Tuesday, 31 May 2011

स्त्री पुरुष मानसिकता एक विशेष पहलू पर by ZEAL

पुरुष -विचार-----  
रास के महके पलों का दे हिसाब,आसक्ति का मसला बड़ा फिसलन भरा 
पकड़ ढीली कर जुदा अंदाज से, था समर्पण भाव हौले से झुके 
चपल नयनों की पलक थी अधखुली, मदहोश मादक पूर्णिमा में आस्मां
आगोश में आवेश था बिलकुल सफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तेज सिहरन सी उठी थी हूक सी, संस्कारों से बंधा यौवन विवेकी 
क्या करे, इस ज्वार में संबल बिना, आत्मबल भी बह गया उच्छ्वास  में
धैर्य ने भी साथ छोड़ा इस दफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

इस कृत्य  के भागी बराबर के  हुए, था चंद-दिन संतापमय-रोमांच भी
आतुर हुई तुम इस कदर खुद को छली, हाथ का तेरे बना मैं तुच्छ प्यादा
नुक्सान किसका क्या हुआ किसको नफ़ा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

अपना बिगत प्रवास कुछ लम्बा खिंचा, रास्ते तुमने बनाए बीच में कुछ
एक रिश्ते ने अधिक तुमको लुभाया, तोड़कर तुम चल पड़े रिश्ते पुराने
बेवफाई क्यों करी, कर दी खफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तू घड़ों पानी में अब बैठी रहे, प्यास तेरी न बुझेगी सत्य-शाश्वत
खेल के शौकीन हो तुम खेल कर लो, धैर्य धारण कर प्रतीक्षारत रहूँगा 
लौटकर आना पड़ेगा जानता हूँ, प्यार मेरा याद आएगा दुबारा
जब वफ़ा कर न सकी मत कर जफा, बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

स्त्री-विचार---
फ़ूल-पौधों  में सुबह पानी पटाया, द्वार तेरे शाम को दीपक जलाया
छज्जे से अपने, रास्ता ताका किये, कितने दिनों तक याद में फाँका किये
अहले सुबह उस रोज झटका खा गई, मेरे अलावा कौन दूजी आ गई ---
दीपक बुझा के, फर्श बाहर धो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई

सामने सालों रहे खुद को भुलाए, चाय पीने आ गए फिर बिन बुलाये
मम्मी को मेरी आप माँ कहने लगे, हम प्रेम की पींगे बढ़ा बहने लगे
माँ ने हमारी और थोड़ी छूट दी, और तुमने अस्मिता ही लूट ली 
मुश्किल बढ़ी, बेहद सयानी हो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई 

करार मेरा ख़ुशी मेरी खो गई, महबूब की चौखट पराई हो गई
अब पुरानी नीम से बहता है नीर, पीर करती खोखला मेरा शरीर
बेवफा कहने से पहले जान लो, जान लेकर अब हमारी जान लो
जान की दुश्मन स्वयं  की हो गई, प्रेम की मेरी निशानी खो गई
रास  की बाते पुरानी हो गई, बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई

