Tuesday, 24 April 2012

स्नेह-सिक्त बौछार से, अग्नि-शिखा बुझ जाय-

स्मृति शिखर से – 15 : वे लोग, भाग – 5



यायावर की यह कथा, मन के बड़े समीप ।
प्रेम लुटाते जा रहे, कर प्रज्वलित प्रदीप । 

कर प्रज्वलित प्रदीप, अश्व यह अश्वमेध सा ।
बाँध सके ना कोय, ठहरना है निषेध सा ।

सिखा गए संगीत,  गए सन्मार्ग दिखाकर ।
 सादर करूँ प्रणाम, सफ़र कर 'वे' यायावर ।।

तेरा आँचल आवारा बादल

babanpandey at मेरी बात

चाह जहाँ पर है सखे, राह वहीँ दिख जाय ।
स्नेह-सिक्त बौछार से, अग्नि-शिखा बुझ जाय ।। 

कीमत चुकता....

  मो सम कौन कुटिल खल ...... ?
एक रूपये ने किया, असरदार इक काम ।
ग्राहक पक्का हो गया, ठेले तुझे सलाम ।।

बात पते की कह गए, बालक सब्जी खोर ।
ठंडा पानी पी करो, राजा भैया गौर ।। 

पारस तो निर्लिप्त हो, करे काम चुपचाप ।
बढ़ें भाव जिस पिंड के, रास्ता लेवें नाप ।। 


एक चड्ढी कथा

  क्वचिदन्यतोSपि..

चड्ढी बिन खेला किया, आठ साल तक बाल ।
शीतल मंद समीर से, अंग-अंग खुशहाल ।

अंग-अंग खुशहाल, जांघिया फिर जो पा ली।
हुवे अधिक जब तंग, लंगोटी ढीली ढाली |  

चड्ढी का खटराग, बैठ ना पावे खुड्डी ।
घट जावें इ'स्पर्म, बिगाड़े सेहत चड्ढी ।।


बेरोजगारी

  सिंहावलोकन

बड़ा मार्मिक कष्ट-प्रद, सारा यह दृष्टांत ।
असहनीय जब परिस्थित, सहज लगे प्राणांत ।

सहज लगे प्राणांत, प्रशासन की अधमाई ।
या कोई षड्यंत्र, समझ मेरे ना आई ।

पर प्राणान्तक कष्ट, झेल तू प्रियजन खातिर ।
 बिन तेरे परिवार, मिटा दे दुनिया शातिर ।


"बदल जमाने के साथ चल"

Sushil Kumar Joshi at "उल्लूक टाईम्स "


सारे जैसा सोचते, तू वैसा ही सोच ।
बकरी को कुत्ता कहें, मत कुत्ता को कोंच ।

मत कुत्ता को कोंच, लोच जीवन में आया ।
लुच्चों ने ही आज, सदन में नाम कमाया । 

हरिश्चंद के पूत, घूमते मारे मारे ।
करो वही सब काम, करें जो चालू सारे ।।


"मजहब की दूकानों में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


भक्त स्वार्थी हो गए, भूल गए भगवान् ।
बुद्धि गिरवी रख करें, ढोंगी के गुणगान ।।

गोरो के रंगरूट ये, काला तन-मन चाल ।
लूट-पाट कर कुकर्मी,  चले ठोंकते ताल ।।  


सीधी रेखा और अपारदर्शी झिल्ली

अरुण चन्द्र रॉय at सरोकार
सुविधा-भोगी छद्मता, भोगे रेखा-पार।
वंचित भोगे *त्रिशुचता, अलग-थलग संसार ।। 
*दैहिक-दैविक भौतिक ताप ।


क्या कहता कबीरा इस पर...

डा. अरुणा कपूर. at मेरी माला,मेरे मोती...
गस्त कबीरा मारता, अक्खड़ ढूंढे खूब ।
कोठे पर पाया पड़ा, रहा सुरा में डूब ।

रहा सुरा में डूब, चरण-चुम्बन कर चहके ।
अपनों को अपशब्द, गालियाँ देकर बहके ।

यह अक्खड़पन व्यर्थ, स्वार्थी सोच बताता ।
फँसा झूठ में जाय, तोड़ के सच्चा नाता ।। 

6 comments:

  1. देर से समझ में आ रहा है
    उल्लू क्यों लाया जा रहा है
    लक्ष्मी जी का ब्लाग कहाँ
    बनवाया जा रहा है?

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  2. रविकर भाई, सम्मोहित करती टिप्पणियां।

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  3. पहली बार आई हूँ आपके ब्लॉग पर ... कुछ हटके है ... शानदार टिप्पणियाँ ...

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  4. चड्ढी का खटराग, बैठ ना पावे खुड्डी ।
    घट जावें इ'स्पर्म, बिगाड़े सेहत चड्ढी ।।

    मत कुत्ता को कोंच, लोच जीवन में आया ।
    लुच्चों ने ही आज, सदन में नाम कमाया ।
    .व्यंग्य बाण रविकर के लागे ,सारे चोर मौसेरे जागे .

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