बेंगलुरु की सड़कों और पाक के टाक शो में मोदी
Virendra Kumar Sharma
मोटा भाई छा रहा, बल चाचा के पेट | होना नहीं शिकार है, बोरा चले समेट | बोरा चले समेट, विदेशी बैंक छोड़ के | होना नहिं आखेट, नोट खुद रखूं मोड़ के | जमा किया है माल, पड़ा यह बोरा छोटा | डालर में बदलाय, रखूंगा मोटा मोटा || |
सट्टेबाजी में लगा, खलनायक रंजीत-
cbi निदेशक का विवादास्पद बयान, सट्टेबाजी की तुलना रेप से की
सट्टेबाजी में लगा, खलनायक रंजीत |
कानूनी जामा पहन, मिटटी करे पलीत |
मिटटी करे पलीत, जबरदस्ती की आफत |
करिये फिर भी मौज, अगर दुष्कर्मी सोहबत |
है अकाट्य यह तर्क, आज तो चख दे फ़ट्टे |
मिटा दिया जब फर्क, लगाओ खुलकर सट्टे ||
|
मर्यादा का हो गया, सह-सत्ता के लोप |
लगे डॉक्टर हर्ष पर, फिर झूठा आरोप |
फिर झूठा आरोप, नहीं सह पाये दिल्ली |
लिए सहारा झूठ, उड़ाने निकली खिल्ली |
यद्यपि पिछली बार, उठा ना सके फायदा |
लिया थूक के चाट, भूलते फिर मर्यादा ||
'खीझ का रिश्ता'...(संस्मरण )
स्वप्न मञ्जूषा
बड़ा मार्मिक दृश्य यह, अंतर गया कचोट | चोट व्यवस्था पर लगे, धत दहेज़ का खोट | धत दहेज़ का खोट, बाप बेटी हित हारे | करे भिखारी भेंट, मुहल्ले अपने सारे | यह दहेज़ का दैत्य, होय दिन प्रति दिन तगड़ा | जाय लील सुख चैन, बड़ा फैलाये जबड़ा | तन्हाई की जीत
मदन मोहन सक्सेना
हाई-फाई सोच है, नहीं तनिक भी लोच | जहाँ जरुरत दिख गई, वहीँ लिया झट नोच | वहीँ लिया झट नोच, मोच आये तो आये | सरपट जाते भाग, अगर कोई बहकावे | रविकर पर फँस जाय, एक दिन वह मुस्काई | रह रह दिल बिल-खाय, लगे अच्छी तन्हाई || |
सोना सोना स्वप्न, हुई शामिल दिल्ली भी-बिल्ली को चुहिया मिली, कभी हुई थी दफ्न |शेखचिल्लियों की चली, सोना सोना स्वप्न |सोना सोना स्वप्न, हुई शामिल दिल्ली भी |राजनीति-विज्ञान, लपलपा जाती जीभी |देखे सारा विश्व, उड़ाये रविकर खिल्ली |भूली गीता मर्म, शेख-चिल्ली की बिल्ली || |
चुका रहा वो लोन, बाप का खर्च भेज के-
बिन दहेज़ के व्याहता, पत्नी बी टेक पास |
ली थी शैक्षिक लोन पर, नहीं जॉब की आस |
नहीं जॉब की आस, पटा ली मूरख बच्चा |
होवे सफल प्रयास, मिल गया प्रेमी सच्चा |
चुका रहा वो लोन, बाप का खर्च भेज के |
गौण हुई सुख-शान्ति, शादियां बिन दहेज़ के ||
|
कार्टून :- तुम मुझे टिकट दो, मैं तुम्हें ठेंगा दूंगा
टाले से ये न टालें, ठाढ़े टेढ़े ढीठ |
बड़े पुराने यार ये, दिखा सको ना पीठ |
दिखा सको ना पीठ, टिकट तो देना होगा |
बड़े पुराने चीट, ढूँढता रोज दरोगा |
रहे खिलाते रोज, कोयला टू-जी वाले |
हम भी देंगे भोज, किन्तु इक टिकट कटा ले ||
|
रविकर का है ही कुछ अंदाजे बयां और !
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुंदर.
ReplyDeleteमोटा भाई छा रहा, बल चाचा के पेट |
ReplyDeleteहोना नहीं शिकार है, बोरा चले समेट |
बोरा चले समेट, विदेशी बैंक छोड़ के |
होना नहिं आखेट, नोट खुद रखूं मोड़ के |
जमा किया है माल, पड़ा यह बोरा छोटा |
डालर में बदलाय, रखूंगा मोटा मोटा ||
भाई साहब इस दौर में मोदी एक बाज़ार है एक आस है .कुछ के लिए पसंद कुछ के लिए नफरत है बैठा होता मंच पे तो लगे हमारे बीच है हम सा है .एक फिनामिना बन चुका है मोदी ,जो नफरत करते हैं वह भी मोदी मोदी करते हैं .
सब एक से बढ़कर एक |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार को (14-11-2013) ऐसा होता तो ऐसा होता ( चर्चा - 1429 ) "मयंक का कोना" पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चाचा नेहरू के जन्मदिवस बालदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर आयोजन ..
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद यहां आ पाया हूं..
ReplyDeleteआज तो बहुत सारे लिंक्स यहां भी मिलें..
बढिया