वैज्ञानिक वरदान यूँ , बन जाता अभिशाप ।
यांत्रिकता बढती चली, भेद पुण्य को पाप ।
भेद पुण्य को पाप, साफ़ गंगा खो जाती ।
कलुषित नर'दा रोर, नार'की भोग भुगाती ।
कामप्रेत के कर्म, करे नर से नर'दारा ।
चुड़ैल की अघ-देह, बुलाती खोल पिटारा ।।
अनजान बन जाऊं
कृपण हृदय ख्वाहिश करे, करना चाहे अर्पण ।
भाव हुए महरूम शब्द से, झूठ ना बोले दर्पण ।।
स्वाद नमक का स्वेद से, मीठा-पन है स्नेह ।
यही दर्द क्वथनांक है, जलती थाली देह ।
जलती थाली देह , बना करुनामय चटनी ।
औरत और सब्जी
अरुण चन्द्र रॉय at सरोकार--स्वाद नमक का स्वेद से, मीठा-पन है स्नेह ।
यही दर्द क्वथनांक है, जलती थाली देह ।
जलती थाली देह , बना करुनामय चटनी ।
धी-घृत से हररोज, चूरमा बेकल-मखनी ।
अरमानों की महक, ठगे-दिल का दे चूरन ।
पति पर गर कुछ खीस, पुत्र करता मन पावन ।।
गई किताबें हैं कहाँ, जाती झटका खाय ।
शादी उसकी क्या हुई, पुस्तक गईं लुटाय ।
पुस्तक गईं लुटाय, पुस्तकें सखी सहेली ।
बचपन से हुलसाय, साथ इनके ही खेली ।
शादी ख़ुशी मनाय, दर्द यह कैसे दाबे ।
वापस दो लौटाय, जहाँ भी गई किताबें ।।
वैज्ञानिक वरदान यूँ , बन जाता अभिशाप ।
ReplyDeleteयांत्रिकता बढती चली, भेद पुण्य को पाप ।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...
बढ़िया लिंक्स दिनेश जी...
ReplyDeleteबेहतरीन टिप्पणियाँ....
वाह मज़ा आ गया इस काव्यमय लिंक देने की अदा का ....
ReplyDeleteजोरदार ...
वाह ...बहुत बढिया।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार ||