घर की चटनी-रोटियां, सदा मौज से चाब,
कई तरह के टैक्स से, लगिहै मुर्ग-कबाब |
लगिहै मुर्ग-कबाब, चला दतखुदनी ऐसे,
हो मुर्गे की टांग , फँसी दांतों में जैसे |
कर अभिनय पुरजोर, डकरते निकलो बाहर |
कई तरह के टैक्स से, लगिहै मुर्ग-कबाब |
लगिहै मुर्ग-कबाब, चला दतखुदनी ऐसे,
हो मुर्गे की टांग , फँसी दांतों में जैसे |
कर अभिनय पुरजोर, डकरते निकलो बाहर |
मँहगाई पुरजोर, चले अब ऐसे ही घर ||
कर अभिनय पुरजोर, डकरते निकलो बाहर,
ReplyDeleteईंधन-राशन तेज, चले अब लुढ़क-लुढ़क घर ||
सही है महंगाई की मार अच्छे अच्छों की कमर तोड़ देती है.बहुत खूब कही है
ravikar ji bahut sundar
ReplyDeleteईंधन-राशन तेज, चले अब लुढ़क-लुढ़क घर
ReplyDeleteलगभग हर मध्यम वर्गीय परिवार की यही स्थिति है.
अहा! मज़ा आ गया। एक और सशक्त ब्लॉगर का प्रवेश हुआ है ब्लॉगजगत में।
ReplyDeleteसशक्त रचना .गागर में सागर .
ReplyDeleteरूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव ,
देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव .
अब इसी रूखी सूखी खाने का वक्त आ गया है .महंगाई और सेहत दोनों के लिए मुफीद .
अच्छा संदेश...सुन्दर अभिव्यक्ति व्यंगात्मक स्वर में
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