Wednesday, 29 February 2012

मिल जाता मनमीत, छूटती सखियाँ सारी-


झारखंड से भेजता, शुभ-कामना असीम ।
मन-रंजक, मन-भावनी, इस प्रस्तुति की थीम । 
इस प्रस्तुति की थीम, नया जो कुछ भी पाया।
होता मन गमगीन, पुराना बहुत लुटाया ।
पर रविकर यह रीत, चुकाते कीमत भारी ।
मिल जाता मनमीत, छूटती सखियाँ सारी ।।

 
नेताओं पर कर रहे, शास्त्री जी जब व्यंग ।
होली में जैसे लगा, तारकोल सा रंग ।
तारकोल सा रंग, बड़ी मोटी है चमड़ी ।
नेताओं के ढंग, देश बेंचे दस दमड़ी । 
बेचारी यह फौज, आज तक बचा रही है ।
करें अन्यथा मौज, नीचता नचा रही है ।।

 
अपने मन-माफिक चलें, तोड़ें नित कानून ।
जो इनकी माने नहीं, देते उसको भून ।
देते उसको भून, खून इनका है गन्दा ।
सत्ता लागे चून, पड़े न धंधा मन्दा ।
बच के रहिये लोग, मिले न इनसे माफ़ी ।
महानगर में एक, माफिया होता काफी ।।
  चंदा का धंधा चले, कभी होय न मंद ।
गन्दा बन्दा भी भला, डाले सिक्के चंद ।
डाले सिक्के चंद, बंद फिर करिए नाहीं ।
चूसो नित मकरंद, करो पुरजोर उगाही ।
सर्वेसर्वा मस्त, तोड़ कानूनी फंदा  ।
होवे मार्ग प्रशस्त, बटोरो खुलकर चंदा ।।

खुद को सुकून देते हो या उसे ..

खुश होने के कारण तो अपने पास होते हैं 
सामनेवाला ( अधिकांशतः ) आंसू देखने में सुकून पाता है 
अब फैसला तुम्हारे हाथ है 
खुद को सुकून देते हो या उसे ..
- रश्मि प्रभा
दूजे के दुःख में ख़ुशी, दुर्जन लेते ढूँढ़ ।
अश्रु बहाते व्यर्थ ही, निर्बल अबला मूढ़ ।।




सुनिए प्रभू पुकार, आर्तनाद पर शांत क्यूँ ।
हाथ आपके चार, क्या शोभा की चीज है ।

सारी दुनिया त्रस्त, कुछ पाखंडी लूटते ।
भक्त आपके पस्त, बढती जाती खीज है ।।



आशा के विश्वास को, लगे न प्रभु जी ठेस ।
होवे हरदम बलवती, धर-धर कर नव भेस ।। 

कल की खूबी-खामियाँ, रखो बाँध के गाँठ ।
विश्लेषण करते रहो, उमर हो रही साठ ।
उमर हो रही साठ, हुआ सठियाना चालू ।
बहुत निकाला तेल, मसल कर-कर के बालू ।
 दिया सदा उपदेश, भेजा अब ना खा मियाँ  ।
देत खामियाँ क्लेश,  कल की खूबी ला मियाँ ।।

ओ री हो री होरियां, चौराहों पर साज -

दिलबाग विर्क  के हाइकुओं पर आधारित हाइगा
शाखा पर उल्लू का कब्ज़ा, जज्बा उसका देखें घोंचू ।
फूलों संग कांटे क्यूँ होते, बैठा मैं तो हरपल सोंचू ।
न्याय आज हारा कछुवे से, समय स्वयं को दोहराता है--
सबको शिक्षा लक्ष्य सजा है, काले केशों को क्यूँ  नोंचू ।


