Monday, 2 December 2013

मुर्गा कुकडूं-कूँ करे, फिर दिनभर बेचैन -


जाग मुसाफिर जाग !

पी.सी.गोदियाल "परचेत"





ठेला-ठाली आपकी , भली लगी श्रीमान |
बहुत दिनों से ढूँढता, किस कारण व्यवधान |

किस कारण व्यवधान , इलेक्शन फिर से आया |
मत चुको चौहान, इन्होने बहुत सताया |

बदलो यह सरकार, ख़तम कर विकट झमेला |
असहनीय यह बाँस,  हमेशा रविकर ठेला || 



लिव इन रिलेशनशिप को कानूनन रोका जाये ..

Shalini Kaushik 






चढ़े देह पर *देहला, देहात्मक सिद्धांत |
लेशन लिव-इन-रिलेशनी, जीने के उपरान्त |

जीने के उपरान्त, सोच क्या खोया पाया |
हरदम रहे अशांत, स्वार्थ सुख आगे आया |

त्याग समर्पण छोड़, ओढ़ ले चादर रविकर |
है समाज का कोढ़, वासना चढ़े देह पर ||   
*मद्य 

कर लो पुनर्विचार, पुलिस नित मुंह की खाये-

पाये कटक कमान तो, ताने विशिख कराल |
भूले लेवी अपहरण, भूले नक्सल चाल |

भूले नक्सल चाल, बंद हो जाये हमला |
फिर गांधी मैदान, बनेगा नहीं कर्बला |

कर लो पुनर्विचार, पुलिस नित मुंह की खाये | 
नक्सल रहा डकार, नहीं जनता जी पाये ||


हल्दी नमक लगाय, तेल में तलती मुर्गा
मुर्गा कुकडूं-कूँ करे, फिर दिनभर बेचैन |
लगे अड़ंगे व्याह में, तेल-मैन की रैन |

तेल-मैन की रैन, नहीं हल्दी आ पाई |
बीते कई मुहूर्त, टले हर बार सगाई |

इक दिन मौका पाय, पकड़ता उनका गुर्गा |
हल्दी नमक लगाय, तेल में तलती मुर्गा ||

तेल-मैन = विवाह के एक दिन पहले के कार्यक्रम 


जमीन की सोच है फिर क्यों बार बार हवाबाजों में फंस जाता है

सुशील कुमार जोशी 

बाज बाज आता नहीं, भरता रहे उड़ान |
नीचे कुछ भाता नहीं, खुद पर बड़ा गुमान |

खुद पर बड़ा गुमान, कहाँ उल्लू में दमखम |
लेता आँखें मीच, धूप की ऐसी चमचम |

पर गुरुत्व सिद्धांत, इक दूजे को खींचे |
रख धरती पर पैर, लौट आ प्यारे नीचे ||


वो दूल्हा....

कालीपद प्रसाद 








बड़ी दुकानें हैं सजी, जा सीधे बाजार |
ढूँढे दूल्हा ना मिले, जाकर वहाँ निहार |

जाकर वहाँ निहार, हार इक मस्त खरीदें |
लख लखपति पति एक, जाग जाती उम्मीदें |

किन्तु भरी नहिं मांग, मांग के अपने माने |
जाय हार भी हार, हार से  बड़ी दुकानें ||


सीढ़ी कोने में खड़ी, इधर बड़ी सी लिफ्ट |
लिफ्ट लिफ्ट देती नहीं, सीढ़ी की स्क्रिप्ट |

सीढ़ी की स्क्रिप्ट, कमर में हाथ डालते |
चूमाचाटी होय, तनिक एहसास पालते |

किन्तु लगे ना दोष, तरुण की कैसी पीढ़ी |
फँसता तेज अधेड़, छोड़ देता ज्यों सीढ़ी ||


बा -मुश्किल ही पहुँच पातीं हैं औरतें काम शिखर पर (दूसरी किश्त )

Virendra Kumar Sharma 

श्वासों से सरगम बजे, गम से तो उच्छ्वास |
क्या है कामानन्द का, सजना सजनी पास |

सजना सजनी पास, बराबर चूमाचाटी |
पारस्परिक विलास, मार नहिं व्यर्थ गुलाटी |

है मैराथन रेस, आतंरिक शक्ति हुमा सो |
बाकी है कुछ काम, ठहर जा लम्बी श्वासों || 


2 comments:

  1. चढ़े देह पर *देहला, देहात्मक सिद्धांत |
    लेशन लिव-इन-रिलेशनी, जीने के उपरान्त |

    जीने के उपरान्त, सोच क्या खोया पाया |
    हरदम रहे अशांत, स्वार्थ सुख आगे आया |

    त्याग समर्पण छोड़, ओढ़ ले चादर रविकर |
    है समाज का कोढ़, वासना चढ़े देह पर ||

    बहुत खूब प्रस्तुति सशक्त भावों की उन्मुक्त उड़ान .

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  2. सुंदर चर्चा ! उल्लूक की "जमीन की सोच है फिर क्यों बार बार हवाबाजों में फंस जाता है"
    को शामिल करने और सुंदर टिप्पणी के लिये आभार !

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