Friday 13 July 2012

एक छमाही दिल्ली रहती पुत्र पास वो- दूजा पुत्री संग बटी है अलबेली ।


"ब्लॉग ट्राफिक बढ़ाने के लिए" ( चर्चा मंच - 940 )

 

फटा पड़ा दिल शर्ट फटी है  अलबेली  ।
उलट पुलट कर रात  कटी है अलबेली ।
हाथ जोड़कर पैर पड़ा पर वो न माने-
ताल ठोक ललकार डटी है अलबेली ।

तीनों बच्चों को लेकर के भाव दिखाए-
सन  अस्सी,  चुपचाप पटी थी अलबेली ।
एक छमाही दिल्ली रहती पुत्र पास वो-
दूजा पुत्री संग बटी सी अलबेली  ।

घटी शक्ति अब रोटी को मुहताज हुआ-
रविकर के संग करी घटी है अलबेली ।
भाई बहिनों पुत्र-पुत्रियों को ही माने-
कैसे कह दूँ , बहुत लटी है अलबेली ।। 





मेरे बचपन की तस्वीर 

समय गुजरते न लगी, गुजरा कल गुजरात ।
तख्ते-ताउस पर बिठा, चित्र खींचते तात  ।।




गुरुभाई की पोस्ट पर, आकर होता धन्य ।
गुरु बिन हो सकता नहीं, मानव मन चैतन्य ।


My Photo

"निविदा खुलने का समय है आया "

आज खिंचाई हो गई, पति की क्यों उल्लूक |
निविदा को कर दो विदा, भरी चूक ही चूक |
भरी चूक ही चूक, पार्टी एक अकेली |
तीन लिफ़ाफ़े डाल, छीनता सत्ता डेली |
बड़े बड़े संस्थान, खुले विद्वानों खातिर |
रहें उसी में कैद, नहीं तो होंगे शातिर ||  

 करे प्रगट कृतज्ञता, कुसुम चढ़ाए भाव ।
        हृदय-पटल पर आज भी, अंकित अमित प्रभाव ।।

National duniya me aaj....


शातिर मोटी खाल का, रोम-रन्ध्र हो बंद |
जो विहीन है रीढ़ से, वही करे आनंन्द  |

वही करे आनंन्द , घड़े सा चिकना होकर |
पद के मद में अंध
, लगा जन-गण को ठोकर |

रिसर्च-स्टडी 
केंद्र , श्रेष्ठ-विद्वानों खातिर |
खाते-पीते-मौज 
, अन्यथा होते शातिर |

विचारों के बादल

  (प्रवीण पाण्डेय)
न दैन्यं न पलायनम्
आपके इस ललित लेख ने मुझे फिर से अपनी उस बहु उद्धृत बात को कहलाने को प्रेरित किया है -
श्रेष्ठ रचनाएं खुद को लिखवा लेती हैं -कोई सुयोग्य लेखक बस माध्यम बन जाता है -
Reply

Replies






  1. स्वयं शारदा बैठती, आ आसन अरविन्द |
    भाव होंय उत्कृष्ट अति, गंदे भाग उछिन्द |
    गंदे भाग उछिन्द , कलम माता ले लेती |
    नए नए से विन्दु, समाहित फिर कर देती |
    सच गुरुवर अरविन्द, श्रेष्ठ रचना लिखवाती |
    शब्द सिलसिलेवार, स्वयं ही बैठा जाती ||

    किसी को दामाद चाहिए, किसी को लोकपाल!


    जंतर मंतर न करे, चमत्कार हर बार |
    नेता माता केजरी, बैठे डेरा डार |
    बैठे डेरा डार,  कान पे जूं न रेंगे |
    लोकपाल मजबूत, कभी न तुमको देंगे |
    मांगे मातु दमाद, पड़े फिर भी न अंतर |
    असर हुआ अब ख़त्म, चले न जंतर मंतर ||

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर..

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  2. बहुत धमाकेदार प्रस्तुति...

    ...आभार रविकर भाई :-)

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  3. बहुत बढ़िया रचनाएं भी और प्रस्तुति भी।

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