आस धुआँ, हर साँस धुआँ

धीर वीर गम्भीर,  भले नागरिक हैं बसे ।
जय जय जय रघुवीर, होवें सफल प्रयास शुभ ।।

कीचड़ महिना तीन, कचड़ा पूरे साल भर ।
मसला है संगीन, प्रर्यावरण बचाइये ।।

भरके गहरी सांस, एक बार फिर जोश से ।
दायित्विक अहसास, देने निकले मान्यवर ।।

होली में ....
  काव्यान्जलि
ओ री हो री होरियां, चौराहों पर साज ।
ताकें गोरी छोरियां, अघी अभय अंदाज ।
करघे उत्पादित करें, मारक सूती डोर
देख दुर्दशा मर्द की, बहते अँखियन लोर ।


  ram ram bhai

   बैरोमीटर प्रेम का, आक्सीटोसिन जाँच ।
होवे दर गर उच्चतर, प्रेम रोग हैं साँच ।

प्रेम रोग हैं साँच, आंच न आने पाए ।
प्रेम मगन मन नाच, जन्म भर साथ निभाए ।

माँ बच्चे के बीच, होय यह सबसे ज्यादा ।
दुग्ध-पान से सींच, पालती खटती मादा ।।



इश्क शाप है अगर तो, कर दे बन्दा माफ़ ।
दुनियादारी में पड़ा, क्या करना इन्साफ । 

क्या करना इन्साफ, दर्द की लम्बी रेखा ।
हर चेहरे पर साफ़, सिसकती पल पल देखा ।

रविकर बदला भूल, निछावर होते जाओ ।।
 घूमे मौला मस्त, शिकायत नहीं सुनाओ ।। 

दर्शन-प्राशन

पावक-गुलेल

बहुत-बहुत आभार है, दिखे वांछित द्वार ।
आनंदित रविकर हुआ, परख पावकी-प्यार ।।



दोस्त सा दिखता है लेकिन, दुश्मनों से भी बुरा ।
निश्छल हंसी से छल रहा, हरदम प्रपंची बांकुरा ।
दूर जाना है उसे पर, पीठ ना चाहे दिखाना --
 विश्वास से कर घात घोंपे, पीठ पर मारक छुरा ।



पुत्र-जन्म देकर जगत, उऋण पितृ से होय ।
पुन्वंशा  कैसे  भला, माँ का  कर्ज  बिलोय ।

माँ का  कर्ज  बिलोय, जन्म पुत्रों को देती ।
रहती उनमें खोय, नहीं सृष्टी सुध लेती । 

सदा क्षम्य गुण-सूत्र, मगर कन्या न मारो ।
हुए पिता से उऋण,  कर्ज चुपचाप उतारो ।।

 

Monday, 27 February 2012

मानस मोती पाय, अघाए मानव बुद्धी -


सुनों किताबें बोलतीं, पावन करती देह ।
कानों में मिश्री घुले, करलो इनसे नेह ।

करलो इनसे नेह, निभाती रिश्ता हरदम ।
लेकर जाओ गेह, मित्र ये रहबर अनुपम ।

मानस मोती पाय, अघाए मानव बुद्धी ।
  साबुन तेल बगैर, करे तन-मन की शुद्धी।

 
कविता : मत छापो मुझे 
  धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’ के कल्पनालोक में आपका स्वागत है

शब्दों की तड़पन से सिहरी,  चीत्कार कविता की सुन लो ।
शब्दा-डंबर शब्द-भेदता, भावों के गुण से अब चुन लो ।

पहले भी कविता मरती पर, मरने की दर आज बढ़ी है --
भीड़-कुम्भ में घुटता है दम, ताना-बाना निर्गुन बुन लो ।।

 समानांतर चली कथाएं, इक राजा सौ रंक की ।
इतराहट इक ओर रही उत, झल्लाहट आशंक की ।


झूले कंचन झूले में इत, कंच से भंगुर सपने हैं उत-
  यहाँ अन्नप्राशन पर लाखों, वहाँ कुपोषण डंक की ।।



