"मेरे पिता जी-पितृदिवस पर विशेष" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरा पावन तीर्थ है, नगर खटीमा धाम |
देखा घर बनबसा भी, एक जून की शाम |
एक जून की शाम, दर्श चाचा-चाची के |
तीन दिनों हम साथ, रहे प्रांजल-प्राची के |
चार पीढियां साथ, बड़े आश्रम में डेरा |
मिला परम सौभाग्य, धन्य है जीवन मेरा ||
इन्तजार में जी रहे, अश्रु-पान के संग |
"पूनम" की यह चांदनी, राहू-केतु से तंग ||
अनु की यह अनुभूतियाँ, अन्तस की अनमोल |
रानी बिटिया मन्त्र है, पिताश्री के बोल |
पिताश्री के बोल, घोलते रस कानों में |
कन्या करे किलोल, पिता की मुस्कानों में |
जीवन का संघर्ष, बड़ा आसाँ हो जाए |
बढे वर्ष दर वर्ष, हाथ बाबा का पाए ||
देखा घर बनबसा भी, एक जून की शाम |
एक जून की शाम, दर्श चाचा-चाची के |
तीन दिनों हम साथ, रहे प्रांजल-प्राची के |
चार पीढियां साथ, बड़े आश्रम में डेरा |
मिला परम सौभाग्य, धन्य है जीवन मेरा ||
गज़ल
इन्तजार में जी रहे, अश्रु-पान के संग |
"पूनम" की यह चांदनी, राहू-केतु से तंग ||
बाबा की बिटिया
अनु की यह अनुभूतियाँ, अन्तस की अनमोल |
रानी बिटिया मन्त्र है, पिताश्री के बोल |
पिताश्री के बोल, घोलते रस कानों में |
कन्या करे किलोल, पिता की मुस्कानों में |
जीवन का संघर्ष, बड़ा आसाँ हो जाए |
बढे वर्ष दर वर्ष, हाथ बाबा का पाए ||
सरकती धूप
रचना दीक्षित
अंबिया बिटिया एक सी, प्रभु की रचना देख ।
संस्कार सेवा वही, सुन्दर यह आलेख ।
सुन्दर यह आलेख, तेल-बुकुवा की सेवा ।
नपी तुली सी धूप, रूप क्या निखरा देवा ?
बढ़ा रहे दोउ स्वाद, जिंदगी बीते बढ़िया ।
रविकर देता दाद, फले, फूलें ये अंबिया ।।
डगमग था विश्वास जब, किया तनिक जो गौर ।
'आशा' की देखी किरण, मिला गली में ठौर ।
मिला गली में ठौर, जहाँ पर पक्षी उड़ते ।
बढ़ा आत्मबल खूब, सफलता जाए जुड़ते ।
देता दीदी दाद, दिखाई रस्ता जगमग ।
छोड़ चले नैराश्य, कदम न होंगे डगमग ।।
फादर्स डे पर सज गए हैं बाजार मेरे पिता - अविनाश वाचस्पति
प्रतिमूर्त पिता की मैं खुद हूँ , दारु भी जब तब पी लेता |
घुड़की भी बच्चों को जबतब, हूँ बड़ी कड़ाई से देता |
ऑफिस से वापस आने में, आवारागर्दी देर करे -
तब खुद कानों पर हाथ लगा, मैं भला-बुरा भी कह लेता |
घोड़े की टिक टिक सुनी, नयनों में "उत्साह" |
बेफिक्री गायब हुई, चला पिता की राह |
"उल्लूक टाईम्स "
सबसे प्रचलित शब्द पर, लिख मारा बेबाक |
उल्लू जैसे हो गया, चालाकी का काक |
चालाकी का काक, प्रेम बाजारी बनकर |
एम्एम्एस में कैद, फैलता छलनी छनकर |
चिमटा रहा खरीद, बिचारा हामिद कबसे |
ये भी कोई प्रेम, पिछड़ता जाए सबसे ||
घुड़की भी बच्चों को जबतब, हूँ बड़ी कड़ाई से देता |
ऑफिस से वापस आने में, आवारागर्दी देर करे -
तब खुद कानों पर हाथ लगा, मैं भला-बुरा भी कह लेता |
पिता
राजेश उत्साही
घोड़े की टिक टिक सुनी, नयनों में "उत्साह" |
बेफिक्री गायब हुई, चला पिता की राह |
"प्रेम की परिभाषा"
Sushil"उल्लूक टाईम्स "
सबसे प्रचलित शब्द पर, लिख मारा बेबाक |
उल्लू जैसे हो गया, चालाकी का काक |
चालाकी का काक, प्रेम बाजारी बनकर |
एम्एम्एस में कैद, फैलता छलनी छनकर |
चिमटा रहा खरीद, बिचारा हामिद कबसे |
ये भी कोई प्रेम, पिछड़ता जाए सबसे ||
बहुत सुन्दर..
ReplyDeletewah!
ReplyDeleteबहुत शानदार लिखा है आपने!
ReplyDeleteपितृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
कमाल भाई :-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रविकर जी....
ReplyDeleteशुक्रिया
बहुत ही सुंदर !!
ReplyDelete