Monday, 23 April 2012

कहाँ लिखूं मैं क्या कहूँ , बस कहती आभार -

खुद अपने आप से है बेखबर...हमलोग!

डा. अरुणा कपूर

जिम्मेदारी के तले, ऐसे गए दबाय ।
बेसुध की यह बेखुदी, कर ना पाई हाय ।

कर ना पाई हाय, गधे सा खटता रहता ।
उनको रहा सराह, उन्हीं की गाथा कहता ।

खुद को ले पहचान, होय खुद का आभारी ।
कर खुद की तारीफ़,  उठा ले जिम्मेदारी ।।

आभार: Thank you :)


 
कहाँ लिखूं मैं क्या कहूँ , बस कहती आभार ।
नहीं समझ पाई खता, क्यूँ बदला व्यवहार ।।   

आहा मेरा पेड़

Sushil Kumar Joshi at "उल्लूक टाईम्स "
भाई-चारा देख के, चारा भी निर्भीक ।
मीनारों के शहर से, जंगल दिखता नीक ।।


"दोहे-काहे का अभिमान" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 
 जीवन सूत्रों को रहे, गुरुवर मस्त पिरोय ।
करे आचरण आज से, बुद्धिमान जो होय ।।


यह बाग़ मेरे प्यार का !

  राजेन्द्र स्वर्णकार 

वागा होय विवेक की,  हो माँ का आशीष ।
गति गौरवमय सर्वदा, वैभव सह अवनीश ।।

रेशम निकिता हर्षिता, अलंकार  से साज ।
 दिव्यांशी सा दिव्य यह, राजा रानी राज ।।

7 comments:

  1. आज का अंक भी अच्छा लगा।

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  2. कमप्यूटर डर गया
    तारीख ठीक कर गया
    उल्लू को रविकर
    फिर ला गया
    सबको यहाँ दिखा गया
    रात का पक्षी
    किसी को नहीं
    भाता है
    फिर फिर रविकर
    ना जाने क्यों
    ला ला के दिखाता है।

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  3. भाई-चारा देख के, चारा भी निर्भीक ।
    मीनारों के शहर से, जंगल दिखता नीक ।।
    सटीक और प्रासंगिक .

    अब कंक्रीट जो शहर में उग आया ,कैक्टस भी शरमाया .बहुत बढ़िया प्रस्तुति है अनु -टिप्पणियाँ हैं सभी .

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  4. परम आदरणीय रविकर जी
    प्रणाम !

    आपके आशीर्वचन से मेरा परिवार धन्य हो गया …
    मेरी माताजी की ओर से आपको आशीर्वाद !
    …और बाकी परिवारजनों सहित मेरी ओर से सादर प्रणाम !

    …और, सबकी ओर से आपको बहुत बहुत धन्यवाद !
    साथ ही आपकी इस सुंदर पोस्ट के लिए भी बधाई !

    शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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