मन में घर करते गए,  रोड़ा रेत मकान ।
साथ हाथ संगत रहे, टाले सब व्यवधान ।

 टाले सब व्यवधान, सजाया घर को सुन्दर ।
आत्म आत्माराम, लांघता सात समन्दर ।

छोड़ा पूर्व मकान, रहूँ अब दूजे तन में ।
पता रहा मैं जान, रखूं पर अपने मन में ।। 


पले पलायन का परशु, पल-पल हो परचंड ।
अंकुश मस्तक से विलग, हस्त करे शत-खंड ।।


  बेसुरम्‌ 

जाल में जवाल में, भेड़िये भी खाल में ।
जाल-साज साज के, फांस लेत जाल में ।।


  स्व प्न रं जि ता 

शिशिर जाय सिहराय के, आया कन्त बसन्त ।
मस्ती में आकूत सब, सेवक स्वामी सन्त ।

सेवक स्वामी सन्त, हुई मादक अमराई ।
बाढ़ी चाह अनंत, जड़ो-चेतन बौराई  ।

फगुनाहट हट घोर, शोर चौतरफा फैला।
देते बांह मरोर, बना बुढवा भी छैला ।।

निर्वाचन पर हो गए, मतदाता निर्वाक्य ।
राहुल बाबा पर कहाँ, करते टिप्पण शाक्य ।। 
करते टिप्पण शाक्य, नगर गौतम श्रावस्ती ।
नंगे दारुबाज, सजी मस्ती की  बस्ती ।
फँसे गुरु निर्वचन, करे नेतागण मंचन ।
नौटंकी को लाज, अजी तिकड़म निर्वाचन ।।



चक्रव्यूह साजा करे , पल-पल वक्ताचार्य ।
अभि-मन आहत हो रहा, कृष्ण-विवेकी कार्य ।
कृष्ण-विवेकी कार्य, करें कौरव अट्ठाहस ।
जायज है सन्देश , धरो पांडव सत्साहस ।
 यही युद्ध का धर्म, कर्म का लेकर डंडा ।
युद्ध-भूमि का मर्म, करो दुश्मन को ठंडा ।।

अनुशासित अनुपम उड़ान की, अनुभूती अंतर्मन कर ले

गाँव-राँव की बात यह, आकर्षक दमदार ।
हावी कृत्रिमता हुई, लोग होंय अनुदार ।।

 लोग होंय अनुदार, गाँव की बात निराली ।
भागदौड़ के शहर, अजूबे खाली-खाली ।।

झेलें कस्बे ग्राम, मुसीबत किन्तु दांव की ।
लगे बदलने लोग, हवा अब गाँव-राँव की ।।

पारस्परिक यह लेना देना, परम्परा है प्यार की ।
प्रीत्यर्थी ये छुआ-छुआना, मर्यादित अभिसार की ।।


  Akanksha 

अनुशासित अनुपम उड़ान की, अनुभूती अंतर्मन कर ले ।
जीवन सफ़र सरल हो जाये, आसमान मुट्ठी में भर ले ।।  

लहरें नाम मिटा देती हैं, अच्छा है पत्थर पर लिखता ।
कोने में करता स्थापित, हर पल साथी सम्मुख दिखता ।।

यादों को कितना खुबसूरत, कविवर आप बना देते हो ।
पत्थर पर लिखकर क्या करना, दिल में सही सजा लेते हो ।। 
 
सहज सरल उत्तर है प्रियवर, सतत-सात्विक नेह दिखा है ।
वास कर रही पुण्यात्मा, दृग्भक्ती दृढ़-देह दिखा है ।।

"कुछ ख्वाब- कुछ मंजिले"


यादें - अमरेन्द्र शुक्ल 'अमर'


ख्वाबगाह से बाहर निकले, ख़्वाब ख्वाह हो जाते हैं ।
ख्वाहमखाह ख्यालों को खरभर, खार खेद बो जाते हैं ।। 

