सम्बन्धों में जब दिखे, अपने तनिक खटास |
बलि का बकरा ढूंढ़ लो, जो कोई हो पास ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
जख्मों का दुर्गन्ध जो, फ़ैल रहा है आज |
मरहम पट्टी का सही, रहा नहीं अन्दाज ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
दुनिया की खातिर किया, भर्ती नर्सिंग होम,
अग्नि में जलकर बंटा, धरा वायु जल व्योम ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
चुनो फूल सम्मान से, गये छोड़ इहलोक |
सगे हमारे बाप जी, कर तेरह दिन शोक ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
तेरहवीं भी हो गई, विदा हुए मेहमान |
बहनोई-बहिने रुकी, लेकर जमी-मकान ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
घटी रोशनी में भला, बटेगा कैसे माल |
फूल झाड़कर के जरा, फिरसे दीपक बाल ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
अपना हिस्सा पाय के, धूनी रहे रमाय |
इक मकान में "सात" घर, देखो रहे समाय ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
था दहेज़ मोटा दिया, कर्जा भरा कमाय,
बहिनों के वर्ताव से, घर-भर गए अघाय ||
क्यों भाई जोशी ?
हाँ पडोसी ||
कयों भाई रविकर! ऐसा क्यूँ कर...वाह! जी वाह!
ReplyDeleteक्यों भाई जोशी
ReplyDeleteहाँ पड़ोसी
के साथ घर घर की व्यथा का गहरा विश्लेषण .
क्यों भाई जोशी ?
ReplyDeleteहाँ पडोसी ||
बहुत अच्छी लगी ये भावाभिव्यक्ति आपकी याद दिला गयी
एक फ़िल्मी गाने की-
''क्यों भाई चाचा
हाँ भतीजा
kyo bhai
ReplyDeletebeautiful poem
गहन बात ..पर ज्यादातर बहने ऐसी निर्दयी नहीं होतीं
ReplyDeleteक्यों भाई जोशी ?
ReplyDeleteहाँ पडोसी ||
baar baar in shabdon ka prayog gudgudata hai..phir jindago ki hakikat batata hai...aapka prayas kaphi accha laga..hardi badhayi
क्यों भाई जोशी
ReplyDeleteहाँ पड़ोसी ....के सुन्दर शब्द योजना के पीछे घर घर का दर्द छिपा है
आप सभी का स्वागत है ||
ReplyDeleteआभार सभी भाई-बहनों का ||
अधिकतर बहनें इस श्रेणी में नहीं आती ||
भाइयों को भी अनवरत राखी की लाज रखनी चाहिए ||
गहन भावों का समावेश ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteएक सलाह और जोड़ कर देते हम को खुश
ReplyDeleteपड़ना पचड़ो मे दूसरों के है सदा अहितकर
खास कर जब पड़ोसी नया नया आया हो मोहल्ले मे
अपने राम अपने मे खुश लड़्ते रहे लादेन और जार्ज बुश
बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteअपना हिस्सा पाय के, धूनी रहे रमाय |
ReplyDeleteइक मकान में "सात" घर, देखो रहे समाय ||...
jitni bhi taareef karun , kam hogi !
waah !
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बहुत सुंदर अंदाज,
ReplyDeleteवाह,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
तेरहवीं भी हो गई, विदा हुए मेहमान |
ReplyDeleteबहनोई-बहिने रुकी, लेकर जमी-मकान ||
आम के आम , गुठलियों के दाम.
रविकर के दोहे -
ReplyDeleteक्या खूब -मस्त अंदाज -गजब का व्यंग -दोहों के हर अंग में समाया दर्द पीड़ा -आँखें खोल देने वाले सटीक -बधाई हो -
तेरहवीं भी हो गई, विदा हुए मेहमान |
बहनोई-बहिने रुकी, लेकर जमी-मकान ||
आदरणीय रविकर जी हार्दिक आभार आप का बच्चों की रचनाओं और इस ब्लॉग को आप का समर्थन मिला ख़ुशी हुयी अपना सुझाव् व् समर्थन भी देते रहें
सच कहा आप ने-नन्हे मुन्ने बच्चे बन लिखना संयम से बहुत कठिन है
आभार आप का पुनः
शुक्ल भ्रमर ५
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया
जीवन के समानांतर दोहे
ReplyDeleteठोस लग रहे जैसे लोहे
बेहद नीको लागे मोहे
धन्यवाद है कविवर तोहे
अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteतेरहवीं भी हो गई, विदा हुए मेहमान |
ReplyDeleteबहनोई-बहिने रुकी, लेकर जमी-मकान ...
वाह वाह दिनेश जी ... कुछ कड़वी बातें जरूर हैं पर सत्य हैं ...
क्यों भाई रविकर, हाँ संदीप
ReplyDeleteबहुत उम्दा वार्तालाप रचना!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना! बेहतरीन प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत सुंदर अंदाज,
ReplyDeleteवाह,
तेरहवीं भी हो गई, विदा हुए मेहमान |
ReplyDeleteबहनोई-बहिने रुकी, लेकर जमी-मकान ||
हर पँक्ति समाज पर गहरा कटाक्ष है। शुभकामनायें।
सुंदर कोमल और संवेदनशील भाव
ReplyDeleteआपका तहे दिल से शुक्रिया मेरे ब्लॉग पे आने के लिए और शुभकामनाएं देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद/शुक्रिया
ReplyDelete9 दिन तक ब्लोगिंग से दूर रहा इस लिए आपके ब्लॉग पर नहीं आया उसके लिए क्षमा चाहता हूँ ...आपका सवाई सिंह राजपुरोहित
ReplyDeleteदिलकश है यह अंदाज।
ReplyDeleteक्यों भई, जोशी
हां पडोसी
सही कहा न?
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प्रेम एक दलदल है..
’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।
अरे वाह!...बहुत ख़ूब
ReplyDeleteइक "मकान में सात "घर" देखो रहे समाय .मार्मिक शब्द चित्र घरु व्यथा का .
ReplyDeleteरवि कवि जी ! गुड़ , देहात में आज भी गुड़ मिलता है और कोल्हू पे जाओ तो फ़्री मिलता है बिल्कुल आपकी पोस्ट की तरह ।
ReplyDeleteधन्यवाद !