एक बच्चे की चाहत पारिवारिक रिश्ते को अंसतुलित करती है
bhuneshwari malot
(1)
खर्चा पूरा पड़े क्या, जब बच्चा अतिरिक्त |
व्यर्थ व्यस्तता भी बढे, पुन: रक्त से सिक्त |
व्यर्थ व्यस्तता भी बढे, पुन: रक्त से सिक्त |
पुन: रक्त से सिक्त, रिक्त बटुवा हो जाता |
बिना पार्लर हाट, विलासी मन घबराता |
माँ का बदला रूप, पार्टी होटल चर्चा |
लैप-टॉप सेल कार, निकल न पावे खर्चा ||
(2)
इक बच्चे से ही निकल, जाती अपनी फूंक ।
दो बच्चों का पालना, बड़ी भयंकर चूक ।
बड़ी भयंकर चूक, अवज्ञा मात-पिता की ।
बात कहूँ दो टूक, तैयारी करें चिता की ।
हाथ हमेशा तंग, गुप्त कुछ अपने खर्चे ।
कर न रविकर व्यंग, पाल ले इक इक बच्चे ।।
(3) होटलबाजी करूँ नित, शाम रहूँ मदहोश ।
कार्यालय में दिन सकल, शेष बचे न होश ।
शेष बचे न होश , कैरियर कौन सँवारे ।
रविकर किसका दोष, समय के दोनों मारे ।
जीते हम चुपचाप, पराई दखलंदाजी ।
बंद करें अब आप, करें अब होटल बाजी ।।
(4)
एकांतवास का युग अहम्, कलयुग इसका नाम ।
दो बच्चों का है वहम, बनते श्रेष्ठ तमाम ।
बनते श्रेष्ठ तमाम, तीन भाई हैं मेरे ।
आते हैं क्या काम, अलग सब लेकर डेरे ।
मात-पिता असहाय, उदाहरण बहुत पास का ।
बड़ी विरोधी राय, मजा एकांतवास का ।।
प्रभावित करती सुंदर अभिव्यक्ति ,,,,,
ReplyDeleteसामाजिक सन्दर्भों पर अच्छी प्रस्तुति . वीरुभाई ,४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन -४८ १८८ ,यू एस ए .
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बेहद सुन्दर प्रस्तुति SIR
ReplyDelete