Saturday, 25 February 2012

दूजे की आसान, हंसी उड़ाना है सखे --


मेरी शर्ट सफ़ेद, दूजे की गन्दी दिखे ।
दुनिया भर के भेद, फिर भी हम सब एक हैं ।

दूजे की आसान, हंसी उड़ाना है सखे ।
गिरेबान नादान, थोडा सा तो सिर झुका ।। 


क्षमा  सहित -
है आश्रम  अ-व्यवस्थिति, अनमना --
किन्तु अंतरजाल पर चापल लगे । 

लेखनी को देख के समझा छड़ा --
पर हकीकत में कवी छाँदल लगे ।। 


  anupama's sukrity. 

जैसे शिशु को हवा में, देता पिता उछाल ।
  फिर भी मुस्काता रहे, विश्वासी शिशु बाल ।

वैसे प्रभु को सौंप के, हो जाएँ आश्वस्त ।
दिशा दशा सुधरें सकल,  हों कल मार्ग प्रशस्त ।  


सिफ़र सिफ़ारिश में जुड़ा, ज़ीरो से क्या रीस ।
हीरो आलू छीलता, घर का बन्दा बीस । 


आतंकी महफूज हैं, सामर्थ्यहीन कानून ।
खुलेआम बाजार में, दे मानवता भून  ।।

आस बेंचते पास में , मिलते दुष्ट दलाल ।
न हर्रे ना फिटकरी, उनकी गोटी लाल ।।

नेता पर मत मूतना, पूरा गया घिनाय ।
खाद और पानी मिले, दूर तलक जा छाय ।।


खबर बेखबर खब्तमय, कर खरभर उत्पन्न ।
खटक अटक लेता गटक, जन हो जाता सन्न ।।


  विचार 
 मनोदेवता ने किया, मनोनयन मनमीत |
दिखे प्रीति या रुष्टता, होय युगल की जीत |
होय युगल की जीत, परस्पर बढे भरोसा |
माता बनती मीत, संतती पाला पोषा ||
मंगलमय हो साथ, स्वास्थ्य हो सबसे आला |
आगे पच्चिस साल,  डाल चांदी की माला ||  



कर छल का एहसास पुन: , 
छलके नैनों के बाद रही ।
खाकर धोखा भूल गया, 
पर याद तुम्हारी याद रही ।।

दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
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Thursday, 23 February 2012

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा

प्रस्तुति ; संगीता स्वरुप ( गीत )  

बन्दौं संत कबीर, कवी-वीर पुण्यात्मा,
अन्ध-बन्ध को चीर, किया ढोंग का खात्मा ।

परम्परा परित्याग, लीक छोड़ कर जो चला,
दुनिया दुश्मन दाग, भर जीवन बेहद खला ।

खरी खरी कह बात, वीर धीर गंभीर थे,
पोंगे को औकात, ज्ञानी श्रेष्ठ कबीर थे ।

भर जीवन संघर्ष,  किया कुरीती से सतत,
इक सौ उन्निस वर्ष, निर्गुण महिमा थे रटत ।


काशी जन्मो-करम, साखी सबद सिखाय के,
 मेटा सरगे भरम, मर मगहर मा जाय के ।

रिश्तों पर कवि-दृष्टि है, विश्लेषण अति गूढ़ ।
ये नाजुक सबके लिए, हो ग्यानी या मूढ़ ।।   

महा-मनीषी भर रहे, जब जीवन में रंग ।
सीखे निश्चय ही मनुज, तब जीने के ढंग ।।  

हास्य रंग परिहास को, पत्रकार पहचान ।
है अक्षम्य यह धृष्टता, रे लक्ष्मी नादान ।। 

 जैसे परम-पिता के दर्शन, करे आत्मा पावन ।
वैसे लुकाछिपी शिशु खेले, माँ के संग मनभावन ।।

पढ़ रहा इसे मैं बार बार |
प्रत्यक्ष लगे सुन्दर सिंगार |
व्याख्या यदि हो जाय तनिक--
समझूँ जानू यह सदविचार ||

दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
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Wednesday, 22 February 2012

अपने अंतरजाल पर, इक पीपल का पेड़ --

 उच्चारण -  

अपने अंतरजाल पर, इक पीपल का पेड़ ।
तोता-मैना बाज से, पक्षी जाते छेड़ ।
पक्षी जाते छेड़, बाज न फुदकी आती
उल्लू कौआ हंस, पपीहा कोयल गाती ।
 पल-पल पीपल प्राण, वायु ना देता थमने ।
पाले बकरी गाय, गधे भी नीचे अपने ।



नवगीत : चंचल मृग सा

भक्ति-भाव लख आपका, हिरदय भाव-विभोर ।
प्रभु के दर्शन हो गए, शैशव संगत शोर ।।

अनुभव कर के भूख का, उस गरीब को देख ।
दिन भर इक रोटी नहीं, मिटी हस्त आरेख ।।





आदत अपनी छोड़ के, बोले मीठे बोल ।
निश्चित मानो शख्स वो, धोखा देकर गोल ।। 


ए जी भारत रत्न को, काहे वे बेचैन ।
नव-धनाड्य से मूंदते, क्यूँ कर अपने नैन ।
क्यूँ कर अपने नैन, रत्न सारे *किन लायें ।*खरीद
भारत की क्या बात, जगत सिरमौर कहायें ।
रविकर उनकी पूँछ, स्वर्ग तक देखो बाढ़ी ।।
हैं ना सारे चोर, बिना तिनके की दाढ़ी ।।  




  लम्हों का सफ़र  

सात अरब की भीड़ में, अंतर-मन अकुलाय ।
तनकर तन्मय तन तपत, त्याग तमन्ना जाय ।।




 सरोकार  

सरोकार सारे रखें, अक्सर डिब्बा बन्द ।
बच्चों के इस प्रश्न को, गुणी उठायें चन्द ।
गुणी उठायें चन्द, रास्ता स्वयं निकालें ।
दें बेहतर जीवन, बना के अपना पालें ।
वन्दनीय सज्जन, सभी बच्चे हैं प्यारे ।
अभिभावक बिन किन्तु, अंध में भटकत सारे ।।


दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
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Tuesday, 21 February 2012

कर्म दाग पर ना मिटें, सभी वैद्य लाचार

   गीत.......मेरी अनुभूतियाँ 

कैसे कंधे लाद के, बाप ढोय औलाद ।
गधा बाप बन कर रहे, एक अवधि के बाद ।।

आज के नेता...
काव्यान्जलि ...
नेता पक्का नेत का, नेति बना के मन्त्र ।
तनी रहे नेती सदा, रहे टना-टन तन्त्र ।।

नेत = संकल्प / निश्चय
नेति = इति  न
नेती = मथानी को लपेटकर खींचने वाली रस्सी
मै नशे में
नशा नशावन थी कभीं, आज नशे में धुत्त ।
चूम नशीनी को चढ़ा, प्रेम परम उन्मुक्त ।।

अद्भुत सन्यासी गृहस्थ, सदा कर्म लव-लीन ।
इंद्रिय-सुख से विमुखता,  भाग्य विधाता दीन ।।

पिगमेंटेशन की दवा, धैर्य समय व्यवहार ।
कर्म दाग पर ना मिटें, सभी वैद्य लाचार ।। 

 थकित चकित माता पड़ी, जर्जर काया ठूठ
सन्ताने ताने कसें, मोबाइल गा रूठ  ।।

 किरकेट में किरकिरी से, लागे किरकेट चाट ।
 अभी परीक्षा में लिखें, पाछे  होली घाट ।।


