पुस्तक आत्मौषधि सही, सुनो थीब्स का पक्ष ।
बिन पुस्तक का घर लगे, बिन खिड़की का कक्ष ।
बिन खिड़की का कक्ष, पुस्तकें चखते बेकन ।
निगल जाय कुछ मस्त, पचाते उत्तम लेकिन ।
पुस्तक पढ़ें मनोज, खरीदें खुद से भरसक ।
प्रेमचंद की बात, मान कर पढ़िए पुस्तक ।।
दर्द भी देता मजा -
हम आजमाते जा रहे |
राशन दुकाने ठप्प हैं -
हम गम हमेशा खा रहे |।
काला-बजारी जोर पर-
है कृपा उसकी पा रहे |
टैक्स देते ढेर सारे-
अब करप्सन ला रहे ||
बजे बधावा जोर से, 'वीणा' के दो साल ।
बड़े 'करीने' से रखी, सब सुरताल संभाल ।
सब सुरताल संभाल, सुनी गासिप 'चौबल' की ।
रोजमर्रा के दर्द
उन्नयन (UNNAYANA)दर्द भी देता मजा -
हम आजमाते जा रहे |
राशन दुकाने ठप्प हैं -
हम गम हमेशा खा रहे |।
काला-बजारी जोर पर-
है कृपा उसकी पा रहे |
टैक्स देते ढेर सारे-
अब करप्सन ला रहे ||
किसन अर्जुन
चला बिहारी ब्लॉगर बननेबजे बधावा जोर से, 'वीणा' के दो साल ।
बड़े 'करीने' से रखी, सब सुरताल संभाल ।
सब सुरताल संभाल, सुनी गासिप 'चौबल' की ।
कुछ एजेंट विनोद, खबर रखते पल-पल की ।
जो चैतान्यालोक, मनुज भारती पठावा ।
ब्लागे ढोल बजाय, जोर से बजे बधावा ।।
मुझको नींद नहीं आती है.............
नींद उड़ाने वाले सुन ले,
हो जाये बदनाम कहीं ना ।
हो जाये बदनाम कहीं ना ।
पिंड छुडाने वाले सुन ले,
होवे काम तमाम कहीं ना ।
होवे काम तमाम कहीं ना ।
तूने वीरानापन छोड़ा,
क्या भूल गई कसमे-वादे
क्या भूल गई कसमे-वादे
वापस आ जा संग सुला जा,
मिलता है आराम नहीं ना ।।
खिलें बगीचे में सदा, भान्ति भान्ति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ शास्त्री न्यारे ।
मिलता है आराम नहीं ना ।।
"1300वाँ पुष्प" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
खिलें बगीचे में सदा, भान्ति भान्ति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ शास्त्री न्यारे ।
दुनिया होती दंग, आय के उनके द्वारे ।
नित्य पौध नव रोप, हाथ से हरदिन सींचे ।
कठिन परिश्रम होय, तभी तो खिलें बगीचे ।।
मन की मनमानी खले, रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
यह मन भी ...
मन की मनमानी खले, रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
ना जाने क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, शीर्ष का चुन लो प्राणी ।
रखिये उसका मान, रुके मन की मनमानी ।
फूलों पर उल्लू फ़िदा, उगले ऊल-जुलूल ।
रविकर जैसे फूल को, जाता फिर से भूल ।
जाता फिर से भूल, बड़े झाड़ों में उलझा ।
उनका बना उसूल, यहीं पर जाएँ मुरझा ।
पर भाई उल्लूक, सितम अब उनके भूलो ।
अवसर यह मत चूक, खिलो खुब जम के फूलो ।।
"फूलों की बातें"
"उल्लूक टाईम्सफूलों पर उल्लू फ़िदा, उगले ऊल-जुलूल ।
रविकर जैसे फूल को, जाता फिर से भूल ।
जाता फिर से भूल, बड़े झाड़ों में उलझा ।
उनका बना उसूल, यहीं पर जाएँ मुरझा ।
पर भाई उल्लूक, सितम अब उनके भूलो ।
अवसर यह मत चूक, खिलो खुब जम के फूलो ।।
पुस्तक आत्मौषधि सही, सुनो थीब्स का पक्ष ।
ReplyDeleteबिन पुस्तक का घर लगे, बिन खिड़की का कक्ष ।
बढ़िया रूपांतरण काव्यान्तरण पूर्व पोस्ट का .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteलिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete़़़़़
Deleteउड़ा लीजिये जनाब उल्लू
जब भी मन करे आपका
वैसे बता दूं ये तो पंछी है
बस केवल रात का।
़़़़
आभार !
उंदा रचनाएँ हैं |भावपूर्ण पंक्ति"बिना पुस्तक का घर लगे
ReplyDeleteबिना खिडकी का कक्ष "
आशा