"खादी का अपमान किया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
बर्बादी का है जमा, हर साजो-सामान |
हर साजो-सामान, सभी ग्रामोदय भूले |
मची हुई है होड़, आसमाँ को हम छूलें |
गांधी दर्शन मूल, किन्तु पश्चिम के आदी |
संस्कार सब भूल, भूलते जाते खादी ||
बने भीड़ की यह सदा, परभावी आवाज |
भेड़-भेड़ियों दुष्ट से, रक्षित रहे समाज |
भेड़-भेड़ियों दुष्ट से, रक्षित रहे समाज |
रक्षित रहे समाज, भूमि पर आय भास्कर |
कर दे पावन सोच, दुष्टता -पाप जलाकर |
रविकर का विश्वास, हिफाजत करे नीड़ की |
सत्ता जाए चेत, सुने आवाज भीड़ की ||
वीणा के टूटे तारों में, झंकार जगाने निकला हूँ -सतीश सक्सेना
सतीश सक्सेना at मेरे गीत !
शब्दों का चयन अनोखा है, भावो की सरिता बह निकली |
जब प्रियतम मुझे पुकार रहा, घर में मंदिर की कह निकली |
कुछ प्यास बुझाने के साधन, कुछ थाल में रख कर फल लाइ
इक प्रेम डोर लेकर आई, प्रिय दारुण दुःख सह सह निकली ||
दवे जी ये " राष्ट्रीय शर्म " क्या बला है
Arunesh c dave at अष्टावक्रटुकड़े टुकड़े में शर्म बटी, लज्जा छुपछुप कर ताक रही ।
इन महा-घुटाले-बाजों की, रँगदारों की गुरु धाक रही ।
मेरी कथनी पर शर्म नहीं, अपनी करनी पर शर्म कहाँ-
काले-धन से नित बढ़ा करे, सुरसा जस इनकी नाक रही ।
जब मौत भूख से हो जाती, मर गए पडोसी-घर के सब
मुंह पर आँचल धर करके शव, तब अन्नपूर्णा ताक रही ।
नक्सल मरते या मार रहे, प्यार मरे व्यभिचार रहे-
शर्म कहाँ सबको आती, मानवता केवल कांख रही ।
गर्व-राष्ट्र का तब होगा, जब अफजल सा कोई आके-
उस नगरी का ही ध्वंश करे, जो पाक निगाहें झाँक रही ।।
मै ब्राहमण हूँ
कमल कुमार सिंह (नारद ) at नारद
सदियों से संकर पर होती, हर पीढ़ी यह खोजे-खाजे -
नित नया अनोखा करते हैं, बस खोजों में मशगूल रहे -
कुछ इधर मिला कुछ उधर मिला, ना शादी ना बाजे गाजे ।
जो धर्म जाति से ऊपर हो, कल्याण का ले ले ठेका जो-
वो ही तो ब्राह्मण होता है, पहचान गए राजा-राजे ।।
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteबहुत बढिया।
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