Monday, 30 May 2011

निस्वार्थ प्रेम " ZEAL" के लेख-कथा पर टिप्पणी



Ravikar said...
" नाम तो गुल का हो रहा है , फिर मैं अपना योगदान क्यूँ करूँ ? फिर उसने फूलों को छूना बंद कर दिया। उसने गुल से कहा - तुम बहुत ज्यादा फूल खिला रही हो , बहुत तेज़ी से लोग इसका इस्तेमाल भी कर रहे हैं । मैं चाहता हूँ तुम अपना काम धीरे-धीरे करो ।" एक बात और स्पस्ट हो पाती तो आनंद बढ़ जाता कि क्या गुल, समाज कल्याण के साथ-साथ गुलफाम के लिए भी कुछ कर पाती थी ? आखिर गुलफाम का कौन सा स्वार्थ पूरा नहीं हो पा रहा था ? गुल अपने गुलशन से जुडी हुई थी, गुलफाम गुल से.... जो चीज (गुलशन) कोई (गुल) पसंद करता है उसमे वो अधिक समय और स्नेह देता है, परन्तु जो (गुलफाम ) उसे (गुल) पसंद करने वाला होता है --- क्या उसकी तरफ उसका ध्यान यदा-कदा ही जाता है ? कहीं इसीलिए तो नहीं, ----वो धीरे काम करने कि बात कर रहा होता है. अभी इरफ़ान तो एक भला बन्दा लग रहा है, आशा है गुल को उसमे कोई ऐब नहीं नजर आएगा--- खुश रहे गुल, आबाद रहे गुलशन, नेकनीयत बना रहे इरफ़ान. और गुल उस गुलफाम क़ी अच्छी बातें याद रखें बुरी भूल जाए.
ZEAL said...
  Ravikar जी , आपने बहुत ही सार्थक प्रश्न पूछे हैं। अच्छा लगा ये देखकर की आपको सत्य जानने की उत्कंठा है। प्रश्न-१---क्या गुल, समाज कल्याण के साथ-साथ गुलफाम के लिए भी कुछ कर पाती थी ? उत्तर-1-- गुल जो भी करती थी वो समाज के लिए होता था और गुलफाम भी समाज का ही एक हिस्सा है इसलिए गुल द्वारा उगाये हुए फूलों का लाभ गुलफाम भी लेता था। यही गुल का योगदान था गुलफाम के लिए । इसके अलावा गुलफाम की भी एक बगिया थी , जिसको सुवासित करती थी गुल । ये गुल का व्यक्तिगत योगदान होता था गुलफाम के लिए। लेकिन दुर्भाग्य देखिये की एक दिन गुलफाम ने अपने ही हाथों से अपनी बगिया उजाड़ दी। उसने अपने सारे ब्लौग डिलीट कर दिए,। गुल को बहुत दुःख हुआ। जो अपने लगाए बाग़ को ही उजाड़ सकता है , वो भला दुसरे के बाग़ की एहमियत क्या समझेगा और सुवासित क्या करेगा ? .
ZEAL said...
. प्रश्न २--आखिर गुलफाम का कौन सा स्वार्थ पूरा नहीं हो पा रहा था ? उत्तर-- गुलफाम चाहता था की गुल पूरी दुनिया के लिए फूल उगाना छोड़ दे और केवल उसी की होकर रहे । जो समय वो गुलशन की देख-भाल में लगाती है , वो समय सिर्फ गुलफाम को मिले। गुलफाम का यही स्वार्थ गुल से पूरा नहीं हो पा रहा था। लेकिन गुल को उसकी लालच पसंद नहीं आती थी । वो गुलफाम की खातिर अपनी बगिया से फूल चुनने वालों को निराश नहीं करना चाहती थी। गुल के लिए उसका 'गुलशन' ही जीवन का ध्येय बन गया है और वो उसी के माध्यम से आम जनता की सेवा करना चाहती थी । किसी की निजी संपत्ति नहीं है गुल । गुलफाम की यही अपेक्षा पूरी नहीं होती थी और इसी बात से निराश होकर वह गुल से द्वेष रखने लगा। गुल किसी की न होकर भी सबकी है । जो भी गुल के गुलशन से द्वेष रखता है वो मानव-हित के खिलाफ है और गुल को कभी नहीं पा सकता। .
ZEAL said...
. @---और गुल उस गुलफाम क़ी अच्छी बातें याद रखें बुरी भूल जाए। उत्तर--बातें अच्छी हो या बुरी , गुल उन्हें भूलती नहीं कभी , बल्कि अपने गुलशन की मिटटी में सकारात्मकता की खाद देकर , उससे पुनः कोई बहुरंगी मनोवैज्ञानिक 'फूल' खिलाकर चुनने वालों के लिए प्रस्तुत कर देती थी। @---अभी इरफ़ान तो एक भला बन्दा लग रहा है, आशा है गुल को उसमे कोई ऐब नहीं नजर आएगा---...... इरफ़ान में कोई ऐब ही नहीं है , वो निस्वार्थ है। @----खुश रहे गुल, आबाद रहे गुलशन, नेकनीयत बना रहे इरफ़ान..... शुभकामनाओं के लिए आपका धन्यवाद। .
Ravikar said...
अरे! इतना विस्तारपूर्वक शंका-समाधान करना और इतनी जल्दी,        (१)  अहो भाग्य गुल !  ----अतुलनीय-अतुल-------- प्रफुल्लित गात्र----- मन अतिशय प्रफुल्ल       (२) गुल का एक अर्थ ------- अब न होगा व्यर्थ ---------"कोयले का अंगारा"------------- बुरा विचार सारा------  जलाने में समर्थ-------- गुल का यह अर्थ
Ravikar said...
अपनी इन पंक्तियों में मुझे फेर-बदल तो करना ही पड़ेगा ------------- "तेरे गुल का अर्थ है-केवल दाग"  ----------------------------------------------------  रे पुष्पराज-  सुगंध तेरी पा सम्मोहित सी मैं  कर कांटो की अनदेखी  आत्मविश्वास से लबरेज तेरे पास आ गई - और धोखा खा गई .  तूने छल-कपट से धर-पकड़ कर गोधूलि के समय कैद कर लिया व्यभिचार भी किया सुबह होने पर धकेल दिया कटु-सत्य ! तू तो महा धूर्त है. मद-कण से युक्त महालोलुप है . ---------------------------------------   तेरे गुल का अर्थ है- केवल दाग---- सरसों का सौंदर्य देख- संसार को देता है सुगंध और स्वाद----