    न दैन्यं न पलायनम् 

 क्षण भर चेहरे देख के, करें जरूरी  काम |
बड़ा मुखौटा काम का, छूटे नशे तमाम |
छूटे नशे तमाम, नशे का बनता राजा |
छोड़ जरुरी काम, बुलाये आजा आजा |
कह रविकर रख होश, मुखौटा खोटे लागै |
रखकर सर पर पैर, सयाना सरपट भागै ||


"आदरणीय “रविकर” जी को समर्पित-पाँच दोहे" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

जबरदस्त ये भाव हैं, निगमागम का रूप ।
तन-मन मति निर्मल करे, कुँवर अरुण की धूप ।। 

अरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ) -

निगमी निर्गम नर्मदा, अरुण शिवंकर पाय ।
सर्वोत्तम वह दिवस मम, वन्दौं शीश नवाय ।।
शिवंकर = कल्याणकारी


मदिरा पी ली पीली सरसों, फगुनाहट से झूमे ।
बार बार बरबस पैरों को, बेहोशी में चूमे ।
होंठो की मादक लाली को, पिचकारी में भरकर-
गली गली चौराहे पर वह, कृष्ण ढूँढ़ती  घूमे ।।

कवि सचमुच का पगलाई ता बसंत हौ

दर्द बढ़ता जा रहा है |
जिंदगी को खा रहा है |
पर भ्रमर भी क्या करे--
गा रहा, बस गा रहा है ||

गेहूं जामे गजल सा,
सरसों जैसे छंद |
जामे में सोहे भला,
सूट ये कालर बंद ||

"आदरणीय “रविकर” जी को समर्पित-पाँच दोहे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

रविकर जी को भा रहा, अब भी मेरा रूप।
वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसी धूप।१।

गेहूँ उगता ग़ज़ल सा, सरसों करे किलोल।
बन्द गले के सूट में, ढकी ढोल की पोल।२।

मौसम आकर्षित करे, हमको अपनी ओर।
कनकइया डग-मग करे, होकर भावविभोर।३।

कड़क नहीं माँझा रहा, नाज़ुक सी है डोर।
पतंग उड़ाने को चला, बिन बाँधे ही छोर।४।

पत्रक जब पीला हुआ, हरियाली नहीं पाय।
ना जाने कब डाल से, पका पान झड़ जाय।५।
  1. माता होय कुरूप अति, होंय पिता भी अंध |
    वन्दनीय ये सर्वदा, अतिशय पावन बंध ||
    बंध = शरीर

    उच्चारण अतिशय भला, रहे सदा आवाज |
    शब्द छीजते हैं नहीं, पञ्च-तत्व कर लाज ||

    देव आज देते चले, फिर से पैतिस साल |
    स्वस्थ रहेंगे सर्वदा, नौनिहाल सौ पाल ||
मीठी बोली सहजता, आशामय  विश्वास।
शांत चित्त के ज्ञान से, सहज सरल हर सांस ।।

दिल के कोने में सजा, रहा अकेला नाम।
सजा सदा देता रहे, करे नहीं  आराम ।।

ई चकाचक कS बसंत हौS। बेचैन -आत्मा 

वैसे तो साल भर बेचैन रहे आत्मा  ।
कवि सचमुच का पगलाई ता बसंत हौ ।।

वो सूरज से बगावत कर रहा है ...

स्वप्न मेरे पर 

चुके होंगे तरकश के तीर
अपनी उकताहट हर रहा है ||

  vidya writes again.. 

नंगे सभी हमाम में, लगे मुखौटे प्याज |
एक-एक कर छीलिए, छीले जी ले लाज ||  


सस्ती मौत ....

विचार-प्रवाह पर 

'मिलीटरी' का ट्रक रहा, 'मिली'  'टरी' न मौत ।
सदा गरीबी बन रही,  इस जीवन में सौत । 

सदियों से बेगानों के घर रहा हूँ मैं |
अब भी पुराना हिसाब भर रहा हूँ मैं |

ढूंढता रह गया खुशियों को बेहिसाब--
जिंदगी मिल न जाए डर रहा हूँ मैं ||