Wednesday, 18 April 2012

कामप्रेत के कर्म, करे नर से नर'दारा


वैज्ञानिक वरदान यूँ , बन जाता अभिशाप ।
यांत्रिकता बढती चली, भेद पुण्य को पाप ।  

भेद पुण्य को पाप, साफ़ गंगा खो जाती ।
कलुषित नर'दा रोर, नार'की भोग भुगाती । 

कामप्रेत के कर्म, करे नर से नर'दारा ।
चुड़ैल की अघ-देह, बुलाती खोल पिटारा ।।

अनजान बन जाऊं


कृपण हृदय ख्वाहिश करे, करना चाहे अर्पण ।
भाव हुए महरूम शब्द से, झूठ ना बोले दर्पण ।।  

औरत और सब्जी

अरुण चन्द्र रॉय at सरोकार-- 

स्वाद नमक का स्वेद से, मीठा-पन है स्नेह ।
यही दर्द क्वथनांक है, जलती थाली देह ।  

जलती थाली देह , बना करुनामय चटनी ।
धी-घृत से हररोज, चूरमा बेकल-मखनी  ।

अरमानों की महक, ठगे-दिल का दे चूरन ।
पति पर गर कुछ खीस, पुत्र करता मन पावन ।।


गई किताबें हैं कहाँ, जाती झटका खाय ।
शादी उसकी क्या हुई, पुस्तक गईं लुटाय । 

पुस्तक गईं लुटाय, पुस्तकें  सखी सहेली ।
बचपन से हुलसाय, साथ इनके ही खेली ।

शादी ख़ुशी मनाय, दर्द यह कैसे दाबे ।
वापस  दो लौटाय, जहाँ भी गई किताबें ।।



6 comments:

  1. वैज्ञानिक वरदान यूँ , बन जाता अभिशाप ।
    यांत्रिकता बढती चली, भेद पुण्य को पाप ।

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

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  2. बढ़िया लिंक्स दिनेश जी...
    बेहतरीन टिप्पणियाँ....

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  3. वाह मज़ा आ गया इस काव्यमय लिंक देने की अदा का ....
    जोरदार ...

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  4. वाह ...बहुत बढिया।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति |
    आभार ||

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