Sunday, 29 May 2011

भट्टा-परसौल from " kuchh kahna hai"

                              (१)  

दिल्ली के आस-पास, भूमि अधिग्रहण नीति से नाराज किसानों का खून लगा खौलने--  प्रशासन ने लगा दी आग, गौतम-बुद्ध ( नगर) के ग्राम भट्टा-परसौल में ---पहले भी दादरी, जैतापुर और नंदीग्राम में---राज्य-सरकारें, नाकाम रहीं है इस काम में----वाणिज्यिक या रिहायसी, उपयोग की ज़मीन लाख रुपये प्रति मीटर ----एक्सप्रेस वे आदि के लिए उतनी ही तीन सौ रूपये के भीतर-----रियल स्टेट को सरकारे,  कराती हैं भारी मुनाफा--बिरोध करने पर बर्बर पुलिस, किसानों की तोडती है टाँगे उछालती है पगड़ी, जलाती है साफा---राहुल करने चल पड़ते हैं दिग्विजय, राजनाथ छोड़ देते हैं रोटी-इधर माया चले मस्त चाल, करे लाल, फिर से अपनी गोटी                      

                    (२)
बढती अर्थव्यवस्था, नौ की दर---  
मांगती है अच्छी सड़कें, अबाध बिजली
नए बाँध, कारखाने और नए  शहर---
शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य-सुविधाएं 
तो अब बदलनी पड़ेगी  भूमि अधिग्रहण की विधाएं --
शहरी एवं ग्रामीण जीवन स्तर--  
जबरदस्त तरीके से बढ़ रहा है अंतर--
पडेगा पाटना--
और बंद करना पड़ेगा लोगों को
भारत और इंडिया में बांटना ---                     


  (३) 
आखिर त्रस्त जनता ने बदल दिया तख़्त-ओ-ताज 
बंगाल में आया ममता दीदी का नया राज
 कहते हैं की आप हैं बड़ी तुनुक-मिजाज 
रखियेगा ख्याल
बढे बंगाल                

       (४)
जयललिता
ऐश्वर्य की मलिका
भ्रष्टाचार ने डुबोई थी नैया
इस बार भ्रष्टाचार ही पार लगैया
करो कुछ जूतियों का दान

तुम्हे बना देगा सचमुच महान

Thursday, 26 May 2011

'वाणी-गीत' की पोस्ट -'जिंदगी है कि चाय का प्याला' पर लिखा

चाय, चुस्की और चौबारा, 
जीवन, मुस्की औ' देह सारा---
चाय जीवन है तो  चुस्की-मुस्कान 
यह  शरीर, चौबारा-------
मधुरता-प्यार,  कसैलापन-तकरार
उष्णता-उमंग-------
दुग्ध-श्रृंगार, नींबू-बहार
तरलता--नियति के रंग----
पर कुछ ऐसा भी है जो 
कभी-कभी बहुत खले----- 
जब खौलती हुई कसैली चाय से 
आत्माराम जले-----
    
     

Monday, 23 May 2011

मँहगाई,

बताओ अपनी परेशानी का सबसे बड़ा कारण भाई ?

अश्वनी कुमार ने बताया दवाई, बहुरानी ने सासू माई 
बिद्यार्थी ने पढ़ाई, ख़ुशी की परेशानी  पर-कमाई
प्रेम कुमार ने बेवफाई,  मान सिंह के लिए रुसवाई,
जगबंधु  ने जगहँसाई, पर किरोड़ीमल बोले मँहगाई, 
क्योंकि, महंगाई  से  ही,  जान पर  आफत आई 
सुनते ही महँगाई, सबने उनकी हाँ में हाँ मिलाई  
 *   *    *   *    *    *      *
रख  सकते गर धीरज , दो रोज के लिए
जीवन में असफल , नहीं इस दफा होते |

