"सबका मन बहलाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
चौबीस घंटे मस्ती कर के , नए रंग दुनिया में भरता ।
मन मैला कैसे हो पाए , प्रेम स्वयं प्रक्षालन करता ।
मस्ती के घंटो से निकले , संस्कार मानवता के स्वर ।
आज बड़ों की मस्ती गायब, इसीलिए जीवन भर *खरभर ।।
*शोर-गुल / चिल्ल-पों
सज्जन खुशियाँ बांटते, दुर्जन कष्ट बढ़ाय ।
दुर्जन मरके खुश करे, सज्जन जाय रूलाय ।फ़ुरसत में ... 100 : अतिथि सत्कार
सोफा पे पहुना पड़ा, बड़ा लवासी ढीठ ।
अतिथि-यज्ञ से दग्ध मन, पर बोलूं अति मीठ ।
पर बोलूं अति मीठ, पीठ न उसे दिखाऊं ।
रोटी शरबत माछ, बड़े पकवान खिलाऊं ।
रगड़ा चन्दन मुफ्त, चुने खुद से ही तोफा ।
गया हिला घर बजट, तोड़ के मेरा सोफा ।
आदिकाल की नग्नता, गई आज शरमाय ।
परिधानों में पापधी , नंगा-लुच्चा पाय ।।
गया हिला घर बजट, तोड़ के मेरा सोफा ।
नग्नता पर त्री-गुट ब्लॉगीय चिंतन के बाद.....
देवेन्द्र पाण्डेय at बेचैन आत्माआदिकाल की नग्नता, गई आज शरमाय ।
परिधानों में पापधी , नंगा-लुच्चा पाय ।।
इसमें त हमहू हैं।
ReplyDeleteसदा की तरह ला जवाब!
अच्छे लिंक से सजाया
ReplyDeleteअच्छा किया आज तूने
उल्लू की दुकान का
कूड़ा़ नहीं दिखाया ।
अच्छे लिंक, लाजवाब!
Deleteबहुत ही बढि़या प्रस्तुति।
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