"दोहे-खुली ढोल की पोल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
नाजुक अंगों को छुवे, करे वासना शान्त |
बने कान्त एकांत में, होय क्वारपन क्लांत |
होय क्वारपन क्लांत, बुद्धि से संत अपाहिज |
बढे दरिन्दे घोर, हुआ अब भारत आजिज |
बड़ी सजा की मांग, सुरक्षा से है तालुक |
मात पिता जा जाग, परिस्थिति बेहद नाजुक |
गलती का पुतला मनुज, दनुज सरिस नहिं क्रूर |
मापदण्ड दुहरे मगर, व्यवहारिक भरपूर |
व्यवहारिक भरपूर, मुखौटे पर चालाकी |
रविकर मद में चूर, चाल चल जाय बला की |
करे स्वार्थ सब सिद्ध, उमरिया जस तस ढलती |
करता अब फ़रियाद, दाल लेकिन नहिं गलती ||
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युवा अवस्था बीतती, ढली उमरिया आज |
शक्ति घटे होवे विवश, दे प्रभु को आवाज |
दे प्रभु को आवाज, रात-दिन जपता माला |
जाते वे भी छोड़, जिन्हें पलकों पर पाला |
रविकर होता वृद्ध, बढ़ी ईश्वर प्रति आस्था |
प्रभु नहिं करें क़ुबूल, याद कर युवा अवस्था ||
छक्का पंजा भूलता, जाएँ छक्के छूट |
छंद-मन्त्र छलछंद जब, कूट-कर्म से लूट |
कूट-कर्म से लूट, दुष्ट का फूटे भंडा |
पाये डंडा दण्ड, बदन हो जाये कंडा |
रविकर घटे प्रताप, कीर्ति को लगता धक्का |
गुरु हो अर्जुन सरिस, अन्यथा बन जा छक्का ||
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एक चिरैया को, फंदे में पकड़ न पाए, शाम हो गयी -सतीश सक्सेना
सतीश सक्सेना मेरे गीत !
चंचा हिलता खेत में, रहे चिरैया दूर |
बिछे जाल में पर फँसे, कुछ तो गलत जरूर |
कुछ तो गलत जरूर, बताओ क्या मज़बूरी |
पग पग पलते क्रूर, नहीं क्यूँ उनको घूरी |
कर दे काया सुर्ख, शिकारी चला तमंचा-
दल का मुखिया मूर्ख, दुष्ट रविकर नहिं चंचा ||
चंचा=खेत में लगा पुतला
ओसारे में बुद्धि-बल, मढ़िया में छल-दम्भ |
नहीं गाँव की खैर तब, पतन होय आरम्भ |
पतन होय आरम्भ, बुद्धि पर पड़ते ताले |
बल पर श्रद्धा-श्राप, लाज कर दिया हवाले |
तार-तार सम्बन्ध, धर्म- नैतिकता हारे |
हुआ बुद्धि-बल अन्ध, भजे रविकर ओसारे ||
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मीडिया का अतिरेकी रवैया अपनाना क्या सही है !
पूरण खण्डेलवाल
रेकी रेका रोचता, इसे पसन्द बवाल |
फैलाए उत्तेजना, और कमाए माल |
और कमाए माल, खबर खरभर कर देता |
करता कभी कमाल, कदाचित पैसे लेता |
दिखा रहा प्रत्यक्ष, करे जैसे यह नेकी |
छुपा जाय पर सत्य, मीडिया यह अतिरेकी ||
रेका=संदेह / शंका
जय हो कविवर !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeletelatest post नसीहत
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ReplyDeleteगजब !
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कावियमयी टिप्पणी दी है आपने!
"दोहे-खुली ढोल की पोल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
ReplyDeleteरूपचन्द्र शास्त्री मयंक
उच्चारण
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ ,बेश प्रताप पूजिअहिं तेऊ ,
उघरहिं अंत न होइ निबाहू ,कालनेमि जिमि रावन राहू।
जो (वेशधारी )ठग हैं ,उन्हें भी अच्छा (साधु -सा )वेश बनाए देखकर वेश के प्रताप से जगत पूजता है
;परन्तु एक -न -एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं ,उनकी अ - सलियत सामने आ जाती है। अंत तक
उनका कपट नहीं निभता ,जैसे कालनेमि ,रावण और राहुका हाल हुआवैसे ही आशा राम बापू का हुआ
है।
गुरु अर्जुन सादृश्य, अन्यथा बन जा छक्का
छक्का पंजा भूलता, जाएँ छक्के छूट |
छंद-मन्त्र छलछंद जब, कूट-कर्म से लूट |
कूट-कर्म से लूट, दुष्ट का फूटे भंडा |
पाये डंडा दण्ड, बदन हो जाये कंडा |
रविकर घटे प्रताप, कीर्ति को लगता धक्का |
गुरु हो अर्जुन सरिस, अन्यथा बन जा छक्का ||
बेहद सटीक एवं प्रासंगिक सेतु।