उन दरख्तों के बगल में खून के छींटे दिखे |
तख्तियों पर कातिलों के नाम यूँ पाए लिखे ||
गुरुमुखी में था लिखा "भलभेचना" पढ़कर लगा |
पहचानता मकतूल होगा, था कोई उसका सगा ||
पास काले कोट सा गाउन पड़ा था घास पर |
खून-कीचड़ में सना था, "सिलवटें-बल" तर-बतर ||
गोल त्रिभुज और डब्ल्यू सी दिखी इक वर्ण-माला |
भारी तबाही थी मचाई, जुड़ गया अध्याय काला ||
जो उधर जिन्दा बचे, उनका यही पैगाम है --
जो उधर जिन्दा बचे, उनका यही पैगाम है --
ReplyDeleteसंघर्ष का आगाज होवे, राष्ट्र-हित अंजाम है ||
BAHUT KHOOB.
आभार
ReplyDeleteइन पंक्तियों भी देखिये
बेटे को पढ़ने दो |
* घट रही है रोटियां घटती रहें---गेहूं को सड़ने दो |
* बँट रही हैं बोटियाँ बटती रहें--लोभी को लड़ने दो |
* गल रही हैं चोटियाँ गलती रहें---आरोही चढ़ने दो |
* मिट रही हैं बेटियां मिटती रहे---बेटे को पढ़ने दो |
* घुट रही है बच्चियां घुटती रहें-- बर्तन को मलने दो ||
* लग रही हैं बंदिशें लगती रहें--- दौलत को बढ़ने दो |
* पिट रही हैं गोटियाँ पिटती रहें---रानी को चलने दो |
* मिट रही हैं हसरतें मिटती रहें--जीवन को मरने दो ||
उन दरख्तों के बगल में खून के छींटे दिखे |
ReplyDeleteतख्तियों पर कातिलों के नाम यूँ पाए लिखे ||
खूब कहा .....बेहतरीन पंक्तियाँ
अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteदिनेश चंद्र गुप्ता रविकर जी
ReplyDeleteसादर वंदे मातरम्!
जो उधर जिन्दा बचे, उनका यही पैगाम है --
संघर्ष का आगाज होवे, राष्ट्र-हित अंजाम है
बहुत मार्मिक है …
देश के ताज़ा घटनाक्रम पर आपकी अन्य रचनाएं भी अच्छी लगीं ।
अब तक तो लादेन-इलियास
करते थे छुप-छुप कर वार !
सोए हुओं पर अश्रुगैस
डंडे और गोली बौछार !
बूढ़ों-मांओं-बच्चों पर
पागल कुत्ते पांच हज़ार !
सौ धिक्कार ! सौ धिक्कार !
ऐ दिल्ली वाली सरकार !
पूरी रचना के लिए उपरोक्त लिंक पर पधारिए…
आपका हार्दिक स्वागत है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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ReplyDeleteदिनेश जी ,
बहुत ही ओजमयी रचना है।
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बहुत ही बढ़िया रचना है,
ReplyDeleteसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आभार
ReplyDeleteहर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
ReplyDeleteतेज़ धार व्यंग्य की ,जो उधर ज़िंदा बचे उनका यही पैगाम है ........,बधाई भाई साहब !एक बानगी आपकी भेंट -सह -भावित दोहे :वीरेंद्र शर्मा ,डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश .डी .लिट .।
ReplyDeleteचाटुकार चमचे करें ,नेता की जय -कार ,
चलती कारों में हुई ,देश की इज्ज़त तार ,
छप रहे अखबार में ,समाचार हर बार ,
कुर्सी वर्दी मिल गए भली करे करतार ।
बाबा को पहना दीनि ,कल जिसने सलवार ,
अब तो बनने से रही ,वह काफिर सरकार ।
है कैसा यह लोकतंत्र ,है कैसी सरकार ,
चोर उचक्के सब हुए ,घर के पहरे -दार ,
संसद में होने लगा यह कैसा व्यापार ,
आंधी में उड़ने लगे नोटों के अम्बार ।
मध्य रात पिटने लगे ,बाल वृद्ध लाचार ,
मोहर लगी थी हाथ पर ,हाथ करे अब वार ।
और जोर से बोल लो उनकी जय -जय कार ,
सरे आम लुटने लगे इज्ज़त ,कौम परिवार ,
जब से पीज़ा पाश्ता ,हुए मूल आहार ,
इटली से चलने लगा ,सारा कारोबार ।
प्रस्तुती :वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई ).
वीरू भाई सादर नमन ||
ReplyDeleteआपका ब्लाग पर बारम्बार स्वागत है |
आपने बड़ी सुन्दर पंक्तियों को पढने का अवसर दिया ||
आभार ||