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अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ)
 
बालश्रमिक को देखकर ,मन को लागे
ठेसबचपन बँधुआ हो गया , देहरी भइ बिदेस देहरी भइ बिदेस , भूलता खेल –खिलौने छोटा - सा मजदूर , दाम भी औने – पौने भेजे शाला कौन ? दुलारे कर्म–पथिक को मन को लागे ठेस, देखकर बालश्रमिक को || 
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स्वतंत्र राष्ट्र के परतंत्र बच्चे
बाल श्रम 
वर्तमान का दरवाजा खोल 
निकलता है भविष्य सुनहरा 
कैसे निकल पाए भविष्य 
लगा हो जब वर्तमान पर पहरा| 
जिस बचपन को होना था 
ममता की धार से सिंचित 
क्यों वह हो रहा है 
प्यार की बौछार से वंचित| 
उत्साह उमंगों सपनों का  
जीवित पुँज है बालक 
मजदूरी की बेदी पर क्यों 
होम कर देते उनके पालक| 
बालकों में निहित होती 
सफल राष्ट्र की संभावना 
बाल श्रम से यह मिट जाती 
कैसी है यह विडम्बना| 
असमय छिन जाता है बचपन 
बालश्रम है मानवाधिकारों का हनन| 
ऐसा हर वो कार्य 
बालश्रम की परिधि में आते हैं, 
जो बच्चों के बौद्धिक मानसिक 
शैक्षिक नैतिक विकास में 
बाधक बन जाते हैं| 
कहीं लालच कहीं है मजबूरी 
करना पड़ता बालकों को मजदूरी| 
जिस उम्र को करनी थी पढ़ाई 
कारखानों में बुनते कालीन चटाई| 
बचपन उनका झुलस जाता 
ईंट  के  भट्टों 
में 
श्वास जहरीली हो जाती 
बारूद के पटाख़ों में| 
जिन मासूमों का होना था पोषण 
खरीद उन्हें होता है शोषण| 
होना था जिस पीठ पर बस्ता 
कूड़े के ढेर से वह 
काँच लोहे प्लास्टिक बीनता| 
छोटे कंधों पर बड़े बोझ हैं 
घरेलू कामों में लगे रोज हैं| 
बाल मन है बड़ा ही कोमल 
वह भी सपने संजोता है 
सुन मालिकों की लानत झिड़की 
मन ही मन वह रोता है| 
अक्ल बुद्धि उम्र के कच्चे 
स्वतंत्र राष्ट्र के परतंत्र बच्चे 
जहाँ होती उनकी दुर्गति 
वह राष्ट्र करे कैसे प्रगति| 
बाल श्रम उन्मूलन दिवस 
वर्ष में एक दिन आता है 
हर दिन का जो बने प्रयास 
दूर हो यह सामाजिक अभिशाप| | 
 















बापू-दारुबाज को, दारु लेती लील ।
दारु लेती लील, नोचते माँ को बच्चे ।
समझदार यह एक, शेष तो बेहद कच्चे ।
छोड़ मदरसा भाग, प्लेट धोवे इक होटल ।
जान बचा ले आज, सँवारे तब ना वह कल ।
अपराध नहीं बाल श्रम है ये शिक्षा भाई
संवेदनशीलता किसने जतलाई है|
राजनितिक आह ने विपदा में डाल दिया
घर के चिराग यहाँ रौशनी जलाई है||
राम जी के श्रम बल ताड़का का बध हुआ
संघर्ष की शुरुवात हमें दिखलाई है|
श्रम एक बल है अनुभव से भरने का
बालपन के श्रम ने महानता पाई है||