Tuesday 19 February 2013

कुछ घड़ियों की मौज, प्रेम दारुण संहारक-

25 मार्च से 26 मार्च की दोपहर तक जयपुर राजस्थान में हूँ- 
  सूत्र : 08521396185 
ब्लॉगर मित्रों से मिलना चाहता हूँ-रविकर 



(दिगम्बर नासवा)

 स्वप्न मेरे...........
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय |
टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय | 


हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना |
ना होता नाराज, नहीं बैठूं  उस कोना |


एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी |
करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी ||

रागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार |
इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार |
देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने |
करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने |
विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी |
सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी ||

  तेरी मुरली चैन से, रोते हैं इत नैन । 
विरह अग्नि रह रह हरे, *हहर हिया हत चैन । 
*हहर हिया हत चैन, निकसते बैन अटपटे । 
बीते ना यह रैन, जरा सी आहट खटके । 
दे मुरली तू भेज, सेज पर सोये मेरी । 
सकूँ तड़पते देख, याद में रविकर तेरी ॥ 
*थर्राहट 

लीजिये पढ़िये मेरी पहली ब्लॉग बुलेटिन


तुषार राज रस्तोगी 

ट्रिन ट्रिन बुलेटिन कर रहा, जागे ब्लॉगर मित्र |
अब तुषार कणिका करे, तन मन तृप्त विचित्र ||
 

Ankur Jain 
 नहीं प्रतारक प्रेम सा, नहीं प्रताड़क अन्य |
पर्जन्या दे देह पर, नयनों में पर्जन्य |


नयनों में पर्जन्य, काटता रहा पतंगें |
बुरा सदा अंजाम, करे मानव-मन नंगे |


कुछ घड़ियों की मौज, प्रेम दारुण संहारक |
बिना शस्त्र मर जाय, मौत पर हँसे प्रतारक ||

प्रतारक=ठग
प्रताड़क=कष्ट देने वाला
पर्जन्या=दारुहल्दी
पर्जन्य=बादल 


सर्ग-2 
भाग-3
  भाग-3
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज |
अंगराज रानी सहित, ज्यों चलते रथ साज ||

 
राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले,  राजन  हमें  विहान ||

 
सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||

 
दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है,  बड़ी राजसी नाव ||



" हलवा है क्या ..........."


Amit Srivastava 




हलवाई रविकर बना, व्यंजन कई प्रकार |
चखे चखाए मित्र को, आजा तो इक बार |
आजा तो इक बार, बड़ी वासंतिक रुत है |
खा मीठा नमकीन, अगर हड़बड़ी बहुत है |
सूजी घी में भून, सुगर मेवा दूँ डलवा |
संग चाय नमकीन, पौष्टिक खा लो हलवा ||



काटे कागद कोर ने, कवि के कितने अंग । 
कविता कर कर कवि भरे, कोरे कागज़ रंग । 

कोरे कागज़ रंग, रोज ही लगे खरोंचे । 
दिल दिमाग बदहाल, याद बामांगी नोचे । 

रविकर दायाँ हाथ, एक दिन गम जब बांटे । 
जीवन रेखा छोट, कोर कागज़ की काटे ।। 
"न्याय-कैमुतिक" उक्ति का, सीधा सरल सँदेश |
बड़ा कार्य जब सिद्ध हो, छोटे पर क्या क्लेश |
छोटे पर क्या क्लेश, सुनो उपदेश सरल सा |
करे वंचिका ऐश, देहा को हुलसा हरसा |
प्रेम युद्ध जा जीत, जीत कर आप वैयक्तिक |
खुलने दे कुल पोल, अभी तो न्याय-कैमुतिक ||


अब नहीं लिखे जाते हैं गीत

बुद्धि विकल काया सचल, आस ढूँढ़ता  पास |
मृत्यु क्षुधा-मैथुन सरिस, गुमते होश हवास |


गुमते होश हवास, नाश कर जाय विकलता |
किन्तु नहीं एहसास, हाथ मन मानव मलता |


महंगा है बाजार, मिले हर्जाना मरकर |
धन्य धन्य सरकार, मरे मेले में रविकर ||

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर कड़ियाँ हुज़ूर | आप जब दिल्ली आयें तो ज़रूर मिलना चाहूँगा आपसे | बहुत बहुत आभार |

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  2. बहुत सुन्दर अच्छे लिंक दिए है आपने
    आपका बहुत 2 आभार की आपने इन लिंकों में मेरा भी एक लिंक दिया है


    मेरी नई रचना

    प्रेमविरह

    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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  3. बहुत ही सार्थक लिंक्स संयोजन.भ्रमण सुखद हो.

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  4. बहुत सुन्दर लिंक दिए है........

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  5. बढ़िया लिनक्स

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  6. गुरूजी मेरे बुलेटिन को सम्मलित करने के लिए शुक्रिया :) | आभार

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