छोटे छोटे लोग |
संसाधन सौ फीसदी, कर लेते उपभोग |


कर लेते उपभोग, बचाते कूड़ा-करकट |
लेते उन्हें बटोर, कबाड़ी कितने हलकट |


नई व्यवस्था देख, घूमते लेकर गाड़ी |
रहे जीविका छीन, पढ़े ये बड़े कबाड़ी ||


" ढपोरशंख ......"


Amit Srivastava 


पोर पोर अवगुण भरा, बड़ी-कड़ी है खाल |
ढप ढप ढंग ढपोर सा, बोली मधुर निकाल |
बोली मधुर निकाल, मांग दुगुनी करवाते |
चलते रहते चाल, कभी भी दे नहिं पाते |
रविकर शंख ढपोर, फेंक जल में बस यूं ही  |
अमित आत्मिक चाह, पाय उद्यम से तू ही ||

Virendra Kumar Sharma 


अफसर-गुरु जब भी बने, गाजी बाबा शिष्य |
फांसी पर लटके सही, निश्चित तभी भविष्य |


निश्चित तभी भविष्य, सताए बीबी बच्चे |
नहीं सिखाते कभी, धर्म दुनिया के सच्चे |


ब्रेन-वाश हो जाय, आय जब कभी कुअवसर |
देश-धर्म को भूल, घात कर जाते अफसर ||


जिन्दे की लागत बढ़ी, हिन्दू से घबराय |
खान पान के खर्च को, अब ये रहे घटाय |
अब ये रहे घटाय, सिद्ध अपराधी था जब |
लगा साल क्यूँ सात, हुआ क्यूँ अब तक अब-तब |
वाह वाह कर रहे, तिवारी दिग्गी शिंदे |
लेकिन यह तो कहे, रखे क्यूँ अब तक जिन्दे ||



डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) 




लिंगन आँगन लगन, मन लिंगार्चन जाग |
आलिंगी आली जले, आग लगाता  फाग ||
आलिंगी = आलिंगन करने वाला
आली = सखी


कुल्हड़ की चाय!


मनोज कुमार 

कूट कूट कर है भरे, आत्मीय श्रीमान |
प्यार धर्म विश्वास कुल, लेकिन कर्म प्रधान |
लेकिन कर्म प्रधान, खेल फ़ुटबाल सरीखे |
ब्रिज, बीड़ी, कप, चाय, मस्त पूजा में दीखे |
बढ़िया आबो-हवा, बही अन्दर जो बाहर |
छोटा कुल्हड़ भरे, जोश खुब कूट कूट कर || 

9 comments:

  1. आलिंगन आँगन लगन, मन लिंगार्चन जाग |
    आलिंगी आली जले, आग लगाता फाग ||


    बहुत खूब,,,,,रविकर जी ,,,क्या बात है

    RECENT POST... नवगीत,

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  2. शुक्रिया रविकर भाई !आपने पोस्ट का वजन बढाया .उसे नै परवाज़ दी है .

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  3. कृपया पोस्ट का संशोधित रूप ज़रूर पढ़ें .आपकी कुंडली के अलावा उसमें और भी बहुत कुछ जोड़ा गया है .आपकी कुंडली पोस्ट की जान बन गई है .

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  4. पोर पोर अवगुण भरा, बड़ी-कड़ी है खाल |
    ढप ढप ढंग ढपोर सा, बोली मधुर निकाल |
    बोली मधुर निकाल, मांग दुगुनी करवाते |
    चलते रहते चाल, कभी भी दे नहिं पाते |
    रविकर शंख ढपोर, फेंक जल में बस यूं ही |
    अमित आत्मिक चाह, पाय उद्यम से तू ही ||

    बहुत सुन्दर रविकर भाई .रस घोल देते हो फिजां में .

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  5. रविकर भाई आपकी कुंडलीकृत काव्यात्मक रूपकात्मक टिप्पणियाँ ब्लॉग जगत की शान और मान दोनों हैं .आभार आपका .

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  6. रविकर भाई आपकी कुंडलीकृत काव्यात्मक रूपकात्मक टिप्पणियाँ ब्लॉग जगत की शान और मान दोनों हैं .आभार आपका .

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  7. रविकर भाई आपकी कुंडलीकृत काव्यात्मक रूपकात्मक टिप्पणियाँ ब्लॉग जगत की शान और मान दोनों हैं .आभार आपका .

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  8. रविकर भाई आपकी कुंडलीकृत काव्यात्मक रूपकात्मक टिप्पणियाँ ब्लॉग जगत की शान और मान दोनों हैं .आभार आपका .स्पेम में से निकालें टिप्पणियाँ .

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  9. रविकर जी आपकी रचनाएं पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है |
    आशा

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