पेशे से अभियंता और दिल से कवि हूँ (बुधवार की चर्चा-1035)
ई. प्रदीप कुमार साहनी  
  
स्वागत है परदीप कुमार, विचार भले मन मानस छाये । 
चर्चक मंच मिले सहयोग, बड़े खुश हो हम भेंटन आये । 
मंच बड़ा यह रूप लिए बुधवार बड़ा खुबसूरत लाये । 
पाठक को नव स्वाद मिला, अति सुन्दर ब्लॉग बनाय सजाये ।।   
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कार्टून कुछ बोलता है- आँखों का फर्क !
पी.सी.गोदियाल "परचेत" 
 
धक्का लगता मर्म पर, उतरे नयना शर्म ।
असरदार ये वाकिये,  हैं वाकई अधर्म ।
हैं वाकई अधर्म, कुकर्मों से घबराया ।
लेकिन ऐ सरदार, फर्क तुझ पर नहिं आया ।
 कहता यह सरदार, फर्क आया है पक्का ।
घुटनों में अति दर्द, सोच को बेहद धक्का ।।
घुटनों में अति दर्द, सोच को बेहद धक्का ।।
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Dheerendra singh Bhadauriya  
ममतामय पावन रूप धरे, दुरगा जननी जब नेह दिखाई । 
कवि धन्य हुआ मन मंदिर में, सज के मन है करता पहुनाई । 
धरती पर शान्ति बनाय रखो, कलियान करो हे जग-माई । 
 करता रवि वंदन माँ दिल से, नवरात विशेष कृपा शुभ पाई ।।  
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खर्चे कम बाला नशीं, कितना चतुर दमाद । 
कौड़ी बनती अशर्फी, देता रविकर दाद । 
देता रविकर दाद, मास केवल दो बीते । 
लेकिन दुश्मन ढेर, लगा प्रज्वलित पलीते । 
कुछ भी नहीं उखाड़, सकोगे कर के चर्चे । 
करवा लूँ सब ठीक, चवन्नी भी बिन खर्चे । 
खर्चे कम बाला नशीं = वीरु भाई व्याख्या कर दें कृपया ।। 
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प्यार बूढ़ दिल मोंगरा, अमलताश की आग ।
लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।
लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।
मत्तगयन्द सवैया   
नारि सँवार रही घर बार, विभिन्न प्रकार धरा अजमाई । 
कन्यक रूप बुआ भगिनी घरनी ममता बधु सास कहाई । 
सेवत नेह समर्पण से कुल, नित्य नयापन लेकर आई । 
जीवन में अधिकार मिले कम, कर्म सदा भरपूर निभाई ।। 
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अरुण निगम के ब्लॉग पर, होता वाद विवाद । 
विगत पोस्टों पर हुआ, पाठक मन क्या याद ? 
पाठक मन क्या याद, सशक्तिकरण नारी का । 
बाल श्रमिक पर काव्य, करो अब दाहिज टीका । 
रचे सवैया खूब, लीजिये हिस्सा जम के । 
रहें तीन दिन डूब, पोस्ट पर अरुण निगम के ।। 
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मत्तगयन्द सवैया  
संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा । संभव वर्षण कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा । पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा । स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा ।। जय जय भगवती शांता परम  | 
 


बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबेहद सुन्दर प्रस्तुति सर बधाई
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति ...
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा प्रस्तुति | आभार आदरणीय रविकर जी |
ReplyDeleteवाह...क्या बात है रविकर जी!
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति!
खर्चे कम बाला नशीं, कितना चतुर दमाद ।
ReplyDeleteकौड़ी बनती अशर्फी, देता रविकर दाद ।
देता रविकर दाद, मास केवल दो बीते ।
लेकिन दुश्मन ढेर, लगा प्रज्वलित पलीते ।
कुछ भी नहीं उखाड़, सकोगे कर के चर्चे ।
करवा लूँ सब ठीक, चवन्नी भी बिन खर्चे ।
खर्चे कम बाला नशीं = वीरु भाई व्याख्या कर दें कृपया ।।
सत्ता का सिक्का चलता है ,
सांसद संसद में बिकता है ,
बे -इज्ज़त कुर्सी को पकडे है ,
जीजे की सरकार ,
भजमन हरी हरी .
हाँ भाई साहब कम खर्च बाला नशीं का मतलब वाही है जो हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा का निकलता है ,.
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट -
TUESDAY, 16 OCTOBER 2012
खर्चे कम बाला नशीं, कितना चतुर दमाद-
http://rhytooraz.blogspot.com/2012/10/blog-post_16.html#comment-form
सुन्दर रचना..
ReplyDeleteकिसके आगे हाथ पसारे , किसको सुनाये ये दुखड़ा,
ReplyDeleteबिना दहेज के मीत न मिले, बेटी है दिल का टुकड़ा!
हाय विधाता ये तूने कैसा, खेल अजीब दिखाया,
दहेज में बिक रही बेटियाँ , और ये मानव काया!
आज दहेज का रोग भयंकर , घर-घर कैसे दौड रहा,
कितने पिता बेटी की खातिर, मरने मजबूर होरहा!