(दिगम्बर नासवा)  
 
 स्वप्न मेरे...........
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय | टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय |  
 हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना | ना होता नाराज, नहीं बैठूं  उस कोना | 
 एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी | करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी || 
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 1 
रागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार | इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार | देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने | करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने | विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी | सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी || 
 2 
  तेरी मुरली चैन से, रोते हैं इत नैन ।  
विरह अग्नि रह रह हरे, *हहर हिया हत चैन ।   
*हहर हिया हत चैन, निकसते बैन अटपटे ।  
बीते ना यह रैन, जरा सी आहट खटके ।  
दे मुरली तू भेज, सेज पर सोये मेरी ।  
सकूँ तड़पते देख, याद में रविकर तेरी ॥  
*थर्राहट 
  
 
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 तुषार राज रस्तोगी  
ट्रिन ट्रिन बुलेटिन कर रहा, जागे ब्लॉगर मित्र | अब तुषार कणिका करे, तन मन तृप्त विचित्र ||   
 
  
 
 
  Ankur Jain  
 
 नहीं प्रतारक प्रेम सा, नहीं प्रताड़क अन्य | पर्जन्या दे देह पर, नयनों में पर्जन्य | 
 
 नयनों में पर्जन्य, काटता रहा पतंगें | बुरा सदा अंजाम, करे मानव-मन नंगे | 
 
 कुछ घड़ियों की मौज, प्रेम दारुण संहारक | बिना शस्त्र मर जाय, मौत पर हँसे प्रतारक || 
प्रतारक=ठग  
प्रताड़क=कष्ट देने वाला  
पर्जन्या=दारुहल्दी 
पर्जन्य=बादल   
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सर्ग-2  
 
भाग-3  
 
 
 
 
 
कन्या का नामकरण  कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज | अंगराज रानी सहित, ज्यों चलते रथ साज || 
  राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान | चलने की आज्ञा मिले,  राजन  हमें  विहान || 
  सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार | अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार || 
  दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव | सरयू में तैयार है,  बड़ी राजसी नाव || 
 
 
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Amit Srivastava  
 
  
हलवाई रविकर बना, व्यंजन कई प्रकार | चखे चखाए मित्र को, आजा तो इक बार | आजा तो इक बार, बड़ी वासंतिक रुत है | खा मीठा नमकीन, अगर हड़बड़ी बहुत है | सूजी घी में भून, सुगर मेवा दूँ डलवा | संग चाय नमकीन, पौष्टिक खा लो हलवा || 
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काटे कागद कोर ने, कवि के कितने अंग । 
कविता कर कर कवि भरे, कोरे कागज़ रंग । 
कोरे कागज़ रंग, रोज ही लगे खरोंचे । 
दिल दिमाग बदहाल, याद बामांगी नोचे । 
रविकर दायाँ हाथ, एक दिन गम जब बांटे ।  
जीवन रेखा छोट, कोर कागज़ की काटे ।।   
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"न्याय-कैमुतिक" उक्ति का, सीधा सरल सँदेश | बड़ा कार्य जब सिद्ध हो, छोटे पर क्या क्लेश | छोटे पर क्या क्लेश, सुनो उपदेश सरल सा | करे वंचिका ऐश, देहा को हुलसा हरसा | प्रेम युद्ध जा जीत, जीत कर आप वैयक्तिक | खुलने दे कुल पोल, अभी तो न्याय-कैमुतिक || 
 
  
अब नहीं लिखे जाते हैं गीत
  बुद्धि विकल काया सचल, आस ढूँढ़ता  पास | मृत्यु क्षुधा-मैथुन सरिस, गुमते होश हवास |
 गुमते होश हवास, नाश कर जाय विकलता | किन्तु नहीं एहसास, हाथ मन मानव मलता |
 महंगा है बाजार, मिले हर्जाना मरकर | धन्य धन्य सरकार, मरे मेले में रविकर || 
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बहुत ही अच्छे लिंक्स संयोजित किये हैं आपने ... आभार
ReplyDeleteकुम्हार के कर कोरे मटके चाक बनाए ।
ReplyDeleteराखे ते जल बहोरे पटके ते बिसराए ॥
बहुत सुन्दर पठनीय लिंक !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteइससे ब्लॉगरों को टिप्पणियाँ मिलने में मदद मिलेगी!
आइन्दा से रखूंगा, क्लीन शेव ही मित्र ।
ReplyDeleteजीवन में कुछ ना किया, केवल मूंछ विचित्र ।
केवल मूंछ विचित्र, मुलाजिम इक सरकारी ।
दो बंगले हैं पाश, पास में कार सफारी ।
रक्खे कई करोड़, आज हूँ मैं शर्मिन्दा ।
दाढ़ी मूंछ मुड़ाय, रखूं ना अब आइन्दा ॥ बहुत बढ़िया,,,रविकर जी ,,,बधाई
भगदड़ दुनिया में दिखे, समय चाक चल तेज |
ReplyDeleteकुम्भकार की हड़बड़ी, कृति अनगढ़ दे भेज |
कृति अनगढ़ दे भेज, बराबर नहीं अंगुलियाँ |
दिल दिमाग में भेद, मसलते नाजुक कलियाँ |
ठीक करा ले चाक, हटा मिटटी की गड़बड़ |
जल नभ पावक वायु, मचा ना पावें भगदड़ ||
बहुत बढ़िया रचना पढ़ वाई है आपने .बहुत खूब .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .
आदरणीय गुरुदेव श्री बेहतरीन प्रस्तुति एक से बढ़कर एक कुण्डलिया, ऐसी ही सुन्दर रचनाएँ पढ़वाते रहें हार्दिक बधाई इस शानदार लाजवाब प्रस्तुति हेतु.
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ReplyDeleteस्वप्न मेरे...........
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय |
टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय |
हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना |
ना होता नाराज, नहीं बैठूं उस कोना |
एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी |
करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी ||
मन की अनुकृति जस की तस उतार दी है नास -वा साहब के .