विश्वास न मिटता अगर,  बीच में अपना
सारे जहाँ  से अपने , दुश्मन सफा होते |




Friday, 20 May 2011

सीधी-साधी कवितायें, निकली इनकी सौत--

बोरे में जब गूढ़-तम,  रचनाएं  पड़ी सड़े   
झेले मायाजाल नित, माथे पर बल पड़े----
जाँच बिठाई  क़त्ल पर, निकला यही निचोड़
कवि के जुल्मो-सितम से, भाग गई रण-छोड़---
अर्थ बूझ पाया नहीं,  लागी  लगन  महान
पाठक संग मुठभेड़ में, निकली उसकी जान---
टेढ़ा-मेढा वाकया, लगा कलेजे तीर
नहीं पढ़ाकू जगत में, जो मारे सो मीर----
कवि के हाथों की रची, जग के हाथों मौत
सीधी-साधी कवितायें, निकली इनकी सौत-- 

Wednesday, 18 May 2011

ऐसा क्यूँ-लोग सुधरे को ही सुधारते हैं' पर

इस युग में 
सज्जनों  को हो रहा है नुक्सान परिचय से, 
घनिष्ट परिचय से---
दोस्तों कि दुश्मनी घातक रही खुब , 
लम्बे अरसे से----
दुर्जनों ने आज भी सौदे किये, खुब लाभ पाया 
सज्जनों के हाथ बस नुक्सान आया 
सफलता से आज बस परचित जलें,पग-पग छलें
जो अपरचित, वे बेचारे, क्यूँकर खलें ??
 

Wednesday, 11 May 2011

       (1)
17 -04 -2004  को +2 की  रसायन शास्त्र की परीक्षा दे रहे थे
मनु गुप्ता, कुमार शिवा, विभोर सक्सेना और अफसर रिजवी
प्रोफेसर सक्सेना एवं प्रोफ़ेसर रिजवी
डी पी एस के फेयरवेल की बात कररहे थे-
विभोर ने फेयरवेल के लिए 5000 /= का
कुछ ख़रीदा, रिजवी ने भी इसी तरह की बात कही-
मैंने बोलने की गलती की, क़ि मेरे बच्चों ने कुछ नई डिमांड
नहीं की. छुटते  ही रिजवी बोले -
हाँ, मनु-शिवा आपकी औकात जानते हैं-
                         (2)

टीचर्स कालोनी में रहते है हम, और  तुम भी
हम हैं तकनीकी कर्मचारी, करा करते तुम अफसरी
तुम्हे टेलीफोन और इन्टरनेट की सरकारी सुविधा 
हम खर्च करते हैं हमेशा पाकेट से अपनी
तुम्हारे घर  सरकारी  स्टेशनरी से  आये   होर्लिक्स 
हम होर्लिक्स की कटौती  कर लाते हैं स्टेशनरी 
क्या  होर्लिक्स ही  कारण   बन गया है,
जो आपके बच्चे देखते हैं हमारे बच्चों में बेचारगी-
मत भूले !   इन चौबीस क्वार्टर में - 10 इंजीनियर
6  एम  बी ए और 1 बच्चा करे डाक्टरी 
                    (3)
              मोहन-मन 
हूँ भलों के बीच में, मैं एक पागल 
भेडियों में या फँसी, मजबूर छागल 
मूक-सम्मोहित, घुटाले मैं निहारूं 
देश देखूं जा रहा गहरे रसातल
                 (4)
         राजI-सी  सोच ??
पुस्तकों से ज्ञान मिलता है हमेशा 
ज्ञान से पहचान सकते हैं गलत को 
ज्ञान चालाकी बने  पहचान करके
फिर गलत पैसा बनाने में जुटो   
 

Thursday, 5 May 2011

एक खिड़की खुलवाते

रतन टाटा का  चर्चित-विचार की अरब-पतियों को अपने 
अति कीमती बंगलों से निकल कर
अपने आस-पास  के विकास  की 
जिम्मेदारी भी लेनी  चाहिए...  
आधे  की आधी, अपनी आबादी .
रैन बसेरे की,
हो चुकी आदी
नाती- पोते, सभी  साथ सोते.
जागते रहते,
दादा और दादी
कुछ तो  खानाबदोश निकले.
जिंदगी सडकों पर बिता दी
सर के बँगले में सरकार,  
इक कार-गैराज 
और बनवा दी
अच्छा होता  श्रीमान !
अपने गैराज  में 
एक खिड़की खुलवाते 
ताज़ी हवा  से 
कुछ,  
घर-परिवार का दर्जा पाते                             


Wednesday, 4 May 2011

हारेगा

    (1)
भरे पड़े  हैं चप्पल खोर
बहुत घूमते  थप्पड़खोर   
बुरी  मौत  ही मारे जाते 
सब के सब ये आदमखोर