प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ कहीं देना पड़े, कर देता है मार ||
आम सभी बौरा गए, खस-खस होते ख़ास |
सरपट बग्घी भागती, बड़े लक्ष्य की ओर |
आम सभी बौरा गए, खस-खस होते ख़ास |
दुनिया में रविकर मिटै, मिष्ठी-स्नेह-सुबास ||
सरपट बग्घी भागती, बड़े लक्ष्य की ओर |
घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||
चले हुए नौ-दिन हुए, चला अढ़ाई कोस |
लोकपाल का करी शुभ्र, तनिक होश में पोस || करी = हाथी कुर्सी के खटमल करें, मोटी-चमड़ी छेद |
पहली बार आपके ब्लॉग पर आये बड़ा अच्छा लगा.आपकी रचना भी काफी अच्छी लगी.
ReplyDeleteकुर्सी के खटमल करें, मोटी-चमड़ी छेद |
ReplyDeleteमर जाते अफ़सोस पर, पी के खून सफ़ेद ||
--
वाह क्या बात है सर जी!
मजा आ गया!
भूखा, खटमल, सफ़ेद खून
ReplyDeleteचले हुए नौ-दिन हुए, चला अढ़ाई कोस |
ReplyDeleteलोकपाल का करी शुभ्र, तनिक होश में पोस || करी = हाथी
कुर्सी के खटमल करें, मोटी-चमड़ी छेद |
मर जाते अफ़सोस पर, पी के खून सफ़ेद ||
बहुत बढ़िया ..सटीक कटाक्ष
चले हुए नौ-दिन हुए, चला अढ़ाई कोस |
ReplyDeleteलोकपाल का करी शुभ्र, तनिक होश में पोस ||
अब तो यही कहा जायेगा.
nice poem
ReplyDeleteand last two lines are kya kahana
great
इस बार कह रहा हूँ कि शब्दों में सरलता रखें। मैं ज्यादा शब्दों को समझ नहीं पाता। इसलिए कहा।
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार|
ReplyDeleteहमेशा, स्वागत हेतु उत्सुक रहता हूँ |
बहुत-बहुत धन्यवाद ||
सही लिखा है आपने इन बेशर्मो की खाल उतारनी ही होगी लिखते रहिये शुभकामनाएं
ReplyDeleteअच्छी व्यंग्योक्ति है वक्रोक्ति भी .बधाई .ये लोकतंत्री सेक्युलर खटमल हैं .इनका तो पैदायशी ही खून सफ़ेद है .बेहतरीन बुनावट है शिल्प की .गेयता ,सौन्दर्य और व्यंग्य सब एक जगह .
ReplyDelete