लेकिन दर्शन-दूर है |
हरदिन का दस्तूर है --
मोहन करते माँजी-माँजी, आर एस एस ने लाठी भांजी |
राहुल मोस्ट वांटेड बेचलर, दिग्गी उनके हाँजी हाँजी |
महा-घुटाले-बाज तिहाड़ी, फटकारे नित चाबुक काजी |
कातिल का महिमा-मंडन, जीते जालिम हारी बाजी--
आदत से मजबूर है |
हरदिन का दस्तूर है -
बड़ी शान से अपनी करनी हारर-किलर सुनाता जाये |
सालों बन्द कोठरी अन्दर बहिना अपनी मौत बुलाएं |
कहीं बाप के अनाचार का घड़ा फूटने को आये |
बेटी - नौकर - चाकर सारे फूटी आँख नहीं भाये--
बनता कातिल क्रूर है |
हरदिन का दस्तूर है --
भाई भाई काट रहा , तो कही भीड़ का न्याय है |
उधर नक्सली रेल उडाता, इधर पुलिस असहाय है |
कालेधन के भूखेपन पर बाबा गया अघाय है |
लोकपाल के दल-दल पर दल जुदा-जुदा दस राय है--
दिल्ली लगती दूर है
बड़ी सोनिया सा चल करके छटी-सानिया ने देखा
हाथ पे उसने अपने पाई तब पाकिस्तानी रेखा |
सट्टेबाज - खिलाड़ी सबकी लाजवाब लगती एका |
बेशुमार ताकत से हरदिन बदल रहे रब का लेखा --
ताकत से मगरूर है |
हरदिन का दस्तूर है --
keya baat hai ji
ReplyDeleteरचना बहुत अच्छी है मगर कुछ शब्द मात्राओं के लिए पर्यायवाची शब्दों को माँग रहे हैं!
ReplyDeleteक्या जमाने का ख़ाका खींचा...बहुत सुन्दर...शास्त्री जी की भी बात पर ध्यान दें...छन्दबद्ध रचनाएं एक भी मात्रा की कमी-बेसी बरदास्त नहीं करतीं...बहुत-बहुत बधाई और आभार
ReplyDelete"भाई - भाई काट रहा , तो कही भीड़ का न्याय है |
ReplyDeleteउधर नक्सली रेल उडाता, इधर पुलिस असहाय है |"
बहुत सुन्दर, मधुर शब्दों में जीवन की कड़वाहट का चित्रण. धन्यवाद रविकर जी.
आदत से मजबूर है
ReplyDeleteहरदिन का दस्तूर है
nice poem
कातिल का महिमा मंडन वह जीत रहा ,हर दिन बाज़ी ,
ReplyDeleteमोहन बोले माँजी ,माँ जी .....
बहुत असरदार संदर्भों को झिंझोड़ ती सी रचना .
वाह ... बहुत ही बढिया ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया :):)
ReplyDeleteवाह वाह ... क्या व्यंग और हास्य का मिश्रण है ... मज़ा आ गया साहब ...
ReplyDeleteवाह भाई रविकर जी ...
ReplyDeleteबहुत ही मनमोहक और सामयिक व्यंग्यात्मक प्रस्तुति