घोंघा- सी होती जाती हैं स्त्रियाँ ....
वाणी गीत
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रहो सुरक्षित खोल में, डोल रही निश्चिन्त |
खोल खोल के गर चले, दशा होय आचिन्त्य | दशा होय आचिन्त्य, सोच टेढ़ी सामाजिक | दिखे पुरुष वर्चस्व, घटे दुर्घटना आदिक | नहीं बदलती सोच, आज तक रही प्रतीक्षित | मत खोलो हे मातु, खोल में रहो सुरक्षित || |
सृजन
Brijesh Singh
![]() ब्लॉग प्रसारण सारणी, सजा रहे *रणछोड़ | साफ़ झलकता श्रम-सफल, निश्चय ही बेजोड़ | | *कृष्ण
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बिपदा बढ़ती बहु-गुणा, बा-शिंदे बेहाल- |
कवि के आशीर्वाद, सार्थक हैं सफल होंगे !
ReplyDeleteबधाई भाई !
बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteवो कान में तेल डाले बैठे है !
ReplyDeleteमेरे लिंक संयोजन के प्रयास को आपका आशीष मिला यह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आपका हार्दिक आभार!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/ चर्चा मंच <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
संकलन में रचना को स्थान देने का बहुत आभार !
ReplyDeleteसुंदर संकलन रविकर सर!
ReplyDelete~सादर!!!
बहुत बढ़िया
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