Monday, 8 July 2013

बने दुबारा दूध, दही जो पड़े जमाये-





Asha Saxena  


 बीता कितना समय व्यर्थ, अर्थहीन कुछ कर्म |
आज हुआ अफ़सोस है, व्यथित हुआ है मर्म |
व्यथित हुआ है मर्म, शर्म भी हमको आये |
बने दुबारा दूध,  दही जो पड़े जमाये |
कितना सुन्दर तथ्य, दिया दर्शन ज्यों गीता |
पुन: नहीं हो प्राप्त, समय  बीता सो  बीता ||

 जागो !तामसी , आज फिर जागो !
प्रतिभा सक्सेना  
लालित्यम् 

थोड़ा सत रज तम मिले, भिन्न भिन्न अनुपात |
प्रस्तुति शुभ-गंभीर अति, महत्वपूर्ण दिन रात |
महत्वपूर्ण दिन रात, एक बिन अन्य अधूरा |
घटती बढ़ती ज्योति,  योग पर पूरा पूरा |
गोरख कर बदलाव, खाव खिचड़ी जो छोड़ा |
रखना तू समभाव, नहीं कुछ थोड़म-थोड़ा ||

 
अस्सी में रस्सी कसी, हँसी हसारत होय |
छिपी नहीं खाँसी-ख़ुशी, रहे रोटियां पोय |
रहे रोटियां पोय, वाह जी राघव रसिया |
बुड्ढा होगा बाप, फसल खुब काटे हँसिया |
सेवक बक बकवास,  बधाये हाथों रस्सी |
अलबेला यह शौक, उमर चाहे हो अस्सी ||

जानलेवा लापरवाही के लिए जिम्मेदारी तय होनी चाहिए !!


पूरण खण्डेलवाल 


जहाँ रूपिया गिर रहा, और गिराए व्यक्ति |
वहाँ कहाँ से *राज की, हो सकती अभिव्यक्ति |
हो सकती अभिव्यक्ति, शक्ति कानून दिखाए |
बहे आम का रक्त, ख़ास तो मौज मनाये |
जहाँ *राज हैं फेल, करे क्या वहाँ खूफ़िया  |
सज्जन को हो जेल,  बचे खलु फेंक रूपया ||


"प्रकृति / मानव" पे अरुण निगम से रविकर की बहस-

openbooksonline.com पर



मानव  कहता  दम्भ में , मैं सबसे बलवान
किंतु प्रकृति के सामने  बिखरा है अभिमान
बिखरा  है  अभिमान ,  हुआ ऐसा बरसों से
निर्मित हुआ पहाड़ , बताओ  कब सरसों से
दम्भ और अभिमान , बना  देता  है  दानव
अदना-सा तू जीव , धरा पर  केवल  मानव ||

सिक्का मानव का चले, बनती प्रकृति गुलाम |
कारस्तानी के कहाँ, कभी चुकाए  दाम |   
कभी  चुकाए  दाम, क्लोन से सृष्टि चलाये |
अन्तरिक्ष आवास, वृष्टि भी कहीं कराये |
अजर अमर हो जाय, तुरुप का बनता इक्का |
रही प्रकृति घबराय, देखकर साहस सिक्का ||

5 comments:

  1. अरे, आप दोनों तो फिर आमने-सामने ..!

    ReplyDelete
  2. गज़ब की प्रस्तुति , बहुत खूब

    ReplyDelete
  3. लिंक लिक्खाड़ पर्पहली बार आई हूँ |उम्दा ब्लॉग |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |
    आशा

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए आभार!

    ReplyDelete