Asha Saxena
बीता कितना समय व्यर्थ, अर्थहीन कुछ कर्म |
आज हुआ अफ़सोस है, व्यथित हुआ है मर्म | व्यथित हुआ है मर्म, शर्म भी हमको आये | बने दुबारा दूध, दही जो पड़े जमाये | कितना सुन्दर तथ्य, दिया दर्शन ज्यों गीता | पुन: नहीं हो प्राप्त, समय बीता सो बीता || |
लालित्यम्
थोड़ा सत रज तम मिले, भिन्न भिन्न अनुपात | प्रस्तुति शुभ-गंभीर अति, महत्वपूर्ण दिन रात | महत्वपूर्ण दिन रात, एक बिन अन्य अधूरा | घटती बढ़ती ज्योति, योग पर पूरा पूरा | गोरख कर बदलाव, खाव खिचड़ी जो छोड़ा | रखना तू समभाव, नहीं कुछ थोड़म-थोड़ा || |
अस्सी में रस्सी कसी, हँसी हसारत होय |
छिपी नहीं खाँसी-ख़ुशी, रहे रोटियां पोय | रहे रोटियां पोय, वाह जी राघव रसिया | बुड्ढा होगा बाप, फसल खुब काटे हँसिया | सेवक बक बकवास, बधाये हाथों रस्सी | अलबेला यह शौक, उमर चाहे हो अस्सी || |
जानलेवा लापरवाही के लिए जिम्मेदारी तय होनी चाहिए !!
पूरण खण्डेलवाल
जहाँ रूपिया गिर रहा, और गिराए व्यक्ति | वहाँ कहाँ से *राज की, हो सकती अभिव्यक्ति | हो सकती अभिव्यक्ति, शक्ति कानून दिखाए | बहे आम का रक्त, ख़ास तो मौज मनाये | जहाँ *राज हैं फेल, करे क्या वहाँ खूफ़िया | सज्जन को हो जेल, बचे खलु फेंक रूपया || |
"प्रकृति / मानव" पे अरुण निगम से रविकर की बहस-
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सिक्का मानव का चले, बनती प्रकृति गुलाम | कारस्तानी के कहाँ, कभी चुकाए दाम | कभी चुकाए दाम, क्लोन से सृष्टि चलाये | अन्तरिक्ष आवास, वृष्टि भी कहीं कराये | अजर अमर हो जाय, तुरुप का बनता इक्का | रही प्रकृति घबराय, देखकर साहस सिक्का || |
अरे, आप दोनों तो फिर आमने-सामने ..!
ReplyDeleteगज़ब की प्रस्तुति , बहुत खूब
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति !!
ReplyDeleteलिंक लिक्खाड़ पर्पहली बार आई हूँ |उम्दा ब्लॉग |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |
ReplyDeleteआशा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार!